हाल ही में 'हंस' में प्रकाशित विवेक मिश्र की कहानी 'दोपहर' (हंस- अक्टूबर २०१२ से साभार यहाँ प्रस्तुत है) विवेक मिश्र का कहना है कि ये कहानी बचपन में जो वक्त गर्मियों की छुट्टी में नाना-नानी के गाँव में बिताया वहाँ की यादों को घोल कर तैयार हुई है
किस्सागोई की सही मिसाल पेश की है विवेक ने और खूब खुमाया हमें भी हमारे बचपन में और आज के जो कथाकार हैं उनके बीच विवेक ने एक के बाद के उम्दा कहानीयों घड़ा, अब तक हानियां, दिया, बदबू, गुब्बारा, ऐ गंगा तू बहती है आदि से अपनी खास जगह बना ली है.
"दोपहर" में विवेक मिश्र ने गाँव की जीवन- शैली का बहुत ही मासूमियत से सजीव चित्रण किया है
... मानवीय संवेदनाओं का अहसास कराती हृदयस्पर्शी कहानी |
... मानवीय संवेदनाओं का अहसास कराती हृदयस्पर्शी कहानी |
15 अगस्त 1970 में उत्तर प्रदेश के झांसी शहर में जन्म। विज्ञान में स्नातक, दन्त स्वास्थ विज्ञान में विशेष शिक्षा, पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नात्कोत्तर। एक कहानी संग्रह-‘हनियाँ तथा अन्य कहानियाँ’ प्रकाशित। 'हनियां', 'तितली', 'घड़ा', 'ऐ गंगा तुम बहती हो क्यूँ?' तथा 'गुब्बारा' आदि चर्चित कहानियाँ। लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं व कहानियाँ प्रकाशित। साठ से अधिक वृत्तचित्रों की संकल्पना एवं पटकथा लेखन। 'light though a labrynth' शीर्षक से कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद राईटर्स वर्कशाप, कलकत्ता से तथा कहानिओं का बंगला अनुवाद डाना पब्लिकेशन, कलकत्ता से प्रकाशित।
दोपहर
गर्मी की दोपहर का सन्नाटा गली में साँय-साँय करता। अपनी ननिहाल में छुट्टियाँ बिताने आए हम तीनों भाई-बहिनों को मामा के पाँच बच्चों के साथ दिन के ग्यारह बजते-बजते खिला-पिलाकर दुमंजिला मकान की बैठक कहे जाने वाले नीचे के कमरे में लिटा दिया जाता। यह घर का सबसे बड़ा और ठंडा कमरा होता। बैठक के बगल वाले कमरे में, जिसे बुंदेलखंडी में पौर कहा जाता, अपनी भारी-भरकम काया को, खरारी खाट पर, किसी तरह अटाने की कोशिश करते हुए, नाना लेटे रहते। गर्मी के दिनों में उनकी भेष-भूषा विचित्र ही होती। वह इस मौसम में अपने शरीर पर एक पट्टेदार, नड़ियल, किसी ढीले झोले के जैसे अंडरवीयर के अलावा कोई और कपड़ा सहन नहीं कर पाते। बाहर से आने वालों को यह अजीब लगता रहा होगा, पर हमें उनको इस रूप में देखने की आदत पड़ चुकी थी। घर की औरतें जिसमें नानी, छोटी मौसी और इन दिनों में हमारी माँ और बड़ी मौसी भी शामिल होतीं, बखरी(आंगन) के पीछे, घर के आखिर में बने कमरे में आराम करतीं, जिसे वहाँ मड़हा कहा जाता। मड़हे में हमेशा फर्श पर लिपे गोबर और मिट्टी की डहरों में भरे गेहूँ की गँध आती रहती। मड़हे में धीरे-धीरे होती बातें किसी तरह भी बखरी पार करके बैठक या पौर तक नहीं पहुँचतीं।
