Tuesday, July 30, 2013

समाधियाँ बोलती हैं कही ? प्रतिभा गोटीवाले


प्रतिभा  गोटीवाले 
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1-माँ की वेदना 



शर्मिंदा हूँ मैं

अपने आप से

के छीन लिया हैं मैंने उससे

बचपन उसका

भेजती नहीं हूँ अब उसे

खेलने के लिये

न पहनने देती हूँ फ्राक

बाल भी कटवा दिये हैं उसके

लड़को जैसे



और पहनावा भी अब

उसका लड़को सा ही हैं

पर उसकी मीठी ,शहद भरी

लडकियों सी आवाज़ का

क्या करू ..?

कश्मकश में हूँ ..

सिल दूँ होठ या कर दूँ

गूंगा उसे

या सेक्स ही चेंज करवा दूँ ...??

कैसे बचाऊ इस नन्ही परी को

लोगो की वहशी निगाहों से ..?

क्यों नज़र नहीं आते अब

कृष्ण कही ....?

और होंगे भी तो

आयेंगे कैसे ..!

मासूम अभी तो केवल

माँ को ही पुकारना जानती हैं

कैसे समझेगा कोई

की फट जाता हैं कलेजा जब

माँ होकर भी

बचा नहीं पाती उसे !!

तुम कहते हो क्या उलजलूल

सोचने लगी हो ??

कैसे बताऊँ तुम्हे

ये बेचैनी

के जब से दुनियाँ की आँखों में हैवानियत सी जगने लगी हैं ,

मेरी पाँच साल की बेटी मुझे जवान लगने लगी हैं ।





2 -सपनों का समर्पण 


जब पलटती हैं

सपनों की सत्ता

और पैर जमाता हैं

साम्राज्य....यथार्थ का ...

एक एक कर

आत्मसमर्पण

करते जाते हैं सपने



निकलकर मन के घने

बीहड़ों से ........

तोड़कर लहराते हुये

अपने ही पंख

दिखलाते हैं संधि संकेत ...।









.


3 -बीता हुआ दिन 




कई बार होता हैं

के समय की नदी में बहते बहते

कुछ पुराने दिन

छुप जाते हैं

समय की नज़र बचा

लम्हों की सीपियों में शंखों में

या अटक जाते हैं

यादों की झाड़ियों में ,

कुछ बनकर रेत

जमने लगते हैं किनारों पर



और फिर कभी किसी दिन

जब तुम टहलते हो इस रेत पर

तो अकस्मात मिलते हैं

खज़ाने ...........

शंखों के सीपियों के

हाथों में लेते ही

इनमे दुबके हुए पुराने दिन

निकल आते हैं बाहर

या झरते हैं झाड़ियों से

बनकर फूल

और तुम जी आते हो बहुत पुराना

एक बीता हुआ दिन .........।




4-काश 



कल खोलते ही अलमारी

आ गया था हाथों में ..

तुम्हारी साड़ी का आँचल

और बरबस ही ..

हँस पड़ा था मैं देखकर ...

किनारे पर बंधी गठाने

जब ढूंढते ढूंढते कोई चीज़

परेशान हो जाती थी तुम

बांध लेती थी

एक गठान पल्लू में

और मिल जाती थी खोई चीज़े

काश .......ऐसा हो

मैं भी बांधू एक गठान ...

...और .....

...मिल जाओ ......तुम ....।






5-पूर्ण विराम 


समाधियाँ बोलती हैं कही ?




शब्दों के आगे पूर्ण विराम लगा देने से

शब्द थमते हैं ...........

संवाद नहीं .......

संवाद घुटते रहते हैं निरंतर

पूर्ण विराम के भीतर

और हो जाते हैं ....

समाधिस्थ .....अंततः

और किसी दिन

फिर तुम चाहते हो

शुरू करना सिलसिला शब्दों का

तब बढ़ते हैं निष्प्राण

केवल शब्द

संवाद नहीं ..........

पूछते हो क्यों !

...................................




 6- प्रवासी पक्षी 

जब से निकली हूँ प्रवास पर
नहीं देखा हैं मैंने
अपना सूरज,अपनी सुबह
अपनी राते और
अपना दिन
सब तुम्हारे हैं
तुम्हारे दिये हुए
चाहती तो मैं भी
तिनका तिनका चुनकर
बना सकती थी एक
घरौंदा अपने लिये
पर मैंने अपना लिया
तुम्हारा घर,तुम्हारे सपने
और तुम्हारा आकाश
देखो अपने पंखो को भी
समेट लिया हैं मैंने
के टूटे ना तुम्हारा नीड़
बदल ली हैं मैंने अपनी
आदते और जीवन शैली
सीमित कर ली हैं अपने
सपनो की उड़ान बस
तुम्हारे आसमान तक
और तुम अब भी कहते हो
प्रवासी मुझे
तुम्ही बताओ
के कैसे ये प्रवास ख़त्म करू
और पाऊं कहा मैं
मंज़िल को ...........।


           



7-आदत 


एक आदत थी उसकी
के वो कभी ख़त में
अपना नाम नहीं लिखती थी
बस छिड़क देती थी
एक चुटकी मुस्कराहट
जिसे पढ़कर कई दिनों तक
खिलखिलाती रहती थी
मेरी आँखे .....
न  जाने क्यों ............।





8-.कसम 

उसने कहा था भूल जाओ मुझे ..
..और मैं भूल गया था ..
पर जीवन भर ढूंढ़ता रहा उसे
इसलिये नहीं ..
कि भूल नहीं पाया
..बल्कि इसलिये ...
कि लौटानी थी उसे उसकी
एक चीज़ .....
ज्यादा कुछ नहीं
एक छोटी सी कसम थी
उसे भूल जाने की
अब जब भूल ही गया हूँ उसे
ये कसम रखकर करूँगा क्या ..?



.9-बसंत की शाम 


सोचती हूँ कभी
के आओ तुम
और ठहर जाओ
मन के आसमान पर
बनकर
बसंत की शाम
बहकता रहे आसमान
बहुत देर तक
तुम्हारे रंगों से
और जब घुलने लगो
काजल की तरह
स्याह रातो में
उतर आना
मेरी आँखों में
बन के विहग
प्रतीक्षा का ...........।






10-.कागज़ के जहाज़




बारिश  के पानी में
चलाये  हुए
तुम्हारे कागज़ के जहाज़
अब भी ले जाते हैं
दूर ....बहुत दूर ....
बचपन के किसी
किनारे पर .......
फिर  अचानक
बहते बहते ....
जब भीगता हैं  कागज़
तो  भर आता     हैं
पानी  जहाज़ में ..
और ......
आँखों से बहने लगता हैं ... ..? 




