अल्पना मिश्र
अल्पना मिश्र की कहानियाँ रस-रंजन या मनोरंजन करती हुई आराम कुर्सी पर पढे जाने वाली कहानियाँ नहीं हैं बल्कि यथार्थ की खुरदुरी जमीन पर ला खड़ी करतीं हैं जहाँ आज के समय और उसकी सच्चाईयों से रूबरू हुआ जा सकता है । वरिष्ठ साहित्यकार ज्ञानरंजन के अनुसार,"वे अपनी कहानियों के लिए बहुत दूर नहीं जातीं,निकटवर्ती दुनिया में रहती हैं । आज पाठक और कथाकार के बीच की दूरी कुछ अधिक ही बढ़ती जा रही है,अल्पना मिश्र की कहानियों में यह दूरी नहीं मिलेगी ।"
समाज के बनाये नियमों की जंजीरों में जकड़ी हर उम्र की स्त्री का जीवन भय में बीतता है, स्त्री जीवन के मार्मिक पहलुओं को उजागर करती अल्पना मिश्र की कहानी 'भय'
भय
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' ये वही है ' ? बस यूँ ही पूछ लिया था मैंने !
फोटो फ्रेम में मढ़ी थी और उस पर लाल गेंदे के फूलों की मुरझायी माला लटक रही थी। घूरती हुई दो आँखों और ऐंठी हुई मूँछों के सिवाय तस्वीर का रेशा-रेशा मरियल, बेजान था। चावल उठाती-तौलती वह बीच-बीच में हल्दी, धनिया, जीरा आदि के छोटे-छोटे पैकेट ग्राहकों के आगे इस तरह जोर से रखती कि कई बार सरककर वे उसी तस्वीर के आगे गिरते। गिरने की आवाज किन्हीं अनकहे शब्दों-सी टूटती- धप्प!
‘‘हाँ...’’
पता नहीं किस गहरी खाई से आवाज आयी। वह बहुत व्यस्त थी। उसके चेहरे पर, कमजोर होने के बावजूद नमक था। मुझे अपनी ओर देखते पाकर उसने नजरें घुमायीं। हालाँकि मुस्कुराने को कुछ था नहीं, पर दोनों मुस्कुराये।
मेरे साथ एक तन्द्रित विभोरता अब तक चिपकी थी। कोई था, जो हौले से मेरे कानों के नीचे एक एहसास धर देता था। धीरे से बाँहें आकर मेरी कमर को घेर लेती थीं- एक गहरी-सी किलकारी अपनी रुनझुन छोड़ते हुए अदृश्य होती रहती थी। निरन्तर कुछ होता हुआ-सा मेरे साथ था।... अचानक सड़क पर गाडि़यों का कोलाहल तेज हो गया। मैं चैंकी-शायद कोई वीआईपी होगा। आगे विशेष हॉर्न बज रहा है, और पीछे गाडि़यों का रेला। अजीब बात है, शहर में कब कौन आता है, आम आदमियों को पता ही नहीं चलता। मुझे ही देखो-कैसी बेखबर हूँ, चैंककर सड़क देख रही हूँ। इस छोटे शहर में भी दुनिया भर के जलसे, और गाडि़याँ दिखने लगी हैं। राजधानी बने अभी छह महीने भी नहीं हुए और भीड़ ऐसी ठेलमठेल चली आ रही है यहाँ कि जैसे किसी दूसरे शहर का ट्रान्सप्लाण्टेशन इस शहर में हो रहा हो। इसके भीतर उगता हुआ एक नया शहर! कैसे धीरे-धीरे लोगों को अपनी गिरफ्त में लेता जा रहा है। लोग चैकन्ने नहीं थे, अब चैंकते हैं, रोजाना विशेष हॉर्न सुन-सुनकर। और यकीन मानिए कि लोग इस इत्मीनान में अब भी हैं कि देहरादून, दिल्ली-मुम्बई जैसा नहीं बनेगा, पर होगा जनाब वैसा ही। आखिर मतलब क्या है ?
‘‘कल की न्यूज नहीं देखी?’’ कोई कह रहा था। मेरे कान उधर ही लग गये।
‘‘वही है।’’ उसने नाक को बीच से गायब ही कर दिया। भला कौन होगा?
‘‘क्या फर्क पड़ता है।’’ फिर उसी गहरी खाई से ध्वनि गूँजी। बिलकुल सही, क्या फर्क पड़ता है? बस कुछ लोगों को फर्क पड़ता है, और उनमें हम नहीं आते...
ठीक सामने बैंक की छोटी-सी शाखा है। मैं उधर ही देखती हूँ। जब भी यहाँ राशन लेने आओ, भीड़भाड़ के बीच बार-बार नजर बैंक की तरफ चली जाती है। इस बैंक में लोगों ने खाते नहीं खोले क्या? भीड़ की गहमागहमी का जैसा सम्बन्ध पसीने और पैसे से है, वह इस बैंक में क्यों नहीं दिखता? हैरत है! पता नहीं, मुझे हर बार क्यों लगता है कि जैसे कोई परिचत चेहरा इसी बैंक के दरवाजे से निकलेगा-हाथ हिलाते हुए मुस्कुराएगा। न जाने इस दुकान और सामने के बैंक से कौन-सा स्नेह सम्बन्ध लगता है? पर नहीं, सारा गुणा-भाग करके भी कोई परिचित याद नहीं आता इस बैंक में।
‘‘बहन जी, थोड़ा रास्ता...’’
