श्री प्राणेश नागरी की कविताओं को पढ़ना, फ्लैश-बैक में चलचित्र देखना है, जो दिखातीं हैं, हर वो खबर, जब किसी इन्सान को अपनी ज़मीन से ज़बरदस्ती जुदा किया गया हो . दिलासा देती हैं - कंधे पर हाथ रख - जगाती हैं कंधा हिला कर और मजबूर करती हैं ये कहने को "मैं कविता नहीं हूँ - आकृति भले ही काव्य की है - रूप गद्य का - लेकिन मैं भी तुम्हारी ही ब्रह्म का अंश हूँ ... घन्यवाद आपको आदरणीय नागरी जी कि आपने ब्रम्ह-कवितायें रची - सादर नमन आपको "ब्रम्ह कवि प्राणेश"
प्राणेश जी ने अपने कविता संग्रह "काशी-चिंतन और चुड़ैल" की शुरआत में लिखा है "मेरी जन्मभूमि जहाँ मैने जन्म लिया अपने पुत्र, पुत्रियों के रक्त से सींची गयी है . पाँच लाख से लेकर छः लाख तक कश्मीरी पंडित अपनी जन्मभूमि से निष्कासित पूरे भारतवर्ष में शरणार्थीयों का जीवन जी रहे हैं . मेरा यह कविता संग्रह इन सभी को समर्पित है . हाँ, किसी दिन हम अपनी धरती, अपने कश्मीर (होमलैंड) जरुर लौट आयेंगे .
श्रीनगर कश्मीर में 1954 जन्मे नागरी जी की बुनियादी शिक्षा उनके जन्मस्थान पर ही हुई है . विस्थापन के बाद कानपुर, लखनऊ और काशी में करीब 20 वर्ष गुज़ारे तथा पंजाब नेशनल बैंक से चीफ मनेजर के पद से स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति के बाद वर्तमान में बंगलौर में ही समाज सेवी संस्था Enable India में सम्माननीय निदेशक हैं . उनका कहना है "मैंने बहुत पहले कहीं पढ़ा था कि कविता लिखी नहीं जाती , बस , हो जाती है .मेरी कविता हो जाने के लिए विस्थापन शायद बहुत ज़रूरी था इसलिए मुझे इस दौर से गुज़ारना पढ़ा . यह कवितायें मेरा सब कुछ खो जाने के बाद 'हो गई' हैं .मैं नहीं कहता कि यह साहित्य जगत कि बहुत बड़ी घटना है कि मैंने कविता लिखी .पर हाँ,यह एक सीधे-सादे मन की सबसे बड़ी घटना है ,मैंने धरती के सुन्दरतम कोने कश्मीर में जन्म लिया इस नाते मेरी कविता में मुस्कान होनी चाहिए थी,फूल खिलने चाहिए थे ,झरनों का संगीत बोलना चाहिए था ,पर ऐसा कुछ नहीं हुआ." ....
आइये पढ़ें उनके कविता संग्रह "काशी-चिंतन और चुड़ैल" की कुछ कवितायेँ...
१.कुछ ज़ेन कवितायें
अब थक गया हूँ बहुतअब घर जाना चाहता हूँ
कोई मेरा पता बता दे मुझे !
परत दर परत बादल हट गए
हम चमकते चाँद को
चमचमाती रोटी समझे!
किसी की सांसें छू गयी
मैं इंसान से
फ़रिश्ता हो गया !
आवाजों का जंगल
क्या किया यह तुम ने
मीलों पड़ी खामोशी !
जी लूँगा हर इक मौसम
ओढ़ लूँगा हर सावन
तुम मत बदलना कभी !
२. चुड़ैल
मीठी थी बहुत
बात करती थी तो
शहद सा घोल देती थी ,
सरल भी थी
शब्दों में घुल मिल जाती थी
कविता सी थी ,
जहां तहां घूमती थी
यादों में सपना बन
आती थी,
आडम्बर सम्हालती थी
सब सह लेती थी
माँ जैसी लगती थी!
दूर सदूर देखती थी
सूर्य से संवाद
कर रही हो जैसे !