नाम :प्रतिभा मनोज गोटीवाले 
माता  का नाम : श्रीमती सुधा सोनगिरकर 
पिता का नाम : स्व .श्री सुधाकर सोनगिरकर 
जन्म तारीख़ : 29 /03/1974 
जन्म स्थान : बुरहानपुर (म प्र )
शिक्षण : बीएससी ,एलएल बी ,एलएलएम ।
पता : IF /3 सरस्वती नगर ,
         भोपाल (म .प्र .)
         पिन :462003 
मोबाईल : 09826327733 
E-mail : minalini@gmail 

Wednesday, July 24, 2013

रितु की डायरी


लखनऊ के मलीहाबाद के एक गाँव से आई अट्ठारह वर्षीय रितु दिल्ली में ‘डोमेस्टिक हेल्प’ का काम करती है.आठवीं तक गाँव की एक स्थानीय पाठशाला में पढ़ी रितु की एक बात जो आप सबका मन मोह लेगी वह है उसकी हंसी ..हमेशा हंसती-मुस्कराती रहती है.उसनें बताया की वह अंग्रेजी स्कूल में पढना चाहती थी जहाँ उसके चाचा के बच्चे पढ़े थे क्यूंकि सरकारी स्कूल में पढ़ाई नहीं होती और वहां पढने वालों के लिए कोई करिअर नहीं होता. सामान्य अनुभव के विपरीत वह एक चौंकाने वाली जानकारी देती है और बताती है की उनके गाँव में लड़कियों की शादी छोटी उम्र में नहीं की जाती ..तेइस-चौबीस के आसपास होती है.यह जानना बेहद सुखद रहा.

रितु को भी एक डायरी दी गयी जिसमें वह मनचाही बातें लिख सके.रितु नें बचपन में स्कूल में पढ़ी कुछ कहानियां भी अपनी डायरी में लिखीं और अपनें कुछ भक्ति गीत भी. हमें खुद अपनें बचपन की कुछ कहानी कविताएँ स्मृत हो आयीं ‘तितली उडी बस में चढ़ी’, ‘आओ बच्चो तुम्हें दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान की’,  अपनी डायरी में कुछ चित्रकारी भी की हुई थी कहीं कमल का फूल बनाया था तो कहीं गुलाब के फूल पर मंडराती तितली.उन्हें कबीर के बहोत से दोहे भी याद हैं जो उन्होंने अपनी डायरी में अपनी आपबीती के बीच बीच में लिखे हैं.उनके लेखन में देसज शब्दों की अधिकता है इसलिए सहजता बोध की दृष्टि से यहाँ उन अंशों को मानक हिंदी में लिखा गया है .इन्हें रितु लिखती हैं -  

‘मुझे गाना गाना बहोत पसंद है मुझे फ़िल्मी गानों को भक्ति गानों में बनाना बहोत अच्छा लगता है .‘२६ जनवरी को हमारे स्कूल में गान होता था ..फिर आरती होती थी जिसमें मैं गीत गाती थी.मैं बहोत खुश होती थी.’

‘मुझे खाने में कटहल और मम्मी की बनाई दही बड़ी अच्छी लगती है मम्मी बहोत प्यार से बनाती है और उतने ही प्यार से खिलाती भी है .जब भी मैं घर जाती हूँ सबसे पहले अपनी बहन के ससुराल  जाती हूँ ..उसके लिए पासन की चाट पकौड़ी लेकर जाती हूँ वह बहोत खुश होती है .’

‘आज मैं सुबह से काम कर रही हूँ शाम के चार बजे आधे घंटे का टाइम मिला जिसमें मैं सो गयी फिर उठी तो आंटी नें साग काटने को कहा मैंने काट दिया...मुझसे थोड़ी देर हो गयी तो आंटी नें मुझे इतना डांटा की मैं खुद को कंट्रोल नहीं कर पाई और रो पड़ी.बाद में आंटी नें मुझसे बहोत प्यार से बात की ..समझाया ..आंटी मन से अच्छी हैं ..’

‘मुझे गुलाब का फूल पसंद है..मुझे बालू में खेलना पसंद है ..और पानी में खेलना पसंद है ..मुझे लिखना पसंद है और बच्चों के साथ खेलना पसंद है.
‘आज मेरे मन में घर जाने के लिए खुमारी छाई है .मैं खुश हूँ ..जब भी घर जाती हूँ मेहँदी लगा कर जाती हूँ ..सुबह आंटी नें मुझे कुछ काम करने के लिए कहा मैंने मन कर दिया क्यूंकि मेरी मेहँदी खराब हो जाती.’  
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रितु फ़िल्मी गीतों को भक्ति गीतों में बदलना बखूबी जानती है एक गीत यहाँ पोस्ट करने की बहोत इच्छा थी ताकि आप सभी मित्र भी उनके इस हुनर से परिचित हो सकें लेकिन रितु पिछले एक महीने से अपने गाँव में हैं उनके लेख को समझ पाना बेहद मुश्किल रहा और उसमें स्थानीय बोली के शब्द भी घुले-मिले हैं जिन्हें समझ पाना हमारी सीमा रही.  

Saturday, July 20, 2013

'आवाजें' कहानी - रजनी गुप्त

आवाजें

"स्त्री को अपने  इर्द गिर्द जीवनपर्यन्त लगातार कुछ आवाजें  सुननी पड़तीं हैं ...  रुढ़िवादी मानसिकता रुपी आवाज़ों  की  भारी भरकम शिला अपने पैरों में न चाहते हुए भी स्त्री आजीवन खींचने को मजबूर रहतीं हैं .. चर्चित कथाकार रजनी गुप्त की कहानी "आवाजें" पढने के बाद भीतर का जाना पहचाना शोर अचानक सुनाई देने लगता है .. फरगुदिया पर रजनी गुप्त जी का हार्दिक स्वागत है .."



