Wednesday, July 03, 2013

उत्तराखंड आपदा के लिए ज़िम्मेदार कौन ?- विजय पुष्पम पाठक


उत्तराखंड आपदा के लिए ज़िम्मेदार कौन ?-विजय पुष्पम पाठक


"उत्तराखंड , देवभूमि में आई भीषण आपदा में कितने ही परिवार उजड़ गएँ हैं .. अपनों से बिछड़े हुए लोगों का दुःख असहनीय है .. प्रकृति के प्रकोप को तो कोई नहीं रोक सकता लेकिन ऐसी आपदाओं के प्रति प्रशासन  और आपदा प्रबंधन वाले पहले से कितना सचेत रहतें हैं ? विजय पुष्पम पाठक जी ने अपने  आलेख के माध्यम से ऐसे ही कुछ प्रश्न उठायें हैं .." 




    देव भूमि कहा जाने वाला उत्तराखंड दहल गया है .तबाही का मंजर रोंगटे खड़े कर देने वाला है .प्रकृति का ऐसा रौद्र रूप इसके पहले कभी देखने में नहीं आया था .रुद्रप्रयाग जिले में लगभग ३६०० मीटर की ऊंचाई पर स्थित केदारनाथ धाम स्थित शिवलिंग देश के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है ,यह सतयुग के समय का माना जाता है .यहाँ पर अपने अज्ञातवास के समय पांडवों ने तपस्या की थी .मंदाकिनी के तट पर स्थित इस मंदिर का जीर्णोद्धार कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य ने कराया था .


समय पूर्व आ जाने वाला मानसून जनजीवन पर कहर बनकर टूटा .बारिश ,भू स्खलन से बदहवास हो गया है उत्तराखंड .केदारघाटी में फटे बादलों ने जो विभीषिका फैलाई है उसकी याद सदियों तक जनमानस को मथती रहेगी .सैकड़ों मकान ताश के पत्तों की तरह भरभराकर उफनती नदी के प्रवाह में समा गए .सड़कें ,पुल ,झूलापुल और संपर्क मार्ग ध्वस्त होने से सैकड़ों गांव ,कसबे और उसमे फंसे लोग पूरी दुनिया से कट से गए .हजारों लोग जान से हाथ धो बैठे .देखते -देखते प्रकृति का प्रकोप अनगिनत जिंदगियों को लील गया .बचाव और रहत के तमाम इंतजामों के बावजूद उत्तराखंड में जिंदगी जंग हार रही है .केदारनाथ मंदिर का परिसर और गर्भगृह तक ,बिखरे पड़े शवों और मलबे से स्थिति कि भयावहता साफ़ पता चल रही है .बचने के लिए जंगलों और दुर्गम जगहों पर भागकर गए लोगों की संख्या भी हजारों में है .जेने कितने भूखप्यास से तड़प कर दम तोड़ चुके ,जाने कितने जंगली जानवरों का ग्रास बन गए और तमाम तो दुर्दांत लुटेरों के हाथो मार दिए गए .रामबाड़ा बाजार जहां सौ -डेढ़ सौ दुकाने थीं जड़ से नेस्तनाबूद हो चूका है .यत्र तत्र फैले पड़े शव अब भी निस्तारित नहीं किये जा पाए हैं .सड़कें और संपर्क मार्ग ध्वस्त हो जाने से प्रभावित क्षेत्रों में मददपहुँचाने और रहत कार्य करने में आई ती बी पी और एन डी आर एफ के जवानों को जान की बाजी लगानी पड रही है .हेलिकोप्टर दुर्घटना में अपने जवानो को खोने की बावजूद वायुसेना पाने ऐतिहासिक सबसे बड़े बचाव अभियान में जुटी हुई है .सेना के जवान हर संभव तरीके का इस्तेमाल करके खतरनाक जगहों पर फंसे लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाने में लगे हैं .केदार घाटी का रामबाड़ा क्षेत्र हजारों लाशों से पटी पडी है ये खुलाशा अब राहतकर्मी सैनिको ने किया है सरकार अब तक इसे साजिशन छुपाये बैठी थी . लाशों का अम्बार देखकर राहत कर्मी सैनिक असहज हो गए हैं उनका कहना है कि इन लाशों को कोई गिन भी नहीं सकता. अब दो हफ्ते होने को हैं ये लाशें सड़ गल गयी हैं अब इनकी पहचान करना बहुत कठिन हो गया है.

