स्त्रीविमर्श के क्षितिज से मुखर होती आवाज़ों में,
एक नाम युवा कवियत्री खुशबू सिंह का भी है. उनकी परिपक्व होती रचनाओं से आशा करी
जा सकती है कि एक शैली का निर्माण होगा. उनकी कल्पना की उड़ान को सही दिशा मिले और
वो औरों को भी अपनी रचनाओं से उस सही दिशा को दिखा सकें इसी उम्मीद के साथ , आपके
सामने रखी जा रही हैं उनकी पाँच कविताएँ.
१. मैं जब भी खेलती
मै जब भी खेलती
बहुत दिल से खेलती
तुम हो कि खेल खेल में दिल ही तोड़ गए ...
वो डोर
जिसके दोनों सिरों को थामा हमने
एक तुम्हारा, एक मेरा
कई खेल खेले उस एक डोर से
कभी हाथों में घुमाते हुए
कभी कल्पनाओं की पतंगे उड़ाते हुए
बहुत दिल से खेलती
तुम हो कि खेल खेल में दिल ही तोड़ गए ...
वो डोर
जिसके दोनों सिरों को थामा हमने
एक तुम्हारा, एक मेरा
कई खेल खेले उस एक डोर से
कभी हाथों में घुमाते हुए
कभी कल्पनाओं की पतंगे उड़ाते हुए
कितने संवाद दौड़े जाते थे उन पर
नट की चाल
कभी कभी चुप्पी के दौर में
बस उँगलियों के पोरों से दे दिया करती थी
एक झनझनाहट
जिसकी झंकार रेंगती हुई पहुँच जाती
दोनों तरफ
मुस्कान बिखेरती हुई
वो डोर... डोर नहीं
कड़ी थी दो शख्सो के बीच
मुझे बहुत प्रिय थी ...
दिन रात खेलती उस डोर से
डोर रेशम सी कोमल न थी
न ही मांजे सी धारदार
बस एक आम डोर
जो हर घर में मिल जाया करती है
अपनेपन की ...
कभी कभी तुम पूछते इन खेलों में
डोरी का रंग तो बताओ ?
मैंने तो डोर देखी बस
रंग उसके हर पल बदलते ही मिले
दिन रात जो खेले थे, खुले आसमान के नीचे
अब एक रंग भला रहता भी कैसे ?
तुम पूछते गए ...
मै बताती गई
जितने भी रंगों को पहचान सकती थी
सुनाती रही
तुम जितनी बार पूछते
हर बार रंग बदल जाता
और मै झूठी हो गई
शायद तुम्हारा चश्मा एक रंग दिखाता होगा
मैंने तो नन्ही नंगी आँखों से
इन्द्रधनुषी रंग देखे ...
मै खेलती रही बताती रही रंग
रही अपने खेल में ही मग्न
कभी कभी किया नजरंदाज
तुम्हारे बार बार के सवालों को ...
फिर तुमने धागा तोड़ दिया ...
जितने भी रंगों को पहचान सकती थी
सुनाती रही
तुम जितनी बार पूछते
हर बार रंग बदल जाता
और मै झूठी हो गई
शायद तुम्हारा चश्मा एक रंग दिखाता होगा
मैंने तो नन्ही नंगी आँखों से
इन्द्रधनुषी रंग देखे ...
मै खेलती रही बताती रही रंग
रही अपने खेल में ही मग्न
कभी कभी किया नजरंदाज
तुम्हारे बार बार के सवालों को ...
फिर तुमने धागा तोड़ दिया ...
बिलख उठी मै अपने बचपन की बच्ची सी ...
क्यों तोडा ???
तरस था या एहसास अपनी निष्ठुरता का
कि एक गाँठ बाँध दी तुमने
उस टूटी डोर में
रोते रोते ही ज़मीन पर पड़े
उस गांठदार धागे को उठाया
और थमा दिया उसका एक सिरा फिर से
तुम्हारे ही हाथों में
कहा हम फिर से खेलेंगे ...
हम फिर से खेले
मै डोर में उलझ गई
तुम रंगों पर अटक गए ...
एक बार, दो बार, तीन बार ...
बार बार
अपनी छटपटाहट उस डोर पर उतारी तुमने
मेरे बिलखने पर फिर जोड़ भी देते ...
