स्त्री पर हिंसा
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एसिड अटैक और प्रेम की प्रतिहिंसा - सुधा अरोड़ा
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तेजाबी हमले की शिकार प्रीति राठी
, पूरे एक महीने , जि़न्दगी और
मौत के बीच जूझते हुए , आखिर मौत से हार गयी
| दामिनी की तरह क्या प्रीति राठी भी भारतीय न्याय व्यवस्था के लिये
एक चुनौती , एक सबक बनेगी
? हमारी लचर न्याय प्रणाली के चलते अपराधियों की हिम्मत इतनी बढ़
जाती है कि वे एक जि़न्दगी से जीने का अधिकार छीन लेते हैं
! क्या तेजाबी हमला , हत्या जितना
ही संगीन अपराध नहीं है ? इस मौत ने हमारे संविधान और न्याय प्रणाली
पर एक बार फिर बहुत सारे सवाल खड़े कर दिये हैं |
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अक्सर जीवन में ऐसे अन्तर्विरोध सामने आते हैं कि यह समझ
पाना मुश्किल होता है कि इस दुनिया को किस नजरिये से देखा जाये
| ये अन्तर्विरोध दो दुनियाओं के फर्क को बड़ी बेरहमी से हमारे सामने
ले आते हैं और नये सिरे से सोचने पर मजबूर करते हैं कि क्या सारी स्त्रियां पुरुष सत्ता
या वर्चस्व की शिकार हैं या उनका एक खास हिस्सा ही इससे पीडि़त है
? कहीं स्त्रियां पुरुष उत्पीड़न की सीधे शिकार है तो कहीं वह पुरुष
वर्ग की आकांक्षाओं के अनुरूप विमर्श की सामग्री तैयार करती हुई पुरुषवादी एजेंडे को
ही मजबूत बनाने की कवायद में लगी है | आज की दो घटनाओं
के मद्देनज़र इस पर एक बार फिर विचार करने की ज़रूरत है |
3 मई 2013 की
सुबह के अखबार के पहले पन्ने की एक खबर पढ़कर मन उचाट हो गया
| बांद्रा टर्मिनस पर दिल्ली से गरीब रथ एक्सप्रेस से मुंबई में
पहली बार उतरी प्रीति राठी के ऊपर एक व्यक्ति ने एसिड फेंक दिया
| हमलावर ने उसके कंधे पर पीछे से हाथ रखा और जैसे ही लड़की ने पीछे
घूम कर देखा उसके चेहरे पर एसिड फेंक कर वह भाग गया | इतनी
भीड़ वाले इलाके में भी कोई उसे रोक या पकड़ नहीं
कर पाया और वह एक जिंदगी बर्बाद कर फरार हो गया | न
सिर्फ प्रीति का चेहरा और एक आंख झुलस गई
, एसिड उसके हलक से नीचे भी पहुंच गया । दो घंटे उसे कोई चिकित्सा नहीं मिल पाई ।
22 साल की बेहद मासूम सी दिखती लड़की प्रीति
राठी ने सैनिक अस्पताल अश्विनी में नर्स की नियुक्ति के लिए बहुत सारे सपनों के
साथ पहली बार मुंबई शहर में कदम रखा था | उसके हस्तलिखित
पत्रों की भाषा जिस तरह से हताशा और चिंता से भरी हुई थी , वह
न केवल दिल दहलाने वाली थी बल्कि एक स्त्री के जीवन में आजीविका के समानांतर किसी और
विकल्प के गैरजरूरी होने का भी सबूत देती थी |
वह लिख रही थी क्योंकि वह बोल नहीं सकती थी । वह लिख रही थी क्योंकि वह देख नहीं
सकती थी । वह लिख रही थी क्योंकि उसके पास कई सारे सवाल थे पर उसका जवाब किसी के
पास नहीं था । एक लड़की अस्पताल में जीवन और
मृत्यु से जूझ रही है लेकिन जब भी उसे होश आता है तो वह अपनी नौकरी के बचने और छोटी
बहनों के सुरक्षित रहने की चिंता व्यक्त करती है , माता पिता को टेंशन न पालने की
हिम्मत देती है और हत्यारे के पकडे जाने की खबर के बारे में पूछती है |
अस्पताल में लिख लिख अपने पिता तक अपनी बात पहुंचाते हुए उसका
आखिरी नोट यह था कि उसे महंगे अस्पताल में न डालें , खर्च बहुत हो जायेगा । उसका
यह सरोकार अपने मध्यवर्गीय हैसियत वाले पिता के प्रति एक जिम्मेदारी के अहसास से
उपजा था । लेकिन मसीना अस्पताल से महंगे अस्पताल - बॉम्बे हॉस्पिटल पहुंचने तक
वह कोमा में जा चुकी थी । उसके फेफडे एसिड के असर से इस कदर झुलस चुके थे कि जला
हुआ एक पिंड बनकर रह गये थे !
