Tuesday, February 19, 2013

असद जैदी जी की कविताएं



असद ज़ैदी  जी का नाम हिंदी कविता में किसी परिचय का मोहताज नहीं है. अपनी स्पष्ट राजनीति, गहरी संवेदना और तेवर के लिए अलग से पहचाने वाले  कवि को पढ़ना अनुभव की एक अलग दुनिया से गुजरना होता है.








अप्रकाशित कविता        


एक कविता जो पहले ही से ख़राब थी
होती जा रही है अब और ख़राब

कोई इन्सानी कोशिश उसे सुधार नहीं सकती
मेहनत से और बिगाड़ होता है पैदा
वह संगीन से संगीनतर होती जाती
एक स्थायी दुर्घटना है
सारी रचनाओं को उसकी बग़ल से
लम्बा चक्कर काटकर गुज़रना पड़ता है

मैं क्या करूँ उस शिथिल
सीसे सी भारी काया का
जिसके आगे प्रकाशित कविताएँ महज़ तितलियाँ हैं और
सारी समालोचना राख

मनुष्यों में वह सिर्फ मुझे पहचानती है
और मैं भी मनुष्य जब तक हूँ तब तक हूँ।


जो देखा नहीं जाता         


हैबत के ऐसे दौर से गुज़र है कि
रोज़ अख़बार मैं उलटी तरफ़ से शुरू करता हूँ
जैसे यह हिन्दी का नहीं उर्दू का अख़बार हो

खेल समाचारों और वर्ग पहेलियों के पर्दों से
झाँकते और जज़्ब हो जाते हैं
बुरे अन्देशे

व्यापार और फ़ैशन के पृष्ठों पर डोलती दिखती है
ख़तरे की झाँईं

इसी तरह बढ़ता हुआ खोलता हूँ
बीच के सफ़े, सम्पादकीय पृष्ठ
देखूँ वो लोग क्या चाहते हैं

पलटता हूँ एक और सफ़ा
प्रादेशिक समाचारों से भाँप लेता हूँ
राष्ट्रीय समाचार

ग़र्ज़ ये कि शाम हो जाती है बाज़ औक़ात
अख़बार का पहला पन्ना देखे बिना।




करने वाले काम       


वापस खींचो सारे छुरे
जो तुमने घोंपे थे पसलियों के बीच
हँसली के ऊपर गुर्दों के आसपास
लौटाओ लोगों को मुर्दाघरों से
इमर्जेंसी वार्ड में जहाँ नाइट ड्यूटी पर लगे
दो उनींदे डाक्टर तुम्हारे किसी शिकार को
बचाने की कोशिश कर रहे हैं
वे ऐसे तो उसे बचा नहीं पाएँगे

खींचकर वापस लाओ वहाँ से भी उन सब मरते हुए लोगों को
बिठाओ उन्हें उनकी बैठकों और काम की जगहों में
सुनो उनसे उनके पसंदीदा मज़ाक़

जब उनमें से किसी की औरत चाय लेकर आए
तो हस्बे-.मामूल बोलो नमस्ते भाभी
और कोई बच्चा-.बच्ची झाँकते दिखाई दें तो
बुलाओ और कहो देखो ये रहे तुम्हारे पापा

वापस लो अपनी चश्मदीद गवाहियाँ
जिनका तुमने रिहर्सल किया था
बताओ कि इबारत और दीद भयानक धोखा थीं
और याददाश्त एक घुलनशील ज़हर

फिर से लिखो अपना
सही सही नाम और काम

उन समाचारों को फिर से लिखो
जो अफ़वाहों और भ्रामक बातों से भरे थे
कि कुछ भी अनायास और अचानक नहीं था
दुर्घटना दरअसल योजना थी

मत पोंछो हर जगह से अपनी उंगलियों के निशान
छुड़ाओ अपने बालों से वह बेहूदा ख़िज़ाब

फिर से बनाओ वही हथेलियाँ
जो पसीजती थीं एक मासूम पशुता से
और मनुष्यता के ताप से





संस्कार         


बीच के किसी स्टेशन पर
दोने में पूड़ी.साग खाते हुए
आप छिपाते हैं अपना रोना
जो अचानक शुरू होने लगता है
पेट की मरोड़ की तरह
और फिर छिपाकर फेंक देते हैं कहीं कोने में
अपना दोना।

सोचते हैं :  मुझे एक स्त्री ने जन्म दिया था
मैं यों ही दरवाज़े से निकलकर नहीं चला आया था।




खाना पकाना         

नानी ने जाने से एक रोज़ पहले कहा-
सच बात तो यह है कि मुझे कभी
खाना पकाना नहीं आया .

 #

उसकी मृत्युशैया के इर्द गिर्द जमा थे
कुनबे के बहुत से फ़र्द - ज़्यादातर औरतें ढेरों बच्चे -
सुनकर सब हँसने लगे
और हँसते रहे जब तक कि उस सामूहिक हँसी का उजाला
कोठरी से उसारे फिर आँगन में फैलता हुआ
दहलीज़ के रास्ते बाहर न आ गया
और कुछ देर तक बना रहा.

