Monday, February 25, 2013

मेरे पापा - डॉ सोनरूपा विशाल


डॉ सोनरूपा विशाल
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"कवयित्री, ग़ज़ल गायिका डॉ सोनरूपा विशाल विख्यात गीतकार डॉ उर्मिलेश जी की बेटी हैं ... साहित्य जगत में गीतकार डॉ उर्मिलेश जी का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है .... अपने पिता की स्मृतियों को साझा करते हुए सोनरूपा   के कोमल मन ने बाल रूप धर लिया  .. मैंने ये महसूस  किया  जब उन्होंने   चैट पर   अपने पिता की स्मृतियाँ मुझसे साझा की ...  एक बेटी द्वारा सहेज कर रखी हुई अपने पिता की स्मृतियाँ .. आप सभी के लिए 'फरगुदिया' पर ... "



स्मृतियाँ मुझे अपनी उँगली पकड़ा कर उन पलों की ओर ले जा रही हैं जहाँ दादी के मुँह से मैं उस युवक की बातें बड़े मन से सुन रही हूँ जिसका नाम प्रमोद है, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बदायूँ ज़िले के छोटे से गाँव भतरी का यह पतला दुबला युवक जिसने पाँचवीं तक घर पर रहकर पढाई की फिर गाँव से ५ किलोमीटर दूर वजीरगंज कस्बे तक पैदल जाकर बीच में बहती सोत नदी को पिता के कन्धों पर चढ़ पार कर उस कसबे से इंटर मीडीएट करने के बाद वो युवक यानि मेरे पापा ने चंदौसी(मुरादाबाद) के एस .एम् कॉलेज से बीए किया फिर हिंदी में एम् ए और पी.एच डी आगरा कॉलेज आगरा से .......


’पढ़ाई में अव्वल था बेटा वो ,लेकिन हरकती भी बहुत... चोरी छिपे गाँव में घेर में छुप कर रस्ते चलते लोगों को परेशान करता ,कभी दोस्तों को मिठाइयाँ खिलवा कर लम्बा चौड़ा उधार तेरे बाबा जी के लिए छोड़ देता था ,तेरी बुआ को १० आने देकर अपना सब काम उससे करवा कर अपना मस्ती से दोस्तों के साथ मटरगश्ती करता था ...........पापा की ये सब गुस्ताखियाँ भी दादी बड़े गर्व से बतातीं क्यों कि दिन भर नाक में दम करने वाली शैतानी कर के रात में सिर्फ़ दो तीन घंटे की जम कर की गयी पढ़ाई ने उन्हें आगरा यूनिवर्सिटी से एम्ए में हिंदी में सर्वाधिक अंक लेकर गोल्ड मैडल दिलवा दिया था और फिर जल्द ही डिग्री कॉलेज में प्रोफेसर की नौकरी भी .


