चले चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आई...!!
पढ़ा गया हमको
जैसे पढ़ा जाता है काग़ज
बच्चों की फटी कॉपियों का
‘चनाजोरगरम’ के लिफ़ाफ़े के बनने से पहले!
देखा गया हमको
जैसे कि कुफ्त हो उनींदे
देखी जाती है कलाई घड़ी
अलस्सुबह अलार्म बजने के बाद !
बच्चों की फटी कॉपियों का
‘चनाजोरगरम’ के लिफ़ाफ़े के बनने से पहले!
देखा गया हमको
जैसे कि कुफ्त हो उनींदे
देखी जाती है कलाई घड़ी
अलस्सुबह अलार्म बजने के बाद !
सुना गया हमको
यों ही उड़ते मन से
जैसे सुने जाते हैं फ़िल्मी गाने
यों ही उड़ते मन से
जैसे सुने जाते हैं फ़िल्मी गाने
सस्ते कैसेटों पर
ठसाठस्स ठुंसी हुई बस में !
ठसाठस्स ठुंसी हुई बस में !
भोगा गया हमको
बहुत दूर के रिश्तेदारों के दुख की तरह
एक दिन हमने कहा–
हम भी इंसान हैं
हमें क़ायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर
जैसे पढ़ा होगा बी.ए. के बाद
नौकरी का पहला विज्ञापन।
बहुत दूर के रिश्तेदारों के दुख की तरह
एक दिन हमने कहा–
हम भी इंसान हैं
हमें क़ायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर
जैसे पढ़ा होगा बी.ए. के बाद
नौकरी का पहला विज्ञापन।
- अनामिका
आज महिला
दिवस है,
इसके इतिहास में न जाते हुए भी हम जानते हैं कि एक औरत होने के नाते
इस समाज में हमें रोज़ किन किन चीज़ों से जूझना पड़ता है। यदि हम हमारे लिए बनाए गए
तौर-तरीकों से बाहर निकलना चाहते हैं, तो
वह कितना संभव हो पाता है और कैसे... आज के दिन को आधी आबादी
का दिवस कहूँ या कि आधी दुनिया के लिए प्रतीकात्मक उत्सव तय नहीं कर पाती। उत्सव
कहने को इसलिए भी संगत पाती हूँ क्योंकि इसमें पुरुषों की भी सहभागिता रही है।
मकसद पुरुषों से नहीं वरन गैरबराबरी की मानसिकता से लड़ना और जीतना है। आज के दिन
कौन सी बात की जानी चाहिए, नहीं जानती, क्योंकि ये बातें तो रोज़ की जानी चाहिए और तब तक की जानी चाहिए जब तक
व्यवहार के धरातल पर सभी इस बराबरी को जीने न लगें.. इन
बातों को क्या कहा जाना चाहिए, यह भी नहीं जानती। अनुभवों को
शब्दों के ज़रिए लिखित रूप से दर्ज करना क्यों ज़रूरी है शायद इसलिए कि ये ज्यादा
लोगों तक पहुँच सके.. हो सकता है इन शब्दों से बहुतों को
ऐतराज़ हो, हो सकता है कुछ लोग कहें कि ऐसा तो होता ही नहीं,
पर हमें अपने अनुभवों को साझा करते रहना है क्योंकि ऐसा करके ही हम
समस्याओं को उजागर कर पाएंगे और हमें समस्याओं को अनदेखा नहीं करना है और न ही
किसी भी तरह के ग्लोरिफिकेशन में जीना है। हमें उन ग्लोरिफिकेशंस की निर्मिति को
भी समझना है, बार-बार उसका हवाला देने
वालों की मानसिकता को भी समझना है.. मुझे नहीं पता कि मैं जो
कुछ भी कह रही हूँ या कि कहने जा रही हूँ, वह किसी पाठ की
शक्ल ले भी पाएगा कि नहीं। यह भी नहीं जानती इसे पढ़ने वाले इसे किस तरह से लेंगे,
क्योंकि ये कुछ अनुभव हैं, कुछ जिए हुए अनुभव,
कुछ देखे हुए अनुभव बस्स...ये अनुभव अपने प्रस्तुत किए जाने
की गढ़ावट में बेहद कच्चे हैं पर इन्हें कहना ज़रूरी है...
तुम लड़की
हो न,
तुम्हारा तो हो ही जाएगा.., तुम लड़की हो न, तुम्हारे
लिखे को तो ले ही लिया जाएगा..., तुम लड़की हो न, तुम्हारी तो तारीफ़ की ही जाएगी...
ये जो 'तुम लड़की हो' से जोड़कर कुछ बातें ऊपर कही गई हैं,
ये और इस क्रम में और भी कई बातें लड़कियों की छोटी बड़ी उपलब्धियों
को डीमीन करने के लिए बार-बार कही जाती हैं। मुझे नहीं पता
कि ऐसा कहने वाले ऐसा कहकर हमारे बढ़ते कदम रोकना चाहते हैं या कुछ और... इसे कहने
वालों के लिए इसमे कुछ भी गलत नहीं है। वे कभी भी तनिक ठहर कर नहीं सोचते कि जो
उन्होंने बड़ी सहजता से कह दिया है उसका असर उतना हल्का नहीं होता... यह उनकी मानसिकता को दर्शाता है, पर यह मानसिकता
बनती कैसे है..