‘‘हाँ, हाँ...’’ मैं अपने को टेढ़ा-सा मोड़ कर जगह बनाती हूँ। जहाँ देखों, लोग ठुसे पड़े हैं, कौन किसे पछाड़कर आगे आएगा और कितना आगे आएगा। कुछ कहा नहीं जा सकता।
सन्देह, हर जगह सन्देह! इस सन्देहवाली बात पर मुझे कुछ याद आता है और मैं फिर से भरसक गरदन मोड़कर अपनी कमर के पीछे का कुर्ता देख रही हूँ- कुछ लगा तो नहीं? अजीब लग रहा है, लोग देख रहे होंगे। क्या मैं दीदी की तरह होती जा रही हूँ? सिहर गयी मैं। खून! अभी कैसे लग सकता है? इस वक्त में खून कहाँ आता है! फिर भी तसल्ली कर लेनी चाहिए। दीदी भी डायरी में लिख-लिख कर तसल्ली करती रहती थीं। मैं उस अदृश्य डायरी के अदृश्य पन्नों पर उँगली चला रही हूँ! कुछ पंक्तियाँ अस्पष्ट हैं कुछ हल्की-सी स्पष्ट चमकती हैं।
दीदी! कहाँ मिला तुम्हें बाल्जाक यह कहता हुआ? ‘‘उससे नौकरानी जैसा व्यवहार करो, पर उसे समझाकर रखो कि वह महारानी है।’’ (बाल्जाक)।
दीदी पहले की तरह ही मुड़-मुड़कर अपनी कमर के नीचे, पीछे की तरफ की पूरी साड़ी देखती हैं, फिर साड़ी के नीचे का किनारा उठाकर आँखें गड़ा-गड़ा कर देख रही हैं। फिर सिर उठाती है, जैसे कह रही हों ‘नहीं लगा’। क्षण भर को एक तसल्ली उभरती है वहाँ। क्या उम्र रही होगी मेरी तब? याद नहीं। या शायद औरत की कोई उम्र नहीं होती। उम्र तो अनुभवों की होती है...। उसी के अनुपात में वह परिपक्व होती है। सचमुच परिपक्व ही?
‘‘ये आपका।...’’ इससे पहले कि मैं पूरा इत्मीनान करती, उसने सामान का थैला मेरे हाथों में पकड़ा दिया। मुझमें एक अजीब-सी घबराहट थी।
‘‘वो रह गया,’’ सामान देखते ही देखते मैंने पापड़ के पैकेट की तरफ इशारा किया।
‘‘आप कुछ भी नहीं भूलतीं...।’’
मुझे लगा जैसे वह कह रही है- समय के साथ भूलना चाहिए। क्या उत्तर दूँ- भूलना आसान है क्या? राशन का थैला पकड़े मैं दुकान से बाहर आयी। दुकान की सीढि़यों के नीचे हरे रंग का पुराना बजाज स्कूटर खड़ा था। मैंने धीरे-से उसके हरेपन को छुआ। ऐसे समय में हरा रंग लुभावना लगता है शायद! मन ही मन कुछ अलग-सी अनुभूति हुई। डिक्की में सामान सहेजा, कुछ पाँव के पास की जगह में रखा। किक मारने के लिए पैर उठाया कि तभी खयाल आया- स्टार्ट करने से बल पड़ सकता है। अरे कुछ नहीं होगा। यह तो आते वक्त भी सोचा था, फिर अभी दिन ही कितने चढ़े हैं? किक मारी, पर स्कूटर घर्र-घूँ करके रह गया। स्टार्ट हुआ, पर खिसका नहीं। ओह पंक्चर! इन्हें भी यहीं पंक्चर होना था? स्कूटर खरीदते वक्त शायद ही दुनिया की किसी स्त्री को यह खयाल आया हो कि अगर स्कूटर ऐसे आड़े वक्त पर पंक्चर हो जाए, तो ठेलकर कौन ले जाएगा? अपने आप पर खीज आयी। जैसे-तैसे स्कूटर के दोनों हैण्डल पकड़कर आगे बढ़ाने की कोशिश की, पर शरीर की ताकत जैसे सिकुड़कर तलवे में बैठ गयी हो।
कहीं ज्यादा जोर देने पर हो सकता है कि ...सड़क पर खड़े-खड़े मुझे कुछ हो गया तो... इस कल्पना ने मुझे पसीने-पसीने कर दिया। मैं दौड़कर बगल की दुकान में बैठे आदमी के पास गयी- ‘‘कोई हो तो पंक्चर की दुकान तक...’’