मीडिया का स्त्री विरोधी रूझान
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एक महीना पहले यह दिल दिमाग को सुन्न कर देने वाली खबर थी
| 3 मई को , टी वी के
किसी चैनल पर इस विचलित कर देने वाली इस खबर को सुनने के कुछ ही घंटों बाद दिल्ली से
प्रकाशित हिंदी की एक रंगीन महिला पत्रिका की रिपोर्टर का फोन आया
| नाम पूछा तो उसने कहा -- प्रीति
! सुबह की प्रीति राठी अभी एक सदमे की तरह मुझ पर हावी थी
| तब तक इस पत्रकार प्रीति ने फोन करके अपने अगले अंक की परिचर्चा
पर सवाल पूछा - आपकी उम्र क्या है
? मैंने उम्र बताई - छियासठ
| अगला सवाल - क्या आपको
मेनोपॉज़ हो गया है ? मैंने
अपनी उम्र दोहराई | बोली - ओह
सॉरी , मैंने सुना - छियालीस
| हम कुछ सेलिबि्रटीज़ से पूछ रहे हैं कि मेनोपॉज़ के बाद औरतों
में सेक्स इच्छा कम हो जाती है क्या ?
सुनकर दिमाग चकरा गया | मैंने
उसे कहा -- इतनी समस्याओं से जूझ रही हैं औरतें और
आपको सेक्स पर बात करना सूझ रहा है , कोई गंभीर
मुद्रदा नहीं मिला आपको ? हँसते
हुए जवाब मिला - हमने मार्च अंक में गंभीर मुद्दे भी उठाये
थे पर वो कोई पसंद नहीं करता !
हाल ही में बाज़ार में लॉन्च हुई इस गृहिणीप्रधान महिला पत्रिका
को बेचने के लिये हर अंक में सिर्फ सेक्स की ही ज़रूरत क्यों पड़ती है
? कौन सी महिलायें हैं जो उत्तर मेनोपोज स्त्री की कामभावना के ज्ञान
से अपने दिमाग को तरोताजा बनाये रखना
चाहती हैं ? क्या महिलाओं
का नया पाठक वर्ग अपने समय और उसके सवालों से पूरी तरह कट गया है और वे किसी गंभीर
मुद्दे पर प्रकाशित कोई सामग्री नहीं पढ़ते ? ये
सारे सवाल उस भयावहता की तरफ दिल-दिमाग को बार-बार ले जाते हैं
, जो स्त्री के खिलाफ एक फिनोमिना तैयार करते हैं और तब हम पाते
हैं कि केवल पुलिस और अदालतें ही नहीं , मीडिया भी
बहुत कुछ स्त्री-विरोधी रुझानों से संचालित है | लोकतन्त्र
का चौथा स्तम्भ कहलाने वाला मीडिया इन प्रवृत्तियों से लड़ने और उन पर सवाल खड़ा करने
की जगह , स्त्री को एक कमोडिटी की तरह ही पेश कर
रहा है |
स्त्रियों के लिए लगातार भयावह होती जा रही इस दुनिया के
बारे में गंभीरता से विमर्श होना चाहिये क्योंकि आज की सबसे बडी चिंता यह है कि कानून
की सख्ती के बावजूद अपराधी इस कदर बेलगाम क्यों हुये जा रहे हैं और ऐसी घटनाओं को बार
बार दोहराया क्यों जा रहा है ? सडक पर
उतर आई युवाओं की भीड हममें जनांदोलन का जज्बा पैदा करती है पर हर उम्मीद ऐसे
हादसों में दम तोडती नजर आती है । बलात्कार और हत्या की हर घटना के देशव्यापी विरोध
के बाद हम आशावादी होकर सोचते हैं - अब ऐसी घटना
न होगी और अभी सांस ठीक से ले भी नहीं पाते कि एक और घटना हमारी संवेदना के चिथड़े
उड़ा देती है | क्या हमारा भारतीय समाज अपवाद रूप
से एक संवेदनाशून्य समाज में तब्दील हो चुका है ?
