Thursday, June 13, 2013

मैं टोनही नहीं हौं - डा.ममता गोयल

मैं टोनही नहीं हौं - डा.ममता गोयल



"स्त्री जीवन समाज द्वारा बनायीं गयी रुढ़िवादी परंपरा के जहरीले मकड़जाल में जकड़ा हुआ है जिसमें फंसकर उसका समस्त जीवन धीरे धीरे नष्ट होता रहता है, जिस स्त्री ने  इस मकड़जाल से निकलने की कोशिश की उसे  समाज किसी न किसी साजिश के तहत प्रताड़ित करता है .
 'मै टोनही नहीं हौ' कथा पत्रिका में  अंक-17, मार्च 2013  में प्रकाशित   ममता गोयल जी की  बेहद मार्मिक कहानी मन को छू गयी , श्मशान.....जहाँ जीवन यात्रा का अंतिम पड़ाव भी समाप्त हो जाता है वहाँ प्रेम – पथिक की  यात्रा के आरम्भ का अद्भुत सजीव चित्रण है कहानी में .... "










     बैसाखिन में कुछ तो था जो उसे अन्य छत्तीसगढ़ी ग्रामीण औरतों से अलग करता था ! फिर चाहे वो उसका गोरा रंग या सुंदर नयन–नक्श हों या फिर गजगामिनी सी चाल| कसी माँसपेशियों वाली सुगठित युवा देह, जिस पर बिना ब्लाउज़ के मात्र साड़ी लपेटी हुई.....लेकिन लपेटने का सलीका ऐसा कि ब्लाउज़ की जरूरत नहीं रहती थी। हाथों में भर–भर चूड़ियाँ और पैरों में ऐंठी और बिछुए| दोनों ‘चीकबोन्स’, ठोढी और गले के थोड़ा नीचे गोदना| एक अजीब-सा आकर्षण था उसमें| तेल से सने बालों के बीच लम्बी माँग इस तरह भरी हुई, मानो एक कण भी कम हो जाए तो उसके पतिव्रता होने पर प्रश्नचिन्ह लग जाए|


परन्तु आज यह सिन्दूर उसके जीवन के रंगमंच पर अपना छोटा – सा ‘रोल’ पूरा चुका था| बैसाखिन छाती पीट–पीटकर ऐसा विलाप कर रही थी कि रुदालियों को भी पीछे छोड़ दे –
 “कौन डहार चले गिस मोर राजा sss.....!
तोला कहाँ से लावों मोर जाँवर .......!
जिस पति ने उसे कभी सुख नहीं दिया , उसकी मृत्यु पर इतना रुदन ! ऐसा विलाप !

बैसाखिन शायद अपने आँसुओं में अपने अभिशप्त विवाहित जीवन की कटुता भी बहा देना चाहती थी| समारू शराब पीकर उसे बहुत मारता – पीटता था| कोई कहता कि वह किसी दूसरी औरत के चक्कर में है तो कोई कहता सुंदर पत्नी के घर – घर काम करने के कारण शक्की हो गया है| बहरहाल कारण जो भी हो निवारण एक ही था – निर्दोष पत्नी की पिटाई! अक्सर बैसाखिन की आँखें सूजी हुई होतीं और शरीर पर नील पड़े होते जो समाज के उस तबके के बर्बर रूप का आईना बन जाते|

समारू की माँ उसे कई – कई दिन खाने को नहीं देती| भूख से बिलखता दुधमुँहा छुन्नू माँ की छातियों में ममता की बूँदें खोजता और कुछ ना मिलने पर और चीख-चीखकर रोता| बैसाखिन इसे अपनी नियति मान चुप सहती रहती| वह दिन भर लोगों के घरों में काम करती और रात को शराबी पति द्वारा नोंची – खसोटी जाती| दिन गुज़रते गए और मन-मस्तिष्क से रुग्ण पति शरीर से भी रुग्ण होता गया और अंततः एक दिन जीवन से किनारा कर गया| लेकिन  समारू की चिता के साथ बैसाखिन के जीवन की यातनाएँ भस्म नहीं हो पाई| अब उसके ससुरालवालों ने यह उपाय सोचा कि बैसाखिन को उसके किशोर देवर मंगलू के नाम की चूडी पहना दी जाये जिससे कि वह घर का सारा काम भी करेगी और कमाकर भी लाएगी | सौदा घाटे का नहीं था | बैसाखिन इन सबसे अनजान अपने जीवन को व्यवस्थित करने का प्रयास कर रही थी |

