वर्तमान समय की रेखांकित कवयित्री हेमा दीक्षित की कविताओं में स्त्री
जीवन से जुड़े यथार्थ को बहुत सहजता से व्यक्त किया गया है, पुरुष प्रधान
विचारों वाले समाज का अभिन्न अंग होते हुए भी स्त्री आज भी उपेक्षित है,
हेमा दीक्षित की कविताएँ जहां बहुत ही सरल शब्दों में स्त्री मन की पीड़ा
दर्शाती हैं वहीँ पुरुष प्रधान समाज पर एक करारा व्यंग भी करतीं हैं ,
प्रस्तुत है भीड़ से अलग अपनी कविताओं के माध्यम से हेमा दीक्षित का अनोखा, नया अंदाज़ ...
हेमा दीक्षित
अंग्रेजी साहित्य में स्नातक एवं विधि स्नातक. हिन्दी साहित्य एवं
अंग्रेजी साहित्य लेखन में रूचि. विधिनय प्रकाशन,
अंग्रेजी साहित्य लेखन में रूचि. विधिनय प्रकाशन,
कानपुर द्वारा प्रकाशित द्विमासिक विधि पत्रिका 'विधिनय'
की सहायक संपादिका. कानपुर से प्रकाशित ‘कनपुरियम’
एवं ‘अंजुरि’ पत्रिकाओं में कवितायें प्रकाशित. नव्या ई पत्रिका,
खरी न्यूज ई पत्रिका, पहली बार ब्लॉग,
आपका साथ-साथ फूलों का ब्लॉग, नई-पुरानी हलचल
1- दिउता ... चुप्पे मुँह अंधियारों से जगरातो तक ...
छुटपन से पायी सीख ,
संझा बाती में
बिजली के लट्टू को करो प्रणाम ,
बालसुलभ, उचक जिज्ञासा ने
पाया था जवाब,
"धूरी संझा के दिउता है
जेई रातन की आँखी है"
आँखी मीचे करा भरोसा
ज्यों-ज्यों बढ़े दिन और राती
त्यों-त्यों बढ़े दिउता और दिया-बाती
धीमे-धीमे खुली प्रपंच पाती
गुम होशों ने जगने पर पाया, कि
बिजली के लट्टू को चमकाने का
बिल भरना पड़ता है
दिउता माखन चोर है
दिउता रिश्वतखोर है
उनकी झलक पाने को
लाइन हाज़िर होना पड़ता है
असंख्य दशाननों के अनगिन हाथों
मिलती है अनचाही भिक्षा
कोमल गालो से आर-पार
भालों का टैक्स चुकाना पड़ता है
उपवासी जीभो का चरणामृत
उन्हें चढाना पड़ता है
बेचैन मनौतियों की फूटी थरिया में
दर्शन की प्यासी बेसुध सुधियों को
रीती आँखों की सहियों से
एक मूक रसीद कटानी पड़ती है...
-२-
दिउता की खातिर रखनी होती है
चुप्पे मुँह अंधियारों से जगरातों तक
घर-आँगन और अपनी साज सँवार,
माटी के मोल चुके सौदों में
जम कर बैठे 'बनियें' को
अपने मोल चुकाना पड़ता है,
नियमाचारों,पूजा-पाठों,निर्जल उपवासो के
ठौर-ठिकाने घर-घर कहना होता है
अर्द्ध-रंगों के झूठे वेशों
दिशाहीन स्वास्तिकों का
खेल रचाना पड़ता है
दिउता की क्षुधाओं के
अपूरित कलसे भरने को
एक मुट्ठी बरकत का
आटा,चीनी और गुम पइसा रखना पड़ता है
इन सब से बच कर
खूंटे की चिड़िया को
भण्डार कक्ष के एक जँगहे पीपे मे
अपने गाँठ-गठूरे लटकी
खारी बारिश रखनी पड़ती है
और दिउता ....