बाबा जी भी कवि थे और मेरे परदादा भी ......सो १६,१७ साल की उम्र से पापा ने भी कवितायेँ कहानियाँ लिखनी शुरू कर दी थीं उनकी इसी लेखनीय सक्रियता से उनके नाम की गूँज कविसम्मेलनों और पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से आस पास के शहरों में और फिर धीरे धीरे देश के अन्य हिस्सों में सुनाई देने लगी थी | मेरी गाँव की भोली भाली दादी हमेशा कहती थीं बाबा से कि ‘काम की कविताई तो उर्मिलेश की है जो तुम तो बस बैठे ठाले कविता लिखते हो और छपवाते हो,तुम्हारी कविताई किसी काम की नहीं है’ |पापा को अपना नाम प्रमोद पसंद नहीं था इसीलिए उन्होंने खुद का नाम बदलकर ‘उर्मिलेश’ रख लिया था और तो और दादी का भी नाम फूलवती से बदल कर पुष्पा कर दिया, ,ऐसी बहुत सारी बातें मैं दादी से,बाबा से पापा के बारे में सुनती थी और बड़े मन से सुनती थी | पापा के बचपन की ये सब बातें मुझे बहुत आनंदित करती थीं क्यों कि ये मेरे आने से पहले की बातें जो थीं बाद बाकी सारी यादें सुरक्षित हैं मेरे पास कुछ धुँधली और कुछ बिल्कुल ताज़ा......पापा ही मेरे हीरो रहे और अब तक हैं, हर बच्चे की तरह मैंने तो पापा के स्पर्श को तब पहचाना था जब एक अबोध बच्चा स्पर्श जानने पहचानने लगता है , पापा के लिए जामिया मिलिया दिल्ली से और बदायूँ के ने.मे. शिव नारायण दास डिग्री कॉलेज से एक साथ कॉल लैटर आया था,ज़मीन से जुड़े रहने का लोभ ही था कि उन्होंने बदायूं का ही कॉलेज चुना नौकरी के लिए | प्रोफेसर्स कॉलोनी का तीन कमरों का फ्लैट हमेशा पापा के स्टूडेंट्स, दोस्तों ,रिश्तेदारों से भरा रहता कोई ही दिन ऐसा बीतता जब बस हम परिवारीजन होते घर में|आये दिन काव्य गोष्ठियाँ होतीं ,रात रात महफ़िलें जमती| हमेशा से मस्त ,दोस्ती बाज़ी में सबसे अव्वल पापा जैसा जिंदादिल इंसान मैंने अपनी जिंदगी में नहीं देखा था, किसी एक शख्स के आने से ऐसा लगे मानो उत्सव आ गया है कुछ ऐसा ही था पापा का व्यक्तिव.....पापा की बहुत लाडली थी मैं, इतनी कि अगर कोई कह देता कि मैं मम्मी जैसी लगती हूँ तो पापा को बिल्कुल नहीं सुहाता था वो हमेशा कहते थे कि मेरा बेट्टा मेरे जैसा है..........



मीतू मेरा नाम है
पढ़ना मेरा काम है 
उर्मिलेश की बेटी हूँ 
मैं रीतू से जेठी हूँ 
अक्षत मेरा भैया है ..........

इस कविता से मैं अपना इंट्रो देती थी ऐसा पापा ने सिखाया था,हम तीन बहन भाई में मैं सबसे बड़ी फिर मेरी बहन फिर मेरा भाई है ....ज़िन्दगी मज़े में थी,साल भर में एक दो बार पापा हमारी कॉपी किताबें उठा कर देखते फिर तो शामत आनी पक्की होती थी हमारी और हमारे टीचर की ...ये ‘व’को ‘ब’ कैसे लिखा ? सिर्फ़ इसी गलती के कारण मेरी बहन को पापा ने दोबारा एक ही क्लास में रिपीट करवा दिया था.


एक होनहार छात्र ,गुरुनिष्ठ ,कर्तव्यनिष्ठ शिक्षक,और एक श्रेष्ठ काव्य सर्जक के रूप में सिद्ध हो चुका उनका व्यक्तिव और कृतित्व दिनों दिन प्रगति कर रहा था और हम सब साक्षी थे उन गौरवशाली दिनों के .पापा कोई कविता सृजते तो हम सब घर में बिल्कुल शांति बनाये रखते, उनकी लेखनी धीरे धीरे परवान चढ़ रही थी मंच से संपृक्त होने के कारण वे अपने कथ्य को अधिक से अधिक बोधगम्य,मारक और प्रभविष्णु बनाने में सफल हुए|कोई विधा ऐसी नहीं थी कि जिसमे कोई कह सके कि उर्मिलेश यहाँ कमज़ोर हुए हैं उनके जाने के बाद मैंने जिस बारीकी से उनकी रचनाएँ पढ़ीं वो उनके होने पर नहीं पढ़ पाई ,हालांकि बचपन में मैंने उनकी असंख्यों कवितायेँ स्कूल और अनेकों कॉम्पटीशन में गायीं .


हम छुट्टियों में पापा के साथ कभी-कभी कविसम्मेलनों में भी जाते थे और वहाँ पापा का दर्शकों में क्रेज़ देखकर मन ही मन रोमांचित होते ,लोगों का हुजूम उन्हें घेरे रहता,ऑटो ग्राफ के लिए लाइन लग जाती पापा की आवाज़ जब मंचों पर गूँजती तो बस सब ख़ामोश.... जैसे सब हिप्नोटिक हो गए हों और कविता का बंद खत्म होते ही जो तालियों की गडगडाहट होती उससे समूचा सदन गूँज उठता,हजारों लोगों को बांध लेने की क्षमता थी उनमें |देश की हर प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में उन्हें छापा गया ,प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाज़ा गया, इतनी प्रसिद्धि सम्मान के बावजूद उनकी सहृदयता के सब कायल थे उनकी सोच की एक वानगी इस दोहे से ..