बैठक के फर्श पर लेटे बच्चों के लिए बैठक की छत किसी सिनेमा हाल के पर्दे की तरह होती। बैठक के दरवाज़े की बारीक संधों से हल्की-हल्की रोशनी छत की शहतीरों पर पड़ती। जब भी कोई गली से गुजरता दरवाज़े से भीतर आने वाले प्रकाश स्तंभ धीरे-धीरे हिलने लगते और बैठक की छत पर विचित्र-सी आकृतियाँ बनने-बिगड़ने लगतीं, जिन्हें देखकर बच्चे अक्सर ही कानाफूसी करने लगते। एक कहता 'बताओं गली में कौन जा रहा है।' दूसरा बनती बिगड़ती छाया को देखकर अंदाज़ा लगाता, '…कोई औरत है।' तब तक पहला फिर से बोल पड़ता, 'औरत नहीं कोई बुड्ढ़ा कमर झुका कर लाठी टेकता हुआ निकला है।' तभी एक धीरे से उठकर अपनी एक आँख मीचता और दूसरी दरवाज़े की सन्ध में लगा देता, पर बाहर आँखें चुँधियाती तेज़ धूप में कुछ भी दिखाई नहीं देता। गली के पत्थर जिन्हें वहाँ सब रिपटा कहते, भट्टी के कोयलों की तरह तप रहे होते। वह चुपचाप आकर फिर अपनी जगह फिट हो जाता। पौर में लेटे नाना बैठक से आती बच्चों की खुसुरफुसुर सुन कर वहीं से, सभी को एक साथ ही गरियाने लगते थे। बच्चे भी उनकी डाँट सुनकर साँस साध लेते और उनके खर्राटों के शुरू होने का इन्तज़ार करते, जैसे ही उनके खर्राटे सुनाई देते बच्चे फिर शुरु हो जाते। कोई एक दबे पाँव उठता और धीरे से बैठक का दरवाज़ा खोलकर गली में झाँकता और फिर झट से दरवाज़ा बंदकर अपनी हँसी गले में दबाए, दाँत भींचे अपनी जगह आ लेटता। पहला फिर पूछता, ‘कौन निकला था दरवाज़े के सामने से।’ उठकर झाँकनेवाला कहता, ‘न आदमी, न औरत, न लाठी टेककर चलने वाला कोई बूढ़ा।’ दूसरा पूछता, ‘तब फिर कौन?’ झाँकने वाला बहुत इतराते हुए धीरे से दूसरे के कान में कहता, ‘कोई नहीं था, दद्दू की मर्खनी गाय थी।’’ इस तरह की बेमतलब बातें लगभग रोज़ ही होतीं और सबके सब ऐसी ही किसी बेमतलब बात पर खीं खीं करके हँस पड़ते। नाना फिर झुंझलाकर एक भद्दी सी गाली देते। सब चुप हो जाते।
दोपहर का सन्नाटा धीरे-धीरे और बढ़ जाता। गली में आवाजाही पूरी तरह बंद हो जाती। दरवाज़े की सन्धों में से भीतर आती रोशनी की लकीरें भी हिलना-डुलना बंद कर देतीं। बच्चे धीरे-धीरे नींद के हिड़ोले में झूलने लगते। पौर में नाना जी के खर्राटे निरन्तर गूँजते रहते। नाना जी के इन खर्राटों की लय टूटती, दोपहर बीतने से ज़रा-सी देर पहले गली के छोर से आती एक बड़ी ही विचित्र, कर्कश और दर्दभरी आवाज़ से। यह आवाज़ गली के उस सिरे से आती, जो सिरा गाँव के बाज़ार वाले चौड़े रास्ते पर खुलता। इस आवाज़ से अलसाया हुआ बाज़ार भी धीरे-धीरे अंगड़ाईयाँ लेता हुआ शाम की दुकानदारी के लिए तैयार होने लगता। उस आवाज़ में कुछ ऐसी बात थी जिससे वह सुनने वाले की स्मृति में सदा के लिए घर कर लेती। वह आवाज़ इतने दिनों बाद भी मेरी स्मृति में बसी हुई है। मैं आज भी उसे सुन सकता हूँ। वह मन में दया, करुणा और विरक्ति के भाव पैदा करती। उसे सुनकर कुछ लोग मुँह फेर लेते और कुछ आपस में उसके पीछे छुपी दर्द भरी कहानी के समय के साथ पुराने पड़ते जाते रेशों के बिलगाने लगते।
