साहित्यिक पत्रिका एक और अंतरीप के संपादक और समर्थ रचनाकार मित्र अजय अनुरागी ने वन्दना ग्रोवर की काव्यकृति मेरे पास पंख नहीं हैं की समीक्षा हमें लिखकर भेजी है, उनके प्रति हार्दिक आभार और कवयित्री को शत शत बधाई सहित समीक्षा यहां प्रस्तुत है-
पीड़ा के अनंत आकाश में उड़ान भरती स्त्री का हौसला: 'मेरे पास पंख नहीं हैं
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''मेरे पास पंख नहीं है की कविताएँ स्त्री की कोमल भावनाओं एवं इच्छाओं से सजा ऐसा गुलदस्ता है जिसमें स्त्री की बेचैनी, पीड़ा और छटपटहाट साफ-साफ सुनाई एवं दिखायी देती है। असल में स्त्री होना ही अपने आप में चुनौती है। और अपने आपको स्त्री बनाए रखना और भी बड़ी चुनौती है। फिर वंदना ग्रोवर जैसी कवयित्री इस चुनौती का सामना करते हुए अपने स्त्री होने के अर्थ का कविता के द्वारा स्थापित करती हैं। पंखहीन होने के बावजूद खुले आकाश में उडऩे की आकांक्षा को ये कविताएँ हौसला देती हैं।
समाज एवं परिवार के स्तर पर अपने वजूद के लिए निरन्तर कहती हुई स्त्री निर्णायक लड़ाई के लिए तत्पर दिखायी देने लगी है भले ही यह लड़ाई उसके लिए जानलेवा ही क्यों न सिद्ध हो जाए? इस तरह एक औरत अपनी मासूमियत को देखकर, सजना-सँवरना भूलकर इंसान बनती चली जा रही है। यद्यपि इंसान होना और भी अच्छा है किन्तु अपनी मौलिकता एवं सामाजिकता को छोड़कर स्वीकार्य नहीं हो सकता है। स्त्री के लिए जीवन में कई तरह की परिस्थितियाँ बदलती रहती हंै। उसके लिए समय हमेशा बराबर नहीं रहता है। एक खूबसूरत स्त्री समय के कुठाराघातों एवं परिस्थितियों के झंझावतों को झेलते हुए क्या से क्या हो जाती है-
''वक्त का कहर.../चेहरा बदल गया/दाग नमूदार होने लगे/जिस्म ढलने लगा/मासूमियत खो गयी/या खुद भी खो सी गयी/क्या हुआ इसे...। इस कविता में पल-पल मरते हुए और पल-पल जीते हुए स्त्री अपने अस्तित्व के लिए सजग होकर प्रयत्नशील दिखायी पड़ती है इस प्रक्रिया में उसे भरसक विरोध सहन करना पड़ता है। विरोध भी दिल दहलाने वाले धमाकों की तरह। बार-बार उसे यह भी अहसास करता जाता है कि जैसे वह गुनहगार है। अपने अस्तित्व के लिए चैतन्य होना उसके लिए सबसे बड़ा गुनाह बन गया है।
-''मर रही थी/जैसे जी रही थी/गिर रही थी/जैसे उठ रही थी।
कवयित्री की सबसे खास बात यह है कि उसकी कविता में स्त्री अपने लिए स्वयं रास्ता बनाती है तो रास्ता बन भी जाता है। हाथ पर हाथ रखकर भाग्य को या समाज को कोसने से कुछ नहीं होता। जीने के लिए जीवन जीने की कला भी आनी चाहिए।
देखा जाए तो स्त्री में कितने ही गुण हों, कितनी ही विशेषताएँ हों चाहे वह सोशल हो,वर्कर हो, पापूलर हो, सेंसिटिव हो, हँसमुख हो किन्तु अन्तत: उसे उपेक्षा का शिकार होना ही है। पुरुषवादी समाज उसे किसी भी सपने में स्वीकार करने से कतराता है। अपनी स्वेच्छा से जो भी करती है उसी में मीनमेख निकाली जाती है। जब वह प्रेम की कविता लिखती है तो उसे 'सहमाÓ दिया जाता है फिर वह स्त्री पर कविता लिखने लग जाती है तो उसे अपने खोल से बाहर निकलने की सलाह दी जाती है। तब वह कुछ पर कविता लिखने लग जाती है/तब भी उसे नफरत से दूर रहने को कहा जाता है और कहा जाता है प्यार की कविता लिखने को। कुल मिलाकर स्त्री की स्वेच्छा का दमन हर स्तर पर किया जाता है। वंदना ग्रोवर के भीतर एक अन्मुक्त स्त्री चाहती है-
''बालकनी में पैर लटकाकर बैठ जाना/रात को बेलागाम बाहर निकल जाना/एक आँख बंदकर हँस देना/पिच्च से थूक देना/दो-दो सीढ़ी फलांग कर चढऩा/धौल-धप्पा कर लेना/इससे उससे हाथ मिलाना/हसरतें तो बड़ी नहीं थीं/वो औरत होना आडे आ गया।