मैंने पूछा कौन हो तुम
चुड़ैल नाम है मेरा
पैदा होते ही
इसी नाम से
बुलाया था सब ने
वैसे कागज़ों में सुना है
इस घर की बेटी हूँ!
३.उद्घोष
देखो दीवार मैं चुन देना मुझे
किसी कब्र मैं जिंदा गाढ्ना
एक बार फिर सत्य कहा है मैंने
मेरी ज़ात समझौते नहीं कर सकती!
मैं मजहबों का गुलाम नहीं
सदियूं से इस गुफा मैं रहता हूँ
युग बदलते हैं मेरी भूख नहीं बदलती
ना बदलती हैं मेरी आशाएं!
और यह भूख , यह आशाएं
मुझे गुटने टेकने पर और
टिकवाने पर मजबूर करती है!
सदियूं से मैं सूर्य से संवाद कर रहा हूँ
मेरे शरीर का रेशा रेशा जल चुका है
मेरे आसपास एक दहकता शमशान
रुदन के सुर को सादने मैं व्यस्त है
और महाकाल का मौन उपवास
ह़र चीख का गला गौंट रहा है!
पाप और पुण्य मात्र एक शूल है
जो जागरूक अस्तित्व को भेदता है
भीख मैं मिली शांति से अच्छा है
रक्त रंजित हो युद्ध का उद्घोष करें
इस से पहले कि नैतिकता
कायरता बन उपहास करे
आओ उठें और पाशान काल मैं वास करें
जो मुंह का कौर छीनने को आगे बड़े
उस की लीला का अंत करें सर्वनाश करें!
४. बस इश्क रहा
हद और अनहद की सरहद पर
मज़हब का पहरा है ही नहीं
काया की करवट बेमानी
लेना देना कुछ है ही नहीं!
यह इश्क का दरिया है गहरा
नासमज न तू पतवार पकड़
गर डूब गया तो डूबा रह
उस पार किनारा है ही नहीं!
जितना खोया उतना पाया
सब हारा तो मन जीत लिया
रंग साजन का ओढा तन पर
रंगने को अब कुछ है ही नहीं!
इक बार मुझे बस पार लगा
इस पार के बंदन सब झूठे
उस पार मेरा घर है मालिक
इस पार मेरा कुछ है ही नहीं!
मेरी ज़ात गयी मेरा नाम गया
बस इश्क रहा और कुछ ना रहा
तेरा नाम बसा है साँसों मैं
और इस के सिवा कुछ है ही नहीं!
५.कविता में तुम्हे जन्म देता हूँ
एक सांस की दूरी पर रहती हो तुम
और वह पल
जब मेरे हाथ छूना चाहते हैं
अनुभव करना चाहते हैं
तो समय कहता है
उद्भव के प्रगमन मैं
हाथ कहाँ बांस ले चला था तू
सुर की आरोही ले ले
गंध का आलाप छेड़
स्पर्श की सीमायें होती हैं
राग रस की कोई नहीं!
मैं यहीं कहीं होता हूँ
जैसे वायु से लिपटा मंत्र
जैसे हवन कुण्ड मैं लिपटी
अग्नि से समिधा की गंध
जैसे फूलों से लिपटा
रंग का आभास!
मैं तुम्हारे तन को ओढ़ता हूँ
सांसूं की घर्मी और ठिठुरन के
बीच के पल को समर्पित
अपनी कोख की गर्मी में
शब्द बीज का समावेश करता हूँ
प्रसव की पीड़ा भोगता हूँ
और हर्षित हो
कविता में तुम्हे जन्म देता हूँ!
(ऊपर चित्र साभार गूगल से लिये गये हैं यदि कोई चित्र, कलाचित्र इत्यादि किसी सर्वाधिकार का उलंघन हो तो कृपया सूचित करें उसे हटा दिया जायेगा )
bhut sundar kavita hai
ReplyDeleteबधाई. उत्कृष्ट कवितायें. पुस्तक निसंदेह खजाना है.
ReplyDeletePeace,
Desi Girl
Bharat Ji aap ka aabhaar. Sabhi ka bhi bahut aabhaar.
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