उस आवाज़ को सुनकर बैठक में सोए बच्चे आँखें मलते हुए एक-एक करके पौर में आ जाते। नाना भी अपने जनेऊ से पीठ खुजलाते हुए उठ बैठते। भीतर आंगन पार करके मड़हा में सोती औरतें अब ज़ोर-ज़ोर से बतियाने लगतीं। बखरी के कोने में बने चौके से पीतल की टंकी वाले स्टोव में हवा भरे जाने की आवाज़ आने लगती। शाम की चाय हमेशा स्टोव पर बनती, पर खाना चूल्हे पर बनता। स्टोव पर सिकी रोटी में नाना को मिट्टी के तेल की गन्ध आती। इसलिए स्टोव केवल चाय के किए ही प्रयोग होता। चाय बनकर बैठक में आते-आते गली में धूप थोड़ी धीमी होकर दीवारों से ऊपर खिसकने लगती, लेकिन लू की झार आँखों में लगनी बंद नहीं होती। बच्चे भीतर बखरी में बनी हौदी से पानी लाकर बाहर चबूतरे पर छिड़कने लगते। तपती ज़मीन पर पानी के पड़ते ही उमस का भवका हवा मैं तैरने लगता। हवा में उठती भाप के थोड़े कम होते ही नाना अपनी कुर्सी बाहर निकाल कर चबूतरे पर बैठ जाते। वह हर बात से उबे हुए लगते। वह नंगे पाँव गली में बकरियों के झुंडों को हाँकते हुए बच्चों को बड़े ध्यान से देखते। उन बच्चों के पाँव तलवे जला देने वाली ततूरी से पलट-पलट जाते। गायें अपने आप ही पूँछ हिलाती घरों को लौटने लगतीं। बखरी में बंधे बछड़े अपनी माँओं से मिलने के लिए जी छोड़कर रंभाने लगते। ऐसे में दोपहर का सन्नाटा कहीं बिला जाता और चारों ओर एक अज़ीब सा कोलाहल तारी हो जाता, पर ऐसे में सारी आवाज़ों पर हावी होती चली जाती, वह आवाज़, जो गली के बाज़ार में खुलने वाले छोर से आती। नानी किसी बच्चे के हाथों बासी बची रोटियाँ बाहर भेज देतीं। बच्चे रोटियाँ हाथ में लिए उस आवाज़ के और पास आने का इन्तज़ार करते। आवाज़ जैसे-जैसे बाज़ार को पीछे छोड़कर गली में आती, उसका तीखापन और चुभन और बढ़ जाती। आवाज़ के और पास आने पर लगता कि वह जिस गले से आ रही है। वह न तो गा रहा है और न ही कुछ बोल रहा है बल्कि कुछ अधूरे वाक्य, कुछ टूटे-फूटे शब्द गले की अतल गहराई से, रोते हुए किसी काग़ज़ में से पढ़ रहा है। आवाज़ धीरे-धीरे घर के पास पहुँच कर दृश्यमान होती। वह एक पचास-पचपन साल के, मझोली कदकाठी के आदमी के भर्राए गले से निकल रही होती थी। उस धूप में काली पड़ी देह पर एक लंगोटी के सिवा कुछ नहीं होता। वह गली के तपते पत्थरों पर पाँव रखते हुए ऐसे चलता जैसे जानकर उनका ताप सोख लेना चहता हो। हाथों में एक खोखला बाँस और आँखों में एक उजाड़ बार-बार लोगों को उसकी ओर देखने पर विवस करता। आवाज़ के थम जाने पर यह विश्वास करना मुश्किल हो जाता कि यह आवाज़ इसी जर जर हो चुकी देह से फूटी रही थी। वह हर घर के आगे खड़ा होकर अपने खोखले बाँस के ऊपरी सिरे से एक गुड़ीमुड़ी, धूसर-सा काग़ज़ निकालता। उसे बहुत इत्मीनान से खोलकर फैलाता और फिर उसे पढ़ना शुरू करता। ऐसा करते हुए उसके गले की नसें ऐसे फूलतीं जैसे वे अभी फट पड़ेगीं। बच्चे बड़े ध्यान से उसका पाठ सुनते। सुनते तो बड़े भी, पर वे बच्चों को यह जताते कि इस सब पर वे ध्यान नहीं दे रहे हैं।
वह ऊँचे स्वर में पढ़ना शुरू करता- ‘मैं बी. आर. भड़ेल/ ईश्वर को हाज़िर-नाज़िर जान कर/ अन्न-जल की शपथ लेकर/ आपके सामने अपनी बात कहना चाहता हूँ/…मुझे आँखों से अंधा बना करके/ कानों से बहरा बना करके/ मेरे दिल-दिमाग़ को कुंठित कर/ उसपर ताला लगा करके/ मुझसे जाली काग़ज़ों पर दस्तख़त करवा करके/ मुझे झूठे गबन के केस में फंसा करके/ मेरे मुँह पर कालिख लगाकरके/ मुझे अंधे कुँए में धकेला गया है।’ इसके बाद चारों ओर एक गहरा सन्नाटा छा जाता। कुछ लोग उसकी हथेली पर कुछ पैसे रख देते। कुछ घरों से निकल कर उसको रोटी या खाने की और कोई चीज पकड़ा देते। पर वह इस सब पर ज़रा भी ध्यान नहीं देता। वह किसी के कुछ देने या न देने का इन्तज़ार भी नहीं करता। वह करीने से काग़ज़ को घड़ी करता और खोखले बाँस के ऊपरी सिरे पर बने छेद में उसे खोंस देता। बच्चे उसके हाथ पर रोटी रख देते और वह बाँस को गली के पत्थरों पर टेकता हुआ आगे बढ़ जाता। उसकी आवाज़ धीरे-धीरे दूर होती चली जाती। बच्चे गली पार करके घर के सामने खाली पड़े मैदान में उछल-कूद करने लगते। गरमी थोड़ी कम होने पर लोग घरों से निकल कर बाज़ार की ओर जाने लगते। गली में आवाजाही बढ़ जाती। कुछ लोग आकर नाना के पास चबूतरे पर बैठ जाते। आवाज़ नेपथ्य में डूबती चली जाती। उसका गली से गुज़र जाना किसी दुख का बीत जाना होता। सूरज घर के सामने के मैदान के दूसरे छोर पर मंदिर के भग्न अवशेषों के बीच छुपने लगता। भीतर ढिबरी, लालटेन और हन्डे जलाने की तैयारियाँ होने लगतीं। उनके जलते-जलते मंदिर के भग्न अवशेष पूरी तरह सूरज को लील लेते।
औरतें रात के खाने की तैयारी में लग जातीं। उन सभी के लिए यह बहुत व्यस्त समय होता। अगर चूल्हे-चौके के काम से कोई दूर रहता तो वह थीं, बड़ी मौसी। वह पीछे के मड़हे की छत पर चारपाई बिछाकर टांगें पसार कर बैठ जातीं। आस-पड़ोस की कुछ औरतें भी उनकी चारपाई के आसपास आ बैठतीं। शाम होते ही, बड़ी मौसी का जी घबराने लगता। उन्हें बिना बत्ती के रहने की आदत जो नहीं थी और यहाँ गाँव में शाम के चार बजते ही बत्ती चली जाती और फिर रात को ठाकुर की बयारी, प्रसाद और आरती के बाद ही आती। मौसी अपने आस-पास बैठी औरतों को बतातीं कि उनके बंग्ले में हर कमरे की खिड़की पर खस की टटियाँ पड़ी हैं और दो आदमी सुबह से शाम तक उन टटियों को पानी से तर रखने के काम में लगे रहते हैं। कमरों की छत पर लटके पंखे तो पूरी गर्मी चौबीसों घंटे चलते हैं। हर कमरे में ट्यूबलाईट की सफ़ेद रोशनी होती है। वह यह भी बतातीं कि डिबरी, लालटेन, हण्डे या पीले बल्ब की मरियल-सी रोशनी उन्हें बिलकुल पसंद नहीं। इन्हीं सब वजहों से उनके पति यानी मौसा जी उन्हें मायके नहीं भेजते। इस बार भी यदि नाना की तबियत खराब न हुई होती तो वह यहाँ न ही आतीं। मौसा जी को तो यहाँ, अपनी ससुराल में आए हुए चार साल हो गए। वह रात-दिन व्यस्त रहते हैं। सरकारी नौकरी है और वह भी सिविल इंजीनीयर की। पिछले तीन साल से नहर के काम ने जान ले ली है। यहाँ तक की अपनी बड़की बिट्टी के लिए रिश्ता देखने तक नहीं जा पा रहे हैं। लड़के वाले पिछले डेढ साल से तैयार बैठे हैं। वह बड़े गर्व के साथ बतातीं कि वह कहते हैं कि भाई घर-द्वार बिना अपनी आँख से देखे, हम अपनी बिट्टी नहीं देंगे। जब दस लाख नकद, गाड़ी-घोड़ा, दान-दहेज सब दिल खोल के देने को तैयार हैं, तो फिर घर भी ऐसा देखेंगे कि बिट्टी को कोई तकलीफ़ न हो। औरतें मौसी की बात मुँह बाए सुनती रहती। शायद मन ही मन सोचती हों कि दस लाख में कित्ती बिन्दियाँ लगती हैं। उससे कितने किसानों का कर्ज़ा चुकाया जा सकता है। पर इस सबसे बेखबर मौसी अपनी बात आगे बढ़ातीं, ‘अब बिटियाँ सयानी हो गईं, पर उन्होंने अपने हाथ से एक गिलास पानी भरकर नहीं पिया। अब इसीलिए तो उनके पप्पा उन्हें यहाँ, उनकी ननिहाल भी नहीं भेजते।’