जितनी बार खुलती
मै रोती.....फिर तुम्हे थमा देती
गाँठ बाँध दो... हम खेलेंगे
तुम पसीज जाते और गांठ बांध देते
ये हुनर तुम में ही था
कितनी ही गांठे बांधीं तुमने ...
तोड़ी भी तो तुम्ही ने थी
लेकिन अब डोर पहले जैसी न रही
सभी संवाद इन गांठो में ही अटक बिखर जाते है
टूटी डोर की गांठों ने
इसे और कमजोर कर दिया
अब
पोरों की एक हरकत भर से खुल जाती हैं
सारी कड़ियाँ
देखा था न !! डोर कितनी छोटी हो गई
इतनी कि हम आमने-सामने आ गए
अब मुझे रोता देख भी तुम्हे कुछ न होता
तुम्हे सिर्फ रंग जानना था
ये भी न सोचा मुझे " कलर ब्लाइंडनेस " भी हो सकता है
देखा था न !! डोर कितनी छोटी हो गई
इतनी कि हम आमने-सामने आ गए
अब मुझे रोता देख भी तुम्हे कुछ न होता
तुम्हे सिर्फ रंग जानना था
ये भी न सोचा मुझे " कलर ब्लाइंडनेस " भी हो सकता है
डोर टूट चुकी थी
तुम अपनी ललक में जल्लाद से निष्ठुर हो चले
खेल भी सब ख़तम हो गए ...
फिर एक रोज
उस टूटी डोर को तुम्हारी हथेलियों पर रख
कहना पड़ गया
इसे अपने रंग में रंगवा लो
या चूल्हे में चढ़ा दो
अलविदा !!
तुम अपनी ललक में जल्लाद से निष्ठुर हो चले
खेल भी सब ख़तम हो गए ...
फिर एक रोज
उस टूटी डोर को तुम्हारी हथेलियों पर रख
कहना पड़ गया
इसे अपने रंग में रंगवा लो
या चूल्हे में चढ़ा दो
अलविदा !!
२. आनर किलिंग
अपने गालों पर उभरी
उन पांच उँगलियों को देख
उसे याद आया ...
दी थी कभी उसने
अपनी ऊँगली
उन छोटे छोटे नर्म गुद्दरे हाथों में
जो सीख रहा था अपनों के अहसास को
बरबस मुस्कुरा देती
उस मुलायमी पकड़ से
खुद एक गोद से उतर
लड़खड़ाते क़दमों से
उसने गोद ली थी
उम्र भर की एक ज़िम्मेदारी...
वो बड़ी बहन हो गई थी
तीन रोज़ की रातों को मिटा
एक नाम रखा ...
बार बार उसी नाम को दोहरा
जाने क्या क्या बातें करती
वो भी तो मुस्कुराता था
भर जाती भीतर तक
उस मुस्कान से ...
निश्छल चमक वाली आँखों को
इक टुक निहार
खुद ही नज़र उतार लेती
बावरी कभी कभी माँ सी हो जाती
थी
वही आज "जड़" हो
सोच रही
क्या प्रेम वाकई इतना बड़ा
गुनाह है
प्रेम - एक भाव
जिसे जीने की चाह हो गया
अपराध
जिसने मिटा दी
स्नेह की सभी स्मृतियाँ !!
लगातार रिसते बेरंग लहू
से
चेहरा लहुलुहान हो रहा था
सनती रही रात भर उसी लहू में
कदमो में आखिरी साँसों के लिए
कुछ तड़प रहा था
और फिर
दम तोड़ गया |
वो उठी ...
मिटाने लगी सारे सबूत
पानी की छपकियाँ मार
कुछ ख़ास थोड़े ही हुआ था ...
बस...एक रिश्ते की मर्यादा की
मान के लिए कर दी गई थी
"ऑनर
किलिंग "
३. नाजायज़
ए बगीचे के फूल!!
तुम्हे महकना आता है ...
अच्छा है |
पर सुनो ...
इस बगीचे के कुछ उसूल है
महकना होगा तुम्हे...नियमों
पर यहाँ
बिखरना होगा ...
माली की ही पुकार पर
करना होगा इनकार तुम्हे
हर उस शय से
जो दर्ज नहीं किसी अनदेखे
कायदे में|
नहीं तो जान लो ...