बिंदु से बिंदु तक-
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मैं और मेरी आवाजें , अक्सर आपस में खूब बातें करते रहते। हमारा आपसी संवाद कभी खत्म ही नही होता। बचपन से लेकर बड़े होने तक की अनगिनत आवाजें लगातार पिछियाती रहतीं। जितनी ताकत से मैं उनका मुंह बंद करना चाहती , वे उतने वेग से उभरकर मुंह बाए बड़बड़ाना शुरू कर देती। इन्ही आवाजों से याद आने लगते तमाम अफसाने भीं। तो चलिए , 
क्यों 
  न शुरू से शुरू किया जाए ? बचपन से ही मैं जो सोचती या जैसा बनना चाहती , इस या उस वजह से नही कर पाती मगर भीतरी आवाजें कभी चैन से बैठने भी तो नही देती। बड़े होते की मां की टोकाटोकी का टेप चालू हो जाता-
‘ इतनी बड़ी हो गई हो , अब फ्राकें या स्कर्ट पहनना बंद। कित्ती बुरी लगती है तेरी नंगी टांगें। सुना नही क्या ? न , रात के 7 बजे के बाद कहीं बाहर आना जाना बंद। लो , सुन लिया न उनका तुगलकी फरमान ?
‘ न , रात में अकेले ट्युशन जाने की परमीशन मैं तो नही दे सकता। बस्स , एक बार मना कर दिया तो कर दिया। ऐसी आवारागर्दी बर्दाश्त नही कर सकता मैं। ध्यान से सुन , तू कायदे के कपड़े पहना कर। जरा भी तमीज नही सिखाई तुमने ? ’ वे गुर्राते हुए मां पर बिगड़ पड़े तो मां ने तुरंत अपना मोर्चा संभाल लिया -‘ ये मेरी सुनती कहां है ? कल कुछ ब्लैंक काॅल्स भी आए थे.....
उन्होंने आव देखा न ताव , सीधे मेरे पास धड़धड़ाते हुए चले आए और सिर पर दनादन्न दो चांटे जड़ते हुए हंगामा करने लगे- ‘ अच्छे घरों की लड़कियां शार्टस स्कर्ट्स वगैरा नही पहनती। समझीं ? कान खोलकर सुन लो , जिन लड़कियों की शादी के पहले उनके अफेयर के चर्चे उड़ जाते , उनकी शादी में तमाम दिक्कतें आतीं हैं ? मैं ऐसा वैसा कोई रिस्क नही लेना चाहता , आयी बात समझ में ? ’
शादी , शादी , शादी , इस एक लफ्ज को सुन सुनकर कान पक गए। टीनेज शुरू होते ही यही एकसूत्रीय कार्यक्रम जैसे चल पड़ा हो। पापा से उस दिन जो नोंकझोंक हुई , मन खट्टा हो गया , दही के अनगिनत टुकड़ों की तरह बिखर गया मेरा वजूद जैसे। तभी तय कर लिया , हर हाल में पहले अपने 
पैरों  खड़ा होना होगा , तभी ये शादी फादी का लफड़ा। सो जी तोड़ मेहनत करके जेएनयू स्थित पत्रकारिता के नामी संस्थान में एडमीशन मिल गया। बस , फिर क्या था ? यहां से शुरू हुआ चैतरफा सपनों की निर्बन्ध उड़ान भरने का नया सिलसिला। कंप्यूटर की दुनियां में एंट्री मार ली और फेसबुक के जरिए तमाम नए नए दोस्त बनते गए। घर से 700 किलोमीटर दूर बैठी हूं फिर भी वे मेरे एक एक पल का हिसाब रखना चाहते - ‘ कहां पर हो ? पहला घेराव इसी सवाल से होता , उसके बाद , काॅलेज से कब लौटती हो ? अरे ! फोन क्यों  नही उठाया ? सुनो , वहां किसी से गहरी दोस्ती वगैरा मत कर लेना। बात बात पर झूठ बोलना सीखती जा रही हो। ’
खींझते हुए मन में उबाल आता , पलटकर पूछूं , आप 
लोगों  ने क्या डिटेक्टिव एजेंसी खोल रखी है ? नही दूंगी अपनी जिंदगी के हर पल का हिसाब। अभी हाल ही में बना मेरा नया दोस्त भी कभी कभार इसी जुबान में पूछने लगता , सबके सब टिपिकल मर्दनुमा लड़के जो अक्सर मुझे टाइट कपड़े पहने देखकर घूरने लगता। इसी बीच अपनी नई रूममेट कोमल से जरूर गहरी दोस्ती होती गई। एक दिन आधी रात को उसके चचेरे भाई का फोन आया जिसे सुनकर वो बहुत ज्यादा डिस्टर्ब हो गई। थोड़ी देर संकोच , थोड़ी हिचकिचाहट रही मगर फिर अनायास सालों तक थमा बांध जैसे एक ही वेग में ढह गया। 

दो कोण- -----------
‘ बचपन में हम बहुत अच्छे दोस्त की तरह खूब खेलते थे। एक ही स्कूल में 
पढने से हमारे फे्रण्ड भी कामन। हम सब खूब मस्ती लगाते मगर जैसे जैसे बड़ी होती गई , मुझे उसका प्रोटेक्टिव होना खलने लगा। उसकी नजरों में मेरे लिए शक संदेह का बीज पता नही कब और कैसे पनपने लगा। उसने मेरी आंखों में आंखें डालते हुए राज की बातें बतानी शुरू कीं- बचपन में हम बड़ी सहजता से एक दूसरे को टच करते रहते लेकिन वो तो अब भी बात बात में मुझे टच करना चाहता। अब मैं बच्ची नही रही। फिर मैंने उससे दूरियां बनानी शुरू कर दी लेकिन वो किसी न किसी बहाने से मुझे छूते हुए पास खींचने की कोशिशें करता रहा। जब मैंने घर पर बताने का फैसला किया तो मुझे देख लेने की धमकियां भी देने लगा। मैंने तभी घर से बाहर पढ़ाई करने का फैसला ले लिया। सबसे पहले नौकरी और जब कभी कायदे का कोई बंदा मिला तो पहले दोस्ती करके उसे ठीक से जांचूंगी , परखूंगी तभी शादी का फैसला वरना ऐसे ही भले। ’ थोड़ा रुककर खोयी सी आवाज में बोली - अब तो एक ही ख्वाहिश बची है , हमारे इम्तिहान निबट जाएं फिर किसी अच्छी जगह नौकरी। ’
‘ बिना सोर्स सिफारिश के कुछ नही मिलने वाला। ’ मैंने उसे नींद से जगाना चाहा।
‘ कम पैसे में भी चलेगा। बस उतना मिले जितने में सुकून से गुजर बसर होती रहे और क्या ?’
अजब इत्तिफाक था , हम दोनों को राजधानी के दो अलग अलग छोरों पर कमाने खाने लायक जाब मिल गया। हम दोनों बहुत बहुत खुश थे , हम दोनों ने सबसे पहले मंदिर जाकर मत्था टेका, इंडियागेट जाकर चाट खाईं। खुले गगन 
में रग- बिरंगे बैलून उड़ाए और आसपास के हरे भरे मैदान के दौड़ते हुए चार चक्कर लगाए। बेशक बैकग्राउंड म्यूजिक की तरह कभी पापा तो कभी मां की नसीहतों का टेप बजता रहा- ‘कोपल , तुम्हारे लिए दिल्ली में ही एक कायदे का लड़का ढूंढा है हमने। जल्दी ही उसके साथ तुम्हारे पास आएंगे। ’ इन प्रवचनों को परे धकेल हम सब उस दिन मस्ती में झूमते रहे , जोर जोर से गाते रहे , देर रात तक खाते पीते रहे और खूब सारी गप्पें हांकते रहे। रात ढलती रही झक सफेद बतखनुमा चांद अपना सफर तय करता रहा। कोमल का स्टैंड एकदम साफ था- ‘ सबसे पहले दोस्ती , डेटिंग , लिव इन के बाद यानी के बाद ही सैटल होने के बारे में फाइनली सोचा जाएगा। ’