रात के खाने का इन्तज़ार करते बच्चे भी बड़ी मौसी की बातें बहुत ध्यान से सुनते। उनकी बातें सुनकर हमें अपने पिताजी याद आने लगते जो दिन भर आफ़िस में सिर खपाने के बाद, शाम को साईकिल के कैरियर पर आटे का कनस्तर लादकर आटा पिसाने जाते। पर उस समय हम अपने पिताजी को भूलकर मौसी की बातों पर ध्यान लगाते और उनकी बातें सुनते-सुनते हम उनके बंग्ले की खिड़कियों पर लगी पानी से तर खस की टटियों की खुशबू के बारे में सोचने लगते और अन्तत: मौसी की बातें सुनकर हम सब मन ही मन इस बात को मान लेते कि मौसी हम सब प्राणियों से श्रेष्ठ हैं और मौसा जी तो इस जगत के श्रेष्ठतम व्यक्ति हैं। हम यह भी समझ जाते कि मौसा जी जैसे व्यक्ति के लिए यह जगह रहने लायक नहीं है। कारण? अब इसका कोई ठोस कारण नहीं है तो नहीं है। शायद बड़ी मौसी को ऐसा लगता है। इसलिए यही सबसे बड़ा कारण है। मौसी इस तरह की कुछ न कुछ बात लगभग रोज़ ही सुनातीं और तब तक रात का खाना तैयार हो जाता।
बड़ी मौसी की ऐसी ही गौरव गाथा के दौरान, उस रोज़ मौसी ने, मौसा जी के नए प्रोजेक्ट के बारे में बताना शुरू ही क्या था कि जैसे गज़ब ही हो गया। नाना आज जल्दी ही अपनी कुर्सी छोड़कर बखरी में आकर खड़े हो गए और उन्होंने नानी को बखरी में बुलाने के लिए हमारी माँ को आवाज़ लगा दी। वह नानी को बुलाने के लिए माँ को ही आवाज़ देते थे और नानी भी समझ जातीं थी कि कब वह हमारी माँ का नाम लेकर माँ को ही बुला रहे हैं और कब माँ का नाम लेकर नानी को। पर इस बार नानी से पहले माँ बखरी में हाज़िर हुईं और उनके पीछे नानी भी चली आईं। नाना की आवाज़ में कुछ अनिश्चय था जिससे वह दोनो समझ नहीं पाई थीं कि किसको बुलाया गया था। नाना ने माँ की तरफ़ देखते हुए, नानी को लक्ष्य करके कहा, ‘तुम्हारे बड़े जीजा जू कल तुम्हारी जिज्जी को लिवाने खुद आ रहे हैं। पास के ही गाँव में उनका दौरा है, वहाँ से फ़ारिग होकर, दोपहर बाद तक यहाँ पहुँचेंगे।’
माँ के जीजा जू मतलब मौसा जी, बड़ी मौसी के पति, यानी घर के बड़े दामाद, इस समय चीफ़ इंजीनीयर, यानी नहर परियोजना के इन्चार्ज़। यानी साथ में एक ड्राइवर, एक चपरासी, एक बाबू और दो-एक पिछलग्गू। नाना की बात सुनकर नानी का जैसे मुँह सूख गया। उनके गले से आवाज़ ही नहीं निकली। नानी ने बिना कुछ कहे अपनी धोती के पल्लू से पसीना पोंछा और वापस रसोई में चली गईं। माँ जलघरा में पानी का इन्तज़ाम देखने लगीं, जलघरे के बाहर पीने के पानी के रखने की जगह, यानी घिनौंची पर रखी कसैंड़िया, बाल्टी, कलशा आदि खाली करवा कर मातिन से मँजवाने लगीं। नाना अपनी बंडी की जेब में पैसे टटोलते हुए बाहर निकलकर, बाज़ार की ओर चले गए।