‘‘आदमी होगा तभी तो जाएगा मैडम!’’ बूढ़ा हँसा।
क्या करें? सड़क पर आते-जाते लोग क्या देख नहीं रहे कि एक औरत पंक्चर स्कूटर के साथ परेशान है। आज अपने स्कूटर पर स्टेपनी का न होना बेहद खल रहा है। स्टेपनी होती तो कम-से-कम खुद ही बदलने की कोशिश करती। बैंक के सामने दो आदमी खड़े गप्पे मार रहे हैं, पर उनकी निगाह इधर है, मेरी तरफ। वे इन्तजार में हैं शायद कि अभी मैं उन्हीं की तरफ आऊँगी। क्या उनसे कहना ठीक होगा? मैं सोचती हूँ। इससे तो बेहतर होगा कि स्कूटर यहीं छोड़ कर पंक्चर की दुकान तक जाऊँ और वहाँ से पैसे देकर किसी लड़के को ले आऊँ। पैसा, मैंने पर्स खोल कर देखा। तभी एक ठण्डा हाथ मेरे हाथ से टकराया-
‘‘परेशान होने की जरूरत नहीं बहन जी, मैं जरा बच्चे को दुकान पर बैठा कर आयी।’’
यह तो वही थी जनरल स्टोर वाली। क्या कहूँ उससे कि ऐसे जाने कितने वक्तों में खुद मैंने स्कूटर ठेलकर दुकान तक पहुँचाया है, पर आज जाने अपना ही शरीर साथ छोड़ रहा है। स्कूटर ठेलकर कहीं मैं अपने शरीर के साथ कोई खिलवाड़ न कर बैठूँ।
वह अर्थपूर्ण नजरों से देखते हुए बोली, ‘‘लोग तो स्कूटर पर बैठने से डरते हैं।’’ फिर रुककर उसने आगे कहा, ‘‘लायी ही क्यों?’’
मैं शर्मिन्दा हुई। मेरी हिम्मत कहाँ सूखती जा रही है ? कुछ पहले की विभोरता कहाँ गायब हो गयी है ?
घर आते ही सबसे पहले स्लेटी डायरी निकाली। हालाँकि तुरन्त पढ़ना चाहती थी, कम-से-कम बाल्जाक वाले पृष्ठ को तो तुरन्त देखना चाहती थी, पर नहीं हो सका। डायरी बाँहो की बगल में दबाये-दबाये गैस पर चाय चढ़ायी, फिर बगल की खूँटी पर डायरी को टिकाकर मुँह धोया-पोंछा, फिर डायरी उतारकर बगल में दबायी और चाय गिलास में लेकर उसी अपनी पुरानी कुर्सी पर बैठ गयी।
इस कुर्सी पर मैं होती हूँ या मेरा अकेलापन। दोनों साथ होते हैं तो ये डायरी चली आती है बीच में। जाने कैसे-कैसे अपने इस अकेलेपन को साथ लिये, एक छोटी-सी नौकरी करने चली आयी थी इस शहर में। जाने कब और कैसे, इतनी आपाधापी, लड़ाई और झगड़े के बीच भी इस डायरी को समेटा था कपड़ों के भीतर। यही एकमात्र पूँजी थी, जो दीदी छोड़ गयी थीं अपने पीछे और जिसे मैंने सँभाला था। इसे पढ़ना किसी अतीत से गुजरने जैसा नहीं था मेरे लिए। यह तो साथ चलता हुआ मेरे अपने ही आज का हिस्सा बना हुआ था।
कभी नहीं लगा कि इसे पढ़ना किसी फ्लैशबैक में स्मृतियों की कहानी दोहराना है, बल्कि लगता है वह सब कुछ यहीं है, बस अभी और यहीं। ऐसे में मेरा अकेलापन दबे पाँव दरवाजे से निकलकर टहलने चल देता है और मैं इसी कुर्सी पर बैठी होती हूँ अपनी नासमझी, मान और गुस्से में ऐंठी।
तो दीदी अपने लम्बे बाल खोले इसी कुर्सी पर बैठी लिख रही थीं। लिखती थीं वे, जाने किस-किस किताब से चुन-चुन कर, जाने कौन-कौन-से वाक्यों की कतरनें जोड़ती-सिलती रहती थीं इसी डायरी में। पढ़ती थीं और निशान लगाती जाती थीं। कोई शोधार्थी जब चाहे, बिना किताबों को पढ़े उन्हीं निशानों से किताबों के मूल को निकाल ले। वे गहरे डूबकर मोती लाती थीं, जिसका मूल्य किसी के लिए कुछ नहीं था। एक बेकार के काम में लगी हैं, चलो ठीक ही है। दुनिया-भर की चुगलखोरी और कमीनी हरकतों से बची तो हैं।
‘‘कुछ चोटें नहीं दिखतीं।’’ ऐसे ही किसी वक्त में माँ ने बताया था।
‘‘कैसी?’’
‘‘मन की।’’
दीदी फिर ससुराल से आ गयी थीं। अपने लम्बे-लम्बे काले बाल पहले वे जिस जतन से खोलतीं, लहरातीं, अब वह नहीं रहा। अब वे बाल खोलते ही डर जातीं-लैट्रिन कैसे जाऊँगी ? नहाऊँगी कैसे ? बस, सारा दिन घर में घुसी कुछ पढ़ती रहतीं। आते ही पापा के रेडिया पर अधिकार जतातीं और रेडियो को इतना रगड़-रगड़कर साफ करतीं कि पापा चिल्लाने लगते - ‘‘सफाई का मैनिया हो गया है लड़की को।’’ पर दिन-प्रतिदिन वे और सफाई करती गयीं। यहाँ तक कि मेरे बिस्तर की चादर को छू-छूकर, टटोल-टटोलकर देखतीं, फिर बुजुर्गियत से बतातीं-‘‘इन दिनों में ठीक से सोया कर छोटी! कभी-कभी लग भी जाता है।’’
मैं शरमा जाती-‘‘नहीं लगेगा दीदी, मैं ठीक से लगाती हूँ।’’
‘‘कभी-कभी चूक हो जाती है, मुझे देखो!’’ उन्होंने अपने दोनों हाथ उठाकर, कुर्ते की बाँह कोहनी तक मोड़कर दिखायी-‘‘पहले कभी होती थी ऐसी असावधानी ? अब पता नहीं कैसे चूक जाती हूँ।’’
मैं उनकी इन हरकतों से परेशान होकर कभी-कभी गुस्साती-‘‘कहाँ चूकती हो, मैंने तो कभी नहीं देखा?’’