कैसे कैसे त्रिकोण-
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    हमारी जब उससे दोस्ती की शुरूआत हुई , हम दोनों ही एक दो ब्रेकअप झेलने के बाद कहीं न कहीं से टूटे बिखरे हुए थे। दो बार प्यार की गिरफ्त में रहने के बावजूद ये नया रिश्ता कोमल के लिए जैसे अमूल्य खजाना के रूप में मिला था। सोशल नेटवर्किंग साइट्स के जरिए हुईं थी उनकी दोस्ती की शुरूआत , फिर फोन पर घंटों बातें होतीं। अंततोगत्वा एक दिन उन्होंने किसी थ्रीस्टार में मिलने का प्लान बनाया। बाकी का किस्सा उसी की जुबानीः
‘ सुनो , तुम अपने फेवरिट धानी रंग की ड्रेस में आना , कुर्ती जींस , चलेगा। ’,
‘ और तुम ? ’
‘ तुम्हारे फेवरिट परपल कलर की शर्ट , ओके ?’
‘ ओके ? फिर हम देर तक फोन पर हंसते रहे। घंटों बतियाते हमारी बातों का सिलसिला ऐसा चल पड़ता जो कैसे भी थमता ही नही था गोया असमय आई बाढ़ हो कोई। हमें एक दूसरे की बातों पर खूब भरोसा था। एक बार रौ 
में आकर मैंने उससे खुलकर इजहार करना चाहा- ‘ सुनो , मैं तुम्हें अपने अतीत से जुड़े हर किस्से को सब कुछ सुनाना चाहती। प्लीज लिसन टु मी। आई एम टू आॅनेस्ट टु शेयर विथ यू , माई वैकग्राउंड वगैरा....’
‘ साफ बात है , मुझे तुम्हारे अतीत से कोई लेना देना नही। वाकई कुछ नही जानना , सुनना चाहता मैं तुम्हारे मुड़े तुड़े पास्ट चैप्टर के बारे में। इट्स नाट माई कप आफ टी। तुम आज जो भी हो , जैसी भी हो , मेरी जान , उसी रूप में स्वीकार्य हो। बस एक बात मैं जानता हूं कि तुमने इतनी मेहनत से अपना ये शानदार मुकाम हासिल किया है , एक नामी जगह से डिग्री हासिल की है , काम के प्रति तुम्हारा जुनून और कमिटमेंट की मैं तहेदिल से कद्र करता हूं। डियर कोमल , मेरे लिए तुम्हारी तरक्की मायने रखती है , यू आलवेज नीड योर आन स्पेस एंड फ्रीडम फार फ्लाइंग इन द स्काई। मेरी तरफ से तुम्हें पूरी छूट। स्काई इज द लिमिट। ’
ऐसी बातें सुनकर मैं पगला जाती। निहाल हो जाती। मन करता कि उसके गले से लटक जाऊं और इतने जोर से चूमूं , इतनी ताकत से अपने से लिपटा लूं कि फिर कभी हमें अलग न होना पड़े। मैं अपने भाग्य को सराहती। सचमुच ! कितने प्यार दोस्त को चुना है मैंने जिसे मेरी करियर की कितनी फिक्र है , जो मेरे लिए अलग स्पेस की जरूरत महसूस करता है , जिसने मेरे हालिया मिले प्रमोशन पर सभी दोस्तों को इतनी शानदार पार्टी दी थीं जिसे आज तक अपने जीवन की सबसे यादगार जश्न मानती हूं।
ऐसे ही किसी दिन जब मैं अपने घर वालों के अडि़यल रवैए से नाराज होकर उदास खड़ी थी तो यही लड़का था जिसने मुझे गले लगाकर अपने सच्चे प्यार का इजहार करते हुए प्यार से समूचा नहला दिया था मुझे। कितनी दूधिया हो गई थी मैं अचानक । कुहरे में निकली उजली चटख धूप की तरह कितनी चमकदार हंसी से समां निखर उठा था। ऐसे ही चंद महीने बीते होंगे कि एक दिन अनायास मुझे कुछ जरूरी कागजात लेने दफ्तर से दुपहर तीन बजे के आसपास रूम पर लौटना पड़ा। चूंकि हम दोनों के पास ही कमरे की काॅमन चाबियां रहतीं जिन्हें हम अपनी सहूलियत के हिसाब से आजादी से इस्तेमाल कर सकते थे।
उस समय ड्राइंगरूम का दरवाजा खुला था और वो बालकनी में खड़ा खड़ा किसी से जोर जोर से बतिया रहा था। मैं चुपके से उसके पीछे खड़े होकर चैंका देना चाहती थी तभी मेरे कान में अपना नाम सुनाई पड़ा सो मेरे कदम आगे बढ़ते बढ़ते रूक गए। आवाजें ही आवाजें
‘ कोमल जैसी लड़कियों से शादी की बात तो कभी सपने में भी सोच सकता मैं। नो , नैवर। जस्ट इंपासिबल। दीज गल्र्स आर लाइक यूज एंड थ्रो टाइप। आई नो , मुझसे पहले उसे किसी ने छोड़ा था। ऐसी खराब लड़कियों में कोई शर्म लिहाज वगैरा तो होता नही। जानता हूं , ऐसी लिबरेटेड वूमैन को बर्दाश्त करना आसान कहां होता है ? खुलेआम किसी को भी गले लगा लेना उसके लिए रूटीन बात है। यकीन करो दीदी , मैं तो आपकी पसंद की किसी भी सीधी सादी लड़की से ही शादी करूंगा। किसी कमाऊ लड़की से शादी करके कोई झमेला नही पालूंगा। बात बात पर वे आजादी , बराबरी और अपने स्पेस लेने जैसी बकवासवाजी करती रहती। उनसे जिरह करने में माथा खराब हो जाता। ठीक कहा आपने , ऐसी लड़की से शादी करके मैं सुकून भरी जिंदगी जीना चाहता जिसकी जिंदगी में सिर्फ और सिर्फ मेरी अहमियत हो और जो मेरी नजरों से दुनियां से देखे , न कि उसकी नजरों से मुझे देखना पड़े। फारवर्ड लड़की के आगे पीछे जासूसी कैसे की जा सकती है भला ? नैवर
बस , इससे ज्यादा नही सुनाई पड़ रहा। उसके मुंह से लगातार फिकते रहे गर्म आग के शोले जिनसे जलता रहा मेरा सर्वांग। मेरे हाथ का सामान जमीन पर गिर पड़ा और मैं सीधे धम्म से बिस्तर पर । आंसू थे कि रूकने का नाम ही नही ले रहे थे। उसके बोले एक एक शब्द हथौड़ी की तरह सीधे दिल पर चोट करने लगे। ‘ ऐसी ज्यादा पढ़ी लिखी लड़की के साथ का क्या मतलब जिसका अपना कोई कैरेक्टर ही न हो ? ऐसी लड़कियां के दिमाग में बराबरी का फितूर उन्हें पागल बना देता। ’
मैं इसे कितना ज्यादा समझदार , संवेदनशील और प्रगतिशील लड़का मानती रहीं जबकि ये भीतर से कितना दोगुला , दकियानूसी और टिपिकल ट्रेडीशनल मर्द वाली सामंती सोच का नमूना भर था। उसने पलटकर एक बार मेरी तरफ देखा भर फिर सकपकाते हुए मूरत बनकर जड़वत खड़ा रहा। जब मैंने चीखकर पूछा - ‘ क्या बक रहे थे ये सब ? तो तुम मेरी जिंदगी का सबसे बदनुमा दाग थे , कितने गलत लड़के के साथ मैं इतने दिनों इन्वाॅल्व क्यूंकर होती गई ? बोलो , क्यों किया तुमने ये सब ? महज खेल था क्या ये तुम्हारे लिए ? या कोई नया प्रयोग ? ’ बिना जबाव दिए वो चुपचाप वहां से चलता बना।
जबाव वक्त ने जरूर दिया। दरअसल उसने किसी और लड़की के साथ भी सालों से अफेयर चला रखा था जिससे अगले महीने वो शादी करने वाला था। एक साथ दो दो जगह मुंह मारने वाला कैसा बंदा था ये ? ओफ ! जीवन का कितना दर्दनाक , कितना बदसूरत हादसा घटा था ये मेरे साथ जिसने खूब जांच परखकर शादी करने का सोचा था।’ सब कुछ कोपल को बताकर दिल का बोझ हल्का करना चाहती थी।
‘ एक लिहाज से तो ये अच्छा रहा कि उसका असल रूप सामने आ गया। शादी के पहले ऐसी दकियानूसी सामंती सोच वाले की असलियत पता चल गयी वरना बाद में मेरी तरह पछताना तो न पड़ता। ’
रो रोकर बुरा हाल था कोमल का। उसका लगातार बोलना जारी था- ‘ मैंने अपनी इन्ही नाजुक उंगलियों से उस नालायक के घोंसलेनुमा बालों में तमाम तरह के ख्वाबों की तस्वीरें उकेरी थी। इसी , इसी घर की बालकनी पर रखे तुलसी के पौधे पर रखे भगवानजी की पूजा करते हुए उसके साथ घर बसाने के सपने देखा करती। उसकी बेहतरी के लिए न जाने कितने व्रत किए ? उसकी कामयाबी के लिए क्या क्या नही किया ? उसे लेकर अपने बाॅस के पास भी गई थी- ‘ सर , इसके लायक कोई ढंग का जाॅब , प्लीज सीवी देख लीजिए सर ...’ बाॅस ने टेढ़ी नजरों से मेरी तरफ सवालिया निगाहों से देखकर कहा था - ‘ देखेंगे। ’
न , इस घर में अब एक दिन भी नही रह सकती। पहले जब कभी वह मेरी आंखों में आंसू देखता तो झट से बोल पड़ता- ‘ अगर तुम्हारी आंखों में आंसू और दिल में उदासी है तो यह मेरी हार है। मेरी प्रिया की आंखों में तो सिर्फ सुंदर सपने होने चाहिए , सपनों 
में  हों सुंदर फूल , सुहानी वादियां और ऊंचे ख्वाब। ’
‘ नो मोर पोइम टाइप डायलाग प्लीज। ’ चिढ़चिढ़ाते हुए बीच में ही टोक देती।
‘ कोमल , तुम्हारा ये रोना , चीखना चिल्लाना , बनता बिगड़ता मूड और ये पागलपन के दौरे , इन सब पर मेरा अख्तियार है बस। तुम्हारी सारी खूबियों , खामियों के साथ प्यार जो करता हूं तुमसे और ऐसे ही तुम्हें बांहों में थामे थामे ही करता भी रहूंगा। निखालिस , सौ कैरेट का प्यार है ये , सच्चा और खरे सोने की तरह।’
‘ डायमंड की तरह नही ? ’ उन बातों का विट और ह्युमर से वह रोते रोते हंस पड़ती और हम घंटों सुधि -बुधि बिसराए वौराए प्रेमियों की तरह एक दूसरे में गुत्थमगुत्था हो जाते। तब कितना कितना प्रोटेक्ट करता था ये जो आज क्या क्या बक रहा था- ‘ ऐसी वैसी बिगड़ैल लूज कैरेक्टर वाली लड़की से शादी के साथ शादी की बात तो सोच भी कैसे सकता हूं मैं ? नैवर , कितनी ज्यादा एग्रेसिव है और सेक्सुअली लिवरेटेड भी तो। ऐसे लोगों को किसी के साथ भी हमबिस्तर होते देर नही लगती। ’
‘ सुनो , तुम्हें इस सीरियसली अपने अगले महीने के इंटरव्यू के बारे में सोचना चाहिए। आज के जमाने में करियर से ज्यादा जरूरी चीज और कुछ नही। समझीं कुछ ? मैंने कहीं पढ़ा है कि संसार का कोई भी पुरुष किसी भी स्त्री की जिंदगी को कभी भी पूरी तरह से नही भर सकता। हरेक का अपना अलग व्यक्तित्व होता है और सबकी अपनी अपनी सीमाएं भी। सो माई डियर कोमल , ऐसे हादसों से गुजर जाने के बावजूद खुद को प्यार करना कभी मत छोड़ना । बी योर आॅन।प्लीज कम आउट आॅफ इट। अपने को एक मौका और दो। ’
कोपल उसे लगातार कन्विंस करती रहीं। सच तो ये था कि हम एक ही दौर में दो अलग अलग हिस्सों की अलग ढंग से जी रहे थे। वे देर तक साथ रहीं। कोमल की त्रासदी देखकर कोपल ने अगले महीने अपने घर वालों की पसंद से चुने लड़के से शादी करने का फैसला कर लिया।



