चन्दन राय
अटठाइस रूपए वाले गरीब
हम बहुत छोटे लोग है बाबूजी,
फांकते है नाश्ते में सूखे कंठ से खट्टी मीठी हवा,
और दोपहर के भोजन में गम के गुबार फांकते हैं,
शब् गुजरती है जिल्लत की आग पीकर,
खौलती जमीन पर आंसू बिछा के सो जाते हैं,
हम अटठाइस रूपए वाले गरीब हैं बाबूजी,
हम बहुत छोटे लोग है बाबु जी !
मुफलिसी हमारा ताअरूफ कैफियत हमे अपने औकात की,
नवागत है कौड़ी भी कीमत नहीं हमारी क्षुद्र जात की,
परिताप के कोड़े की पुचकार से पले बढे है,
चुभते है काले अच्छर जो आँखों की कोर्निया थी,
तालीम के अपराध में घुटन की फांसी के वाशिंदे है बाबूजी ,
हम अटठाइस रूपए वाले गरीब हैं बाबूजी,
हम बहुत छोटे लोग है बाबूजी !
शर्म ही हमारी लक्ष्मी का चीर-दुपट्टा, दीपक-दुकूल है बाबूजी,
पसीना की गिलाई बदन की ठंडक, साँसे सर्दी का अलाव बाबूजी,
नाकामी को सिला करते हैं कोशिशो की सुई से,
पलस्तर कर चुनवा दिया जिस्म में जंहा दर्द पनपता है बाबूजी,
कई दफा टूटे सपने वेल्डिंग के टाँके से जोड़े हैं बाबूजी,
हम अटठाइस रूपए वाले गरीब हैं बाबूजी,
हम बहुत छोटे लोग है बाबूजी !
हम कषक- कुल्नियों को सहने का गन्दा इल्म है,
लोचनों में इफरात टुटा-फूटा काइयाँ भोलापन हैं,
रोम रोम में बसी है बस हिकारत ही हिकारत,
हम दर्द के तलबगारों की पहचान कमर का छोटापन है,
हम दारिद्र्यता के कोढ़ से गले लोग है बाबूजी,
हम अटठाइस रूपए वाले गरीब हैं बाबूजी,
हम बहुत छोटे लोग है बाबूजी!
घूमने जाते है बस सपनो में ही मुरादों की सैर,
हमारी परछाईयाँ भी सवर्णों के यंहा नौकर है बाबूजी,
नक्कादों को कहियेगा वक़्त जाया न करे हम फटीचरो पर,
हम तो नाशाद घसियारे बेवजह आबाद है बाबूजी,
उजाला होता हमारी गलियों में झोपडी तलक,
जब कभी नेता कदम यंहा भूल से भटकते है बाबूजी,
हम अटठाइस रूपए वाले गरीब हैं बाबूजी,
हम बहुत छोटे लोग है बाबूजी !
कंहीं बिकता हो जिस्म तो बतलाइएगा,
हमारी भूख का यही इंतजाम है बाबूजी,
किडनियां बिकवा दीजिएगा तो कर्ज उतार देंगे ,
मूल पाटते पाटते किश्तों में चली गई सारी जवानी,
सूद चुकता करते करते उम्र बाबूजी,
हो सके तो हमे हमारे हाल पे छोड़ दो बाबूजी,
हम अटठाइस रूपए वाले गरीब हैं बाबूजी,
हम बहुत छोटे लोग है बाबूजी !
“माटी के लाल”
वो जो सभ्यताओं के जनक है,
होमोफम्बर आदिवासी,
संथाल-मुंडा-बोडो-भील,
या फिर सहरिया-बिरहोर-मीण-उराव नामकृत ,
पड़े हैं निर्जन में,
माटी के लाल !
जैसे कोई लावारिश लाश ,
मनुष्यत्व के झुरमुट से अलग-थलग,
बदनीयत सभ्यता ने काट फेंक दी हो !