एक दोपहर जब वह काम से लौटी तो घर में हलचल –सी थी |कुछ गाँववाले जमा थे | मंगलू सामने पड़ते ही नज़रें चुराकर निकल गया | वह छुन्नू को गोद में लेकर भीतर जाने लगी, तभी एक बुज़ुर्ग की आवाज़ गूँजी–
ऐ बैसाखिन ! सुन  ! आज तोला चूरी पहने बर हावे | तोर अउ तोर लइका के भलाई बर हम मन ए निर्णय लिए हैं |

मोला मोर हाल पर छोर दे ददा | मोर भाग में आदमी के जौन सुख – दुःख रहिसे .....ओला देख डारे हौं | मैं कौनो के नाँव के चूरी नी पहिनौं | बैसाखिन ने शांत व दृढ स्वर में कहा |

तैं एही घर में रहबे | तोला मंगलू के नाँव के चूरी पहने बार हावे| बुज़ुर्ग ने समझाया |

 “मंगलू! बैसाखिन का दिमाग झन्ना गया | शरीर मानो कई टन भारी हो गया | रगों में खून कहीं रुक सा गया | अपमान, पीड़ा एवं ग्लानि के मिले – जुले भाव अनायास उसकी आँखों से बह निकले | वह क्रोध से काँपती हुई आँगन के बीचोंबीच खड़ी चीखने लगी _
अरे तुम मन आदमी हो कि जिनावर ? मोला ए मंगलू के नाँव के चूरी पहिनाहू ? जौन ला अपन लइका जइसे पाले हौं ....ओखर नाँव के चूरी पहिनहूँ ? वह भावावेश में बोले जा रही थी और आँखों से आँसू बहे जा रहे थे |
ए मंगलू रे ! तैं काsबर चुप हस ? तोर माँ जइसन हौं मैं हर | तै कइसे मान गिस रे टूरा ? बता मोला| वह मंगलू को झिंझोड़ते हुए बोली |
आप मन जाओ जी सब झन अपन–अपन घर| कोई चूरी नी पहिनौं मैं"  बैसाखिन ने अपना निर्णय सुना दिया |

लोग बैसाखिन और उसके घरवालों को भला –बुरा कहते लौट गए | वैसे भी चूड़ी – प्रथा में बहुत जोर – ज़बरदस्ती नहीं की जाती, सो यहाँ बैसाखिन की चल गई | परन्तु इसके परिणामस्वरूप ससुरालवालों का व्यवहार उसके प्रति और बुरा हो गया |

एक रात बैसाखिन अपनी कोठरी में छुन्नू को दूध पिलाते – पिलाते गहरी नींद सो गई | उसकी साड़ी घुटनों तक सिमट गई थी| जब वह नींद में बेसुध थी, उस समय नशे में धुत्त ससुर दबे पाँव उसकी कोठरी में दाखिल हो गया | माँ का उघड़ा आँचल और स्तनपान करता शिशु जहां प्रकृति सबसे अनुपम तस्वीर है, वहीँ इसका मूर्त रूप उस कापुरुष को उत्तेजित कर रहा था| उसकी इस भूख के आगे ना कोई रिश्ता आड़े था और ना ही बैसाखिन का वैधव्य| शरीर पर अपरिचित स्पर्श व नाक में ठर्रे की दुर्गन्ध पाते ही वह झटके से खड़ी हो गई और उससे उलझ गई | बैसाखिन की चीखें और गालियाँ सुनकर मंगलू लालटेन लेकर भागा | पीछे – पीछे माँ और बहनें भी आ गई |

लालटेन की रोशनी में पिता का चेहरा देख वह अचकचा गया | बैसाखिन की लाल आँखें आग उगल रही थीं उसका पूरा शरीर काँप रहा था चेहरे पर बिखरे बाल उसकी हाँफती साँसों के साथ हिल रहे थे और होठों की कोरों पर सफ़ेद झाग आ गए थे | गले से अजीब गुर्राहट-सी निकल रही थी |
ससुर सबको सामने देख तपाक से बोल पड़ा

मैं हर पिसाब करे बार उठे रहौं, त एखर कोठरी डहार से मंतर पढ़े के आवाज़ आत रिहिस | मोला देखके गुस्साss गिस अउ मोला मारे बर घींच लिस| ए हर टोनही हावे| एही खा डारिस मोर लड़का ला.....टोनही हावे ये ....टोनही....