‘‘तूने कभी नहीं देखा?’’ वे आश्चर्य से चीखतीं, ‘‘वहाँ तो सबने देखा है।’’ फिर अविश्वास से थिर होतीं, ‘‘ध्यान नहीं दिया होगा।’’
ध्यान नहीं दिया होगा ? क्या मतलब ? सारा घर इन्हीं पर ध्यान देता है और ये कहती हैं कि ध्यान नहीं दिया होगा। घर के एक-एक सदस्य को इन्होंने अपनी सफाई से तंग कर रखा है। जाने क्या झाड़ती-बुहारती रहती है सबमें से...
वह उम्र थी, तब मैं उनके इस वाक्य से कुढ़ी थी। चिढ़कर मैंने माँ से कहा था, ‘‘ये अपने घर क्यों नही रहतीं?’’
‘‘कहाँ ?’’
मुझे उम्मीद नहीं थी माँ के इस जवाब की।
कहाँ का मतलब ? आखिर ये माँ ही थीं, जो दीदी की शादी पर इतनी खुश थीं। एक जिम्मेदारी पूरी हुई का राग अलाप रही थीं और अब हर सवाल को क्यों, कहाँ जैसे अजीब-से जवाब में उलझा देती हैं। इन जवाबों के साथ माँ बुझती जा रही थीं और दीदी सुस्त, उदास और काम के नाम पर सफाई में संलग्न। क्यों हर एक महीने बाद ये अगले छह महीने के लिए यहाँ आकर जम जाती हैं। ठीक से रहतीं तो कोई बात नहीं थी, पर इनकी ये सनक! हाँ, तक मुझे यह सनक ही लगती थी और मैं मन-ही-मन उन्हें पागल बीमार, सिड़ी कहती थी।
‘‘जा छोटी, जरा दीदी के चादर के नीचे से रबरशीट निकाल ला।’’
माँ ने मुझे किसलिए भेजा था उनके कमरे में ? यह तब की बात है, जब दीदी रात के दो बजे बीमारी पड़ी थीं। मैं उम्र के किस किनारे पर थी ? याद नहीं। हमेशा समस्याओं, दुर्घटनाओं के साथ जोड़कर मैं अपनी उम्र के मुहाने ढूँढ़ती हूँ, पर समय है कि हाथ नहीं आता। शायद यह वह समय था, जब चीजें हमारी समझ के दायरे में प्रवेश करने लगती हैं। यह पहला मौका था, जब दीदी रात के दो बजे अस्पताल जा रही थीं। इससे पहले जब भी वे बीमार पड़ीं, दिन के वक्त ही अस्पताल ले जाई गयी थीं। तब हम प्रायः स्कूल में हुआ करते थे। उस दिन माँ ने मुझे ताकीद किया था- ‘‘चादर उठाकर फर्श पर रख देना, नहीं तो गद्दा खराब हो जाएगा।
मैं दंग थी। खून से लथपथ साड़ी... कमरे से बरामदे तक खून की एक लकीर बनाती दीदी माँ के सहारे, पापा के परिचित ऑटोवाले के ऑटो में बैठायी जा रही थीं। मैं खून की लकीर से भरसक अपने को बचाते हजुए दीदी के कमरे तक गयी। खून का रंग इतना गाढ़ा लाल था कि मेरी आँखें एक पल को चैंधिया गयीं। किधर, किस कोने से उठाऊँ चादर को कि पूरा समेट लूँ? पता नहीं किस अजीब उलझन-भरी भावना से भरकर मैंने चादर उठाकर जमीन पर रखी और खून की लकीरें जिस पर आड़ी-तिरछी थीं, उस रबरशीट को, उसी चादर के किनारे से पोंछा, फिर रबरशीट लेकर भागी थी। माँ ने बड़ी फुर्ती से उसे दीदी की कमर के चारों तरफ लपेट दिया। बेचारे ऑटो वाले की सीट खराब न हो जाए, यह सोचकर माँ ने एक और बड़ी चादर दीदी के चारों ओर लपेट दी।
कफन में लिपटी मानो एक लाश लेकर, जब वे लोग ऑटो से जा रहे थे, मैं पड़ोस की चाची जी के साथ खड़ी थी।
पहली बार मुझे एक बड़ी जिम्मेदारी का एहसास हुआ था। घर में बच्चे सोये हैं और मैं हूँ इस वक्त सबसे बड़ी। इनकी गार्जियन! कोई भी, कभी भी उठ सकता है। बच्चे नींद में चैंक सकते हैं, भोर में उन्हें ठण्ड लगेगी तो चादर मुझे ही ओढ़ानी होगी। मुझसे ढाई साल छोटी बहन भी उस वक्त मुझे बच्ची-सी लगी। अब मैं बड़ी और जिम्मेदार लड़की थी, जिसके कन्धों पर रात के दो बजे माँ-बाप पूरा घर छोड़ कर चले गये थे-दीदी के बाद, दीदी से बेहतर! ऐसा ही सोचा था तब मैंने।
चाची का, मेरा हाथ पकड़कर मानो सान्त्वना देते हुए मुझे घर के अन्दर ले आना बिलकुल नहीं जँचा था। इतने में चाची का बेटा भी आ गया। विनय। दुबला-पतला, लम्बा शरीर, छोटी-छोटी आँखें लम्बोतरे चेहरे में दिपदिपाती हुईं। अलमस्त-सा एक भाव चेहरे पर टिका हुआ। बचपन से कन्धे पर शायद किताबों का अतिरिक्त बोझ लादने के कारण या झुक-झुककर पढ़ने के कारण उसके कन्धे थोड़े आगे को झुक आये थे। उन्हीं छोटी-छोटी आँखों में अजीब-सी मस्ती भरकर और होठों में हल्के-हल्के मुस्कुराते हुए, वह जब भी कहता, ‘‘छोटी!’’ तो मैं बहुत- बहुत छोटी हो जाती, और बहुत चाहते हुए भी उसके बराबर नहीं पहुँच पाती-पढ़ाकू, घमण्डी! उसे लगता कि मैं जिस पढ़ाई के पीछे पागल हूँ, वह व्यर्थ और उबाऊ है। भला समाजशास्त्र में कोई क्या पढ़ता चला जा सकता है ? क्या बनोगी ? समाजशास्त्र की टीचर ? ये सॉफ्ट-सॉफ्ट विषय तुम लड़कियों के लिए ही रखे गये हैं। भई, समाज सेवा, परिवार सेवा... सेवाओं के लिए समाजशास्त्र पढ़ने की क्या जरूरत?