उन वन कबीलों में जँहा पाला था उन्होंने,
सभ्यता का शैशव अपनी गोदी में ,
और चकमक के पत्थरों पर नचाई थी आग,
वँही पसरा है तेजाबी अंधियाला ,
और कर रही लकड़बग्घे से आधुनिकता,
बनवासियों का देहदहन !
जंगल अब मौकतल है ,
और दांडू मानो मॉडर्नटी पर मुर्दा इल्जाम !
वो जिन्होंने दौड़ाई थी पृथ्वी,
अपने उँगलियों के पहियों पर ,
और ढान्पी थी लाज अपने हुनर के पैबन्दो से,
वही दौड़ रहे हैं भयभीत सहमे हुए नंगे बदन ,
अपने अस्तित्व के संघर्ष को ,
नंगे पाँव !
लार टपका रहें उनकी बस्तियों पर ,
संविधान में बैठे कुछ अबूझे भूत,
और लोकतन्त्रिया तांत्रिक कर रहे है ,
मुर्दहिया हैवानी अनुष्ठान !
आदि सभ्यता के अंतिम अवशेष ,
लुप्त हो रहे अत्विका ,
प्रगतिशील पैशाचिक भक्षण में ,
कर दिए गए है जंगल से ही तड़ीपार !
वंहा सड़ चुका है कानून
जाने कब से मरा पड़ा,
सडांध मार रहा है
चमगादड़ों सा लटका हुआ उलटा
चिल्ला रहा है मै ज़िंदा हूँ !
एक मरहुआ ढोंगी तीमारदार
ड्रगसिया हवस में,
जंगल का जिस्म भोग रहा है !
खिलते थे कभी वंहा सहजन की कली में
पचपरगनिया-खड़िया-संताली- असुरिया
जीवन के अनगिनत मधुर गीत
बजते थे ढक-धमसा-दमना पर
पर आदिवासियत के छऊ-सरहुल-बहा नृत्य राग
और साथ आकर नाचता था सूरज
चंद्रमा गीत गाता था
वँही अब फैला है विलुप्तता का संत्रास !
तुम भी कह दोगे ऐंठते हुए
अरे वो दर्ज तो है
तुम्हारा आदिवासी
सविधान में
मगर किस तरह
महज एक ठूंठ सा शब्द
अनुसूचित जाति
किसी डरावनी खंडरिया धारा के अनुच्छेद में
कैद एक गुनाह भर !
पर मै कहूंगा
सावधान दांडू
फिर ना कोई मांग बैठे एकलव्य का अंगूठा
सचेत रहो सहयोग से भी
जब तलक कोई भीलनी
कंही भी घुमाई जायेगी निर्वस्त्र
कोई केवट नहीं कराएगा
किसी राम को गंगा नदी पार
एक पहाड़िया विद्रोह का भस्म उठा लाओ
बिरसा मुंडा-टन्टया की धधकती अस्थियों से
तान लो जरा प्रत्यंचा पर विद्रोह
करो महाजुटान महाक्रान्ति का अपनी कमान पर
जरा देह-हड्डियों की सुप्त दहकन को सीधा करो
साधो हुलगुलानो के ब्रह्म तीर
और गिद्धई आँखे फोड़ दो !
के सुरहुलत्सव में ना चढाने पड़े
टेशु के खून सने फूल !
नदियों का हत्याकांड ,
शाल के कटे हुए जिस्म ,
सींच दो अपने बलिदानों से
सारडा-कारो-खरकई सबको पुनर्जीवित करो
है जंगल के पुजारी
लोहे के प्रगालनी
जरा जंगल की रंगोली को प्रतिरक्षित करो
न रह जाए कंही पहाड़ भी
महज शमशान का एक पत्थर !