अब तो चारों तरफ से बस एक ही आवाज़ आ रही थी– टोनही...टोनही...टोनही...!

छत्तीसगढ़ में टोनही डायन को कहते हैं और यह माना जाता है कि वह तंत्र –मन्त्र, जादू-टोना करती है। वह जिस पर भी अपनी बुरी नज़र डाल दे, वह बीमार पड़ जाता है और मर जाता है | यह पुरुषों को लुभाकर उनका खून पी जाती है | किसी औरत के टोनही होने की घोषणा होते ही गाँव में होने वाले हर अनिष्ट का आरोप उसके ऊपर मढ दिया जाता | अब बैसाखिन को लोग घृणा-भाव से देखने लगे थे और उससे बचकर चलने लगे थे। लोग अब अपने बच्चों को उसकी छाया से भी बचातेपारिवारिक प्रताड़ना अब सामाजिक प्रताड़ना का रूप ले चुकी थी | वह कभी सोचती कि ढेर सारे धतूरे के बीज खाकर हमेशा के लिए सो जाए, लेकिन स्तनों से चिपका छुन्नू उसे वो नारकीय जीवन जीने को मजबूर कर देता।

एक सुबह पता चला कि पड़ोस में बुधराम की मौत हो गई है | कल शाम वह खेत में पानी लगाने गया था, नशे में घर लौटा और सो गया| सुबह मात्र देह शेष थी जो काली पड चुकी थी | संभवतः किसी ज़हरीले साँप ने काटा था | अक्सर गाँव में खेतों में ऐसी दुर्घटनाएँ घट जाया करती थीं| लेकिन  जब वह वहाँ पहुँची तो बुधराम की माँ बैसाखिन का नाम लेकर चिल्लाने लगी,
अरे टोनही रे ! तै मोर बच्चा ला खा डारिस ...... मोर बद्दुआ है तहूँ पटपटा के मरबे......तोरउ लइका तोर आँखी के आगे पिरान छोरही ..... निर्दोष बैसाखिन स्तब्ध खड़ी रह गई | बुधराम की पत्नी ने उसके बाल पकड़कर बाहर धक्का दे दिया| आसपास खड़े लोगों के सिर पर जैसे शैतान सवार हो गया – मारो-मारो, डायन हावे साली......कोनो ला नी छोरही.....मारो टोनही ला....!
वह अपनी जान बचाकर घर की ओर भागी |

गाँव वाले इस बात पर आमादा थे कि या तो टोनही को उनके हवाले किया जाए या गाँव से निकाल दिया जाए, नहीं तो वह एक – एक करके सबको खा जाएगी| किसी ने सलाह दी कि बैगा गुनिया को बुला लिया जाए, वही निर्णय करे कि क्या करना चाहिए| अन्धविश्वासी गाँव वालों में गुनिया की बड़ी इज्ज़त थी| वे मानते थे कि बाप दादा अपनी सिद्धि इस गुनिया को दे गए हैं टोनही के प्रकोप से अब वही सबको बचाएगा| बस, आनन् – फानन उसे बुला लिया गया|

गुनिया के आते ही वातावरण में सन्नाटा छा गया | अधनंगा शरीर, हाथ – पैरों पर भस्म लपेटे ....माथे पर लाल टीका और गले में रंग – बिरंगे मोटे-मोटे मोतियों की माला | एक हाथ में मोरपंख की झाडू और दूसरे में लम्बी-सी हड्डी | आँगन के बीचोंबीच तगारी में आग जलाई गई | पीले फूल, चावल, उड़द, सरसों, वगैरह एक थाल में रख दिया गया| लोबान का ढेर सा -धुंआ आँगन में फ़ैल चका था |

कहाँ हावे टोनही....?लाओ ओला",गुनिया रोबदार आवाज़ में बोला |
औरतें भीतर से बैसाखिन को घसीटकर बाहर ले आई  और तंत्र – मन्त्र, जादू – टोने का एक ताण्डव शुरू हो गया| वह निरीह औरत अपराधी सी- सर झुकाए बीच में खड़ी थी | गुनिया उसके गिर्द गोल – गोल घूमकर मन्त्र बुदबुदाता और कंधे पर टंगे झोले में से मुट्ठी भर कुछ आग में डालता| भक्क से लपटें उठतीं और वह डर जाती| धीरे –धीरे गुनिया की आवाज़ तेज़ होती जा रही थी | लोग तमाशबीन बने मानो कोई खेल देख रहे थे |