इनकार से उपजी
प्रतिहिंसा
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अपने देश के स्त्री-विरोधी
पर्यावरण के वर्तमान से हमें अतीत के दरवाजे तक जाना होगा | एसिड अटैक की अधिकतर घटनाओं
के पीछे प्रेम एक बुनियादी कारण होता है | सदियों से प्रेम हर समाज में मौजूद रहा है लेकिन एसिड अटैक
का इतने भयानक रूप से प्रचलित प्रतिशोध इससे पहले कभी नहीं था | प्रेम में हजारों दिल
टूटते हैं और उनकी उदासी हताशा में बदल जाती है , लेकिन ऐसा हिंस्र वातावरण पहले
कभी नहीं था | तब भी नहीं , जब हमारा समाज आज की तुलना में अधिक दकियानूसी और भेदभावपूर्ण
माना जाता था | आज से पच्चीस-तीस साल पहले के रूढिवादी समाज में भी ऐसे अटैक लड़कियों पर नहीं हुआ करते थे , फिर आज ये इस कदर क्यों
बढ़ गए हैं ? आज स्थितियां बिलकुल विपरीत हो गई हैं | यह असहिष्णुता से उपजा प्रतिकार
है
, हिंसा
है
| लड़कों
को लड़कियों से ''ना'' सुनने की आदत नहीं है | लड़की होकर इनकार करने की हिम्मत
कैसे हुई उसकी ? इसे प्रेम निवेदन या सेक्स निवेदन करने वाला लड़का या किसी भी
उम्र का मर्द अपनी हेठी समझता है और प्रतिहिंसा के लिए उतावला हो उठता है | आज उस समय की प्लेटॉनिकता
(भावात्मक लगाव) तो दुर्लभ है ही , उसकी जगह दूसरी कुंठाओं ने भी ले ली है | अधिकतर मामलों में प्रेम
एकतरफा होता है |
एक अन्य कारण
लडकियों का अपने लिये मुकाम बनाना और अपनी प्रतिभा को दर्ज करवाना भी है | सहशिक्षा बढ़ने और जीवन
शैली में आधुनिकता का बोलबाला होने के साथ ही हम देख सकते हैं कि आम लड़कियों में जहां
अपने जीवन और उसके फैसलों को लेकर जागरूकता बढ़ी है , ठीक इसके समानान्तर लड़कों में
उनके वजूद को लेकर एक नकार की भावना पनप रही है | आज जहां लड़कियां हर क्षेत्र
में अपनी योग्यता का परचम लहरा रही हैं , वहीं लड़कों के मन उनके प्रति असहिष्णुता और दुर्भावना
का एक अनुत्तरित भंडार है | लड़कियां केरियर , प्रेम और शादी जैसे मसले पर स्वयं निर्णय लेने और नापसंदगी
को ज़ाहिर करने में अपनी झिझक से बाहर आ रही हैं , हर क्षेत्र में वे एक विजेता की
तरह उभर रही हैं , कामयाबी के झंडे गाड रही हैं और लड़कों को उनका यही रवैया सबसे नागवार
गुजर रहा है | क्या ये सिर्फ ठुकराये हुए प्रेमी ही हैं या प्रतिभावान लडकियों से
केरियर की दौड में पीछे रह जाने वाले कुंठित प्रत्याशी भी ? इस दुर्भावना का ही
परिणाम है तेजाबी हमले कि लो , हमने तुम्हारा सबकुछ ध्वस्त कर दिया , अब सिर
उठाकर चलकर दिखाओ ।
दिल्ली से प्रज्ञा
सिंह अपने साथ तेजाबी हमले की चार और भुक्तभोगी लडकियों को लेकर प्रीति राठी को
