Monday, October 08, 2012

विपिन चौधरी- स्त्री मुक्ति का विशाल आयतन और उसकी सामाजिक पड़तालें

अपने 50-55 साल के राजनैतिक, सामाजिक एवं साहित्यिक जीवन से गुज़रते हुये रमणिका गुप्ता जी ने स्त्री जीवन के जिन पहलुओं को देखा, परखा और समझा उसका दस्तावेजी रुप अभी लोकार्पित हुर्इ उनकी पुस्तक 'स्त्री मुक्ति: संघर्ष और इतिहास’ में बखूबी पढनें को मिलती है।

इस पुस्तक में इतिहास और वर्तमान में स्त्री मुक्ति की तमाम कुलबुलाहटों से लेकर धर्म, जाति व पितृसत्ता में जकड़ी स्त्री किस तरह अलग-अलग धरातलों पर मुक्ति के सपने देखती है, से लेकर धर्म, पितृसत्ता जाति में जकड़े उस सामाजिक स्तितियोंस्थितियों की विवेचना की है जिसकी भाषा धर्म विरोधी है जो आज की आधुनिक स्त्री की छवि को धूमिल करने में लगा हुआ है।

इस सबके अलावा स्त्रियों की अंर्त व्याख्या जो आज भी जाग्रत नहीं है, जो स्वयं को पुरुष निर्मित कसौटी पर तोलती है, जो नैतिकताओं को अपने पल्लू पर बाँध कर चलती है। क्रमवार व्याख्या समिमलित है।

यह हमारी विडम्बना है कि इसी आधी आबादी को बराबरी का दर्जा दिये बिना इक्कीसवीं सदी, सामाजिक समरसता के उदघोषी नारे के साथ आगे बढ़ रही है। केवल भारत में ही नहीं समूचे विश्व में सबसे खौफनाक आँकडे स्त्रियों के नाम पर ही दर्ज हैं। विकसित देशों में भी आर्थिक भेदभाव और शारीरिक उत्पीड़न की समस्याओं से महिलायें जूझ रहीं हैं। इसी देश में कहा जाता है जेंडर एक पश्चिमी शब्द है। हमारे यहाँ सब ठीक-ठाक है महिलायें आगे बढ़ रहीं हैं। वैज्ञानिक और राष्ट्रपति तक बन रहीं हैं। लेकिन जिस भारतीय समाज में 50 प्रतिशत महिलायें अनीमिया का शिकार हों, जहाँ साफ शौचालयों के लिये महिलाओं को लम्बी चौड़ी मुहिम चलानी पड़े, जहाँ पितृसत्ता के कमजोर प्रभाव वाले आदिवासी क्षेत्रों तक में स्त्री-पुरुष अनुपात चिंताजनक स्थिति में हो वहाँ स्त्री मुक्ति एक (लग्जुरियस थोट) ही समझा जाना चाहिए। जिसे एक छोटा सा वर्ग ही (अफोर्ड) कर सकता है। स्त्री मुक्ति कोर्इ थोपी जाने वाली चीज नहीं है। बिना स्त्री मुक्ति की चेतना के स्त्री सशक्तिकरण की योजनाओं पर काम करने पर अंजाम वही होता है जो ग्राम पंचायतों में आदिवासी को स्थान देने पर हुआ। महिला सरपंच को बुलाने पर उसका पति आपके सामने प्रस्तुत होता है। सरपंच महिला घर के भीतर बाल-बच्चों को संभाल रही होती है। ठीक ऐसा ही हाल महिलाओं को अपने पैत्तिक अधिकारों को देने पर हुआ। महिलायें उस सम्पत्ति पर अपना हक कबूल करने में हिचकती हैं और चुपचाप अपनी जमीन अपने भार्इयों के नाम कर देती है। 

स्त्री मुक्ति एक व्यक्तिगत प्रक्रिया है जहाँ स्त्री एक इंसान के तौर पर अपनी विवेचना कर सामाजिक बंधनों को नकारती है जबकि स्त्री सशक्तिकरण, समाज को साथ लेकर स्त्री के विकास का मार्ग प्रशस्त करता है। इसलिए सबसे पहले स्त्री को अपने ऊपर लगे टैबू से मुक्त होने कि जरुरत है। जिस तरह दो दशक पहले इको-फेमनिजम के जरिए सामाजिक स्तर पर जिस तरह सित्रायाँ जाग्रत हुईं। टैक्नालोजी के जरिये स्त्री चेतना को सूक्ष्म तरीके से प्रस्फुटित होते हुए देखा जा सकता है। शहर की महिलायें ब्लाग्स और सोशल साइटस के जरिये देश-दुनिया से सम्पर्क साध रही हैं वही गाँव की घूँघट ओढने वाली महिलाएं भी फोन पर बातें करती देखी जा सकती हैं। इन परिस्थितियों में घर और घर से बाहर का माहौल भी निश्चित तौर पर बदलता है स्त्री मुक्ति सशक्तिकरण को भी भारत जैसे विविधता वाले देश में कर्इ स्तरों पर लागू किया जाना चाहिए

सशक्तिकरण की अवधारणा हर पीढी के साथ बदल जाती है। 60-70 के दौर की महिलाओं को अपनी पढ़ार्इ के लिये संघर्ष करना पड़ता था आज की पीढ़ी के लिए अपना करियर सबसे महत्वपूर्ण है। आज दूर-दराज़ के गाँव कस्बों में माता-पिता अपनी बेटियों को आगे की पढ़ार्इ के लिये महानगर भेज रहे हैं लेकिन बहुत कम माता-पिता लड़की को अपना जीवन साथी चुनने की इजाजत दे रहे हैं तो यह पीढ़ी इसी संघर्ष के साथ दो-चार हो रही हैं।