मैंने बहुत चाहा कि वह समझे कि समाजशास्त्र इतना ओछा नहीं है और इसमें बहुत ‘स्कोप’ भी है।
‘‘जैसे ?’’ वह दाँव रखता, मैं गिनाती। वह स्वीकार नहीं करता। ‘‘इस समाज में से शास्तर हटा दो भाई तो कुछ बात बने।’’ कहते हुए हवा में घूँसा मारता।
तो वही विनय चला आया है मेरी, चाची और बच्चों की सुरक्षा के लिए। मेरे अस्तित्व के एहसास को, जो कुछ देर पहले सिर तानकर खड़ा हुआ था, बड़ा धक्का लगा। लेकिन विनय के आने से चाची ने सन्तोष की साँस खींची।
‘‘तू इधर मत आ’’ के लहजे में चाची ने आनन-फानन में विनय को बैठक की तरफ कर दिया। खुद खड़े होकर बरामदे से कमरे तक का मुआयना-सा किया-‘‘बेचारी!’’
फिर आदेशात्मक स्वर में बोलीं, ‘‘छोटी, सर्फ डालकर बाल्टी भर पानी दे और सींक वाली झाडू। हाँ, बच्चों के उठने के पहले साफ हो जानी चाहिए गन्दगी।’’
गन्दगी, जो शरीर से बाहर हो गयी, बेकार हो गयी, निर्जीव हो गयी। मेरी आँखें खून के बीच उस निर्जीव को खोज रही थीं।
‘‘वह तो पेट में ही मर गया...’’
‘‘हँ?’’
मैं पानी गिरा-गिराकर झाडू से झाड़ती जाती। चाची पोछे के कपड़े से फर्श पोछती जातीं। चादर उठाकर नाली पर रख दी गयी थी।
‘‘इस बार तो डाक्टरनी ने पूरा भरोसा दिया था...’’ चाची बुदबुदायीं।
‘‘कैसा भरोसा?’’
‘‘एक बच्चा हो जाता तो सब ठीक हो जाता...’’
‘‘आप मानती हैं ऐसा...’’
चाची खामोश रह गयीं। हम दोनों झाडू-पोछा करके नाली पर चादर धोने बैठे। चाची पानी गिराती जातीं और मैं उसी झाडू को खून के ऊपर रगड़-रगड़ कर छुड़ाती जाती।
‘‘क्या पता?’’ फिर अजीब ढंग से बड़बड़ायीं चाची।
‘‘खून के दाग छूटे हैं कहीं?...’’
‘‘कहाँ छूटे ? चादर खराब हो गयी...’’
ठीक यही कहा था मैंने या कि केवल महसूस किया था।
जो खराब हो गया था, जो छूट नहीं रहा था। मेरे हाथों में जैसे कुछ लाल-लाल, चिप-चिप करता-सा जम गया था।
घड़ी में पाँच की टिक-टिक हो रही थी। मैं असमंजस में थी- क्या चाची को चाय के लिए पूछना चाहिए ? हम दोनों पैर सिकोड़कर खटिया पर, पीठ दीवार से टिकाये बैठे थे। चाची आँख बन्द किये कुछ सोच रही थी। मैं आँखे बन्द करती कि भय घिरने लगता- दीदी, क्या हो रहा होगा वहाँ...