चूंदी खोल दो एखर......अभींचे झूँप–झूँपकर बताही सच ला| मोर मार के आगे ए टोनही नीं टिक सकेi|iगुनिया ने हुक्म दिया |

सास ने आगे बढ़कर उसका जूडा खोल दिया | लम्बे बाल बैसाखिन की पीठ पर बिखर गए | गुनिया ने इमली की पतली सोंटी हाथ में ली और खींचकर उसकी नग्न पीठ पर मारी .....सटाक ! सटाक !
बोल, टोनही हस तैं ? बोल, नाहीं त अउ मार खाबे।"

 दर्द से बिलबिलाती वह औंधे मुह गिर पडी | उसकी गोरी पीठ पर सोंटी के निशान उभर आये और खून छलछला आया | बैसाखिन ने तड़पकर गुनिया की ओर देखा.....उसकी आँखों में आँसुओं के अलावा जाने ऐसा क्या था कि गुनिया का हाथ उठा और हवा में ही रह गया| वह अपलक देखता रह गया उन भोली, बेबस, कातर आँखों को जिनमें दया की भीख भी थी और सवाल भी|

मैं टोनही नहीं हौं गा| मोला झन मार| अपन लइका के कसम खात हौं.......मैं हर टोनही नहीं हौं| जो अपन ला नी बचा सकत ओ अउ कौनो ला का मारही ? तोर पाँव परsथों | जान दे मोला

गुनिया उन आँखों का सामना नहीं कर पा रहा था| आज तक कितनी ही औरतों को वह टोनही करार दे चका था, लेकिन आज पता नहीं क्या हो गया था| सहमी हुई बैसाखिन अब भी गुनिया की ओर देख रही थी| सब गुनिया के अगले कदम की प्रतीक्षा में थे | स्थिति भाँपते हुए वह बोला-
एला देख डारे हौं, बहुत भयंकर टोनही हावे, मसान में पूजा करे बर परही | काली एला मोर ठिकाना पर ले आहू| टाइम लगही|

 वह अपना झोला संभालने लगा तभी कुछ लोग गुस्से में बैसाखिन की और मारने को बढे |

..!, दहाड़ा गुनिया , रुक जाओ तुम मन | कोई एला हाथ झन लगाहू | मैं अभी मंतर से बांधकर जाहूँ , जेखर असर काली सँझा तक रहही | तब तक एखर संग जोर – जबरदस्ती करहू त मंतर के असर चला जाही | फिर महूं कुछु नहीं कर पाहूँ | कहकर उसने बैसाखिन पर सिन्दूर, चावल डाले और मन्त्र बुदबुदाने लगा | फिर मोरपंख की झाडू से उसके चारों ओर गोल घेरा बनाते हुए उसने देखा कि उन आँखों में भय का स्थान अविश्वास और कृतज्ञता ने ले लिया था | गुनिया अगली शाम को लाने का कहकर चला गया |

आज गुनिया बहुत बेचैन था | उसकी आँखों के आगे कभी बैसाखिन की कातर आँखें आ जातीं, तो कभी उसकी गोरी पीठ पर बिखरे लम्बे – लम्बे बाल और अगले ही पल उस पर सोंटी के निशान | उसका मन कसैला हो गया| पहली बार उसे अपने काम के खोखलेपन का आभास हुआ | वह जबसे लौटा था, एक पल भी बैसाखिन उसके दिल – दिमाग से हटी नहीं थी | वह जितना उसके विचारों से मुक्त होना चाहता, उतना ही उनकी गिरफ्त में आता जाता| इस वैचारिक घमासान से बचने के लिए उसने उस दिन खूब शराब पी और गहरी नींद सो गया | नींद खुलते ही फिर वही मंज़र ! सारा दिन वो पानी से भरी दो झीलें उसे भिगोती रहीं और वह शाम का इंतज़ार करता रहा |

शाम होते ही बैसाखिन के घरवाले उसे ले आये | गुनिया ने सबको बाहर बैठने को बोल उसे भीतर बुला लिया | वह भौंचक्की – सी कमरे को देख रही थी जो खोपड़ी, हड्डियों , रस्सी , लाठी ,मोरपंख जैसी चीज़ों से सुसज्जित था | कमरे के बीच एक गोरसी में अंगारे सुलग रहे थे जिनमें से निकलता लोबान का धुआं कमरे में एक रहस्यमयी वातावरण बना रहा था | 