इन दिनों
देश में एक अलग हवा चल रही है.. एक खास किस्म का डिस्कोर्स हर
डिस्कोर्स को दबाने की कोशिश कर रहा है... मैं जब औरतों की
बात करना चाहती हूँ तो मैं एक नागरिक की बात करना चाहती हूँ और जब नागरिक की बात
करेंगे तो देश की बात भी करेंगे, समाज की भी बात करेंगे,
उसके निर्माण की प्रक्रिया पर भी बात करेंगे... हम हर उस
प्रक्रिया की बात करेंगे, उस पर सवाल
उठाएंगे जिसके ज़रिए एक पूरे इंसान को उसके लिंग/ जाति/
धर्म जैसी उसकी परिवेशगत पहचान में रिड्यूस कर दिया जाता है...हम उस सामाजिक कंडिशनिंग की बात भी हर बार करेंगे जिसके सहारे बड़ी कुशलता
से सामान्य मानवीय व्यवहार/ संवेदनाओं को भी स्त्रियोचित/ पुरुषोचित के खेमे में बाँट
दिया जाता है। समाज के भीतर सीमित कर दी गई सुंदरता की परिभाषा भी इस गैर-बराबरी
को गाढ़ा करने में, स्त्रियों की भूमिका को एक फ्रेम में समेट देने में योग देती
है।
बहुत सारी
समस्याएँ हैं जो गडमड हो रही हैं पर मुझे कहना है। कुछ अजीब सा दोहरापन है इस समाज
में। इस समाज ने कुछ 'मोरैलिटी' तय कर रखी है औरतों के लिए और उसकी चिंता पुरुष
खूब करते हैं अपने घर की औरतों के लिए पर इस घेरे से बाहर की लड़कियों को वे एक 'देह' में एक 'ऑब्जेक्ट'
में रिड्यूस कर देते हैं। यहाँ ऐसा कहते हुए मैं इस बात को स्पष्ट
कर देना चाहती हूँ, जब ये पुरुष उस मोरैलिटी के दबाव में अपने घर की स्त्रियों के
'सम्मान' की चिंता करते दीखते हैं तो ऐसा नहीं है कि वे उन्हें पूरे इंसान का
दर्ज़ा देने को तैयार होते हैं। मैं यों तो इस पूरी मानसिकता को, इस पूरी दिमागी व्यवस्था को खारिज करती हूँ पर सोचती हूँ कि उन्हें यह
अधिकार दिया किसने, उनकी इस मानसिकता को बनाया किसने,
क्या पेरेंटिंग और समाजीकरण की इसमे भूमिका नहीं है..? लड़कियों को जहां इस समाज और इसके भीतर के परिवार ने सहज और सच्चे व्यवहार
व भावनाओं को भी गलत बता नियंत्रित करने की कोशिश की, वहीं
लड़कों को क्यों नहीं सिखाया गया कि उनका हर वह व्यवहार गलत है, जिसके ज़रिए वो किसी को कंट्रोल करना चाहते हैं, वो 'किसी' कुछ भी हो सकता है, व्यक्ति,
व्यक्ति की भावनाएं, स्थितियां कुछ भी...
आज खबरों में लड़कियाँ सुर्ख़ियों में हैं क्योंकि वे विरोध कर रही
हैं, पर ये बोलती लड़कियां इस समाज को हमेशा चुभती रही हैं,
क्योंकि यह उनकी सीमित भूमिका, जिसे इस समाज
ने तय किया था, से अलग व्यवहार है। यह उस 'स्त्रैणता (femininity)' अलग व्यवहार है, जिसका निर्धारण उसी मानसिकता ने किया है जो स्त्रियों
को बड़ी चालाकी से सेकंड क्लास सिटिजन बना देती है।
आज़ादी इन
दिनों देश का एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है, मैं इस नारे की
पृष्ठभूमि में न जाते हुए अपने परिचय और परिचय से बाहर के उन लोगों से जो लिबरल
होने का दावा करते हैं, जिनमे से कइयों ने मेरी आइडेंटिटी पर,
मेरी नैशनलिटी पर कई दफे सवाल उठाए हैं, बस यह कहना चाहती हूँ कि लिबरल कह भर देने
से कोइ लिबरल नहीं हो जाता। हमें हर रोज़ उन सब विषमताओं से लड़ना पड़ता है जिसे
कंडिशनिंग के ज़रिए एक लम्बे समय से हमारे भीतर कुछ यों भरा गया है कि वे हमारे
व्यक्तित्व का हिस्सा बन गए हैं।
इन दिनों
देशप्रेम का भी उबाल चल रहा है। प्रेम यकीननन एक खूबसूरत भावना है। देश से प्रेम
अच्छी चीज़ है पर राष्ट्र्वाद पर चल रही बहसों के इस दौर ताज्जुब के साथ दुःख इस बात का है कि इस तरह की
हवा देने वाले और इससे होने वाली नकारात्मकताओं का समर्थन करने वाली मानसिकता वाले
एक स्त्री को उसी पैटर्न में देखते हैं, जिसे किताब के
पन्नों में तो महिमामंडित किया जाता है पर जीवन में उसे एक अदद इंसान भी नहीं माना
जाता... जब आप किसी की भावनाओं के साथ खेलते हैं, खेलना शायद अच्छा शब्द नहीं है यहाँ, बड़ी आसानी से
उसे अपनी सहूलियत के हिसाब से ट्रीट करते हैं, जब आप समाज के
एक तबके को अपने बराबर की जगह पाने से वंचित करते हैं, तो आप
किस प्रेम की बात करते हैं, जब आपके लिए शब्द महज़ एक औज़ार
होते हैं, जब आप किसी के भरोसे को उसकी बेवकूफी बताते हैं,
जब आप जीने के लिए ज़रूरी सामान्य मानवीय संवेदनाओं की कद्र नहीं कर
पाते तो आप किस प्रेम और बराबरी की बात करते हैं..
