मुज़फ्फरपुर में जन्मे सुधांशु फिरदौस बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) से स्नातक वा जामिया मिलिया इस्लामिया से गणित में परास्नातक हैं
गणित के लेक्चरर सुधांशु की रचनाएँ उनके विषय के विपरीत संवेदनशील हैं “महानायिका” इस का प्रत्यक्ष उदाहरण आपके सामने है
म हा ना यि का
[ १ ]
सोया
धूप मे
तुम
छुपी किरणों मे मुस्काती
खींच
दो,कुछ
उल्टी सीधी लकीरें
अपनी
अंगुलिओं से
मेरे
वक्ष पे
छुपाके
रखूँगा इन स्पर्शों की सुरसुराहट
होगी
कोई गुदगुदी मेरे भी भीतर
काँपेगी
निष्ठुरता मेरी भी कुछ-कुछ
सूझेगा
कोई खिलंदरपना
पिघल
जाऊँ
ढह
जाऊँ रेत की तरह
नदी
हो तुम बहती हुई (मेरे गाँव की)
ओढ़
लो शीशे के मानिन्द मुझको
और
मैं नाचूँ देखते,खुद
मे खुदको
हो
जाऊँ बौड़म
थक
जाऊँ
बैठ
जाऊँ
पसीने
से तरबतर बेहाल
खोजूँ
कोई बोधिवृक्ष
तेरे
तल मे ही यूँ -फिसलते
संलयित
हो जाऊँ,तेरे
साथ ही कहीं
टटोलूं
अपना अंतस
भरूँ,एक ठंढी साँस
चलूँ
फिर कहीं दूर...
-उस
महानायिका की तलाश में!
[ २ ]
बंजारों
सी भटकती जिन्दगी
ढूंढती
है एक ठंढी छाँह
दहकता
है सूर्य यांत्रिक सा
टपकता
है लहू पसीने की जगह
शिकारी
है वो फेंकता जाल
लम्बी
है,उसकी
रस्सी
दूर
किसी मचान पे बैठा खिंचता,हौले-हौले
हम
सबधारा के विपरीत तैरती मछलियाँ
बहे
जाने के खिलाफ,जद्दो-जहद
अँधेरे
का जाल है फैला चहुँ ओर
भटकाव
स्वभाव है इन दिनों
फ़लक
पे थका-थका सा है चाँद
बुझे
बुझे से तारे
खामोशी
फ़ैली है चारो ओर
..................
......................
सम्मोहित,कचोटित ,कुंठित -सबकुछ हार के
" कहाँ
हो महानायिका "
[ ३ ]
छायी
रहती है एक खामोशी तुम्हारे चारो ओर
नहीं
बोलती हो गोकि बोलने के बरक्स एक चुप्पी साध ली हो तुमने
तुम्हारे
नहीं बोलने और मेरे बोलते बोलते थक जाने से
हम
दोनों के बिच अबोले के एक महीन सी दीवार खिंच गयी है
लौटते
हैं जिससे टकराके मेरे शब्द बैरन ही वापस
ढूँढते
हैं मुझमे ही ठिकाना
फ़र्ज़
करो,
फ़र्ज़
करो मेरी गुड़िया
किसी
रोज ऐसा हो जाये
मैं
साँझ का
पहला
तारा बन जाऊं
और
तुम
अपने
छत पे खड़ी
किसी
दुसरे तारे को ढूँढने मे परेशान
आकाश का कोना
-कोना तलाशो
फिर
थक के टिका दो
मुझपे
हीं नजरें हो जाऊं शर्म से लाल
छितेरूं
अपनी लाली तुम्हारे ज़र्दचहरे पे
देखूं
संवेगों की बनती बिगड़ती रंगोली
फिर
छुपके खो जाऊं
आकाश
की अतल गहराईओं में
मेरे
लाख छुपने पर भी ढूंढ़ लो तुम
बढाओ
मेरी तरफ हाँथ
करो
कुछ मीठी बाते
वहीं
चाँद तारों के बीच
टूटे
अपना अबोला
और
मै पुछू कैसी हो -महानायिका
[ ४ ]
कुछ-कुछ
उबासी लेती हुई
चम्पई
धुन्धलका छा रहा
अमलतास
के पत्तों से लुकछिपाता सूरज
थकान
छुपाने की कोशिश में संलिप्त
कहीं
सो गया शायद
कैंडल
की मुलमुली रोशनी में, नमुदार
होता उसका चेहरा
गोया,मीर के ग़ज़लों से सजी कोई अल्पना हो
किसी
के मरासीम से से संगत करती उसकी खामोशी
ईबादत
की जाने कौन से गुरुमुखी ईजाद कर दे
समय
उसके पहलू में किसी बिजली के खम्भे में अटके पतंग कीतरह फडफडा रहा है...
उसके
टैरेस पे अटका चाँद
बार-बार
देखता है
घर
के इकलौते आईने में अपना अक्श
जिसे
पिछली रात किसी चूहे ने कुतर दिया है!