अचानक चाची बोल उठीं- ‘‘पाँच बज गये, चाय चढ़ा छोटी, मैं तब तक घर से आयी।’’
चाची के निकलते ही उठकर दरवाजा बन्द किया मैंने। पाँव जम गये थे, धीरे-धीरे उठ रहे थे। सोचा, जब चाय चढ़ाने जा ही रही हूँ तो विनय को भी पूछ लेना चाहिए। उदास और भारी कदमों से बैठक में झाँका-यह क्या ? हमारे सुरक्षा कवच तो सो रहे हैं सोफे पर पाँव फैलाये। मैं लौट पड़ी। नींद से क्या जागना।
जाने के लिए मैं पलटी ही थी कि झटके से उठकर विनय ने मेरा हाथ पकड़ लिया। घोर चिन्ता और भय के बीच जाने कहाँ से एक सुरमई लय चली आयी। मैं वहीं बैठ गयी, विनय के कुछ पास। वह सम्मोहक स्पर्श छूट गया। किसी प्रार्थना में लीन विनय सिर झुकाये बैठा था। कुछ भी नहीं था, पर बहुत कुछ पसरा था हमारे बीच। यह वह क्षण था, जिसके लिए कोई शब्द नहीं रचा जा सका या कि यह वह क्षण था, जिसके लिए लाख-लाख शब्द बनाकर भी मनुष्य अपनी अभिव्यक्ति की शक्ति में असमर्थ रह गया, या कि यह वही क्षण था, जिसके लिए तमाम शोध के बाद भी ऋषियों, मुनियों ने अकथ, अगोचर, अगम्य, अरूप-सरूप, खरूप, सब कुछ कहा और कुछ भी नहीं कह पाये। यह वही क्षण था, जो चुपचाप चला आता है कि हम सँभले, पहचानें कि वह जाने की राह निकल पड़ता है।
‘‘...देखा प्रेम का नतीजा...’’
गहरे दुख में डूबकर पाया हुआ आप्त वाक्य, अध्यापिकाओं द्वारा समवेत स्वर में स्वीकृति गूँजी। यह शिक्षा मिल रही थी, सामने परदे पर चलती फिल्म- ‘प्यार झुकता नहीं’ से। हीरो-हीरोइन का अतीव सुन्दर प्यार धीरे-धीरे बड़ा हो रहा था। एक रुपहला-सुनहला-सा जादू था, जिसमें मैं, दीदी, माँ और उनके स्कूल की अध्यापिकाएँ और उनकी बेटियाँ सब कोई बँधे जा रहे थे कि एक नासमझ-सी दूरी ने हमारे नायक-नायिका के जीवन को तहस-नहस कर दिया। पद्मिनी कोल्हापुरे (उस फिल्म की नायिका) का मानसिक असन्तुलन, दुःख और तकलीफें जैसे-जैसे बढ़ रही थीं, हम लड़कियाँ उसी गति से रोती जा रही थीं- हालत यह हुई कि हममें से कुछ की हिचकियाँ बँध गयीं।
तो हम बड़ी होतीं, सुन्दर सपने देखतीं लड़कियाँ सावधान की गयीं। ‘अन्त में प्रेम की जीत हुई’ यह तो मनगढ़न्त किस्सा है। असली सार तो वही है, पद्मिनी कोल्हापुरे की दुर्गति। उसके बाद सब कुछ टूट-फूटकर खत्म हो जाता है, असली जिन्दगी में। हम सबने इस पर बहुत-बहुत विश्वास किया, बहुत-बहुत सराहा और बहुत श्रद्वा से इस नैतिक शिक्षा को अपने हृदय में जगह दी।
‘यह फिल्म थी, नहीं तो क्या उसका बच्चा मिल पाता उसे’ यह बोध आज तक सालता है मुझे। इन सारयुक्त दृश्यों के आगे फिल्म का अन्त झूठा था। ऐसे ही एक फिल्म और बसी थी हमारे दिलोदिमाग में - ‘जूली’। हालाँकि इसका गाना ‘जूली आइ लव यू...’ हम बड़े मन और सुकून से गाते थे।
यूँ, माँ बच्चों को फिल्में दिखाने ले जाना पसन्द नहीं करती थीं और न ही दीदी की सारी जिद रखती थीं। दीदी अपने स्कूल से इन फिल्मों के बारे में सुनकर आती थीं, फिर माँ से जिद करती थीं। माँ कोई खास ध्यान नहीं देतीं पर इस बार माँ झुकीं, वह भी क्यों? हुआ यह कि माँ के स्कूल की अध्यापिकाओं ने बताया कि अरे, ये तो वे फिल्में हैं, जिन्हें लड़कियों को दिखाना ही चाहिए। बढ़ती लड़कियों को ये ‘प्रेम के घातक परिणाम’ की सूचना देती हैं। तो इस नैतिक उद्देश्य से प्रेरित होकर हम भी ‘जूली’ देखने गये।
‘‘देखी जूली की दुर्दशा!’’ यह कहने की माँ को जरूरत नहीं पड़ी। यह जूली की हृदय-विदारक दुर्दशा ही थी, जिसके आगे साहित्य में वर्णित सारे प्रेम सन्दर्भ निहायत काल्पनिक, झूठे और खयाली पुलाव मात्र साबित हो रहे थे। यहाँ दुःख था और दुःख का साक्षात् कारण था। तो माँ के कहे बिना, इस फिल्म में छिपी नैतिक शिक्षा को हमने खुद ही ग्रहण कर लिया, और माँ के पूछने के पहले ही बताया- ‘‘छिः, ये लड़कियाँ प्रेम में पड़ती ही क्यों हैं ?’’