इस पुस्तक के पृष्ठ-47 में रमणिका जी स्त्री असमानता की जड़ में धर्म को मान रही हैं पर आज के आधुनिक समय में धर्म को आउट डेटिड माना जा रहा है तो स्त्री के नाम पर यह भारी असमानता कैसे कायम रह गयी है? यह एक विचारणीय प्रश्न है।

आज महिलाओं की स्थिति में जो थोड़ा बहुत सुधार दिखार्इ पड़ रहा है। वे सुधार नहीं आधुनिकता के समांतर आये हुये बदलाव हैं। इन बदलावों ने स्त्री को उसकी गरिमा के साथ न स्वीकार कर कोमोडिटी बना कर पेश किया। काम-काजी स्त्री को सुपर-वुमैन का दर्जा दिया जा रहा है। घर और बाहर की जिम्मेदारियों को बखूबी निभाती स्त्री को देख कर सभी वाह-वाह कर रहे हैं जबकि पुरुष पर वही परम्परागत जिम्मेदारियाँ हैं जिसमें स्त्री को स्त्री का सहयोग न देना भी शामिल है।
पितृसत्ता के चलते स्त्री के प्लस प्वांटस को दबा कर रखा गया जिसमें लड़की होने के लिए जिम्मेदार 'वार्इ क्रोमोसोम का वैज्ञानिक सत्य भी शामिल है। स्त्री मुक्ति से स्त्री सशकितकरण की तरफ जाने वाला मार्ग कठिन जरुर है पर असंभव नहीं। वैसे भीहर संघर्ष भरी जददोजहद की माँग करता है।आज की स्त्री जब घर के भीतर होती है तो उसका संघर्ष वुमैन बनाम वुमैन के बीच होता है। क्योंकि घर में स्त्री मुक्ति, को अपनी माँ, सास, जेठानी अलग-अलग नज़रिये से देखती है और घर से बाहर निकलते ही उसकी मुक्ति का संघर्ष वुमेन बनाम सोसाइटी में तब्दील हो जाता है। वह उस समाज से टकराती है जो अपने काम काज निपटाती, पुरुषों से मेल-मुलाकात करती स्त्री को खुले-सांड की संज्ञा देता है।

रमणिका जी स्त्री को अपने निर्णय खुद लेने के लिये प्रोत्साहित कर रही हैं। वह उस सोशल ट्रैनिका के जरिये ही संभव है जिसकी शुरुआत घर से ही शुरु होती है। स्त्री मुक्ति के इसी क्रम में पुरुषों को बराबर का भागीदार बनाते हुए, हमें उन्हें इस बात का भरोसा दिलवाना होगा की महिलायें पुरुषों से नहीं उनकी नेतृत्व की भावना से पीडि़त है। पुस्तक के पृष्ठ-63 अध्याय में कर्इ बिंदु बताए गए हैं जो लम्बी बहस की माँग करते हैं।


स्त्री संबंधी कानून की जानकारी देता अध्याय पुस्तक का सबसे मजबूत व सुविचारित हिस्सा है।
पुस्तक का लोकार्पण समारोह 5 अक्टूबर को साहित्य अकादमी , दिल्ली के सभागार में साहित्यकार राजेन्द्र यादव की अध्यक्षता में हुआ कार्यक्रम में अर्चना वर्मा , विश्वनाथ प्रसाद तिवारी , निर्मला जैन , गीता श्री , कैलाश वाजपेयी , देवेन्द्र चौबे , महेश भारद्वाज , अनीता भारती , मनीषा पांडे , सुभाष नीरव , पंकज शर्मा , अर्चना वर्मा ने भाग लिया.

प्रारम्भ में लिखे निवेदन में रमणिका जी ने साफ किया है कि चुंकि पुस्तक ने संकलित आलेख समय-समय पर लिखे गये हैं। अत: बहुत स्वाभाविक है कि इनमें कुछ-कुछ बातों में दोहराव हो। अत: इन दोहरावों को इसी तरह लिया जाना चाहिए। स्त्री मुक्ति के विभिन्न आयामों पर प्रकाश डालती।

हरियाणा साहित्य अकादेमी द्वारा प्रेरणा पुरूस्कार से 2007 में सम्मानित युवा कवियत्री विपिन चौधरी हरियाणा के हिसार से है, आलोचक के साथ वो एक अच्छी रचनाकार भी है और कई रचनाओ का प्रकाशन हो चुका है “अँधेरे के मध्य से” (2008) और “एक बार फिर” (2008) उल्लेखनीय हैं। 

पुस्तक : स्त्री मुक्ति: संघर्ष और इतिहास | लेखिका : रमणिका गुप्ता | प्रकाशक : सामयिक प्रकाशन | मूल्य : 300/- रुपये

तस्वीरें: लोकार्पण: स्त्री मुक्ति: संघर्ष और इतिहास


प्रस्तुति : शोभा मिश्रा व भरत तिवारी

3 comments:

  1. बहुत सुन्दर व सटीक समीक्षा की है विपिन जी …………दोनो को बधाई

    ReplyDelete
  2. ''स्त्री मुक्ति" अपने आयतन के परिमाण एवं घनत्व कि इतनी विस्तृत विवरणिका है कि उससे मुक्ति,सभ्यता से मुक्त होना होगा। यह लिखने और संभाषण के लिए उपयुक्त है .........एक उत्कृष्ट आलेख के लिए शुभकामनाएं

    ReplyDelete
  3. usha priyamvada ji ka contact no. ho plz tell her contact no.
    my mobile no. is- 09868065990

    ReplyDelete

फेसबुक पर LIKE करें-