त्रिकोण से निकलता चैथा कोण-
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कोपल के घर वालों ने बहुत सोचसमझकर नोएडा में ही बड़े बंगले वाला तथाकथित नामी खानदान का ऊंचे ओहदे वाला लड़का चुना था। कोपल की हां सुनते ही वे सब खुश थे , खूब खूब उत्साहित भी। हंसते हंसते खूब सारी शाॅपिंग कराई गई। बार बार उसके भावी ससुराल का गुणगान करते मां अघाती नही थी।
‘ तू किस्मत वाली है जो इतने बड़े घर जा रही है , एकलौता वारिस है वो। न , कोई डिमांड नही। सबका बड़ा मीठा स्वभाव है। लड़का सोबर है , आजकल के लौंडों जैसा उचक्का बदमाश नही। बड़ा शांत है वो तो। ’
‘ तो फिर इतना तामझाम 
क्यों कर रहे आप लोग ? ’ वह झुंझलाकर पूछती। 
‘ बस , यही चाहते हैं वो। खूब सारा शोवाजी , दिखावा , शानदार ढंग से शादी। ’ वे बड़े गुरूर से बताती।
शादी के बाद 6 महीने तक उनका नाटक खूब बर्दाश्त करती रही। बड़े घर के लोग भीतर से इतने छोटे और तमीजदार निकले जिन्हें हर महीने उसकी तनखा चाहिए थी। रसोई के कामों में भी उसका पूरा सपोर्ट। अक्सर उसकी कोमल से फोन पर बातें हो पाती। वह कुरेदकर पूछती तो उसका टेप खुल जाता।
‘ और तेरा वो पति ? प्यार व्यार तो करता होगा ? ’
‘ पता नही। मुझे तो निहायत दब्बू और डरपोक लगता। बात बात पर घर वालों के सामने जिसकी बोलती बंद हो जाए , उसके बारे में क्या कहूं ? टीवी सीरियलों की दबंग 
सासूजी जैसी अड़ियल है , हर बात पर रोका टोकी। मसलन- ये क्या , रसोई में इतना सारा सामान क्यों फैला देती ? आज सुबह नाश्ते में पोहा और दही तो शाम को इडली। अरे , तुम्हें तो काम करने का जरा भी शउर नही। कुछ नही आता जाता तुम्हें। कुछ नही सिखाया गया। हुंह ! मैं शाम को थकी हारी घर लौटती और रोज ही रसोई में खटना पड़ता। ’
‘ और तेरे पतिदेव ? कुछ नही कहते ?’
‘ न , उसके मुंह से बोल नही फूटते जैसे मौनी बाबा हो कोई। ज्यादा कुरेदने पर एक ही बात बोलता- उन्हें कभी पलटकर जबाव नही दिया मैंने कभी सो अब नए सिरे से क्या बोलूं ? उनसे जुबान लड़ाना हमारी कल्चर में नही। वैसे मैंने अरेंज मैरिज अपनी मां की खुशी की खातिर ही की है वरना , ’
‘ वरना क्या ? ’
‘ कुछ नही , कहकर वह करवट बदलकर सो जाता। सच तो ये है कि हमारे बीच कोई गहरा लगाव यानी भावनात्मक आधार है ही नही। एक दिन घने कुहरे के मौसम में मैंने रिक्वैस्ट किया- ‘आज दफ्तर छोड़ दोगे ? तुम्हारी कार ले जाऊं ? देर हो रही है। ’
उसने लेटे लेटे अनमने मूड में जबाव दिया- ‘ तुम्हारा ये रोज रोज का नाटक है। गाड़ी का इतना ही शौक था तो मायके से दहेज में 
क्यों नही लाईं ? ’ सुनते ही इतना तेज गुस्सा आया कि क्या बताऊं। बोलो , ये कैसा लाइफ पार्टनर है कि मुझसे कोई भी कुछ भी कहता रहे मगर बंदा कान में रूई डाले लेटा रहेगा। एक शब्द नही बोलेगा। आज तक किसी भी बात पर कोई स्टैंड नही लिया। बाप रे ! कैसा पत्थर दिल इंसान है ये ।तो ऐसे होते है ये बड़े बंगले गाड़ी वाले। ’
‘ घर पर बात करो न जिन्होंने तारीफों के पुल बांधे इस रिश्ते के लिए। ’
‘ बोला था। तो वे उल्टे मुझी को नसीहत की पट्टी पढ़ाने लगे। एकाध बच्चा हो जाएगा तो सब ठीक हो जाएगा। ऐसे छोटी मोटी बातों पर नही उलझते। आजकल ऐसी बुरी हवा चल पड़ी सो जरा सी बात पर बच्चे शादी तोड़ने की बात सोचने लगते। ऐसा सोचना भी नही वरना हमारे परिवार की नाक कट जाएगी। सुन रही है न ? तेरी पढ़ाई ने दिमाग खराब कर दिया तेरा। उसके पास इतनी प्राॅपर्टी वगैरा है , किस बात की कमी है ? बता , सुनते ही फोन पटक दिया। सच में कोमल , मैं उन टिपिकल सहने , खटने या मरने वाली लड़कियों में शुमार नही होना चाहती। न जाने कहां खो गई वो चंचल , हंसमुख , तेजतर्रार और बोल्ड कोमल ? ’
ठीक एक साल बाद- शायद करण यानी मेरे पति को ये लगता कि उसके रुपए पैसे या प्राॅपर्टी मेरा मुंह बंद करने के लिए काफी है। जब त बवह अपने पैसे के किस्से बखानता रहता जिसे सुनकर बोर हो चुकी थी मैं जबकि पैसों से ज्यादा प्यार , केयर और लगाव पसंद था मुझे। रोटी तो मैं खुद कमा लेती। जहां प्यार न हो , वहां पैसा किस काम का ? सो हमारा बात बात पर अक्सर झगड़ा हो जाता। छुटपन से ही मैं सबसे लड़झगड़कर फिर जल्दी से सुलह करने की पहल कर लेती। मुझसे ज्यादा देर तक अनबोला नही रहा जाता सो झटपट साॅरी बोलकर माहौल सम पर ले आती मैं। हमारे इस रिश्ते में भी ऐसा ही होता रहा। घर दफ्तर और रिश्तेदारियों के झमेलों के बीच रोज बिखरती टूटती फिर नए सिरे से खुद को अगले दिन की जेद्दोजेहद के लिए तैयार कर लेती। पति के साथ हर रोज खटमिट्ठे अहसासों से गुजरती किसी तरह जीती रही मगर इतनी हिम्मत नही जुटा पाती कि शादी तोड़ दूं। मैं चाहती कि हम घर के लिए सामान वगैरा साथ साथ खरीदूं लेकिन वह बड़ी बेरूखी से कहता- पैसा ले जाओ और खुद अपनी पसंद से जो चाहे ले आओ। कभी कमरे के मैचिंग पर्दे , तो कभी काॅफी मग्स , कांच के गिलास , डिनर सैट और ग्राॅसरी के सामान भी अकेले अकेले ही ले आती। न वो कभी मेरी बात ध्यान से सुनता , न उसके पास मुझे घुमाने के लिए समय होता। कभी जब मनुहार कर कहतीं भी -‘ चलो , कहीं बाहर खाकर आते है , थोड़ा घूम फिर लेंगे और थोड़ी बहुत शाॅपिंग भी।
