पिछले दिनों समाज के ऐसे तबकों से आने वाली
लड़कियों के जीवन और आकांक्षाओं से जुडी कई बातें जानने को मिली जो हमारी सोसाइटी की
मुख्यधारा का हिस्सा नहीं हैं और जिनके पास हमारे जितना वक़्त भी नहीं कि फुर्सत से
लेखन या कला के किसी अन्य माध्यम से खुद को अभिव्यक्त कर सकें लेकिन; जब हमनें उनका
हौंसला बढ़ाया तो उनका एक सृजनात्मक पक्ष सामने आया. जिसे देखकर हम हैरान थे और जो बेहद
सुखद भी था.
जीवन की बेहद कठिन परिस्थितियों के बीच उनके मन
में भी एक ऐसी दुनिया बसती है जहाँ उन्होंने इन्द्रधनुषी सपने बुने हैं; जहाँ वे अपने
जीवन को उन खुशियों से रंगना चाहती हैं जिनकी इजाज़त उनका सामजिक-आर्थिक परिवेश नहीं
देता. सबसे सुन्दर अनुभव रहा उनके सपनों को जान पाना और उनकी इस लेखन यात्रा का साक्षी
बन पाना. आइये आज इनमें से किसी लाडली की डायरी का पन्ना खोलते हैं .
उनकी इजाजत से उनकी डायरी के कुछ अंश हम आप सभी मित्रों से साझा कर रहे हैं .आज रूबी से मिलते हैं
रूबी 21 वर्ष, विवाहित
-------------------------
‘जब मैं छे सात साल की थी दुकान
के लिए सुबह तीन बजे ही उठकर साईकिल में सामान लाद कर में और मेरे पापा बहोत ही दूर
जाया करते थे. सड़क पर खड़े होकर चाय बना कर दिया करते थे और मैं
सड़क पर खड़े होकर चाय-चाय कर के बेचा करती थी तब मैं सोचती थी की सबसे ज्यादा मैं
ही कमा के अपने पापा को दूं.
'मैंने मेहनत करने में कभी
सरम नहीं किया करती थी.'
तब मैं गांव में पढ़ाई करती थी मेरे स्कूल का समय सुबह के 10.30 बजे से शुरू था.मैं
9.30
तक दुकान में रहने के बाद वहीँ दुकान
के पीछे कपडे बदल कर दौड़ते हुए स्कूल जाया करती थी.और जो स्कूल के बच्चे मुझे
देखते थे ,सामान बेचते हुए तो वह मेरा बाद में बहोत मजाक उड़ाया करते थे साथ ही साथ
मेरे स्कूल की टिचर भी मुझसे सही से बात तक करना पसंद नहीं करती थीं.
कई बार मेरी दूसरों
बच्चे से लड़ाई भी हो जाया करती थी मैं खुद ही घर पर बहाना बनाकर स्कूल नहीं जाया
करती थी में बहोत अकेली पद जाया करती थी मेरी उस स्कूल में एक ही दोस (दोस्त) थी
जो मेरा बहोत ही परवाह किया करती थी मुझसे नफरत किये बिना या मेरा किसी भी तरह
फायदा उठाये बिना मुझसे बात किया करती थी और मेरी मदद किया करती थी.’
‘दिरे-दिरे (धीरे-धीरे) समय
बिता गया और मेरे पापा की आमदनी काफी कम हो गयी.हमारे खाना खाने के लिए भी बुखे
पेट सोना पड़ता था.सुबह चावल बनाया तो चावल का पानी जिसे माड़(मांड) भी कहते हैं उसे
हम नहीं फेकते थे उसी में थोडा नमक मिर्च घोलकर एक टाइम पिया करते थे.वही हमारा
एक समय का खाना होता था.दिन में चावल और मिर्च मिलकर खाया करते थे और रात को उसी
चावल में पानी मिला देते थे और पियाज या सुतु (सत्तू) के साथ खाते थे.
जब हमारा दिन काफी खराब हो
गया तब मेरी मम्मी नें सोचा की दिल्ली चलते हैं वहीँ पे कमाएंगे और रहेंगे .’
-- दिल्ली की चुनौतियों पर रूबी की डायरी के शेष अंश अगली बार (जारी) --
रूबी जैसी लडकियां/महिलायें हमारे अपने समाज का हिस्सा हैं इन्हें धिक्कार की नहीं आपके हमारे प्यार और उनके अपने परिवेश में समझे जाने की जरुरत है. एक हाथ हमने बढ़ाया एक आप बढाइये अपने आस-पास रहने वाली रूबी और बेबी की तरफ. क्यूंकि हमारा समाज उतना ही खूबसूरत होगा जितनी प्यारी पौध हम सब रोपेंगे ..
चंद्रकांता
आपकी इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल के विशेष चर्चा मंच में शाम को राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी वहां आपका स्वागत है
ReplyDeletebahut hi sarthak rachna
ReplyDeleteaage ke bhag ka intzaar rahega
नमस्कार
ReplyDeleteआपकी यह रचना कल बुधवार (22 -05-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
सच ज़िन्दगी की असली तस्वीर तो यही है जो कहानियों में कहाँ मिलती है और सही कहा आपने हाथ इस तरफ़ बढने चाहियें अगली कडी का बेसब्री से इंतज़ार रहेगा।
ReplyDelete