 श्रद्धालुओं की संख्या को दबाने की साजिश पहले ही दिन से शुरू हो गयी थी. सरकार नहीं चाहती कि इस संख्या को अब और बढाया जाय एक हफ्ता हो गया मृतकों की संख्या ८२२ बताई थी अब भी वही चल रही है .ऋषिकेश ,सहारनपुर में एक दिन ४८ लाशें निकाले गयी थी उसके बाद उनकी संख्या भी गायब हो गयी है .
अब तक सेना और अन्य संस्थाओं के अथक प्रयासों से आपदा में फंसे लाखों लोगों को निकल लिया गया है ,तब हमारे लिए ये सोचना आवश्यक हो जाता है कि उन कारणों पर गौर किया जाये जो उत्तराखंड की तबाही का कारन बने .निःसंदेह जो भी हुआ वह दैवीय और प्राकृतिक आपदा थी लेकिन शिव और शक्ति ने अपना रौद्र रूप दिखाया क्यों !क्यों शिव का तीसरा नेत्र खुला !क्यों नहीं अपनी जटाओं में जगह दे दी प्रलयंकारी नदी के प्रवाह को अपनी जटा में शिव ने !!

एक कभी ना भूलने वाला सबक सिखा गयी है ये आपदा हम सबको .उत्तराखंड में विकास के नाम पर हो रहे अंधाधुंध दोहन और अतिक्रमण से जो निर्माण कार्य हो रहे हैं , बस्तियां बसाई जा रही हैं ,जिस प्रकार से नदियों के बहाव क्षेत्र पर अतिक्रमण करके बाँध बनाये गए हैं उनका प्रतिकूल प्रभाव अब देखने में आया है .बड़ी का र्पोरेट कम्पनियों को को विकास के नाम पर खुली छूट मिली हुई है कि वो जो चाहें करें ,तीर्थस्थलों को पर्यटक स्थल बना देने का बाजारवाद विकसित  किया जा रहा है और इसे पर्वतीय राज्य के विकास का आधार बताया जा रहा है .उसका परिणाम एक दिन यही होना ही था .सरकारी आंकड़े बताते हैं कि हर साल सैलानियों की संख्या में बढोत्तरी हो रही है .राज्य की आबादी से दोगुना लोग बतौर पर्यटक आ रहे हैं .ये पर्यटक अपनी पीछे इतना कूड़ा छोड़ जाते हैं कि उसका निस्तारण ही नहीं हो पाता . मोटरों  की अनियंत्रित आवाजाही से प्राकृतिक असंतुलन बढ रहा है .पहले तो पुण्यलाभ  ही देवस्थानों पर जाने का कारण हुआ करता था लेकिन पर्यटन से अधिकाधिक आय कमाने का सरकारी प्रयास ,प्रकृति को होने वाली क्षति की परवाह किये बिना नए निर्माण व अन्य सुविधाएँ देने के नामपर मसलन ए सी ,यात्रा का समय कम कर देने के लिए वायु सेवा आदि निरंतर प्राकृतिक सन्तुल को बिगाड़ रहे हैं और इस सबका ज़िम्मेदार कोई एक सरकार या नेता ना होकर हम सभी हैं .
भारत समेत दुनिया के तमाम पर्यावरण विशेषज्ञ  बार बार चेतावनी देते रहे कि उत्तराखंड के कच्चे पहाड़ पर चौडी की जाती सड़कों और उन तमाम ऊर्जा उत्पादन के नाम पर चलने वाली परियोजनाओं और बांधों का निर्माण जनहित में नही है फिर भी ये सब धडल्ले से चल रहा है .गंगा को माता और राष्ट्रीय नदी मानने के बावजूद जगह जगह उस पर बाँध बनाकर उसके प्राकृतिक बहाव को रोका जा रहा है ,सरकार और उसके पिछलग्गुओं को ना तो पहाड़ों की चिंता है और ना ही  जन  भावनाओं की , अभी भी  कोक प्लांट के विरोध में उठे जनांदोलन को कुचलने का पूरा प्रयास राज्य सरकार कर रही है .जहां पीने के पानी कि इतनी किल्लत हो वहाँ जाने कितने क्यूसेक पानी कोक प्लांट के लिए मुहय्या करना प्यासे गलों पर छुरी चलाना ही तो होगा आम लोगों का विरोध दबा दिया जाता है .विशेषज्ञों की बात अनसुनी कर दी जाती है और किसी तबाही के होने पर दैवीय ,प्राकृतिक आपदा कहकर अपना पल्ला झाड लिया जाता है .टीहरी बाँध को लेकर भी विशेषज्ञों की राय है कि यदि कभी यह बाँध टूटा तो उत्तराखंड की बात ही क्या है दिल्ली तक जलमग्न हो जायेगी ..क्या उसी महाप्रलय  की प्रतीक्षा हो रही है ??