‘ सुनो, दिन भर काम करके थककर आया हूं। दिमाग मत चाटो। जो खरीदना हो , खुद खरीद लिया करो। किसी ने रोका है क्या ? पैसे रखे रहते है .....। ’
उसके बोल पत्थर बनकर सर पर बरसते रहते। वैसे मुझे नई नई जगहों पर घूमने का कितना शौक था लेकिन हम कितने विपरीत 
ध्रुवों पर विचित्र विरोधाभासों के साथ जीने की मजबूरी ढो रहे थे। मेरी समझ में जल्दी ही आ गया कि मेरी खुशियों की चाबी इस बंदे के पास तो कतई नही। हम एक ही घर में अकेलेपन के घेरों के साथ जीने की मजबूरी ढो रहे थे। न वो मेरे अंतरंग को छूता और मैं उसके खास हिस्सों तक जाने का मन बना पाती। धीरे धीरे से यहां से ध्यान हटाकर मैंने अपने करियर को बहुत सधे तरीके से हैंडिल करने पर एकाग्र किया। तभी मुझे अचानक आॅफिस ट्रिप पर गोवा जाने का दुर्लभ मौका हाथ लगा जहां मैं करण के साथ छुट्टियां मनाने आना चाहती थी लेकिन उसने ऐन मौके पर मना कर दिया था लेकिन इस बार मैं अपने आॅफिस के सहकर्मियांे संग आई थी। वहीं , नए साल की उस जश्न के माहौल वाली सर्द रात में मैंने पहली बार करण को एक लड़की के साथ बांहों में बांहें डाले नाचते देखा था। मैं आंखें गड़ा गड़ाकर देखती रही , अपनी इन्ही नंगी आंखों से। अरे ! ये तो वही सीमा थी जो मेरे काॅलेज में किसी मनोज नामक लड़के के संग घूमती फिरती थी। पता चला कि सीमा तलाकशुदा थी , दो बच्चों की मां। न जाने कब से दोनों साथ साथ थे। 
मेरे मुंह से आवाज नही निकल पा रही थी। उसकी बोली हर बात पर आंसू भर आते। कम बोलने वाला सभ्य सोबर करण की सीमा के साथ नजदीकियां देखकर उसी पल झटपट उसने अपना दोटूक फैसला भी सुना दिया- ‘ सुनो , मैं तुम्हें ये सब बताना चाहता था मगर मां के दबाव के चलते तुम्हें सच बताने की हिम्मत नही जुटा पाया। ये शादी मैंने उनकी खुशी की खातिर करनी पड़ी। ’
‘ तो अब ? क्या करना है ?’ मैंने रूंधे गले से कहा।
‘ हम चाहें तो जैसा चल रहा है , चलने दें। चाहो तो तलाक ले लो। ’ मितभाषी बंदे ने अपना मुंह खोला इस बार। उस दिन पता चला कि ये ढुलमुल आदमी कतई नही था। बस , इस रिश्ते को किसी तरह घसीटकर धक्का देकर चलाने की कोशिश कर रहा था। उस दौरान मां पापा के बोल -अगर तुमने तलाक लिया तो चार लोगों के सामने नाक कट जाएगी और छोटी बहन का ब्याह कैसे होगा ? ऐसे सवालों ने मेरा रास्ता कतई नही रोका। मैं एक झटके से सब कुछ जस का तस छोड़कर बाहर निकल आई। रात का गाढा अंधेरा , अकेली मैं और मेरा साया अंधेरे से एकरूप हो गए थे। ऊपर से तथाकथित स्ट्रंाग वूमैन का ठप्पा लगाए मैं सचमुच भीतर से इतनी कमजोर और बुजदिल निकली। पहली बार ऐसा हुआ कि मैंने अपने मां पापा को अपने इस फैसले के बारे में सलाह मशवरा नही लिया। न ही तथाकथित ऊंचे खानदान वाली ससुराल की प्राॅपर्टी के बारे में कोई आवाज उठाई। मेरे पास बस मेरी सेलरी थी और चंद कलीग्स जिनके कंधे पर सिर टिकाकर मैं सुकून से सांसें भर सकती थी। अब पीछे मुड़कर देखने का जरा भी मन नही ।हम ऐसे ही भले। अकेले हैं तो क्या हुआ ? आजाद हूं मगर इमोशनल फूल कतई नही। धीरे धीरे मैंने अपने काम पर केंद्रित किया। खाली वक्त में दोस्तों संग घूमने जाती। फिल्में देखती और संडे शाम डांस क्लासेज। अरसे बाद मुझे एक खूबसूरत साथ मिला है गंभीर दत्ता जिनके साथ रहकर मैंने पुरुष के भीतर बसी स्त्री जैसी संवेदनशीलता , समर्पण और करुणा की बहती धारा को महसूसा। हम दोनों एक दूसरे के साथ घंटांे बक्त बिताते हुए उम्र के इस मोड़ पर भी खूब मस्ती करते। घर बसाकर फिर उन्ही 
झमेलों में पड़ने की मंशा नही रही अब। किसी के साथ पूरी ईमानदारी से सुख दुख की साझेदारी को ही प्यार का नाम देंगे आप ? सो वैसी साझेदारी हैं हमारे बीच। इससे ज्यादा और क्या ? हमारा साथ ऐसा जरूर है जिसने हमारी जिंदगी की मुश्किलांे को सहने यानी जीने लायक बना दिया। अच्छा अब बस , बाकी बातें फिर कभी।