बैसाखिन बहुत डरी हुई थी और बार – बार बंद दरवाज़े की और देख रही थी | क्या करे ,... वह खुद को दरवाज़े के किसी ओर भी तो सुरक्षित नहीं पा रही थी | उसे नीचे बोरी पर बैठने का इशारा कर गुनिया कुछ सामान इधर – उधर करने का उपक्रम करते बैसाखिन के पीछे जा पहुँचा | उसने देखा बाल ढीले से जूड़े में बंधे हुए थे पूर्णतः श्रृंगारविहीन ....लेकिन पोर – पोर सुंदर | गोरी पीठ पर अपने हाथ की सोंटी के दो लम्बे निशान देख वह ग्लानि से भर उठा | क्या  कहे...?क्या करे.....?ऐसी असमंजस की स्थिति पहले कभी नहीं हुई थी | पर बैसाखिन का वहाँ बैठना उसे बड़ा भला लग रहा था | अब वह उसके सामने बिछे कम्बल पर जा बैठा | बैसाखिन ने उसकी ओर देखा ......और ....वह पिघलने लगा....बहुत बोलती थीं उसकी आँखें |

ए मरवाही मोला ’’ वह धीमे से बोला |
तैं काबर मोला बुलाये हस ? मैं टोनही नहीं हौं |"  वह बोली
तोर कहे से मान जाऔं तैं टोनही नहीं हस ? अउ ओ मन जो कहsथें ..... लबारी मारथें ? ”  मोला बईहा समझे हस का ? खुद को संयत कर चुका था गुनिया |

हौ ! ओ मन लबारी मारथें | ए सब ओ डोकरा के काम हावे | ओ ही ....... कुछ कहते –कहते रुक गई वो जान दे.....तैं काबर मोर बात ला मानबे ? मोर भागे खराब हावे , नहीं तो...... भर्रा गई उसकी आवाज़ |
एक चुप्पी छा गई |

तोला डर नहीं लागsथे ? तोर घरवाला सब झन पीट–पीटके मार दिही तोला | अउ बच भी जाबे त गाँववाला मन नहीं छोरही | का चाहत हस रे तैं हर ?

जीना चाह्थों |बैसाखिन के इस जवाब पर गुनिया चुप रहा |
बाहर लोगों की उपस्थिति को समझते हुए गुनिया बीच – बीच में ऊंची आवाज़ में मन्त्र पढता और मोरपंख की झाडू से बैसाखिन को सर से नीचे तक झाड़ा लगाता | ऐसा कुछ नहीं हुआ जिसको लेकर वह आशंकित थी | कुछ देर बाद वह बोला –

अब तैं जा...काली फिर आबे|
काबर ?
गुनिया को कोई जवाब नहीं सूझा | बैसाखिन के घरवालों को अगले दिन फिर लाने को कह वह भीतर चला गया | जो गुनिया गाँव भर में अपनी शक्ति व कठोरता के लिए जाना जाता था, आज खुद को ही नहीं समझ पा रहा था | अगले तीन – चार दिन यही क्रम चलता रहा |
अब बैसाखिन को गुनिया के पास जाने में डर नहीं लगता था | बल्कि उसकी गहरी निगाहें उसे खुद पर अच्छी लगती थीं |जब वह मन्त्र पढ़कर उसके चेहरे पर फूँकता, तो उसके मुँह से आती पान की गंध बैसाखिन को बहुत भाती | 

इधर गुनिया भी  बैसाखिन से मिलने को आतुर रहने लगा था | उसका ख्याल मन से जाता ही नहीं था | बैसाखिन तक ही सिमटकर रह गया था वो | खुद पर आश्चर्य करता कि क्या हो गया है उसे ! रोज़ बुलाना भी तो संभव नहीं था |

आज कई दिन बाद बैसाखिन को बुलाया था | वह आई और चुपचाप अपने आसन पर बैठ गई | गुनिया भी अपने कम्बल पर जा बैठा | आज दोनों चुप थे |.....बिलकुल चुप | बहुत कुछ कहना चाहते थे पर शब्द आँख –मिचौली करने लगे | बीच में जब भी बैसाखिन की नज़र उठती तो हर बार गुनिया की आँखों से टकरा जाती | एक मौन संवाद दोनों के बीच मुखर हो चला था | कुछ देर बाद बैसाखिन ने पूछा –
  मैं जाऔं... ?