माँ के चेहरे पर एक क्षण के लिए प्रसन्नता दौड़ी, फिर वे चिन्ता में घिरीं- ‘‘यही तो नहीं समझती आजकल की लड़कियाँ! अरे वो तो गनीमत समझो कि फिल्म में प्रेम जैसा कुछ दिखाया भी गया। असली हालात तो ये हैं कि अच्छी पढ़ी-लिखी लड़कियों को प्रेम के नाम पर फुसलाकर, दिल्ली-बम्बई पहुँचा दिया जाता है...बेचारी भोली-भाली लड़कियाँ...’’ माँ ने उन अज्ञात लड़कियों को याद किया। यहाँ अपने उपर्युक्त भाषण में माँ ने ‘पढ़ी-लिखी लड़कियों’ पर विशेष बल दिया था। इसके बाद ‘दिल्ली और बम्बई’ पर विशेष बल दिया था। उस वक्त तक दिल्ली और बम्बई हमारे लिए जगमगाते हुए ऐसे महानगर थे, जिनमें यदि गलती से कभी हम चले जाएँ तो निःसन्देह रास्ता भूल जाएँगे और हम ‘पढ़े-लिखे’ थे, अर्थात् कि अपने को ‘पढ़ी-लिखी लड़कियों’ वाली कोटि में मानते थे। सो, हम बहुत भयभीत हुए। कभी लड़कियाँ आती-जाती अपनी बेवकूफियों पर पश्चात्ताप करती बिलखतीं- कभी चमकता हुआ महानगर आता, जिसकी अनन्त गलियों-चैराहों में हम भटक रहे होते-हम कभी खुद इतने बदसूरत और रोते हुए अपने ही सपनों में आते कि अपने आप से डर जाते-कहीं हमारे ही भीतर प्रेम का वह राक्षस तो नहीं छिपा बैठा है ?
तो निष्कर्ष यूँ निकला कि अच्छी लड़कियों! प्रेम से बचो! प्रेम एक छिछली भावुकता है, जो भविष्य में दुर्गति का कारण बनेगी। कोई सहारा नहीं देगा लड़कियों! इसलिए पढ़ो-लिखो और अपने भीतर के सहज आकर्षण को दबा डालो। लड़कियों! ध्यान से सुनो! गौतम बुद्व ने कहा है- दुःख है, तो उसका कारण है। कारण है तो निवारण भी है, और मध्यमा प्रतिपदा अर्थात् मध्यम मार्ग! बस, चुपचाप इस मध्यम मार्ग पर चलो। जब तक
माँ-बाप कहें, पढ़ो, जब पढ़ाई बन्द करने को कहें, बन्द करो। जिसके साथ कहें, उसी के साथ जाओ। जिससे प्रेम करने को कहें, उसी से प्रेम करो! ऐसा करने से तुम्हारे द्वारा किये गये प्रेम की जिम्मेदारी उनकी होगी और इस प्रेम में यदि काँटे चुभेंगे, तो इसका प्रायश्चित्त भी वही करेंगे यानी तुम्हारे माँ-बाप। पर प्रदर्शन मत करो लड़कियों! प्रेम प्रदर्शन की चीज नहीं है। मन की चीज है। मन की ? मन की बात मत सुनो लड़कियों! यह दुःख है...
कभी जूली आ रही है, कभी गौतम बुद्ध, कभी पद्मिनी कोल्हापुरे की रोती हुई आँखें... सब चिल्ला रहे हैं - ‘लड़की तू भूल रही है। इतनी जल्दी भूल गयी तू ? यही है वह क्षण जिससे बचना है। ये नशा है- इसका अनुभव मत कर। बरबाद हो जाएगी लड़की तू...’
‘‘बरबाद!’’ मैंने सिर पीछे सोफे पर टिका लिया। जैसे सिर में कोई हथौड़ा चला रहा हो। विनय ने मुड़कर मेरी तरफ देखा। मैंने आँखें बन्द कर ली। क्या विनय को समझा सकती हूँ वह सब कुछ और यह सब कुछ ? जो अभी भी डरा रहा है मुझे और जो वर्षों से डराता रहा है।
विनय ने बहुत आहिस्ते से, बहुत कोमलता से अपनी एक उँगली मेरे होठों पर रखी और तुरन्त हटा ली। मेरी धड़कनों के साथ हृदय पर मनों बोझ बढ़ता जा रहा था। यह प्रेम मुझसे सहन नहीं हो रहा-दहशत भर रहा है मेरे भीतर। इस प्रेम को बहुत-बहुत चाहते हुए भी मैं कैसे इससे भागूँ ? हाय! अब क्या होगा मेरा ? हे प्रभु! मैंने जानबूझकर अपने आपको आज इस कुचक्र में फँसा दिया।...