जिस प्रकार अमरनाथ यात्रा ,मानसरोवर यात्रा या वैष्णोदेवी के दर्शनों के लिए यात्रियों का पंजीयन होता है वैसी कोई व्यवस्था उत्तराखंड के पर्यटन विभाग के पास नहीं है .अन्धाधुंध यात्री हर साल जाते हैं अभी की त्रासदी में कितने लोग अपनी जान से हाथ धो बैठे किसी के पास उसका कोई डाटा नहीं है .हर ओर अफरा तफरी का माहोल है कितनी जान माल कि क्षति हुई कोई ब्यौरा नहीं है .राष्ट्रीय संकट काल है ये ,आपदा की सर्वाधिक मार उखीमठ तहसील पर पडी है जहां के गांव के गांव भुखमरी के शिकार हो रहे हैं .घर ,पशु ,खेती की जमीनें सब तूफ़ान लील चूका है ,खराब मौसम ,और ध्वस्त रास्तों पुलों और संचार व्यवस्था के चलते उनतक सहायता सामग्री भी नहीं पहुंचाई जा पा रही है .

समय के कुचक्र की मार खाए हजारों तीर्थयात्रियों और स्थानीय जनों जो जान बचाने के लिए जंगलों की ओर भाग गए थे ,की लाशें जंगलों में पड़ी सड रही हैं दुर्गन्ध की वजह से कोई भी बचाव टीम वहाँ रुक नहीं पा रही है .जो बचे खुचे लोग अशक्त या बीमार हाल में जिन्दा फंसे होंगे वो भी भूख और बीमारी से दम तोड़ देंगे .जो शव इधर उधर फैले पड़े हैं उनके डी एन ए टेस्टिंग का सवाल है आखिर कितने शवों का डी एन ए टेस्ट किया जा पायेगा ,जहां हजारों लाशें फैली पडी हों वहाँ सौ दो सौ लोगों का सैम्पल लेने से क्या फर्क पड़ेगा ..ये बात ही सिरे से बेमानी लग रही है .

नाम आँखों से लोग अपनों की खोज में लगे हुए हैं ,कुछ जो जान बचाकर लौट आये हैं उनके चेहरों पर खुशी बच जाने की तो है लेकिन जो दर्दनाक मंजर उन्होंने देखा है उसकी दहशत भी उनके चेहरों पर पढ़ी जा सकती है .कितनों का कुछ अता पता नहीं है कि ज़िंदा हैंभी या नहीं .उनके परिवारीजन एक अंतहीन इन्तजार में जी रहे हैं .
यह सही है कि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से मानसून चक्र अनियंत्रित हुआ है और प्राकृतिक आपदाओं की गिनती भी बढ़ रही है लेकिन अभी जो कुछ उत्तराखंड में हुआ उसके लिए हम सब भी कहीं ना कहीं ज़िम्मेदार हैं .ज़रूरत है इस त्रासदी से सबक लें और प्राकृतिक आपदा से निपटने के पुराने नुस्खोंऔर प्रकृति के संरक्षण के तरीकों पर ध्यान दें .इन आपदाओं से बचने के लिए मनुष्य और प्रकृति के बीच एक सकारात्मक  संतुलन बनाने की आज सख्त ज़रूरत है .....

विजय
लेखिका , कवयित्री
कथादेश और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित

2 comments:

  1. सही कहा आप ने विजय दी ......मनुष्य और प्रकृति के बीच एक सकारात्मक संतुलन बनाने की आज सख्त ज़रूरत है..

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