काशी की गार्गी मिश्र युवा कवियत्री हैं. बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद गार्गी ने "प्रिंट जर्नलिज्म" में डिप्लोमा किया, अब पत्रकार हैं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनके लेख छपते रहते हैं .मासूम लेखनी से लिखने वाली गार्गी की कविताएँ, नज्में हमारी-आपकी भाषा में बात करती हैं. अपने बारे में पूछने पर कहतीं हैं "
"हवाओं पर ओस के मोती संजोना चाहती है रूह
चाँद से गोल चवन्नी मांग कर कुछ सपने खरीदना चाहती है "
दास्तान-ए-सिलसिला
हमारी मंजिलों काएक हो जाना
ये तय नहीं कर पाता
की हमें इश्क है ...
हाथ थामें साथ चलना
और
किसी मोड़ पर
हाथों के छूट जाने से
सहम जाना ,
इस बात का सुबूत
नहीं बन जाता ,
कि हम
साथी हैं ...
भाप के बनने
और बरसने का क्या सबूत है ??
क्या रोक पाती है
कोई दुआ या व्रत
खून को जमने से ?
कौन सी रस्में हैं
जो
कैद कर लेती हैं
वो धुआं
जो उठता है ,
एक रूह के मिट्टी होने पर
कौन बाँध कर रखता है
जिस्मानी रिश्तों की राख़
ताबीज़ में
और लगाये रखता है
उसे
अपने गले से ?
कौन है
इतना बेफिक्र फ़िक्रमंदों के शहर में
इन सवालों का जवाब
अगर
नहीं है
तो
फिर
क्यूँ है इतना शोर
इतना अधिकारों की कुर्सी का झगड़ा
झूठे सच्चे ,
धर्म अधर्म ,
इश्क और रश्क पर इतना हंगामा क्यूँ
घर के एक ताले की दो चाभियाँ रखीं जातीं है..
एक रूह के दो ताले क्यूँ नहीं हो सकते साहब
तजुर्बे -
कम ज्यादा हो सकते हैं
पर
आँसू और हँसी
इसकी नाप तोल
नहीं हो सकती ..
हो सकती है क्या
काश
हो पाती ...
और मैं बता पाती
अँजुरी भर गई थी
आंसुओं से
जब
तुमसे विदा कहा था ..
और
दोनों हंथेलियों में
महक रही थी
मेरी मुस्कुराहटों की नमी
जब
तुमसे मिली थी ...
तुमसे मिलने के पहले
ना सोचा था ..
कि तुमसे मिलूंगी ...
तुमसे मिल कर भी
नहीं सोचती
तुमसे बिछड़ जाउंगी ..
मिलने के बाद बिछड़ना कहाँ होता है
पानी में शक्कर घुलने के बाद ,
पानी से अलग हो पाती है क्या
हम तो "अब" मिल चुके हैं ...
मोड़ से "कई बार"
तुम्हारे हमारे रास्ते
अलग हो जाते हैं ..
मुड़ कर देखते नहीं
ना तुम
ना मैं ...
आदत है इक
कि -
मोड़ पर जब
रास्ते अलग हो जायेंगे
तब
संभल कर चलना है ...
ताकि जिंदा रहे "इक दूसरे" के लिए ..
एक
पागल के लिए
एक
पगलिया के लिए ..
जहाँ भी रहे ..
हिचकियाँ लेते रहे ...
यूँ
इक दूसरे के लिए, मरने के लिए
इतने बेफिक्र
कहाँ हो पाते हैं हम ...
फकीरी की तालीम
वो नहीं मिलती है स्कूलों में ..
वहां सिर्फ
मौलवी और पंडित तैयार किये जाते हैं ...
सुनो
ये ख्वाहिश रखना
कि हम-तुम साथ चलेंगे
और
दुनिया अपनाएगी .
इस साथ को...
ये सपना देखना
बिल्कुल वैसा है ...
जैसे देखा हो इक सपना
किसी निर्देशक ने
कि मिल जाए बेस्ट फिल्म का अवार्ड
उसकी मेहनत को ,
उसकी फिल्म को ...
सुनो
गौर से देखो
जो फिल्म मैंने और तुमने
और
हमारे जैसे और पागलों ने
सैकड़ों दफ़ा देखी है ..
जिसके संवाद
रट गए हैं ...
धुनें
याद हो गई हैं ...
वो फिल्म
रिलीज़ के वक़्त ही फ्लाप हो गई थी ...
ये कहाँ आ गाए हम ...
यूँ ही साथ चलते चलते ...
"सिलसिला"
अमिताभ और रेखा वाली ..
मैंने आज शाम फिर एक बार देखी ..
सैकड़ा पार हो गया है ...
सुनो
हमारा और तुम्हारा
तुम
मैं
हमारा साथ !
"ये" सिलसिला -
ना ख्त्म हुआ
ना कभी होगा ....
(ऊपर चित्र साभार गूगल से लिये गये हैं यदि कोई चित्र, कलाचित्र इत्यादि किसी सर्वाधिकार का उलंघन हो तो कृपया सूचित करें उसे हटा दिया जायेगा )
achchi hai ......................
ReplyDeleteachchi ...................hai
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