गुनिया की जैसे तंद्रा टूटी, – न...नहीं...अभी नहीं ...... अभी झारे नहीं हौं|
देरी हो जाही | मोला बने नहीं लागsथे |आज बैसाखिन की तबियत ठीक नहीं थी |

का होईस ? अपन ध्यान रखे कर ना |’’ उसे चिंता हो आई |
काsबर रखों.....कौन बर रखों....?अपन ला टोनही सुने बर .....?
अउ ओ दिन त तैं कहत रिहिस – जीना चाह्थौं, आज का होइस ? गुनिया अपने अपराधबोध पर काबू पाने का प्रयास करते हुए बोला |
ओ त मैं आज भी ओ ही बात कहsथों, पर तैं का जानबे टोनही के जिनगी ला....?उ त..... आगे के शब्द चुप्पी पी गई |

उसे परेशान देख गुनिया के भीतर कुछ दरकने लगा | फिर उसने आँखें बंद कीं और बैसाखिन के नज़दीक जाकर चेहरे से नीचे तक मन्त्र फूँकने लगा| वही पान की गंध....|बाहर आकर उसने बैसाखिन के घरवालों से कहा कि वे उसे अमावस्या को श्मशान ले आएं,फिर सब ठीक हो जायेगा | बैसाखिन जाते हुए अपनी पीठ पर एक जोड़ी आँखों को महसूस कर रही थी |

इस बीच अपने-अपने कामों में व्यस्त रहते हुए भी दोनों के विचारों की आवृत्ति एक ही थी | समानांतर दोनों अपने ख्यालों में एक-दूसरे की कल्पना करते, जिसमें गुनिया के पुरुषोचित प्रेम में बैसाखिन का आलिंगन व चुम्बन था तो बैसाखिन की कल्पना में समर्पण की चाह | लेकिन यथार्थ में आने पर खुद पर हँसी आ जाती या उदासी छा जाती | इन दिवा-स्वप्नों ने संयोग और वियोग श्रृंगार में कोई अंतर नहीं छोड़ा था क्योंकि संयोग काल्पनिक था,यथार्थ तो वियोग ही था |हर पल साथ की एक उत्कट अभिलाषा.....लेकिन कोई भी अपने मन की बात कहने में समर्थ नहीं | भीतर प्रेम जितना बढ़ता जा रहा था, बाहर की दुनिया उतनी ही सीमित होती जा रही थी |

अमावस्या का दिन.....लगता था समय जैसे ठहर – सा गया हो....दिन बीतता ही नहीं था | बैसाखिन अपना संदूक खोले बैठी थी | क्या पहने ? आज उसे लग रहा कि एक भी सुंदर साड़ी नहीं है उसके पास | एक काली साड़ी ही कुछ ठीक सी लगी, वही बाँध ली, सोचा मसान ही तो जाना है | बार-बार वह गुनिया के प्रति अपने आकर्षण को महसूस करती पर खुद ही उसे यह सोचकर खारिज कर देती कि वह तो उसे टोनही बताता है |

उधर गुनिया सारा दिन इसी उधेड़-बुन में रहा कि न जाने शाम को बैसाखिन के घरवाले उसे लेकर आएँगे कि नहीं....? बैसाखिन उसके मन की बात समझ पाएगी या नहीं....? कैसे उसके साथ थोड़ा-सा समय बिता पाएगा....?

शाम का धुंधलका होते ही घरवाले बैसाखिन को और मंगलू गुनिया को लेकर श्मशान पहुँच गए | बाकी लोगों को वहीँ बाहर रुकने को कह गुनिया ने बैसाखिन को अपने पीछे आने का इशारा किया | वह यन्त्रचालित सी पीछे – पीछे चलती गई | सन्नाटे में खच – पच, खच – पच पदचाप आ रही थी | वहीँ कुछ दूरी पर एक नदी थी, जहाँ क्रिया-कर्म के बाद लोग स्नान किया करते थे | उसी नदी के किनारे गुनिया ने अपना कम्बल बिछाया और बैसाखिन से बैठने को कहते हुए उसे पूरी नज़र भरकर देखा | काली साड़ी में उसका गोरा रंग ऐसे दमक रहा था जैसे काले घने बादलों में बिजली चमक रही हो | वह इस श्वेत..श्याम छवि को देखता रह गया , जिसने उसके ह्रदय को इन्द्रधनुषी बना दिया था |
इहाँ बइठ जा | गुनिया ने कम्बल पर बैठने का इशारा करते हुए कहा |
बैसाखिन सकुचाते हुए कम्बल पर बैठ गई | गुनिया उसके सामने बैठ गया | अपनी ही धड़कनों की आवाज़ इतनी जोर से आ रही थी मानो चीख-चीखकर अपने मन की बात कह देना चाहती हो | श्मशान.....जहाँ जीवन यात्रा का अंतिम पड़ाव भी समाप्त हो जाता है, वहाँ प्रेम – पथिक अपनी यात्रा आरम्भ कर रहे थे |