हौसला दिलाने के लिये मुंबई पहुंची । उसने कहा कि वह उन चंद बचा ली गयी लडकियों
में से है जिन्हें एसिड के खतरनाक हमले से बचाया जा सका क्योंकि उसके माता-पिता
महंगा खर्च अफोर्ड कर सकते थे । एसिड अटैक की शिकार का इलाज करवाना एक सामान्य
मध्यवर्गीय परिवार के लिये नामुमकिन है । बैंगलोर निवासी , तीस वर्षीय एक लडकी ने
बताया कि सात साल पहले , उसकी शादी के सिर्फ दस दिन बाद , जब वह एक कैंपस इंटरव्यू
में जा रही थी , उससे प्रेम का दावा करने वाले एक लडके ने उस पर तेजाब फेंका ।
प्रीति राठी की तरह उसकी भी पहली चिंता यही थी कि क्या उसे अब नौकरी मिल पायेगी ।
प्रेम से ज्यादा केरियर में पीछे छूट जाने की कुंठा भी इस हिंसा को हवा देती है ,
इससे इनकार नहीं किया जा सकता ।
लैंगिक असमानता
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जब तक लडकियों में
ना कहने का साहस नहीं था , समाज अपनी यथास्थिति बनाये रखते हुए , लडकियों को उनकी
कमतर स्पेस में रखते हुए संतुष्ट था । सारी आधुनिकता और शिक्षा के बावजूद एक
पुरूष के लिये उसके प्रेम को नकारा जाना उसकी जिन्दगी की सबसे शर्मनाक और
अपमानजनक स्थिति है जिसे वह आसानी से स्वीकार नहीं कर पाता । भारतीय समाज और
परिवार ने ‘ना’ सुनने के लिये लडकों की मानसिकता तैयार ही नहीं की । बदलती हुई
जागरूक लडकियों के समाज में दिनोदिन इस तरह की चुनौतियां बढती जायेंगी क्यों कि
लडकियां अपनी सोच और मानसिकता में बदल रही हैं पर लडके उस अनुपात में अपने को बदल
नहीं पा रहे । उनके लिये लडकियों का दोयम दर्जा आज भी बरकरार है ।
भारत में आम जनता पर सिनेमा का कितना प्रभाव रहा है और किस
तरह सिनेमा आम वर्ग की मानसिकता का निर्माण करता है , इसे
भूलना नहीं चाहिये | नब्बे का दशक उदारीकरण और मुक्त बाज़ार
का दौर रहा | इस दशक की शुरुआत में हॉलीवुड में कुछ ऐसी फिल्में आती हैं
जिसमें एक डरी हुई औरत हमारे भीतर उत्तेजना और सनसनी फैलाती है
| ''स्लीपिंग विथ द एनिमी'' में
जूलिया रॉबर्ट्रस का चरित्र हिंदी सिनेमा को इतना रास आया कि इस प्रवृत्ति पर कई अनुगामी
फिल्मों की कतार लग गई और उनमें से अधिकांश ने बॉक्स ऑफिस पर झंडे गाड़े
| इन सभी फिल्मों में उत्सर्ग और त्याग , समर्पण
और विसर्जन की भावनाओं की जगह अधिकार , कब्जा जताना
और हासिल करना बुनियादी विशेषतायें थीं | इस एंटी हीरो
ने खलनायक के सारे दुर्गुणों के प्रति स्वीकार्यता और समर्थन का माहौल बनाया
| शाहरुख खान की कई फिल्मों - बाजीगर
, डर , अंजाम , अग्निसाक्षी