[ ५ ]
निरखता
लेखता
लब्ज़-दर-लब्ज़
पर्त-दर-पर्त
खोलता
बदल
जाते तेरे मानी;हर
सुबह
गोया
,तू
शमशेर का नीला आईना हो
और
मै,मुक्तिबोध
के फाउन्टेन पेन की रोशनाई में घुला कोई ब्रम्हराक्छ्स
जिसे
किसी ने छिड़क दीया है तेरे ऊपर
जहाँ
से बूँद-बूँद धारियाँ बनाते
बह
रहा हूँ
बह
रहा हूँ
.......
.......
अब
भी तो, बह
ही रहा हूँ
[ ६ ]
जिसपे
कोशिश की जाने कितनी छेनियाँ मुरक गयी हैं
दिन,रात में धीरे-धीरे सुराख़ करता है
और
रात दिन को अनायास ही निगल जाती है
एक
घना कोहरा जिसमे अपना वजूद भी किसी और का अक्स नज़र आता है
दिन-ब-दिन
बढ़ते जा रहा है
जिसमे
हर सुबह उम्मीद की अंगीठी सुलगाये निकलता हूँ
और
शाम को राख की पोटली,पीठ
पे लादे लौट आता हूँ
जैसे
चीपक जाती है कर्मियाँ की लतरें बन्झोझिओं की डाली से
वैसे
ही चिपक गयी है चाम हड्डीओं से
धंस
गयीं हैं आँखें जैसे धंस जाता है गर्मिओं के दिनों में ईनार का पानी
फिर
भी बची है मेरे भीतर एक हरीतिमा एक उजास
जैसे
बची हुई रहती है चांदी की पतली तार
मचुराए
हुए नोट में भी
[ ७ ]
कल
को जब मै नहीं रहूँगा
लोग
ढूंढेंगे मेरी कविताओं में उदासी का कारण
जब
लिखी जा रही होंगी इन्हें अमर करने वाली इबारतें
बज
रही होंगी मेरी धडकनो की जगह मेरे नाम के घंटे
खामख्वा लोग
उसका नाम ढूंढेंगे
बदनाम
करेंगे
जब
मेरी अस्थियाँ दरिया से होते हुए
समन्दर
के खारे जल को और भी खारा कर चुकी होंगी
सनसना
रहे होंगे
मेरे
शब्द
हवाओं
की जगह
खेतों
में
गलिओं
में
नाओं के
पतवारों के नीचे
तब
मेरे मुँह से निकली हुई आख़िरी उल्टी साँस
ले
रही होगी उसके उदास रुखसारों पे एक चुम्बन
और
पूछ रही होगी क्या इज़ाज़त है महानायिका
(ऊपर चित्र साभार गूगल से लिये गये हैं यदि कोई चित्र, कलाचित्र इत्यादि किसी सर्वाधिकार का उलंघन हो तो कृपया सूचित करें उसे हटा दिया जायेगा )
तब मेरे मुँह से निकली हुई आख़िरी उल्टी साँस
ReplyDeleteले रही होगी उसके उदास रुखसारों पे एक चुम्बन
और पूछ रही होगी क्या इज़ाज़त है महानायिका..
Sabhi ek se badhkar ek.. aapki blog ki kavitaon ka star bahut uncha hota hai di.. kavitayein aisi.. ki bs.. dil me utar jati hai.. har kavita.. bahut bahut aabhar aapka.. kavitaon ki is duniya se parichit karane ki liye..
बेहद उम्दा कविता …………भावो और बिम्बों का सुन्दर संगम्।
ReplyDeletebahut hi sundar rachna ........
ReplyDeleteSudhaanshu hamare samay ke sabse achhe kaviyon mein se ek hain
ReplyDelete"गणित के लेक्चरर सुधांशु की रचनाएँ उनके विषय के विपरीत संवेदनशील हैं"
ReplyDeleteजिस किसी काव्य मनीषी ने यह टिप्पणी लिखी है, उसे निश्चय ही गणित के संवेदनशीलता और सौन्दर्यबोध का ज्ञान नहीं|
अज्ञान क्षम्य है, किन्तु मुझे क्षोभ इस बात पर है कि सुधांशु जी ने ऐसे टिप्पणी पर असंतोष क्यों नहीं व्यक्त किया ?
अब अगर मैं कविता पर कुछ कहूँ तो कदाचित यह अर्थ न निकाला जाए कि मैं कहीं का रोष कहीं निकाल रहा हूँ फिर भी :
काव्य का आंतरिक प्रवाह; शब्दों के चयन और भाषायी संक्रमण से प्रभावित है (कवि कहीं उर्दू के इश्क में डूबते लगे हैं, कहीं 'परेम' के आंचलिकता का मोह नहीं तज पा रहे हैं- संक्रमण यदि कविता के अनुगामी और सहज हो तो कवि के भाषायी पकड़ की सानी दी जाती पर इसके उलट कहीं-कहीं संक्रमण बाहरी और अनावश्यक सा लग रहा है) | यद्यपि आतंरिक प्रवाह महवपूर्ण है किन्तु काव्य के "शाब्दिक संगठन" के महत्व को झुठलाया नहीं जा सकता..
इन तथ्यों को ध्यान में रखकर लिखने का प्रयास कवि के काव्य-बोध में चार चाँद लगा देगी|
प्रशंसनीय प्रयास , लिखते रहें |
~ चिन्मय