क्योंकि सजाए रखेंगे सरकारी दस्तावेज
बड़ी संजीदगी- साफगोई से
आदिवासियत के मुर्दा पथरीले माडल
किसी ट्रेड फेयर में सजा देंगे
शौकैस की तरह निर्जीव दांडू
बिकने को खड़ा छोड़ दिया जाएगा
और फिर दे दी जायेगी कंही
दो मिनट की फरेब मौन श्रद्धांजली
और भुला दिए जाओगे किसी किस्से की तरह
याद आयेंगे आप को भी बस
आप जो पढ़ रहे
किसी ऐसी ही कविता में आंसुओं से टपक जायेंगे
और फिर आप भी इस सदमे से बाहर
और फिर आयेगा कोई
पुरातत्वेत्ता
खोदेगा पांच-छह फूट जमीन
और कहेगा
आदिवासी !
हुलजोहर !
बस तभी आयेंगे दो पल को
आदिवासी
साइडलाइन के श्राप से मुक्त
हमारी मेनस्ट्रीम में !
उन वन कबीलों में जँहा पाला था उन्होंने,
सभ्यता का शैशव अपनी गोदी में ,
और चकमक के पत्थरों पर नचाई थी आग,
वँही पसरा है तेजाबी अंधियाला ,
और कर रही लकड़बग्घे से आधुनिकता,
बनवासियों का देहदहन !
जंगल अब मौकतल है ,
और दांडू मानो मॉडर्नटी पर मुर्दा इल्जाम !
वो जिन्होंने दौड़ाई थी पृथ्वी,
अपने उँगलियों के पहियों पर ,
और ढान्पी थी लाज अपने हुनर के पैबन्दो से,
वही दौड़ रहे हैं भयभीत सहमे हुए नंगे बदन ,
अपने अस्तित्व के संघर्ष को ,
नंगे पाँव !
लार टपका रहें उनकी बस्तियों पर ,
संविधान में बैठे कुछ अबूझे भूत,
और लोकतन्त्रिया तांत्रिक कर रहे है ,
मुर्दहिया हैवानी अनुष्ठान !
आदि सभ्यता के अंतिम अवशेष ,
लुप्त हो रहे अत्विका ,
प्रगतिशील पैशाचिक भक्षण में ,
कर दिए गए है जंगल से ही तड़ीपार !
वंहा सड़ चुका है कानून
जाने कब से मरा पड़ा,
सडांध मार रहा है
चमगादड़ों सा लटका हुआ उलटा
चिल्ला रहा है मै ज़िंदा हूँ !
एक मरहुआ ढोंगी तीमारदार
ड्रगसिया हवस में,
जंगल का जिस्म भोग रहा है !
खिलते थे कभी वंहा सहजन की कली में
पचपरगनिया-खड़िया-संताली- असुरिया
जीवन के अनगिनत मधुर गीत
बजते थे ढक-धमसा-दमना पर
पर आदिवासियत के छऊ-सरहुल-बहा नृत्य राग
और साथ आकर नाचता था सूरज
चंद्रमा गीत गाता था
वँही अब फैला है विलुप्तता का संत्रास !
तुम भी कह दोगे ऐंठते हुए
अरे वो दर्ज तो है
तुम्हारा आदिवासी
सविधान में
मगर किस तरह
महज एक ठूंठ सा शब्द
अनुसूचित जाति
किसी डरावनी खंडरिया धारा के अनुच्छेद में
कैद एक गुनाह भर !
पर मै कहूंगा
सावधान दांडू
फिर ना कोई मांग बैठे एकलव्य का अंगूठा
सचेत रहो सहयोग से भी
जब तलक कोई भीलनी
कंही भी घुमाई जायेगी निर्वस्त्र
कोई केवट नहीं कराएगा
किसी राम को गंगा नदी पार
एक पहाड़िया विद्रोह का भस्म उठा लाओ
बिरसा मुंडा-टन्टया की धधकती अस्थियों से
तान लो जरा प्रत्यंचा पर विद्रोह
करो महाजुटान महाक्रान्ति का अपनी कमान पर
जरा देह-हड्डियों की सुप्त दहकन को सीधा करो
साधो हुलगुलानो के ब्रह्म तीर
और गिद्धई आँखे फोड़ दो !