   #

याददाश्त की धोखे भरी दूरबीन से
मुझे दिखती हैं नानी की अधमुँदी आँखें तीसरे पहर का वक़्त
होटों पर कत्थे की लकीरें और एक
जानी पहचानी रहस्यमय मुस्कान

  #

मामला जानने के लिए अन्दर आते कुछ हैरान और परेशान
मेरे मामू मेरे पिता

#

रसोई से आ रहा था फर.फर धुआँ
और बड़ी फूफी की आवाज़ जो उस दिन रोज़े से थीं
अरी मुबीना ज़रा क़बूली में नमक चखकर बताना

  #

वे सब अब नदारद हैं

#

मैंने एक उम्र गुज़ार दी लिखते
काटते मिटाते बनाते फाड़ते चिपकाते
जो लिबास पहनता हूँ लगता है आख़िरी लिबास है
लेटता हूँ तो कहने के लिए नहीं होता
कोई एक वाक्य
अन्धेरे में भी आकर नहीं जुटता एक बावला कुनबा
वह चमकीली हँसी वैसा शुद्ध उल्लासण





कठिन प्रेम        


सूत्रधार :

इसकी भी कई मंज़िलें होती होंगी
और अनेक अवकाश
चलिये चलकर पूछते हैं उस भली महिला से
जिसने किया था
एक अदद कठिन प्रेम
देखिए उस मानुस के जाने के इतने बरस बाद
वह कठिनाई
क्या अब भी जारी है
और कैसे हैं अब
उसके उतार चढ़ाव

#

स्त्री :
एक बात तो यही है कि मैं अब
पहले से ज़्यादा मुक्त हूँ . उस
झाँय झाँय को पीछे छोड़कर
पर खुशी के क्षण भी मुझे याद हैं

#

एक छोटी सी जन्नत थी हमारी बरसाती
जिसको कुछ समझ में न आता कहाँ जाए
तो हमारे यहाँ आ धमकता था

#
 
झगड़े भी बाद में होने लगे हमारे
ऐसा भी कुछ नहीं था . ये जवानी की बातें हैं
वह मुझे धोखा देने चक्कर में रहता था
मैं उसे ज़हर देने की सोचती थी
फिर वह अचानक मर गया
धोखा दिए बिना ज़हर खाए बिना
मुझे लगा मेरा तो सब कुछ चला गया

#

फिर मैं जैसे तैसे करके ख़ुद को हरकत में लाई
अधूरी पड़ी पी एच डी खींचकर पूरी की और
यूनिवर्सिटी के हलक़ में हाथ डालकर
निकाली एक नौकरी उसी विभाग में जहाँ मैं
अस्थायी पद पर पढ़ा चुकी थी उसके चक्कर में आकर
सब कुछ छोड़ देने से पहले

#

उसके बारे में क्या बताऊँ बेसुरी उसकी आवाज़ थी
बेमेल कपड़े काली काली आँखें
रहस्यमय बातें ख़ालिस सोने का दिल
और ग़ुस्सा ऐसा कि ख़ुद ही को जलाकर रख दे
हम बड़ी ग़रीबी और खु़ददारी का जीवन जीते थे

#

दूसरों को हमारी जोड़ी
बेमेल दिखाई देती थी . थी भी
पर बात यह है कि वह मुझे समझता था
और मैं भी उसे ख़ूब जानती थी
सोचती हूँ ऐसी गहरी पहचान
बेमेल लोगों में ही होती है

#

समाजशास्त्र की मैं रही अध्यापक
यही कहूँगी हमारा प्रेम एक मध्यवर्गीय प्रेम ही था
प्रेम शब्द पर हम हँसते थे
अमर प्रेम यह तो राजेश खन्ना की फ़िल्म होती थी
जैसे आज होते हैं 24×7 टीवी चैनल

#

उसको गए इतने बरस हो गए हैं
पर वह जवान ही याद रहता है
जबकि मैं बूढ़ी हो चली
और कभी कभी तो एक बदमिज़ाज छोटे भाई की तरह
वह ध्यान में आता है

#

कितना कुछ गुज़र गया
इस बीच छठा वेतन आयोग आ गया
साथ के सब लोग इतना बदल गए
न तो वह अब हमारी दुनिया रही न वैसे अब विचार
समझ में नहीं आता यह वास्तविक समाजवाद है या
वास्तविक पूँजीवाद

#

एक नई बर्बरता फैल गई है समाज में
" रोटी नहीं मिलती तो खीर खाओ "  कहते लोगों को
कहूँ तो क्या कहूँ

#

अगर वह जीवित होता तो सोफ़े पर पड़े
आलू का जीवन तो न जीता
हो सकता है कहता हत्यारे हैं ये चिदंबरम
ये मनमोहन ये मोदी इन्हें रोका जाना चाहिए
हो सकता है मैं उसे ही छत्तीसगढ़ के वनों में
जाने से रोकती होती कहती होती और भी रास्ते हैं ।

#

लीजिए पीकर देखिए यह ग्रीन टी . हरी चाय
जिसे पिलाकर पैंतीस बरस हुए उसने मेरा दिल
जीतने की पहली कोशिश की थी
तब मैं हरी चाय के बारे में जानती न थी



 असद ज़ैदी     

कवि, अनुवादक
 कुछ प्रमुख कृतियाँ - बहनें और अन्य कविताएं,
कविता का जीवन , सामान की तलाश




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