अभिनन्दन ,उपहार और फूलों के ये हार 
सामाजिक दायित्व का हमें सौपते भार 


और वास्तव में उन्होंने अपने दायित्वों को निभाया भी खूब,वे ना जाने कितनों को आर्थिक मदद देते उनके जाने के बाद कई लोग आये और आज भी आते हैं और बताते हैं कि कब मुसीबत में डॉ. साहब ने हमारी मदद की ....ये सब बातें हमें गर्व से भर देती हैं..................उनकी यही सह्रदय सोच,रिश्तों से प्रेम,परिष्कृत विचार,बेबाकी,निष्पक्षता,हर उस बिम्ब को देखने का व्यापक नजरिया जहाँ से कोई कविता या विचार एक नया रूप लेते हैं, ने उन्हें देश का लाडला गीतकार,एक अनुकरणीय शख्सियत बना दिया था .



पूजा पाठ में उनकी बहुत निष्ठा थी,गृह दशाओं में भी अच्छे जानकार थे ...एक बार उनकी कुंडली के अनुसार जब सूर्य की महादशा शुरू हुई तो कुछ ज्योतिर्विदों ने उन्हें सूर्य की उपासना और मंत्र जाप के लिए कहा तो उन्होंने एक नया रास्ता चुनते हुए सात सौ दोहे लिख कर सूर्य को प्रसन्न करने का संकल्प लिया.



.ऐसी बातें तो ना जाने कितनी हैं,भावुक भी बहुत थे और दिल के कमज़ोर इतने थे कि ज़रा सा भी बुखार आ जाये तो चाहते थे कि पूरा परिवार सब काम धाम छोडकर उनके पास आ बैठे......क्या क्या याद करूँ ......एक ही व्यक्ति में इतना विस्तार कि शब्दों में ना समां पाए कुछ ऐसा ही है उनके बारे में लिखा जाना . 


 सम्मोहक व्यक्तित्व ,लम्बा चौड़ा कद और हाँ वो आजानु बाहु थे,आवाज़ ऐसी कि चलते हुए आदमी को भी रुकने के लिए मजबूर कर दे ,भाषा और शैली उनसे जैसे और विस्तार पाती थीं,मृदुभाषी इतने थे कि पहली बार मिलकर ही हर कोई उनका मुरीद हो जाता,माथे पर पड़े उनके सिल्की बात और बार बार उनको सँवारना उनकी पहचान बन गया था ,फैशनेबल इतने कि दिन में कई कई बार कपड़े बदलते, बाहर निकलते तो परफ्यूम से नहाकर मानो ,१०० से ज़्यादा जोडियाँ होंगी उनके पास जूतों की और कपडों की कोई गिनती ही नहीं एक बार में १० जोड़ी से कम कपड़े सिलने नहीं जाते थे दर्जी के पास |अपना जन्मदिन भी बड़े जोर शोर से मनाते ,फोटो खिंचवाने का इतना शौक कि एक फोटो ग्राफर साहब उनके हर वक़्त साथ रहते उनके फोटो खींचने के लिए ...


उनका एक शेर है ’इतना आदी हुआ हूँ चलने का ,बैठते ही थकान होती है’...वास्तव में कुछ ऐसा ही देखा मैंने पापा को | कॉलेज की व्यस्तता, कवि सम्मलेन के लंबे लंबे दौरे ,रात भर जग जग कर पढ़ना लिखना लेकिन इस पर भी सामाजिक और पारिवारिक दायित्व को कहीं भी इग्नोर नहीं किया उन्होंने ,संबंधों को निभाना कोई उनसे सीखे,साथ ही माँ ने भी उन्हें हमेशा घर बाहर की छोटी छोटी बातों में नहीं उलझाया,उन्हें घर में भी वही खुला आसमान दिया जिसमे उनकी सृजनशीलता और परवान चढ़ी,इतने बिज़ी होने के बावजूद एक चीज़ जो ताज़िन्दगी नहीं छूटी वो उनका रोज शाम दोस्तों का जमघट .....