आदि ने प्रेम को हिंसा में बदलने वाले जार्गन का विस्तार किया और एक खलनायक की सारी
बुराइयों के बावजूद दर्शकों की पूरी सहानुभूति को बटोरा | बेशक
अंत में उसे मरते हुए दिखाया गया पर उसकी मौत ने दर्शकों के मन में टीस पैदा की
| मौत को भी महिमामंडित किया गया | दिल
एक मंदिर और देवदास जैसी फिल्मों के भावनात्मक प्रेम की यहां कोई जगह नहीं थी
| फिल्मों से भारतीय मानस का एक बड़ा वर्ग प्रभावित होता है और वह
हुआ | युवा पीढ़ी के जीवन में ये खलनायकी प्रवृत्तियां
बग़ैर किसी अपराध बोध के शामिल हो गईं | उसके लिये
किसी तर्क की ज़रूरत नहीं थी | अगर शाहरुख
खान जूही चावला को दहशत के चरम पर पहुंचाकर अपने प्रेम की ऊंचाई और गहराई का परिचय
देता है और हिंसक होने के बावजूद नायक से ज्यादा तालियां और सहानुभूति बटोरकर ले जाता
है तो आम प्रेमी ऐसा क्यों नहीं कर सकता | टी शर्ट पर
''आय हैव किलर इंस्टिंक्ट ''और
''कीप काम एंड रेप देम'' ''कीप
काम एंड हिट हर'' जैसे नेगेटिव जुमले फहराने वालों की जमात
में इजाफा हुआ | टी शर्ट पर ‘सुनामी’ ‘टॉरनेडो’
‘लाइटनिंग’ जैसे हिसंक शब्द ‘क्या कूल हैं हम’ का पर्याय माने जाने लगे । ऐसे
जुमलों वाली टी शर्ट एक ऑस्ट्रेलियाई गारमेंट फैक्टरी में तैयार की गई पर इनका आफ्टर
एफेक्ट (असर) एशियाई देशों में ज्यादा दिखाई दिया । दरअसल सांस्कृतिक
आदान-प्रदान और आयातित आधुनिकता अपने साथ बहुत सारा कूडा कचरा और प्रदूषण भी लाती
हैं और हर देश के जागरूक समाज को अपने तईं यह तय करना चाहिये कि उसे क्या लेना और
क्या छोडना है ।
विडम्बना यह है कि भारत में विदेशी उपकरणों और वस्त्रों
की खरीद के लिये एक वर्ग के पास अकूत पैसा है पर इसका खामियाजा उस मध्यवर्ग और
निम्न मध्यवर्ग को उठाना पडता है जो इस तरह की चकाचौंध के बीच एक सांस्कृतिक
सदमे से गुजरता है और तय नहीं कर पाता कि इस दौड में उसकी अपनी जगह कहां है ।
कुछ महीने पहले पाकिस्तान में तेजाब हमले की शिकार लड़कियों
की त्रासदी पर आधारित एक वृत्तचित्र - 'सेविंग फेस'
चर्चा में था , जिसे ऑस्कर मिला था
| तेजाब का हमला हत्या से कमतर अपराध नहीं है
| यह एक लड़की को जीवन भर के लिये विरूपित कर उसे हीनभावना से ग्रस्त
कर देता है | ऐसी लड़कियों की अनगिनत कहानियां हैं
और ये सभी पुरुष-वर्चस्व , पितृसत्ता और भारतीय पूंजीवाद के गर्भ से पैदा हुई हैं
| ये कहानियाँ सिर्फ तथ्य नहीं हैं | ये
हमारे समाज की उस बीमारी के कैंसर होते जाने की दास्तां हैं जो संवैधानिक रूप से हमें
लोकतन्त्र और बराबरी का दर्जा मिलने के बावजूद इतनी गंभीरता से हमारे जीवन को खोखला