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रजनी गुप्त
शिक्षा - यूजीसी द्वारा द्वारा जेआरऍफ़, एमफिल, पीएचडी ( जेएनयू , नयी दिल्ली )
साहित्यिक गतिविधियाँ
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उपन्यास -
'कहीं कुछ और' - वाणी प्रकाशन दिल्ली २००२
'किशोरी का आसमाँ' - किताबघर  प्रकाशन २००५
'एक न एक दिन' - किताबघर २००८
'कुल जमा बीस' - सामयिक प्रकाशन दिल्ली २०१२
'ये आम रास्ता नहीं' - वाणी प्रकाशन दिल्ली १०१३
कहानियाँ
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'एक नयी सुबह' - वाणी प्रकाशन १९९८
'हाट बाज़ार' - नेशनल पब्लिशिंग हॉउस , दिल्ली २००५
संपादन १- 'आजाद औरत कितनी आजाद' - सामयिक प्रकाशन दिल्ली २००७
२- ' मुस्कराती औरतें' सामायिक प्रकाशन दिल्ली २००८
३--'आखिर क्यों और कैसे लिखतीं हैं स्त्रियां' , प्रकाशन पंचकुला
स्त्री विमर्श -'सुनो तो सही ' - सामयिक प्रकाशन दिल्ली २०११
सम्मान पुरस्कार - १-'एक नयी सुबह ' पर उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का सर्जन पुरस्कार एवं युवा लेखन पुरस्कार
२- किताबघर द्वारा आर्यस्मृति साहित्य सम्मान २००६