बिना कुछ कहे घर में आपातकाल जैसी स्थिति हो गई। सब चुप, सतर्क और सन्नाटे में। बच्चों पर इस सूचना का यह असर हुआ कि उनको रात में मिलने वाली दूध-रोटी का कार्यक्रम स्थगित हो गया। उस दूध का दही जमा दिया गया। छोटी मौसी जिनकी उस समय तक शादी नहीं हुई थी उन्होंने एक अच्छे पार्टी प्रवक्ता की तरह सभी बच्चों को छत पर बुलाकर एक अधिसूचना जारी कर दी। जिसका सीधा मतलब यह था कि कल का दिन बहुत महत्व का दिन है और ऐसे में किसी की भी, कोई भी ग़लती माफ़ नहीं की जाएगी। सुबह सभी बच्चे जल्दी ही नहा धोकर तैयार हो जाएंगे और वे सब पीछे वाले मड़हे में, जहाँ घर की औरतें आराम करती हैं, वहीं बिना चूँ-चपड़ किए आराम करेंगे। अर्थात वह बैठक, जिस पर दोपहरी में बच्चों का ही एकाधिकार रहता था, सुबह से ही साफ़ करवाकर मौसा जी के लिए आरक्षित कर दी जाएगी। उस रात मामा भी जल्दी ही घर लौट आए थे। उन्हें मौसा जी के आगमन की सूचना रास्ते में ही मिल गई थी। वह घर पहुँचते ही नाना से कुछ कह सुनकर पड़ोस के त्रिपाठी जी के घर से सोफ़ा उठवाने चले गए थे। गली में मेहमान किसी के भी घर आए पर सोफ़ा त्रिपाठी जी का ही इस्तेमाल होता था। खैर उस दिन रात होते-होते मौसा जी के स्वागत के जो भी इन्ज़ाम किए जा सकते थे, कर कराकर सभी लोग निश्चिन्त दिखने का स्वांग करते हुए अपनी-अपनी जगहों पर सो गए। बड़ी मौसी इस सब गहमागहमी से अलग किसी परिवेक्षक की तरह बैठीं, सबकुछ देखती रहीं।
दूसरे दिन सूरज साँस साधे हुए घर की मुंडेर पर धीरे से निकला। बच्चे दोपहर होते-होते खा-पी कर मड़हे में लेट गए। घर की औरतों ने उस दिन अपना विश्राम करना स्थगित ही रखा। दोपहर के सन्नाटे में बैठक अपने खास मेहमान का इन्तज़ार करने लगी। बड़े दिनों के बाद नाना ने सफेद सूती धोती और खादी का बादामी कुर्ता पहना। मामा भी बाहर के काम निपटा कर जल्दी ही घर लौट आए। नाना मौसा जी के इन्तज़ार में पौर में कुर्सी पर बैठ कर सारी दोपहरी ऊँघते रहे। उस दिन दोपहर का सन्नाटा बाज़ार से उठती उस आवाज़ से नहीं टूटा, जिससे वह कई दिनों से टूटता आ रहा था। बल्कि उस आवाज़ के गली में तिरने से पहले ही, जीप की घर्रघराहट सुनाई देने लगी। यह मान कर कि इस गली में जीप से आने वाला मौसा जी के अलावा और कोई नहीं हो सकता। नाना चैतन्य होने की कोशिश करते हुए पौर से निकलकर चबूतरे पर खड़े हो गए। मामा भी अटारी से उतरकर लगभग दौड़ते हुए बाहर निकले। जीप के घर के सामने रुकते ही उसका पिछला गेट खोल कर उतरने वाले एक आदमी ने ड्राईवर की सीट के ठीक पीछे वाली सीट पर बैठे मौसा जी के उतरने के लिए दरवाज़ा खोला। वह शायद उनका चपरासी रहा होगा। मामा कुछ अचकचाते हुए नँगे पाँव ही गली के गर्म पत्थरों पर उतर गए। रात के अंधियार की छाया लिए थोड़े गहरे नीले रंग का सफ़ारी सूट, बाटा कम्पनी के चमचमाते काले जूते और सुनहली फ्रेम का, धूप-छाँववाला चश्मा पहने, साँवले चेहरे पर रौबीली मुस्कान सजाए मौसा जी जीप से उतरे। उनकी मुस्कान में वहाँ की धरती को धन्य करने के भाव निहित थे। उन्होंने चारों ओर ऐसे दृष्टि दौड़ाई जैसे यहाँ भी वह मुआयना करने के लिए ही आए हों। अब उनकी मुस्कान, चेहरे के रौब में दब गई थी, उनके चेहरे को देखकर लग रहा था, मानो अभी इस जगह को रिजेक्ट करके चल देंगे। मामा उनके हाथ धुलाने के लिए लोटे में पानी लेकर चबूतरे पर खड़े हो गए। माँ भी हाथ में तौलिया लिए पौर में खड़ी थीं।
मौसा जी ने मामा की ओर देखते हुए कहा, ‘अरे भाई दुनिया बदल रही है, पर यहाँ वही बाबा आदम के ज़माने का इन्तज़ाम चला आ रहा है। मैं तो इसीलिए साईट आफिस से ही फ्रैश होकर चला था।,……यार बाथरूम छोड़ो, यहाँ एक तरफ एक वाशबेसिन ही लगवा लो, हाथ-वाथ धोने के लिए।’