करती रही हैं कि इसके चलते सोच-संस्कृति और व्यवहार में हम लिंग
, जाति , धर्म और क्षेत्र से बाहर एक मनुष्य की
तरह सोच ही नहीं पाते | मनुष्य के रूप में हम कायदे से भारतीय
भी नहीं हो पाये , विश्व-मानव बनना तो बहुत दूर का सपना
है |
यह जानना भी ज़रूरी है कि स्त्री के संबंध में हमारा सामाजिक
पर्यावरण कैसा है और उसमें लोकतन्त्र की सभी संस्थाएं , विधायिका
, न्यायपालिका और कार्यपालिका स्त्री के प्रति व्यवहार की कैसी नज़ीर
पेश कर रही हैं ? इससे हमारे युवा किस तरह की सीख ले रहे
हैं ? इसे हम कुछ सामान्य उदाहरणों के माध्यम से समझ
सकते हैं | कार्यस्थल पर यौन-शोषण और दुर्व्यवहार
भारत में एक जाना-पहचाना मामला है | आमतौर पर स्त्रियां
इससे बचती हुई अपनी आजीविका को बचाने की जुगत में लगी हैं | अमूमन
वे या तो चुप्पी साध लेती हैं या समझौता करते हुये वहाँ बनी रहती हैं
| लेकिन जो इस मामले के खिलाफ खड़ी होती हैं और इसे बाहर ले जाने
का साहस करती हैं उन्हें सबसे अधिक खामियाजा सामाजिक रूप से उठाना पड़ता है
| चरित्र-हत्या और कुप्रचार के सहारे उन्हें इतना कमजोर कर दिया
जाता है कि वे अक्सर अपनी लड़ाई अधूरी छोड़ देती हैं या बीच में ही थक कर बैठ जाती
हैं | इसका सबसे नकारात्मक असर यह है कि जन-सामान्य
, स्त्री के प्रति हुये अन्याय के खिलाफ खड़े होने की जगह
, अपनी धारणा में उसे 'चालू'
मान लेता है | यही धारणा
लगातार विकसित होती रहती है जो अपने जघन्य रूप में स्त्री के प्रति अपराध को रोज़मर्रा
की एक सामान्य सी घटना बना देती है |
ऐसी स्थिति में पत्रकारिता अपना दायित्व कितना निभा रही है
या सबकुछ बाज़ार की भेंट चढ़ गया है | मांग पूर्ति
के नाम पर कुछ भी परोसा जा रहा है | जैसे छोटे
परदे पर सास बहू प्रसंगों , विवाहेतर संबंधों और कुटिल स्त्रियों के महिमामंडित पात्रों
को दिखाकर यह कहा जाता है कि टी.आर.पी. की मांग यही है , वैसे
ही महिला पत्रिकाएं अपनी साठ पन्नों की पत्रिका में छह पन्ने भी स्त्री की त्रासदी
के प्रति घरेलू गृहिणियों को जागरुक बनाने के लिये यह कहकर नहीं देतीं कि घरेलू औरतों
की इन सबमें कहां कोई दिलचस्पी है | स्त्रियों
के लिये ऐसी भयावह स्थितियों के बीच , हमारी रंगीन
महिला पत्रिकाएं अपना सामाजिक दायित्व भूलकर कब तक सेक्सी दिखने के तौर तरीके और
कामवासना को बाजार के नाम पर उस समाज के बीच
परोसती रहेंगी जहाँ हर दिन बच्चियों पर बलात्कार और युवा लड़कियों पर तेजाबी हमले हो
रहे हैं | इन दो दुनियाओं में इतनी बड़ी खाई क्यों
है और इसे पाटने का क्या कोई रास्ता है ?