मेरे पापा हैं तो क्या उनमें सिर्फ़ अच्छाईयां ही हैं ...ऐसा नहीं है इतने गुणों के साथ उनमें अवगुण भी थे और होते भी क्यों नहीं इंसान ही थे ना वो .........लगातार रातों का जागना ,शारीरिक श्रम उससे उपजी स्वास्थ्य समस्याएं ऊपर से उनकी स्वास्थ्य के प्रति लगातार लापरवाहियाँ .....उनको समझाने के हमारे सारे उपक्रम कम हो जाते थे .....डाइबिटीज़ होने के कारण जब कई सारे फ़ल नहीं खा पाते तो बिना डॉक्टर की सलाह लिए विटामिन्स की गोलियाँ गटक लेते ज़रा सा बुखार आया नहीं कि ब्रूफिन अंदर ............स्वास्थ्य में नीचे ऊपर चलता रहा .


उनकी प्रसिद्धि ने उनके कई दुश्मन भी बनाये लेकिन क्या मजाल जो किसी के लिए भी कोई दुश्मनी घर कर जाये उनके अंदर ........उनकी एक गज़ल है ..ये सच है कि हम थोड़ा कम बोलते हैं /अगर बोलते हैं तो हम बोलते हैं /बहुत बोलते हैं जो उथले हैं दिल के /जो गहरे हैं दिल के वो कम बोलते हैं कुछ ऐसा ही मैंने महसूस भी किया उनके खुद के अंदर .......


कलम के धनी पापा लगभग हर विधा में रचना कर रहे थे ....गीत ,नवगीत ,गज़ल, मुक्तक ,अतुकांत,वीररस की कवितायेँ,दोहे,समीक्षा,शोध निर्दशन ,कई पत्रिकाओं का संपादन .....डायरियों में बंद पापा की काव्य रचनाएँ संग्रह का रूप लेलें ये मम्मी की कामना थी और पापा की भी लेकिन पापा समया भाव के कारण ऐसा नहीं कर पा रहे थे अतिशय व्यस्तता में भी उन्हें एक बात सालती थी वो ये कि कहीं उनकी पहचान बस ताली बजबाऊ कवि के रूप में ना बन जाये उनका वृहद साहित्य सृजन को बस लोगों के सामने आने में देरी थी ये संग्रह ही उनके कृतित्व के विभिन्न आयामों से लोगों का परिचय करवा सकते थे.



...खैर वो घड़ी भी आई ...१९९५ में पापा का पहला गज़ल संग्रह ‘धुआँ चीरते हुए’ प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने अपनी १९७५ तक की पुरानी आत्मग्रस्तता के इर्द गिर्द घूमती हुई ग़ज़लों को छोड़ उन ग़ज़लों को स्थान दिया जिसमे अपने चारों ओर बिखरे परिवेश और यथार्थ का समावेश था .....संग्रह नोटिस किया गया और खूब किया गया ......उनके पास वरिष्ठ कवियों का आशीर्वाद था सराहनायें थीं ...मंच पर भी उन्हें देश के सुविख्यात साहित्य पुरोधाओं का आशीर्वाद मिला |बाद में उनके २५ और काव्य संग्रह आये उनके बाद दो संकलन और भी प्रकाशित हुए ,आज उनकी कवितायेँ रूहेलखंड विश्विद्यालय में बी.ए.के पाठ्यक्रम में संकलित हैं ....अपने गाँव में बहती सदानीरा नदी सोत नदी के लिए समर्पित संग्रह ‘सोत नदी बहती है ‘ उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान से पुरस्कृत कृति है ...पुरस्कार की लालसा मैंने कभी उनके अंदर देखी नहीं ना कभी अपने संबंधों को भुनाते हुए देखा... उन्होंने नौजवानों को आगे बढ़ाया, लिखने के लिये प्रेरित किया,लिखना सिखाया............उनका यही उपक्रम ‘विराट बदायूं महोत्सव’ के आयोजन के रूप में सामने आया...बदायूं क्लब जो यहाँ का एक प्राचीन और ऐतिहासिक क्लब हैं उसके सचिव पद पर उन्हें मनोनीत किया गया था उसी क्लब के तले उन्होंने बदायूं महोत्सव की परंपरा डाली ......पूरे उत्तर प्रदेश में इस महोत्सव की धमक सुनी जाने लगी थी ...और उत्सव धर्मी तो वो थे ही जहाँ वो वहाँ लोगों का कारवाँ सा बन जाता था ........