मामा पानी का लोटा हाथ में लिए खड़े रह गए। मौसा जी पौर से होते हुए बैठक में त्रिपाठी जी के यहाँ से माँग कर लाए गए, तांत से बने सोफे पर आ जा बैठे। नाना जी ने अपने दामाद के आगे हाथ जोड़े। मौसा जी ने उन्हें कृतार्थ करने के अंदाज़ में एक हाथ उठाकर उनका अविवादन स्वीकार किया। उसके बाद बारी-बारी से सभी ने मौसा जी के पैर छुए। इतनी देर में माँ और छोटी मौसी ने मौसा जी के सामने पड़ी छोटी टेबल पर कई छोटी बड़ी तस्तरियों में नाश्ता लगा दिया। हम बच्चों में, उम्र में सबसे बड़ी, मामा की बेटी, नानो दीदी ट्रे में चाय ले आईं।
मौसा जी ने टेबिल पर रखी तस्तरियों की ओर देखते हुए कहा, ‘अरे भाई यह सब कहाँ खाता हूँ मैं, फ्राईड-ब्राईड आज कल सब बंद, केवल बुआईल्ड ही खाता हूँ।’ मौसा जी के मुँह में भरा पान होठों पर चमकने लगा था। उन्होंने माँ की ओर देखते हुए कहा, ‘बस चाय पियूँगा, अपनी जिज्जी से कहो, फटाफट तैयार हो जाएं।’ माँ ने थोड़ा डरते हुए, उनपर अधिकार जताने की कोशिश करते हुए कहा, ‘अरे ऐसे कैसे, कुछ तो लीजिए, इतना सबकुछ बनाया है आपके लिए सुबह से लगीं हैं, हम सब। …और इसके बाद खाना भी खाना पड़ेगा।’
माँ की मनुहार को मौसा जी ने अपने एक सपाट वाक्य से धराशायी कर दिया, ‘बस चाय और कुछ नहीं।’ वह फिर अपने साथ आए पौर में बैठे लोगों की ओर इशारा करते हुए बोले, ‘इन लोगों को खिलाईए।’
माँ शायद कुछ कहना चाहती थीं पर चुप ही रहीं। तब तक कोई बच्चा भागकर बड़ी मौसी से भी जल्दी से तैयार हो जाने की बात कह आया। अब तक मौसा जी का मुँह पान की पीक से भर चुका था। उनके चेहरे पर आई हल्की सी मुस्कराहट से होंठ फैल गए थे। लगता था उनके मुँह में खून लगा है, जिसकी वजह से वह कुछ और खा-पी नहीं सकते। चाय उनके सामने थी, जिसे पीने के लिए मुँह में भरी पान की पीक का थूका जाना ज़रूरी था।
मौसा जी की आव-भगत में किसी ने ध्यान ही नहीं दिया था कि रोज़ दोपहर बीतने की खबर लानेवाली दर्द भरी आवाज़ घर के बहुत पास आ चुकी थी। उसने अपना खोखला बाँस घर के सामने, गली के पत्थरों पर टेककर, अपना पर्चा निकालकर पढ़ना शुरू कर दिया था। उसकी आवाज़ की वेदना आज किसी के मन को भेद नहीं रही थी। सबका ध्यान मौसा जी पर था।
मौसा जी पान की पीक थूकने के लिए पौर में से होते हुए बाहर चबूतरे पर आ गए। उनके पीछे पानी का लोटा हाथ में लिए मामा जी भी बाहर आ गए। अब तक बड़ी मौसी भी तैयार होकर पौर में आ गईं और मौसा जी के साथ आए लोगों से उनका हालचाल पूछने लगीं। बाहर मौसा जी ने चबूतरे के बाईं ओर पुच्च से पान की पीक पिचक दी। मैं चबूतरे के दूसरे कोने में खड़ा मौसा जी को बड़े ध्यान से देख रहा था। तभी अचानक मेरा ध्यान उस आवाज़ पर गया जो आज पहली बार अपना पूरा पर्चा पढ़े बगैर बीच में ही रुक गई थी। मौसा जी पानी का लोटा मामा के हाथ से लेकर कुल्ला करने लगे। कुल्ला करने के लिए मुँह में लिया हुआ पानी मौसा जी बाहर निकाल पाते कि वहाँ कुछ ऐसा घटा कि लगा धरती डोल गई है।