पुलिस थानों और अदालतों में स्त्री के संबंध में संवेदनहीन
रवैया मौजूद होना आम बात है | अपराधी वहाँ
अपने पैसे और प्रभाव के बल पर पुलिस और क़ानून को अपने प्रति सहृदय बनाने की कोशिश
करता है और अक्सर स्त्री को झूठी साबित कर दिया जाता है | हमारी
युवा पीढ़ी में पैसे और प्रभाव का बोलबाला बढ़ा है | बेशक
यह सब ऊपर से नीचे लगातार प्रसरण करता रहता है | लिहाजा
कानून का उसे डर नहीं | जहाँ हर चीज़ पैसे से खरीदी जा सकती हो
, वहां पुलिस , न्याय व्यवस्था
सब कुछ सत्ताधारी को अपनी मुट्ठी में नज़र आता है , फिर
डर किसका ? कई समृद्घ , रसूख
वाले पूंजीपति या राजनेताओं के अपराध के मामलों को जिस तरह पैसे के बूते दबा दिया जाता
है और गवाहों को खरीद लिया जाता है , उसके बाद इस
वर्ग की मनमानी और बढ़ जाती है |
जुर्म के मुकाबले अपर्याप्त सजा
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एसिड अटैक की इन घटनाओं की क्रमवार श्रृंखला से निजात पाने
के लिए जनता का एक बड़ा वर्ग कड़े कानून की मांग कर रहा है लेकिन हमें इस विषय पर गंभीरता
से विचार करना होगा कि अगर हमारी राजनीति और अर्थव्यवस्था सामाजिक
- सांस्कृतिक स्तर पर हरसंभव पशुता को ही बढ़ावा दे रही है तो मात्र
कानून इस प्रवृत्ति से छुटकारा नहीं दिला सकता | हमें
उस बिंदु तक पहुंचना होगा जहां से ये सारी चीजें संचालित और नियंत्रित हो रही हैं
| अगर सत्ता के करीबी वर्ग में जड़ जमा चुकी गड़बडि़याँ
, नीचे और हाशियाई वर्गों में फैलेंगी तो उसका परिणाम भयावह होगा
ही | निश्चित ही लड़कियां हर कहीं इन स्थितियों की सबसे आसान शिकार
( सॉफ्ट टारगेट ) है
|
हत्या के सभी औजारों में सबसे सस्ता , घातक और आसानी से
उपलब्ध हथियार है - एसिड । तीस रूपये में एक बोतल मिल जाती है और आम तौर पर ऐसे
तेजाबी हमला झेलने वालों की जिन्दगी की भयावहता और बाकी की त्रासद जिन्दगी के
लिये लगातार हीनभावना , घुटन में जीने के बावजूद हमला करने वाले को हत्यारे की
श्रेणी में नहीं रखा जाता । ज्यादा से ज्यादा दस साल की सजा और दस लाख तक के
जुर्माने का प्रावधान है जबकि तेजाबी हमले से विरूपित चेहरे की प्लास्टिक सर्जरी
का खर्च तीस लाख से ज्यादा होता है । जब एसिट अटैक का शिाकार अपनी पूरी जिंदगी एक
विरूपित चेहरे , दैहिक तकलीफ , मानसिक यातना , समाज से उपेक्षा को झेलते हुए जीता
है , हत्यारा कुछ सालों की जेल और अपनी हैसियत भर जुर्माना भरकर बाकी की जिन्दगी
को सामान्य तरीके से गुजारने के लिये स्वतंत्र छोड् दिया जाता है ।
सबसे पहले जरूरी है कि एसिड की खुली बिक्री पर फौरन
प्रतिबंध लगाया जाये । किसी भी लडकी को दैहिक , मानसिक और सामाजिक यातना से ताउम्र
जूझने के लिये बाध्य करने वाले इस अपराध को क्रूरतम अपराध की श्रेणी में ही रखा
जाना चाहिये । सभी एशियाई देशों में कडे कदम उठाये जा चुके हैं ।
बांग्लादेश में सन् 2002 में Acid
Control Act 2002 और
Acid Crime Prevention Acts 2002 के तहत एसिड की बिक्री पर प्रतिबंध लगाने के बाद तेजाबी हमलों का प्रतिशत
एक चौथाई रह गया है । भारत इसमें पीछे है । यहां अब तक तेजाबी हमले को हत्या जैसे
एक संगीन अपराध की श्रेणी में नहीं रखा गया है जबकि यह हत्या से कहीं ज्यादा
संगीन अपराध है ।
हमारे देश की न्याय व्यवस्था , इन तेजाबी हमलों और इसके साथ अपना सबकुछ
गंवाती लडकियों के कितने आंकडों के बाद एक सख्त कदम उठाने की दिशा में कदम
बढायेगी ?
sudhaarora@gmail.comsudhaarora@gmail.com / sudhaaroraa@gmail.com
022 4005 7872 / 097574 94505 / Words – 3474 .
इस स्थिति के लिए भारत के अहंकारी शक्तिशाली पुरुष है जो स्त्री को एक स्वतन्त्र मनुष्य के रूप में नहीं देख सकते वे उसे केवल अपने उपयोग की वास्तु के तरह ही देखना चाहिते हैं ..लेकिन आगे के युवाओं के दृष्टिकोण बदल रहे हैं .. यही आशा की किरण है ..
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