के सुरहुलत्सव में ना चढाने पड़े
टेशु के खून सने फूल !
नदियों का हत्याकांड ,
शाल के कटे हुए जिस्म ,
सींच दो अपने बलिदानों से
सारडा-कारो-खरकई सबको पुनर्जीवित करो
है जंगल के पुजारी
लोहे के प्रगालनी
जरा जंगल की रंगोली को प्रतिरक्षित करो
न रह जाए कंही पहाड़ भी
महज शमशान का एक पत्थर !
क्योंकि सजाए रखेंगे सरकारी दस्तावेज
बड़ी संजीदगी- साफगोई से
आदिवासियत के मुर्दा पथरीले माडल
किसी ट्रेड फेयर में सजा देंगे
शौकैस की तरह निर्जीव दांडू
बिकने को खड़ा छोड़ दिया जाएगा
और फिर दे दी जायेगी कंही
दो मिनट की फरेब मौन श्रद्धांजली
और भुला दिए जाओगे किसी किस्से की तरह
याद आयेंगे आप को भी बस
आप जो पढ़ रहे
किसी ऐसी ही कविता में आंसुओं से टपक जायेंगे
और फिर आप भी इस सदमे से बाहर
और फिर आयेगा कोई
पुरातत्वेत्ता
खोदेगा पांच-छह फूट जमीन
और कहेगा
आदिवासी !
हुलजोहर !
बस तभी आयेंगे दो पल को
आदिवासी
साइडलाइन के श्राप से मुक्त
हमारी मेनस्ट्रीम में !
मेरी लिखित कवितायेँ दरअसल मेरी नहीं हैं
मेरी लिखित कवितायेँ दरअसल मेरी नहीं हैं
मै आपके क्लांत काव्यभिषेक का किंचित भी श्रेयधिकारी नहीं
अपने राजमुकुटों को इस कलंक से बचा कर रखिए
मैने अब तक जो भी नाशुक्राना “कहा-सुना-लिखा”
निस्संदेह सिर्फ कविताओं ने कहा था
कविताओं के शब्द थे,कविताओं ने लिखा था !
मेरी कवितायेँ कविताओं की स्वत: गढ़ी अमूर्त पांडुलिपियाँ हैं
मै केवल इन अनजानी आत्माओं की हूक का सूत्रधार हूँ
संसार की हर कविता एक अमर कवि होती है
कवितायें दरअसल कालजयी कवियत्रियों की काया है
मै केवल और केवल उनकी रतजगों का रूपांतरण हूँ
एक बिचौलिया भाषा हूँ
उनकी निरावयव लिपियों के सावयव लेखन का लिपिक-दूत
कविता की कलम से पोषित एक अबोध पौधा हूँ
मेरे भीतर बैठी अनगिनत कवितायेँ लिखती है
मै कहाँ कुछ भी लिख पाता हूँ !
मेरे भीतर आठवीं शताब्दी से समाधि लिए सिद्धो-नाथों
अब तलक मेरी आत्मा में वीरता के अभिलेख लिखते हैं
अन्याय के खिलाफ मेरा शब्द-विद्रोह उन्ही की प्रदिक्षणा हैं
हाँ मैने उन्ही से सीखा है कलम को तलवार की तरह थामना
मेरी कवितायें उनके बाहुबल-पराक्रम-निर्भयता का शस्त्रागर है
एक कुरुक्षेत्र की रणभूमि मैने तैयार की अपनी कविताओं में
एक महायुद्ध के शंखनाद का बिगुल बजाती कविताओं में
अब तलक बीसलदेव रासों खुमान रासो पृथ्वीराज रासों
हम्मीर रासो-परमाल रासो बरछे-भाले-तीर कमान लिए खड़े हैं
मेरे भीतर एक मध्यकालीन युग का संती उपसंहार लिखता है
मेरी कविताओं में " ये अंत नहीं आरम्भ है " !