हम दोनों बहनें व्याहता हो गयी थीं मेरे बेटे ने उनके अंदर के छिपे बच्चे को फिर से एक्टिव कर दिया था ......चूँकि मेरा विवाह बदायूं में ही हुआ था .....तो उनकी सुबह शाम उसको देख कर ही सम्पूर्णता पाती थी मुझे मिलने वाले बचपन के प्यारे प्यारे संबोधन से अब वो पुकारा जाने लगा ,अब वो चाहते थे कि अपना ज़्यादातर समय घर पर दें,गिने चुने कवि सम्मेलनों में जाना चाहते थे अब वो .....कहते थे अब ज़िम्मेदारियाँ पूरी हो गयी हैं अब पठन लेखन पर कंसंट्रेट करूँगा बहुत सी पुरानी डायरियों में बंद बहुत कुछ सृजा हुआ अनदेखा पढ़ा हुआ था .......उन्हें स्वरूप देना था ....बहुत सम्रद्ध लाइब्रेरी थी उनकी ..आज जब भी मैं वहाँ से कोई भी किताब निकालती हूँ हर किताब में उनके हाथ से बने मार्क होते हैं जिन्हें वो सही समय पर ऐसे कोट करते थे जैसे मुँह जवानी याद हों ....एक सुखी और सम्रद्ध परिवार था हमारा ..........पापा का यश दिनों दिन बढ़ रहा था लेकिन स्वास्थ्य धीरे धीरे कमज़ोर हो रहा था .....उनके निरंतर गिरते हुए स्वास्थ्य ने उन्हें कई बार झटका दिया लेकिन उनकी लापरवाहियों का सिलसिला जारी रहा ...और एक सुबह जो सूरज उगते ही काली हो गयी ...४ अप्रैल २००५ की सुबह थी ...पापा को ब्रेन हेम्रेज हो गया था .......हमारे शहर से लगे शहर बरेली में पापा को १३ अप्रैल को काव्य पाठ करना था पूरा शहर डॉ.उर्मिलेश के नाम से पोस्टर से पटा हुआ था ..उसी शहर के एक हॉस्पिटल में वो ज़िन्दगी और मौत के बीच झूल रहे थे ..तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री मुलायम सिंह ने मम्मी से कहा कि हम उन्हंो एयर एम्बुलेंस से यहाँ लखनऊ बुलवा कर उनका फरदर ट्रीटमेंट करवाना चाहते हैं लेकिन उनकी क्रिटिकल कंडीशन देख कर ये बिल्कुल संभव नहीं था ..बहुत सारी कॉम्प्लीकेशन एकदम उन पर तेज़ी से असर कर रही थीं ......और १६ मई हमारे परिवार के लिए सबसे काला दिन साबित हुआ .....ये सब लिखते लिखते मेरे हाथ मेरा साथ नहीं दे रहे हैं ...मैं इस पैराग्राफ को यहीं बंद कर देना चाहती हूँ ...



खुश और जिंदादिल होकर जीने की कला हमने उन्ही से ही सीखी थी इसीलिए अब उनकी ऐसी ही पंक्तिओं में उनका अक्स ढूँढते हैं और उन पर चलने का प्रयास करते हैं ......



बेवजह दिल पे कोई बोझ ना भारी रखिये 
ज़िन्दगी जंग है इस जंग को जारी रखिये 
कितने दिन जिंदा रहे इसको ना गिनिए साहिब 
किस तरह जिंदा रहे इसकी शुमारी रखिये .....


उनकी इन इंस्पिरेशनल लाइन्स ने मुझे क्या ना जाने कितनों को संबल दिया है कितने दिन ज़िंदा रहे इसको ना गिनिए साहिब ,किस तरह ज़िंदा रहे इसकी शुमारी रखिये .......यही लाइनें हैं जो हम से कह रही हैं क्यों हम गिने कि उन्होंने सिर्फ़ ५४ वर्ष की अल्प आयु का जीवन जिया... हम वो गिने कि इतनी आयु में भी वो ऐसा अविस्मरणीय जीवन जीकर गए हैं जो ज़्यादातर कोई शतायु होकर भी नहीं कर पाता है ......