कइसन हस ? गुनिया ने चुप्पी तोड़ते हुए पूछा |
बने हौं | नीचे देखते हुए बैसाखिन ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया |
इधर देख.....ऊपर....| मोर बात ला ध्यान से सुन ! मैं तोला झार-फूँक करे बर नहीं बुलाये हौं |

बैसाखिन ने सवालिया निगाहों से उसकी ओर देखा |
बुरा झन मानबे | मगर मैं दिन-रात तोरे बारे में सोचत रह्थौं | एक्को मिनट तैं मोर दिमाग से नीं हटथस | का करों मैं ? गुनिया ने पूरी इमानदारी से अपने मन की बात कह डाली |

बैसाखिन को सहसा विश्वास नहीं हुआ लेकिन उसे लग रहा था समय वहीँ रुक जाये | फिर भी वह बोली-
नाहीं....ए ठीक नहीं है |

का ठीक नहीं है रे....? प्रेम....? गुनिया ने पूछा |
मैं नहीं जानौं | कहते-कहते बैसाखिन के होंठ थरथरा उठे और कानों में सीटियाँ-सी बजने लगीं |

गुनिया उसका कन्धा थपथपाते हुए बोला,
जान जाबे | अपन मन के बात ला सुनबे....त जान जाबे |
गुनिया जाने क्या-क्या कहता रहा और बैसाखिन मूर्तिवत उसकी आँखों में अपने लिए प्रेम देखती रही | सामने बहती नदी इस अनोखे प्रेम-संवाद की साक्षी थी जिसकी ध्वनि में गुनिया की आवाज़ घुल रही थी और बहाव के साथ बैसाखिन की पीड़ा व उदासी बही जा रही थी |

कुछ सुने.....मैं का कहे हौं....?गुनिया की बात से बैसाखिन मानो सम्मोहन से वापस आई और बोली-
हाँ....हौ...हौ....सुन डारे हौं |
त अब चल अउ जो मैं बोले हौं ओला सोचबे....अपन मन के बात ला सुनबे |
दोनों वापस लौट पड़े |
गुनिया ने घरवालों से कहा –
अब चिंता के कौनो बात नहीं है | ले जाओ एला और चला गया |
जब से लौटी थी, बैसाखिन खोई-खोई सी रहती थी |अक्सर जब वह छुन्नू को दूध पिलाती, घंटों सोचती रहती |गुनिया की नज़रों में उसे मात्र देह नहीं स्त्री समझना बैसाखिन को उसकी ओर खींचता था लेकिन अपने विधवा व माँ होने का विचार हर संभावना पर वर्जनाओं की भारी शिला रख देता | वह उचित अनुचित की लड़ाई में बुरी तरह उलझ जाती | जब अकेली होती तो आँखें बंद कर अपने कंधे पर हाथ फिराकर उसी स्पर्श को पुनर्जीवित करती | प्रेम की अनुभूति स्वयं से प्रेम करना सिखा देती है |
कई दिन बीत गए और एक दिन अचानक बैसाखिन ने घर में बड़ा उपद्रव मचाया | बाल खोलकर सर झटकने लगी और अगडम – बगडम बकने लगी | लगता था जैसे उसे कोई दौरा पड़ गया हो | उसे तुरंत गुनिया के पास ले जाया गया | बैसाखिन को इस हाल में देख वह एकदम से कुछ समझ नहीं पाया |

भीतर आते ही बैसाखिन ने अपने बाल हाथ में लपेटकर जूड़े में बाँध लिए और शांत बैठ गई | एक क्षण पहले और अब की बैसाखिन में कितना अंतर था |गुनिया उसकी ओर देखकर मुस्कुराया और नज़रें मिलते ही बैसाखिन भी मुस्कुरा उठी |