अनन्त बेचैनियों में काँपती मैं उठ गयी। विनय भी उठ गया, कि बिल्कुल नाउम्मीदी में विनय ने अपने होठ मेरे होठों पर रख दिये। तेज बासी महक! घृणा की एक लहर पैरों से उठकर मेरे समूचे अस्तित्व को हिला रही थी। मेरे हाथों ने उसे परे धकेल दिया और भागकर मैं नाली पर आयी। नाली में अभी भी खून की एक परत झलक रही थी या यह भ्रम था मेरा ? मैंने अपना हाथ चेहरे का पसीना पोंछने के लिए चेहरे पर फिराया तो लगा कि खून मेरे चेहरे पर चिपक गया है। अचानक जोर की उल्टी आयी।
मैं नाली पर उल्टी कर रही थी और एक हाथ मेरी पीठ सहला रहा था - ‘‘बेकार डर गयीं, इतने से कुछ नहीं होता।’’ वह कानों के पास बुदबुदाया। मैं मुँह धो-पोंछकर रोने लगी। मैं रोती जाती और वह जाने क्या-क्या समझाता जाता।
‘‘अनचाहे सेक्स को झेलने वाली औरतें ज्यादा उल्टियाँ करती हैं, मानो वे अपने मुँह के रास्ते अपने गर्भ को पलटकर रख देना चाहती हों...’’ दीदी की उसी स्लेटी रंग की डायरी पर, बैठे-बैठे निशान लगा रही हूँ। यह क्या ? यह निशान लगाने की आदत मुझमें कहाँ से चली आयी? बगल के घर में रहनेवाली नीतू पुकारती है- ‘‘दीदी।’’ और मेरी जान निकल जाती है। मेरी हिम्मत रह-रहकर टूटती है। डायरी की बात गले नहीं उतर रही। भला अपने ही गर्भ से अरुचि ? दीदी जब-तब सपनों में आ जाती हैं। ‘डर मत, हिम्मत रख।’ वे कहती हैं।
मैं अकेले-अकेले रोने लगती हूँ। गर्भपात! अपने ही शरीर से कुछ अलग हो जाने का भय! दीदी, मुझे बचाओ, मैं रो रही हूँ।
‘‘मृणाली दी, तुम्हारा स्कूटर बनकर आ गया है, कई पंक्चर थे।’’ वही पड़ोस की नीतू की आवाज, सुनकर मुझे शर्म आती है। रो रही हूँ मैं अभी तक! अब जबकि मैं छोटी से मृणाल बन चुकी हूँ, तब भी रोना? मैं जल्दी से उठकर मुँह धोती हूँ- ‘धत, मैं वैसी ही कमजोर रह गयी।’
‘‘मैंने स्कूटर सीखा है। आपके इसी खज्जड़ स्कूटर पर प्रैक्टिस करूँगी।’’ नीतू चहकती हुई स्कूटर की चाभी लेकर बाहर जा रही है। मैं मुस्कुराती हुई दरवाजे से टिकी खड़ी हूँ। नीतू इशारे से बुला रही है। मैं ‘न’ में सिर हिलाती हूँ। ‘‘अब मुझे स्कूटर के लिए माफ करो।’’ निराशा जाने कहाँ से मेरे स्वर में छिपकर बोल रही है।
मैं अनुभव कर रही हूँ, जैसे दूर एक आम का पेड़ हिलता हुआ दिख रहा है। एक घोंसला है उस पर। खूब सुन्दर चिडि़या उसके चारों ओर मँडरा-मँडरा कर चहचहा रही है। यह क्या ? उसके अण्डे जमीन पर गिरकर टूट गये हैं! चिडि़या के अण्डों से निकला पीला द्रव मेरी आँखों के आगे छा रहा है... एक आकृति मेरे ऊपर झुकती चली आ रही है... जगह-जगह चूमती-जीभ ही जीभ, थूक ही थूक! अरुचि और घृणा से सिहर रही हूँ मैं।
मेरी थूक से लिसड़ी देह दूर पड़ी है- मुझे उबकाई-सी आ रही है। लगता है, सारा पेट ही उलटकर बाहर आ जाएगा... दीदी, जाने कहाँ से आकर मुझे इशारा कर रही हैं कि अपना परफ्यूम वाला रूमाल नाक पर रखो। मेरा हाथ जैसे दीदी की कोहनी तक फैला हाथ हो गया है...
‘‘देखो, इधर,’’ नीतू स्कूटर लेकर आयी है और फिर मुड़ रही है- ‘‘एक चक्कर और।’’
मेरे चेहरे पर भय देखकर कहती है, ‘‘अच्छा, एक चक्कर के बाद बिलकुल नहीं...’’ वह स्कूटर से उतर गयी है। उतरकर मोड़ रही है। ये सामने की पतली-सी लड़की, किस तरह स्कूटर मोड़ रही है ? कल इसका हाथ दुखेगा... उसके गोल पुट्ठे और कन्धे की ऊँची हड्डियों वाली पीठ मेरी तरफ है। बाँहों की पिण्डलियाँ कुर्ते की बाँह के भीतर से उभर आयी हैं। राजस्थानी कुर्ते पर लम्बा-सा स्कर्ट हिल रहा है। इस हिलते हुए स्कर्ट के नीचे धीरे-धीरे रक्त की एक लकीर खिंचती जा रही है-धीरे-धीरे उसका स्कर्ट उसके पैरों में लिपटता जा रहा है... खून से सींझती-सींझती चली जा रही है... उसे कोई रोको! उसके पैरों के बीच लद्द से कटा हुआ मांस का एक टुकड़ा गिरा, फिर एक और... वह है कि चली जा रही है। मांस के टुकड़े पर पाँव पड़ते-पड़ते बचा... मैं चिल्लायी- ‘‘रोको, रोको!’’ लगा, कुछ मेरे भीतर टूटा- मेरे ही पैरों से रक्त की गरम-गरम लहर टकरायी... एकदम-से शरीर में सिकुड़न-सी हुई, फिर एक दर्द की लहर... और कुछ फिसलकर मेरे ही दाहिने पाँव की सलवार उमें अटका...अरे, यह तो मैं ही... मुझे चक्कर आया। आखिर आज हो ही गया, इसी को बचाने तो भागी-भागी आयी थी मैं’...
मैं जोर-जारे से रोने लगी और दरवाजे के पाट के बीच लगभग बैठी हुई-सी गिर गयी।
( अल्पना मिश्र , रीडर , हिन्दी विभाग,दिल्ली विश्वविद्यालय )
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