उनका तो ऐरावत है
उन्मुक्त विचरता है
सोमरस सिंचित
तैतीस कोटि आकाशों में ...
2- अपने से अजनबी ....फुलगेंदवा
(अस्पताल का यह संवाद रूपी दृश्य एक स्त्री जीवन की अनावधानता में उस पर
गुजरी कहानी उसी की जबानी कहता है ....)
नाम बताओ ?
"फुलगेंदवा "
फुलगेंदवा ?
किसने रक्खा यह नाम ?
"हम्मै पता नाय,
पर कौन रखिये , अम्मै रक्खिन हुईये"
शादी को कितने साल हो गये ?
"हुई गई दुई-चार बरसे"
रजिस्टर पर कैटवॉक करती कलम की चाल कुछ परेशान हुई ,"दुई कि चार ?
"तीन लिखि लेव"
उम्र बताओ ?
"हुईये बीस-बाईस बरस "
इस बार लिखती कलम ने आँखे उठाई
और वाक्य ने घुड़का- "ठीक से बताओ
बीस-इक्कीस या बाईस ...?"
फुलगेंदवा का जवाब रिरियाया ,"हम कैसे बतावें, अम्मा कबहूँ बताईनय नाई,
अउर हम्मैं उमर से कछु कामऔ नाय परौ"
खीझी हुई कलम ने
घसीट मार उम्र दर्ज की
बीच की इक्कीस बरस .
महीना कब आया था ?
उसने साथ वाली स्त्री का मुँह ताका,"काय जिज्जी तुम्हे कछु याद है "
साथ वाली जिज्जी मुँह दबा के हँसी ," हमें कईसे याद हुईये,
तुमाई तारीख तुमई बतावो"
कलम की घिसी
और खूब मंझी हुई
जबान से सवाल कूदता है,"होली से पहले कि बाद में ?"
एक-दो मिनट सोचा जाता है
और गहरे सूखे कुएँ की तली से
खँगाल कर निकाला
जवाब गिरता है," होली जली थी ताकै दुई रोज बाद "
तारीख दर्ज हो जाती है .
पति का नाम बताओ ?
अबकी फुलगेंदवा मुँह दबा कर हँसती है
अपना सर ढँक लेती है
कलम डपटती है,"जल्दी बताओ ..."
"अरे वोई मोरपंख वाले मुरलीबजैया..."
कलम अटकल लगाती है ,"कृष्ण ..."
"नाई ...
जाई को कछु बदिल देवो
और जाई मे चंद्रमऔ जोड़ दिऔ"
कैटवॉक के परास्त हाथों ने अपना पसीना पोंछा ,
कलम ने रजिस्टर पर अपना सर धुना
ठंडी साँसे छोड़ी
और अटकलपच्चू नाम उचारा ,"किसनचंद"
तेज घाम में झुरा गई
फुलगेंदवा खिल उठी
चटक-चमक ,
जामुनी रंगत में
जैसे सफ़ेद बेले फूल उठे ," हाँ बस जेई तो है हमारे वो"
कलम ने परचा तैयार करा
मार खाने की अभ्यस्त
घंटी को थपड़ियाया
और सधे हाथों ने परचा
डॉक्टर की मेज पर ले जा कर
एक अजनबी वजन के नीचे दबा दिया ...
3- . सुंनो ये उठती ध्वनियाँ
यह प्रारंभ के दिवस है
धूप फेंकी है सूरज ने
मेरी जड़ी खिड़की पर छपाक,
चौड़ी मुसी सफेदी
किनारी पतली लाल
अंध केशो पर टिकी
तुमको कैसे मालुम
अन्दर बेचैन अंधेरो में
रौशनी की भूख
जाग आई है
सुनो, देखो
उतार फेंको
कमल के फूलो का खूबसूरत
यह आबनूसी चोला
सुनो-
इस हलकी चमक से
उठती ध्वनियाँ
स्थगित मत कर निरखना
धूप की मुस्कान
साध तू व्याप्त आज्ञापकों का अराध्य
यह प्रारंभ के दिवस है
तुमको नहीं मालुम
यह मेरे - तुम्हारे
वशीकरण के दिन है !!