मैं जान्थौं तैं टोनही नहीं हस|
गुनिया धीरे से बैसाखिन के कान के पास मुँह लाकर बोला.......वही पान की चित – परिचित गंध बैसाखिन की नाक से होकर साँसों में समाने लगी | उसने आँखें बंद कर लीं |
त काबर मोला बुलात रिहिस यहाँ झारे बर....? उसने मंद आवाज़ में पूछा |
ए बताये बर परही का ?............ अउ तहूँ इतना हंगामा .........काबर ? उसकी आँखों में देखकर गुनिया ने पूछा |
बताये बर परही का ?बैसाखिन ने चुहल की।
इस बार गुनिया ने बैसाखिन को अपनी ओर खींच लिया और उसके कानों के पास मुँह लेजाकर साँस के सहारे फुसफुसाया,
  तैं पक्का टोनही हस रे .....!
बैसाखिन खिलखिलाकर हँस पड़ी थी।

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नाम - डा.ममता गोयल
शिक्षा - एम. ए.,पी.एच.डी.
कहीं भी प्रकाशित होने वाली पहली रचना " मैं टोनही नहीं हौं "
(कहानी ) ' कथा ' के मार्च २०१३ अंक में प्रकाशित 

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5 comments:

  1. मार्मिक कहानी ,समाज की सच्चाई को दिखाती हुई। आदरणीय ममता जी को बहुत-बहुत बधाई साथ ही ऐसी ही और कहानियों से वो हमे मिलवाती रहें यही चाह है। ढेरों शुभकामनाएँ। धन्यवाद शोभा दी कि आपने हम सभी के साथ कहानी साझा की।

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  2. I have read this critical life story with lots of visual of real life . this story is a live message to educated society ,if they notice this critical condition of our uneducated society and care to women's of that society .
    i want to say thanks to Dr. Mamta Goal ji , she have expressed this real condition of a women by this story.
    I hope Mamta ji will write continue with true motion of life.
    i will wait of her next story by this way ..thanks

    yogendra kumar purohit
    Master of Fine Arr.

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  3. समाज का सच दिखाती कहानी

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  4. जी डाक्टर गोयल ... एक अच्छी सी कहानी ... यह कहानी क्यों ? प्रश्न यही कचोता है ... ऐसे हादसों से परिचित हैं सभी ... लगभग सभी ... फिर यह कहानी क्यों ... क्यों आया आपके मन में इसे इस प्रकार लिखने का ...
    हमें लगता है प्रताडनाओं के उल्लेख भर से नारी के प्रति दायित्व पूरे नहीं होते ... किसी न किसी दायिवा से लेखन का जुडना आवश्यक लगता है ... समय कह रहा है कि पुरुष को शिक्षित और जिम्मेवार होना ज़रूरी है ... अशिक्षित और गैर जिम्मेवार है जभी तो है यह सब ... एक कहानी जिसमे पुरुष को शिक्षित और जिम्मेवार बनाने का प्रयास बताया गया हो ... शिक्षा की आवश्यकता विश्व भर के पुरुषों को नारी की अपेक्षा कहीं ज्यादा है ...पर फिर भी .. मार्मिक तो है ...

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  5. जी डाक्टर गोयल ... एक अच्छी सी कहानी ... यह कहानी क्यों ? प्रश्न यही कचोता है ... ऐसे हादसों से परिचित हैं सभी ... लगभग सभी ... फिर यह कहानी क्यों ... क्यों आया आपके मन में इसे इस प्रकार लिखने का ...
    हमें लगता है प्रताडनाओं के उल्लेख भर से नारी के प्रति दायित्व पूरे नहीं होते ... किसी न किसी दायिवा से लेखन का जुडना आवश्यक लगता है ... समय कह रहा है कि पुरुष को शिक्षित और जिम्मेवार होना ज़रूरी है ... अशिक्षित और गैर जिम्मेवार है जभी तो है यह सब ... एक कहानी जिसमे पुरुष को शिक्षित और जिम्मेवार बनाने का प्रयास बताया गया हो ... शिक्षा की आवश्यकता विश्व भर के पुरुषों को नारी की अपेक्षा कहीं ज्यादा है ...पर फिर भी .. मार्मिक तो है ...

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