इन्सान की स्वतंत्रता में स्त्री होना जब-जब आड़े आ जाता है। तब-तब मन की इच्छाओं का दमन स्त्री को कचोटता है। अपने जीवन में जब वह छोटी-छोटी इच्छाओं को पूरा नहीं कर पाती है तो उसकी बड़ी इच्छाओं की पूर्ति शायद कभी संभव नहीं है। यह एक तरह से पारिवारिक दासता या सामाजिक पराधीनता ही तो है। जिसे वह निरन्तर भोगने को विवश है। यह सब उसे अनजाने और अनचाहे करना पड़ता है। संसार में बहुत कुछ करने वाली स्त्री के पंख काटने के तरीके भी बहुत सभ्य एवं सुसंस्कृत बने हुए हैं। वह दुनिया बदल डालने की गलतफहमी भी इसलिए नहीं पालती है कि उसे पता है वह एक औरत है और औरत के द्वारा की गयी प्रत्येक कोशिश को समाज हाशिये पर डाल देगा। उसके कुछ करने से पहले ही-''शुक्र है/इसके पहले ही/मैं अनचाहे पत्नी/और अनजाने ही/माँ बना दी गयी।
यह बात सही है कि बहुत सी चीजों को तर्क की कसौटी पर नहीं कसा जा सकता है। आधी दुनिया की पीड़ा खौलते हुए शब्दों के द्वारा बाहर निकल आती है-''कभी मैं कह नहीं पायी/कभी मुझे कहने नहीं दिया/क्या कहती/यही न कि/थोड़ा जीने दो/जब भी बाहर झाँकना चाहा/आँखों पर हाथ रख दिया/क्या देखती मैं/जो देखा था...उसके बाद/पाँव बाहर रखना चाहा/दरवाजे पर साँकल थी/कहाँ जाती मैं/खुद को रौंदती वापिस आयी/...देखती हूँ फटी आँखों से/दुनिया जो आधी भी मेरी नहीं थी।ÓÓ
यह एक बहुत ही भावुक प्रश्न है जिसका जवाब स्त्री को शायद कभी नहीं मिल पाता हैं। वह पूछना चाहती है-''कितनी बेशकीमती साँसों के कातिल हो तुम/अब मसीहा तो न बनो/मनमानी भी तुम करो/और छोटा भी साबित करो/ये कैसी नीति है? इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण चीज जिसे वह पाना चाहती है-''तुम मेरी आँखों का काजल लौटा दो।
क्या पुरुष का दंभ ऐसा कर सकता है? क्या वह स्त्री के आँसू पोंछकर काजल को लौटा देने की कोई पहल कर सकता है? क्या वह स्त्री को उसके अधिकार सौंपने की हिमायत कर सकता है? क्या वह स्त्री को स्त्री रूप में अपनाकर स्वतंत्रता और समानता की पैरवी कर सकता है? बहुत ऐसे भावुक प्रश्न है कवयित्री ने परोक्ष रूप से उठाये हैं जिनका उत्तर देना तो दूर उन पर सोचना भी पुरुष को गवारा नहीं है आखिरकार स्त्री के समझौता परस्त होकर जीने को मजबूर होना पड़ता है-''चलाओ मंजर या तलवार/कुछ नहीं कहूँगी/धकियाओ या करो प्यार/कुछ नहीं कहूँगी/बुलाओ पास और करो तिरस्कार/कुछ नहीं कहूँगी/....एक तालीमयाफ्ता औरत हूँ मैं। विडम्बना यह है कि शिक्षित स्त्री होने पर उसे और अधिक समझौते करने पड़ते हैं।
संग्रह की कविताएँ स्त्री के पक्ष में एक सार्थक हस्तपेक्ष करती हुई उसे जीने और लडऩे की मजबूती प्रदान करती हैं। इन कविताओं में पीड़ा के अनंत आकाश में उड़ान भरती पंखहीन स्त्री का हौसला तमाम अन्य स्त्रियों को अपने अस्तित्व का बोध कराता प्रतीत होता है?
''मेरे पास पांख पंख नहीं हैं ,संग्रह को पढ़कर स्त्री के मानवीय एवं भावनात्मक पहलुओं को समझा जा सकता है। अच्छी कविताओं के लिए वन्दना ग्रोवर को बधाई एवं शुभकामनाएँ
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-अजय अनुरागी
संपादक 'एक और अंतरीप, 1, न्यूकॉलोनी, झोटवाड़ा, पंखा जयपुर-302012
संपर्क : 9468791896
शायद यह कविता भी ऐसा ही कुछ कहती है !
ReplyDeletehttp://teremeregeet.blogspot.in/2013/07/blog-post.html
बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएँ वंदना जी ...
ReplyDeleteआह्लादित हूँ फर्गुदिया पर 'मेरे पास पंख नहीं है ' के साथ स्वयं को पाकर
ReplyDeleteआभारी हूँ इस स्नेह के लिए ..शोभा .. अजय अनुरागी जी और माया जी के प्रति हार्दिक आभार ..
बढिया, बहुत सुंदर
ReplyDeleteस्त्री की पीड़ा ,उसके अंतर की छटपटाहट,आंतरिक, उदासी,एक खालीपन,, अजय अनुरागी की इस समीक्षा से इस पुस्तक का सारा निचोड़ बिना पढ़े ही सामने आग्या .. वंदना जी को हार्दिक बधाई.. अजय अनुरागी जी को भी बधाइयाँ
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