“व्यक्ति पर आधारित परंपराएँ और
साहित्यिक खेमेबाजी”- डॉ अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
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वैसे तो
बहुधा हिन्दी आलोचना में ऐसे वाक्य दीखते रहते हैं लेकिन इधर ‘पाखी’ के मार्च के संपादकीय में
इसी प्रकृति का वाक्य दिखा, “बेशक वे प्रतिभा में कमतर हों मगर वह मुक्तिबोध, भुवनेश्वर, धूमिल, मलयज, राजकमल चौधरी की परंपरा की
ही कडी़ मालूम होते हैं।” यद्यपि इस वाक्य में ‘वे’ का तात्पर्य रचनाकार विशेष
से है, परंतु आगे मैं जो कहना चाह
रहा हूँ उसमें ‘वे’ को विशेषीकृत करना उतना जरूरी नहीं है जितना इस
कथन की प्रक्रिया पर विचार करना।
हिन्दी आलोचना में व्यक्ति आधारित परंपराएं दो तरह
की दिखती है:
१- किसी एक व्यक्ति से जोड़ते हुए परंपरा को
परिभाषित करना, और
२- किन्हीं दो चार साहित्यकारों के नाम जुहा कर
उन्हें रेलगाड़ी के डिब्बे की तरह लगाकर/सजाकर एक परंपरा दिखाना।
व्यक्ति आधारित परंपरा संबंधी इन दोनों रूपों ने
हिन्दी आलोचना और आलोचकों की आलोचनात्मक ‘कामचोरी’ को ढका है। अक्सर व्यक्तियों से संबद्ध इस तरह की परंपराएं बनाते हुए
हिन्दी का आलोचक, अचेत रूप में ही सही, परंपरा नहीं रूढ़ि का सृजन
करता है जो आलोचना के स्वाभाविक और चुनौतीपूर्ण चाल को मंद व निस्तेज करती है।
अपने समय में प्रसिद्धि के शिखर पर विराजमान कोई
बड़ा साहित्यकार आने वाली पीढ़ी के रचनाकारों के लिए निस्संदेह एक चुनौती होता
है। कई साहित्यकार उसी के रंग-ढ़ंग का लिखना चाहते हैं। लिखना इसलिए भी चाहते हैं
क्योंकि पाठक उस रंग-ढ़ंग की रचना पढ़ना भी चाहता है। यह स्थिति तब साहित्य के
स्वाभाविक विकास और समृद्धि में बाधक हो जाती है जब आलोचक इसी रंग-ढ़ंग को
आलोचना को हथियार बना लेता है और समीक्षा के लिए गुणावगुण न देखकर बात को व्यक्ति
के इर्द-गिर्द नचाया जाने लगता है। इस दौरान साहित्य के शाश्वत, विगत या नवागत मूल्य की
अनदेखी होती है और चर्चा व्यक्ति या किन्हीं व्यक्तियों के साहित्य पर केंद्रित हो
जाती है। इस समीक्षा पद्धति का दुष्परिणाम यह भी है कि कभी कमजोर रचनाकार उस
व्यक्ति जैसा लिखने के कारण स्वीकृत हो जाते हैं तो कभी सशक्त रचनाकार उस व्यक्ति
जैसा न लिखने के कारण या नयी रचनात्मक जमीन निर्मित करने के कारण उपेक्षित अथवा
हतोत्साहित हो जाते हैं। आलोचक को तो इस विसंगति के विरुद्ध खड़ा होना चाहिए पर
हिन्दी में आलोचक इस विसंगति के साथ खड़ा हुआ दिखता है।
हिन्दी आलोचना में यह विसंगति नयी नहीं है। इसका
एक लंबा इतिहास और वर्तमान है। इन दिनों हिन्दी अकादमिक समाज जिनकी जन्म शताब्दी
का उत्सव मनाने में व्यस्त है, उन हिन्दी के शिखर आलोचक रामविलास शर्मा के यहाँ तमाम आलोचनात्मक
विसंगतियों की तरह यह विसंगति भी पर्याप्त फूली-फली। ‘प्रेमचंद की परंपरा और आंचलिकता’ नामक अपने लेख की शुरुआत
शर्मा जी इस तरह करते हैं, “ ‘मैला आँचल’ के आवरण पृष्ठ पर एक आलोचक की सम्मति छपी है, ‘प्रेमचंद की परंपरा में दशकों बाद यह पहला उपन्यास
लिखा गया है।” इस बात के प्रत्याख्यान में
रामविलास जी सर से पाँव तक यही कोशिश करते हैं कि क्या है प्रेमचंद की परंपरा और
कैसे फणीश्वर नाथ रेणु इस परंपरा में नहीं आते!