4- कोई तो बताए
क्या बाँध कर रक्खूं
क्या बाँध कर रक्खूं
अपनी चोटी के फीतों में
कमरों से झाड़ी धूल
तोड़े हुए
मकड़ी के घर या
कुचली हुई उनकी लाशें
रसोई में पकते
खाने की महक
या बेकार में पढ़ी
कानून की किताबो की धाराए
बताओगे नहीं कभी क्या
बाँध कर रक्खू क्या
अपनी चोटी के
फीतों में !!
~हेमा~
कमरों से झाड़ी धूल
तोड़े हुए
मकड़ी के घर या
कुचली हुई उनकी लाशें
रसोई में पकते
खाने की महक
या बेकार में पढ़ी
कानून की किताबो की धाराए
बताओगे नहीं कभी क्या
बाँध कर रक्खू क्या
अपनी चोटी के
फीतों में !!
~हेमा~
शोभा जी,आपका ब्लॉग अच्छा है। बधाई। हेमा की कविताएँ अच्छी हैं। हेमा की कविताएँ मुझे इसलिए अच्छी लगती हैं कि एक तो उनमें सहजता और सादगी भरपूर होती है, दूसरे स्त्री जीवन का दुख यथार्थ की तीव्रता और विडम्बना के साथ मौजूद होता है। हेमा ऐसे ही लिखती रहें। बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteहेमा , फुलगेंदवा कमाल की लिखी है ... कितनी मासूम , कितनी प्यारी कविता . सभी खूबसूरत हैं पर ये बहुत ही प्यारी लगी :)
ReplyDelete- मीता पंत
एक से बढ़ कर एक कवितायेँ है हेमा जी की ....पहली दो कविताओं में देव के प्रति होता मोह भंग कही मन को छू जाता है तो ....फूल गेंदवा का भोला पन आस पास ही कहीं देखा सुना सा लगता है ,यह भी बहुत अच्छी लगी ...कोई तो बताये कविता नारी मन के कशमकश को दिखाने में सफल रही है ....हेमा जी और शोभा जी आपको भी बधाई ..
ReplyDelete-Upasana Siag
अपनी चोटी के फीतों में बांधो अब नए संकल्प,
ReplyDeleteकानून की किताबों से निचोड़ कर कुछ बूँद स्वतंत्र सोच की पिलाओ उन नन्हे कुसुमों को जो अब खिलने को है
तुम्हारे आंगन, और आस पास...
सपने बाँटना और उनको हकीकत में
तब्दील करने की कला सिखाना
किसी कानून की धाराओं को रटने से कहीं बेहतर है...
-कविता सिंह
सुनो ये उठती ध्वनियाँ ... ये कथा सी कवितायें ... यह जीवंत भाषा ...किसकी है ...कोई तो बताये ..
ReplyDelete-वंदना ग्रोवर
sundar abhivyakti... badhai... Hema ji... inn rachnaon se ru-ba-ru karwane ke liye Fargudiya sur Shobha ji ka aabhar...:-)
ReplyDelete- Rituparna Mudra Rakshasa
हेमा को शुभकामनाएँ ..वह इसी तरह सृजनशील रहें...
ReplyDelete- अपर्णा मनोज
हेमा जी स्वागत आपका !
ReplyDelete- भरत तिवारी
हेमा जी को बहुत बहुत शुभकामनाएं ..
ReplyDelete-एस. चंद्रशेखर
इन सुन्दर और महत्त्व पूर्ण कविताओं के लिये हेमा जी को बधाई ......सादगी से प्रश्न पूछती ....हाथ पकडती इन कविताओं मे संवेदना बोलती है
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