३- 'किशोरी का आसमाँ ' उपन्यास पर अमृतलाल नागर पुरस्कार - उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान
राष्ट्रीयकृत बैंक में प्रबंधक
पता - 2/२५९ विपुल खंड गोमती नगर 

Tuesday, July 09, 2013

कश्मीर की वादियाँ -रजनी मोरवाल,कवितायें

निंदिया के पाँव-रजनी मोरवाल------------------------------------









1-

रिश्तों की मधुशाला





कैसे मन का दीप जलाऊँ

खुशियाँ पर जाले हैं,

रिश्तों के द्वारे पर कब से

पड़े हुए ताले हैं |



सोने के पिंजरे में पालूँ

मोती रोज चुगाऊँ,

साँसों की वीणा में गाकर

प्यारा गीत सुनाऊँ |



रिश्तों के पंछी ने आखिर

डेरे कब डाले हैं ?



कितना चाहूँ और सहेजूँ

सपनों‌ से नाजुक हैं,

जन्मों की चाहत से परखूँ

आँसू से भावुक हैं |



रिश्तों के मधुशाला में तो

दृग- जल के प्याले हैं |



पर्वत -सी ऊँचाई इनमें

नदियों से आकुलता,

झीलों- सी गहराई इनमें

सागर-सी व्याकुलता |



रिश्तों की पीड़ाओं के पग

छाले ही छाले हैं |

*****************


2-

तुम्हारा ख़त





तुमको याद किया जब - जब दिल मेरा भर आया |

बहुत दिनों के बाद तुम्हारा गीला ख़त आया |




शब्द-शब्द की व्यथा बाँचते

तन­ - मन मुरझाया,

बाँसों के जंगल में जैसे

सन्नाटा छाया |



पलकों ने पीड़ाओं का फिर आँगन बुहराया |




आँसू टपके छिन -छिन आँखें

हारी बेचारी,

बदली आकर जैसे सींचे

पलकों की क्यारी |



प्रेम - पत्र में साजन ने सपनों को बरसाया |



सूने आँगन में बिखरी

बिन साजन तन्हाई,

यौवन में सावन की बूँदों

ने ली अँगड़ाई |



काग़ज -पाती में प्रियतम का मुखड़ा मुसकाया |

*******************




3-


निंदिया के पाँव






निंदिया के पाँव चले सपनों की ओर

नयनों से झाँक रही काजल की कोर |



यादों ने करवट ली

खोल दिए नैन,

योवन ने छीन लिया

तन-मन का चैन |



प्रेमिल उन्माद जगा नाचे ज्यों मोर |


साजन के द्वार चली

प्रीति की पतंग,

जीवन की डोर बँधी

प्रियतम के संग |


आँगन में रिश्तों-सी उतरी है भोर |


मौसम ने ऋतुओं के

खोले भुजबन्ध,

अंगों में लहराई

फागुनी सुगंध |






अँगिया को चूम रहा चूनर का छोर |


   ♦♦♦



4-
कश्मीर की वादियाँ
-----------------------

ऋतुओं के आँचल में फूलों के तार
कलियों ने बाँधी हैं झूम के कतार|

कश्मीरी वादी में
काँपती तरंग,
घाटी भी देख रही
केशर का रंग|

दूर तलक बिखरे हैं घने देवदार|

झीलों में तैर रहे
सतरंगी फूल,
पर्वत से नदियाँ की
देह गई झूल|

सिरहन ने माँग लिया धुप को उधार|

धुंधियाते आँगन
औ' मिट्टी के गाँव,
जाड़े की रातों में
ठिठुर रहे पाँव|

खेतों के दामन में शीत की फुहार|
*** 





5-

ओस-सा मन

वेदना  से  पिघलता है मोम-सा  मन|

आँधियों  ने राह रोकी  जब कभी
दर्द   सहलाए  बवंडर  ने  सभी
खुल गयी परतें सभी उम्मीद की,

टिक गया है फुनगियों पर, धुप-सा मन|

मखमली   बाँहे  हुई  अभिसार  में
खिल  गए हों ज्यों सुमन पतझार में
घाटियों  में  तान चादर  साँझ  की,

छिप  गया है  बादलों में चाँद-सा  मन|

प्रीति की चटकी कली जब बाग़ में
देह  सारी  सिहरती  अनुराग  में
क्या जगी है कामना उन्माद की?

घुल  गया  सूरज-किरण में ओस-सा मन|
***

परिचय-पत्र

     
श्रीमती रजनी मोरवाल                                      
                                           
जन्म-तिथि       :       1 जुलाई 1967
जन्म-स्थान       :       आबूरोड़ (राजस्थान)
शिक्षा            :       बी.ए.(हिन्दी), बी.कॉम, एम.कॉम, बी.एड. 
संप्रति           :               केन्द्रीय विद्यालय  में शिक्षिका के पद पर कार्यरत
प्रकाशन          :               (1) काव्य-संग्रह - सेमल के गाँव से
                                                (2) गीत-संग्रह  - धूप उतर आई
                     (3) गीत‌‌-संग्रह  -  “अँजुरी भर प्रीति

सम्मान                    :       (1) वाग्देवी पुरस्कार
(2) रामचेत वर्मा गौरव पुरस्कार
(3) हिन्दी साहित्य परिषद, गुजरात द्वारा आयोजित काव्य
                            प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्ति स्वरूप रजत पदक एवं
                            प्रशस्ति-पत्र से, महामहिम श्रीमती (डॉ.) कमला बेनीवाल,
                            राज्यपाल, गुजरात द्वारा हिन्दी पर्व पर पुरस्कृत।

                        (4) अस्मिता साहित्य सम्मान 
मूल-निवास       :       23/97, आर्ष स्वर्ण पथ, मानसरोवर, जयपुर 302021

सम्पर्क-सूत्र       :       सी‌- 204, संगाथ प्लेटीना, साबरमती-गाँधीनगर हाईवे,
मोटेरा, अहमदबाद -380 005

दूरभाष          :       079-27700729, मोबा.09824160612
                                 *** 

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