                                                                                                                                 डॉ सोनरूपा विशाल 





डॉ उर्मिलेश जी का  परिचय



 राष्ट्रीय गीतकार डॉ. उर्मिलेश   

पिता – जनकवि पं.भूप राम शर्मा ‘भूप’
जन्म - ६ जुलाई १९५१ .इस्लामनगर (बदायूं)
निधन - ६ मई २००५
शिक्षा – एम.ए (हिंदी ) पी-एच.डी
सम्प्रति – ने.मे.शि.ना.दास.स्नातकोत्तर महाविद्यालय,बदायूं
प्रकाशित साहित्य –
१.साहित्यशास्त्र और समालोचना के सरल आयाम
२.नया सप्तक –व्याख्या और विवेचन के नए आयाम
३.गीत –पहचान और परख
४.धुँआ चीरते हुए (ग़ज़ल –संग्रह)
५.सोत नदी बहती है (गीत –संग्रह)उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा पुरस्कृत
६.डॉ.उर्मिलेश की ग़ज़लें (ग़ज़ल संग्रह)
७.घर बुनते अक्षर (गीत-मुक्तक संग्रह)
८.चिरंजीव हैं हम (राष्ट्रीय गीत-संग्रह)
९.गंधों की जागीर (दोहा–संग्रह)
१० –वरदानों की पांडुलिपि(दोहा–संग्रह)
११.बाढ़ में डूबी नदी (गीत-संग्रह)
१२ .जागरण की देहरी पर (नवगीत-संग्रह)
१३.बिम्ब कुछ उभरते हैं (नवगीत-संग्रह)
१४.फ़ैसला वो भी गलत था (ग़ज़ल संग्रह)
१५.धूप निकलेगी (ग़ज़ल संग्रह )
१६.आईने आह भरते हैं (ग़ज़ल संग्रह)
१७.अक्षत युगमान के (सामयिक कविता-संग्रह)
१८.ज़िन्दगी से जंग (ऑडियो सी.डी.)
१९.आपका साथ (डॉ.उर्मिलेश की ग़ज़लें-सोनरूपा विशाल द्वारा स्वरबद्ध)
२०.स्वरांजलि(शर्मा बंधु,उज्जैन द्वारा स्वरबद्ध डॉ.उर्मिलेश के गीत)

विशेष- हिंदी कविसम्मेलनों के चर्चित एवं प्रतिष्ठित कवि ,सचिव बदायूं क्लब ,संयोजक/संस्थापक ,बदायूं महोत्सव एवं कविता चली गाँव की ओर ,विविध साहित्यक संस्थानों /पत्रिकाओं के संरक्षक.
संपादक- माटी के हरसिंगार,अंचला,मंच,परंपरा,बदायूं महोत्सव स्मारिका,इतिहास पुरुष पं.राजेश दीक्षित अभिनन्दन ग्रन्थ
अलंकरण- कवि-भूषण,राष्ट्र कवि ,भारत श्री ,गीत गंधर्व,आचार्य श्री ,भारत श्री ,युग चारण,राष्ट्र गौरव ,साहित्य श्री ,आकाशवाणी,दूरदर्शन एवं कई चैनलों के लोकप्रिय कवि,देश के लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा २००७ में मरणोपरांत यशभारती सम्मान,रोटरी इंटरनेशनल द्वारा पोलियो के उन्मूलन में ‘कविता चली गाँव की ओर’ कार्यक्रम के संयोजन से अपना बहुमूल्य योगदान हेतु इंडिया नेशनल पोलियो कमेटी द्वारा मरणोपरांत ‘रोटरी सेना के महारथी’ सम्मान,इलाहाबाद राष्ट्रीय राज भाषा पीठ इलाहाबाद द्वारा मरणोपरांत भारतीय रत्न सम्मान

3 comments:

  1. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार26/2/13 को चर्चाकारा राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी आपका हार्दिक स्वागत है

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  2. अच्छा लगा डॉ उर्मिलेश जी के बारें में उनकी बेटी के माध्यम से जानना

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  3. फरगुदिया पढ़कर बहुत अच्छा लगा। कुछ वीडियो भी सुने।
    क्षेत्रपाल शर्मा , 19/17शांतिपुरम, सासनी गेट आगरा रोड अलीगढ़

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