मुहाल हो जायेगा
जीना तुम्हारा
और साबित कर दी जाएगी
तुम्हारी खुशबू ... नाजायज़
!!
४. क्या ये ही प्यार है
मुझे प्रेम है
तुमसे कहूँ तो तुमसे
खुद से कहूँ तो खुद से
मुझे प्रेम है अपनी हर ख़ुशी से
अपने खिलखिलाने से
अपने मुस्कुराने से
कह सकते हो इसलिए भी
मुझे प्रेम है
तुमसे कहूँ तो तुमसे
खुद से कहूँ तो खुद से
मुझे प्रेम है अपनी हर ख़ुशी से
अपने खिलखिलाने से
अपने मुस्कुराने से
कह सकते हो इसलिए भी
कि मुझे प्रेम है तुमसे ...
क्योंकि दी है तुमने
सैंकड़ो वजह मुस्कुराने की
होती है ख़ुशी तुमसे
तुम्हारे होने से
भा जाते है ताने तुम्हारे
और तुम्हारी पाबंदियां भी
खिलखिला जाती हूँ
तुम्हारे चिढ़ जाने से
और मुस्कुरा जाती हूँ
आँखों से लेकर होठों तक
तुम्हारे सामने होने भर से
तुम्हारा साथ
क्योंकि दी है तुमने
सैंकड़ो वजह मुस्कुराने की
होती है ख़ुशी तुमसे
तुम्हारे होने से
भा जाते है ताने तुम्हारे
और तुम्हारी पाबंदियां भी
खिलखिला जाती हूँ
तुम्हारे चिढ़ जाने से
और मुस्कुरा जाती हूँ
आँखों से लेकर होठों तक
तुम्हारे सामने होने भर से
तुम्हारा साथ
देता है ख़ुशी
इसीलिए प्रेम है तुमसे ...
बड़ी मतलबी सी हूँ न
शायद स्वार्थ है प्रेम नहीं
हाँ ! एक बेमतलबी सा सवाल
इस ख़ुशी में घूमता रहता है हरदम
अभी भी घूम रहा है
तुमसे पूछूँ
शायद तुम बता सको ...
ये ख़ुशी तुमसे ही क्यों होती है ??
इसीलिए प्रेम है तुमसे ...
बड़ी मतलबी सी हूँ न
शायद स्वार्थ है प्रेम नहीं
हाँ ! एक बेमतलबी सा सवाल
इस ख़ुशी में घूमता रहता है हरदम
अभी भी घूम रहा है
तुमसे पूछूँ
शायद तुम बता सको ...
ये ख़ुशी तुमसे ही क्यों होती है ??
५. ठोकर
भरे सवेरे
ठोकर लगी
गिरी नहीं - संभली ।
लड़खड़ाहट ने
कुछ पलों को रोका
दर्द था...
फिर आभास हुआ
ठोकर खाकर ही चलना सीखा जाता है
सोचा -
अब तक चलना ही नहीं सीखा क्या
कितनी और ठोकरें ...
ये याद है मुझे
पहले कई बार गिरी हूँ मै
कई बार ठोकर लगी है
जिसकी याद तब तक रही
जब तक के दर्द रहा ।
कभी ये तो सोचा ही नहीं
चलना सीखना होगा
कि रास्ते पर ध्यान देना होगा
होता ये रहा कि ध्यान दर्द पर ही रहा
और दर्द ख़त्म होते ही
फिर पुराने ढर्रे पर वापस
अभी दर्द है
शायद इसीलिए ये सवाल कर सकी खुद से
कि आखिर कब तक
और ठोकर खानी होगी
कब तक और दर्द सहना होगा
कब मै चलना सीखूंगी
मुझे “अब” ये मालुम हुआ है
ठोकर हमें गिराती नहीं
बल्कि हमें चलते रहना सिखाती है
और बढ़ा सकती हैं हमारा आत्मविश्वास
रुकाव, ठहराव जरुर होता है
इन ठोकरों में एक पल का
पर एक निरन्तरता भी होती है
- चलते रहने की
हर ठोकर सीख देने आती है ।
ठोकर लगी
गिरी नहीं - संभली ।
लड़खड़ाहट ने
कुछ पलों को रोका
दर्द था...