मेरे भीतर एक भक्तिकाल घुमड़ रहा है बरसने को
और विद्यापति मुझमे कर रहे स्थापित भक्ति और श्रृंगार रस
पदावली, के सुवासित कल्पवृक्ष से झरते
सम्मोहन ने एक पनघट निर्मित किया है मेरे भीतर
के आप घट-घट भर-भर खूब पिए कवितायें
कीर्तिलता,कीर्तिपताका मेरे भीतर के दो राग हैं
मेरे भीतर खालिकबारी ,पहेलियों से रची एक वृहत्तर दुनिया है
मेरे भीतर कहीं खुसरों की कव्वालियाँ गाती है
मुकरियाँ की तहजीभी में कविताओं ने लिखा जो भी
वो खुसरों के महा-शिल्प का तरन्नुम दो सुखन है !
मेरे कविताओं में बैठे आदिकवि अमीर खुसरों लिखते है
मेरी बेसुरी कठोरता में अपनी सुर-ताल-लयकारियाँ
मेरा गूंगापन उनकी खड़ी बोलियों का शागिर्द है
मेरा शब्दबहुल शायराना संवाद ग़ालिब का पुनर्लेखन है
मै मीर की अनकही नज्म हूँ !
मेरी भीतर बेनाम कलमें कुलबुलाती है
मेरे भीतर अमूक रचनाकारों का बेचैन दोहाकोश है
मेरे भीतर बैठे कहीं कबीर अपनी चौपाइयाँ लिखते हैं
मै कबीर की निर्गुण सधुक्कड़ी हूँ
मेरा अंतरघट जायसी के पद्मावत की प्रेम कहन हैं
मेरे भीतर मिर्जा खां रहीम की भटकती रूह है
मेरे भीतर कृष्ण मिलन की आस में मग्न मीराबाई
विरह की सारंगी लिए प्रेम के अनंत धुनें गढ़ती है
मै सूरदास के भ्रमरगीत की चरण धूलि हूँ
गोस्वामी तुलसीदास ने जना है मेरी कविताओं में
रामचरित का संस्कार !
मै केवल साहित्योंपासन का माध्यम हूँ
मै कविता का दत्तक पुत्र हूँ
सारे कवि सहोदर होते हैं
मेरे भीतर बैठे हजार कवि लिखते हैं
पोलिश-रशियन-जर्मन-अरबी
रोमन-आयरिश-ग्रीक-इन्डियन…..अपरिमित !
मेरा भीतर बरसो से जमा दुःख लिखता है
मेरी नाकामयाबी अपनी कुढन लिखती है
मेरे अन्दर की ख़ुशी लिखती है अपनी अठखेलियाँ
मेरे भीतर का संताप अपने प्रायश्चित लिखता है
मेरे आंसू लिखते है अपने पश्चाताप
कभी कभी आत्मा लिखती है मेरे भीतर
मेरी कविताओं में मेरे लहू की गर्माहट है
मै मुफलिसों का छटपटाता कथ्य हूँ !
आपकी प्रशंशा और गालियाँ दोनों शिरोधार्य मुझे
आपके तमाचों और पुरस्कारों का समवेदक हूँ
हाँ ये ये मेरे भीतर का ब्रह्मसत्य है
मेरे भीतर एक महाभूत अपने विद्रोह लिखता है
मेरी लिखित कवितायेँ दरअसल मेरी नहीं हैं !
नाम : चन्दन राय
जन्म तिथि व स्थान : 25.11.1981 ,जिला वैशाली बिहार
वर्तमान पता : फ्लैट नंबर 2311 हाउसिंग बोर्ड कालोनी सेक्टर-55 फरीदाबाद-121004,
हरियाणा , मेल : rai_chandan_81@yahoo.co.in,
दूरभाष - 09953637548
शिक्षा : केमिकल इंजीनियरिंग
कार्यक्षेत्र : स्वतन्त्र
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