जिस समय को
हम आज जी रहे हैं,
वह कल इतिहास में कैद होगा। इस तरह हम एक इतिहास को बनते देख रहे
हैं। जब एक लड़की को रेप की धमकी दी जाती है या कि जब एक स्त्री के साथ गलत व्यवहार
किया जाता है और उसके विरोध के प्रतिउत्तर में एक दूसरी स्थिति ला दी जाती है,
क्या अच्छा न हो कि गलत को गलत कहा जाए..इतना
मुश्किल क्यों हो जाता है साथ मिलकर गलत को गलत कह पाना, वहाँ 'किंतु', 'परंतु' की
जगह कैसे बना ली जाती है। आने वाली पीढ़ी यह सीखे कि हर इंसान अपनी परिवेशगत पहचान
से ऊपर और पहले एक पूरा इंसान है.. क्योंकि हमारी पीढी ने तो
यह नहीं सीखा है, वह सिर्फ स्त्री को देवी बनाने का श्लोकोच्चार करती है, व्यवहार के स्तर पर इसे सीखा जाना बाकी है .. आज हो
रही हर तरह की हिंसा वाचिक/ शारीरिक/ मानसिक
इस बात को पुष्ट करती है...
हमारे
माननीय नेतागणों के बयान हमारे विज्ञापन/ सिनेमा इस बात को
लगातार पुष्ट करते हैं कि उनकी नज़र में लड़कियों की ज़िन्दगी का अंतिम लक्ष्य क्या
हो, उसका पालन नहीं करती लड़कियां रौंद दी जाएँगी, और घटनाएं भुला दी जाएँगी। सुरक्षा का हवाला दे कर यह मानसिकता बार बार
स्त्रियों को अपने पंख फैलाने से रोकती है, इस मानसिकता द्वारा रची गई भूमिका से
बाहर अपने लिए नई जगह गढ़ने से रोकती है। 'अच्छी लड़की' का झुनझुना थमा, 'देवी-पूजन'
की परंपरा का हवाला देकर उसे एक अदद इंसान बनने से रोकने का काम यह मानसिकता लंबे
समय से करती आ रही है। ज़रूरी है कि हम उन मानसिकता को समझें, उस मानसिकता को
खाद-पानी देने वाली कंडिशनिंग को समझें जिसकी आड़ में लगातार गैर-बराबरी को पोसा
जाता है।
इसलिए आवाज़
उठाते रहिए, सवाल करते रहिए बराबरी की माँग करते रहिए अपने अपने स्तरों पर क्योंकि
बिना माँगे कुछ नहीं मिलता। बराबरी की हमारी यह लड़ाई काफी पुरानी है और हम इसमें
बहुत आगे आए हैं। हालाँकि अभी हमें लम्बा सफर तय करना है, आर्थिक निर्भरता कम हो
रही है, भावनात्मक निर्भरता जिसके सहारे हमें कमज़ोर किया जाता है, उससे भी हमें
स्वतंत्र होना होगा। हमें गैर-बराबरी को सेलिब्रेट करने वाली मान्यताओं पर भी सवाल
करना होगा। हमारे साथ-साथ बराबरी की इच्छा रखने वाले सभी लोगों को, अपने देश को सुन्दर बनाने की कामना रखने वाले सभी लोगों को एकजुट होना
होगा ताकि सभी के लिए समानता व सम्मान के साथ जीने के स्वप्न को सच बनाया जा सके।
आखिर में, आलोकधन्वा की एक कविता
पितृसत्तात्मक मानसिकता वाले लोगों के लिए:
तुम्हारे
उस टैंक जैसे बन्द और मजबूत
घर
से बाहर
लड़कियाँ
काफी बदल चुकी हैं
मैं
तुम्हें यह इज़ाज़त नहीं दूँगा
कि
तुम उसकी संभावना की भी तस्करी करो...!!
--- स्वाती
शोधार्थी , कवयित्री
दिल्ली विश्विद्यालय - हिंदी विभाग
दिल्ली विश्विद्यालय - हिंदी विभाग
Bahut hi rochak ....thanks mam
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