फिर आभास हुआ
ठोकर खाकर ही चलना सीखा जाता है
सोचा -
अब तक चलना ही नहीं सीखा क्या
कितनी और ठोकरें ...
ये याद है मुझे
पहले कई बार गिरी हूँ मै
कई बार ठोकर लगी है
जिसकी याद तब तक रही
जब तक के दर्द रहा ।
कभी ये तो सोचा ही नहीं
चलना सीखना होगा
कि रास्ते पर ध्यान देना होगा
होता ये रहा कि ध्यान दर्द पर ही रहा
और दर्द ख़त्म होते ही
फिर पुराने ढर्रे पर वापस
अभी दर्द है
शायद इसीलिए ये सवाल कर सकी खुद से
कि आखिर कब तक
और ठोकर खानी होगी
कब तक और दर्द सहना होगा
कब मै चलना सीखूंगी
मुझे “अब” ये मालुम हुआ है
ठोकर हमें गिराती नहीं
बल्कि हमें चलते रहना सिखाती है
और बढ़ा सकती हैं हमारा आत्मविश्वास
रुकाव, ठहराव जरुर होता है
इन ठोकरों में एक पल का
पर एक निरन्तरता भी होती है
- चलते रहने की
हर ठोकर सीख देने आती है ।
परिचय :- खुशबू सिंह
पिता - श्री सी० बी० सिंह
पिता - श्री सी० बी० सिंह
जन्म - १२- अगस्त
निवास स्थान - दिल्ली
स्थान - मूलतः बुलन्द्शहर, उत्तर प्रदेश
शिक्षा - समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर
परवरिश- हरियाणा के भिन्न भिन्न जिलों में; मुख्यतः सिरसा, फतेहाबाद, रोहतक एवं नारनौल
निवास स्थान - दिल्ली
स्थान - मूलतः बुलन्द्शहर, उत्तर प्रदेश
शिक्षा - समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर
परवरिश- हरियाणा के भिन्न भिन्न जिलों में; मुख्यतः सिरसा, फतेहाबाद, रोहतक एवं नारनौल
(ऊपर चित्र साभार गूगल से लिये गये हैं यदि कोई चित्र, कलाचित्र इत्यादि किसी सर्वाधिकार का उलंघन हो तो कृपया सूचित करें उसे हटा दिया जायेगा )
बेहद उम्दा रचनायें हैं खुशबू की
ReplyDeleteshukriya Vandna ji..
Deleteshukriya vandna ji
Deleteइन कविताओं में संबंधों की ऐन्द्रिकता और उसके मानवीय पक्ष को अद्धितीय संवेदनात्मकता के साथ जो अभिव्यक्ति मिली है, वह एक कवि के रूप में खुशबू जी की पहचान को सचमुच विशिष्ट बनाती है । इन कविताओं में विरल किस्म का जो गहन आवेग और रागमयी गर्माहट का अहसास है वह खुशबू जी के काव्यात्मक सरोकारों की रेंज को बड़ा तो बनाते ही हैं, बहुआयामी भी बनाते हैं ।
ReplyDeleteaapki partikriya se kaafi hosla mila hai.. Shukriyaa
Deletekya yahi pyar hay kavita muje pasand aai.badhai.aage bhi is tarah ki behtar kavitay padne ko milegi,yah ummeeed karta hu.
ReplyDeleteDhanywaad.. koshish jaari rahegi.
Deleteऔर मुस्कुरा जाती हूँ
ReplyDeleteआँखों से लेकर होठों तक
तुम्हारे सामने होने भर से
तुम्हारा साथ
देता है ख़ुशी
इसीलिए प्रेम है तुमसे ...
बड़ी मतलबी सी हूँ न
शायद स्वार्थ है प्रेम नहीं
हाँ ! एक बेमतलबी सा सवाल
इस ख़ुशी में घूमता रहता है हरदम
अभी भी घूम रहा है
तुमसे पूछूँ
शायद तुम बता सको ...
ये ख़ुशी तुमसे ही क्यों होती है ??
bahut khoobsurat..apni dunia me doobi ,apne se bat karti ..tajagi liye hai sabhi kavitaye...
ReplyDeleteshukriya Kavita ji
Delete