प्रेमचंद के साहित्यिक मूल्यों पर बात हो, उनके साहित्य में निहित मूल्यों की परंपरा पर बात हो, यह तो समझ में आता है लेकिन प्रेमचंद (या कोई भी) खुद मूल्य हो या परंपरा हो, यह बात समझ से परे है। व्यक्ति - व्यक्ति को मूल्य या परंपरा समझना आलोचना की भटकन है। बहरहाल, अपने इस आलेख में रामविलास जी विस्तार से बताते हैं - ‘मैला आँचल’ और ‘परती परिकथा’ के ब्यौरे रखते हुए - कि कैसे रेणु के उपन्यास जिस परंपरा में आते हैं वह प्रेमचंद की परंपरा है ही नहीं। सोचिए, अगर कहीं रेणु प्रेमचंद की परंपरा में आते तो सब सही था! व्यक्ति-परंपरा में रंगी निगाह मैला आँचल व परती परिकथा की नयी जमीन को भला कैसे देख पाती! लेख का समापन शर्मा जी इस अंदाज में करते हैं, “ ‘मैला आँचल’ तक प्रेमचंद की परंपरा के कुछ निशान बाकी थे; ‘परती परिकथा’ तक आकर वे मिट जाते हैं और रह जाता है इलियट का शुद्ध प्रयोगवादी वेस्टलैंड!’’ रेणु को प्रेमचंद की परंपरा से छिटकाने के लिए इतने आतुर हुए शर्मा जी कि उन्हें सात समंदर पार के ‘व्यक्ति’ से जोड़ बैठे! नक्काद ने यह बर्ताव हिन्दी के देसी, खांटी और आंचलिक उपन्यासकार के साथ किया, औरों की क्या बिसात!
प्रेमचंद के साहित्यिक मूल्यों पर बात हो, उनके साहित्य में निहित मूल्यों की परंपरा पर बात हो, यह तो समझ में आता है लेकिन प्रेमचंद (या कोई भी) खुद मूल्य हो या परंपरा हो, यह बात समझ से परे है। व्यक्ति - व्यक्ति को मूल्य या परंपरा समझना आलोचना की भटकन है। बहरहाल, अपने इस आलेख में रामविलास जी विस्तार से बताते हैं - ‘मैला आँचल’ और ‘परती परिकथा’ के ब्यौरे रखते हुए - कि कैसे रेणु के उपन्यास जिस परंपरा में आते हैं वह प्रेमचंद की परंपरा है ही नहीं। सोचिए, अगर कहीं रेणु प्रेमचंद की परंपरा में आते तो सब सही था! व्यक्ति-परंपरा में रंगी निगाह मैला आँचल व परती परिकथा की नयी जमीन को भला कैसे देख पाती! लेख का समापन शर्मा जी इस अंदाज में करते हैं, “ ‘मैला आँचल’ तक प्रेमचंद की परंपरा के कुछ निशान बाकी थे; ‘परती परिकथा’ तक आकर वे मिट जाते हैं और रह जाता है इलियट का शुद्ध प्रयोगवादी वेस्टलैंड!’’ रेणु को प्रेमचंद की परंपरा से छिटकाने के लिए इतने आतुर हुए शर्मा जी कि उन्हें सात समंदर पार के ‘व्यक्ति’ से जोड़ बैठे! नक्काद ने यह बर्ताव हिन्दी के देसी, खांटी और आंचलिक उपन्यासकार के साथ किया, औरों की क्या बिसात!
हिन्दी में ‘परंपरा’ शब्द का प्रयोग बड़ी अगंभीरता के साथ किया गया है। लोग समझते हैं कि
जिस तरह किसी को कहा जा सकता है कि फलाने व्यक्ति नहीं, संस्था हैं उसी तरह फलाने व्यक्ति नहीं, परंपरा हैं। भटकाऊ सरलीकरण
है यह। इससे आलोचनात्मक वस्तुनिष्ठता की बजाय अमूर्तन निर्मित होता है। जैसे, अज्ञेय के अंदर तमाम
काव्य-प्रवृत्तियाँ हैं, परस्पर विरोधी। (यह भी माना जाता है कि किसी कवि में जितने ज्यादा
विरोध (कांट्रडिक्शंस) हों, वह उसका सकारात्मक पक्ष होता है) अज्ञेय की इस कविता ‘सोन-मछली’ में रूपवाद है तो रूपवाद का
खंडन भी:
“हम निहारते रूप
काँच के पीछे
हाँफ रही है मछली।
काँच के पीछे
हाँफ रही है मछली।
रूप-तृषा भी
(और कांच के पीछे)
है जिजीविषा।”
इनके काव्य में बिंबों की उपस्थिति है तो
सपाटबयानी भी। अगर कोई कहता है कि ‘अमुक’
अज्ञेय
की परंपरा का है तो कुछ लोग उन्हें रूपवादी परंपरा से जोड़ेंगे तो कुछ लोग उसे
रूपवाद के खंडन से। कोई बिंबों से तो कोई सपाटबयानी से। अतः व्यक्ति के नाम पर
परंपराओं की निर्मिति विवादास्पद है, भटकाऊ है, अनुचित है।
इस तरह की व्यक्तिवादी परंपरा निर्मिति से हिन्दी
में साहित्यिक खेमेबाजी खूब की गयी है। इससे एक तरफ सस्ते में आलोचना भी हो जाती
है दूसरी तरफ साहित्यिक ध्रुवीकरण भी। इससे भला न तो साहित्य का होता है, न पाठक का, न ही साहित्यकार का। आलोचना
का धंधा भले इससे आसानी से चल जाता है। लेकिन आलोचना मूल्य-विमर्श है, न कि धंधा या खेमेबाजी।
इसलिए हिन्दी आलोचना के व्यस्थ विकास के लिए व्यक्तिवादी परंपराओं से इसे बचना
होगा। शायद आज भी आलोचना के तमाम झगड़ों से बचने में यह सहायक हो!
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