दोपहर ढल चुकने के बाद भी धूप की तेजी कम नहीं हुई थी, फिर भी पलभर को ऐसा लगा जैसे वहाँ अंधेरा हो गया हो। आज दर्द से भरी उस आवाज़ में काँटे निकल आए थे। भिखारी, पागाल, असहाय सालों से अपनी आप बीती एक काग़ज़ में से पढ़ कर सुनाने और घर-घर जाकर अपनी बेगुनाही की बात कहने वाले, जर-जर हो चुकी औसत कदकाठी के, अपना नाम बी. आर. भड़ेल बताने वाले ने अपना खोखला बाँस, कुल्ला करने के लिए मुँह आसमान में उठाए चबूतरे पर खड़े मौसा जी के माथे पर दे मारा। उनके मुँह में भरा पानी कुछ इस तरह से बाहर निकला, लगा मुँह में भरा खून बाहर निकला हो। एक पतली खून की धारा उनके माथे से निकलकर, उनके धूप-छाँव के चश्मे के नीचे से बहती हुई, उनकी नाक के नीचे उतरती चली गई। लोटा हाथ से छूट कर गली में लुड़क गया। मामा जी चबूतरे से कूद कर, कुछ कर पाते कि खोखला बाँस एक बार फिर घूमा और मौसा जी के पैरों से टकराया। अबकी बार मौसा जी ज़मीन पर भर भराकर गिर गए। बाँस एक बार फिर घूम पाता उससे पहले मामा जी ने दोनो हाथों से बाँस कसकर पकड़ लिया। मौसा जी के साथ आए उनके स्टाफ के लोगों ने आगे बढ़कर अभी भी बाँस का एक सिरा पूरी ताकत से थामे, उसे मामा जी से छुड़ाने की कोशिश करने वाले बी.आर.भड़ेल को लातों से मार-मारकर ज़मीन पर गिरा दिया। वह काग़ज़ जिसे पढ़कर बी.आर.भड़ेल अपनी कहानी सुनाते थे, गली के उस छोर की ओर उड़ गया, जो बाज़ार की ओर खुलता था। बाज़ार की तरफ से कुछ दुकानदार, कुछ पल्लेदार अचानक शुरू हुए इस तमाशे को देखने के लिए भागे आ रहे थे। गली में उड़ता बी.आर.भड़ेल का वह लिखित बयान, वह धूसर-सा काग़ज़ शायद उनके पैरों के नीच कहीं कुचल गया। बड़ी मौसी अपनी साड़ी के पल्लू से मौसा जी के माथे से बहता हुआ खून रोकने की कोशिश करने लगीं। मौसा जी का स्टाफ बी.आर.भड़ेल को अभी भी पीट रहा था। नाना जी गली में उतर कर ज़ोर ज़ोर से चिल्ला रहे थे। वह कह रहे थे इसको छोड़ो पहले इंजीनीयर साब को अस्पताल ले चलो। बच्चे, छोटी मौसी, माँ और नानी पौर के दरवाज़े पर खड़े यह सब आँखें फाड़े देख रहे थे। तभी मैंने देखा कि ज़मीन पर पड़े बी. आर. भड़ेल, जिन पर लगातार लात-घूसे बरस रहे थे, वह किसी भी तरह का प्रतिरोध नहीं कर रहे थे। वह मौसा जी के माथे से बह आए खून से सने हुए उनके चेहरे को बड़े ध्यान से देख रहे थे। एक लम्बे समय से उनकी आँखों में स्थिर रहे आए शून्य में एक विकृत-सी हँसी तैर रही थी।
अब मामा जी और नाना जी लहूलुहान मौसा जी को जीप में बैठाने की कोशिश कर रहे थे। ड्राईवर बी.आर.भड़ेल को खूब पीट चुकने के बाद विजयी भाव से हाथ झाड़ता हुआ जीप स्टार्ट करने लगा था। बड़ी मौसी भी रोती-बिलखती मौसा जी के साथ जीप में बैठ गई थीं। मौसा जी को गाँव से आठ-नौ मील दूर बने प्राईमरी हेल्थ सेन्टर ले जाया गया था। धीरे-धीरे मजमा छटने लगा था। दुकानदार अपनी-अपनी दुकानों की ओर लौटते हुए कह रहे थे कि वह पागल होने का नाटक कर रहा था। वह अपना बदला लेना चाहता था। आज उसका बदला पूरा हो गया। कुछ लोग कह रहे थे कि वह आज से कई साल पहले मौसा जी के विभाग में ही काम करता था। किसी ने किसी के कान में फुसफुसा कर कहा कि मौसा जी ने ही उसे झूठे गबन के आरोप में फंसाया था। एक गली से गुज़रने वाला राहगीर नानी को बता रहा था कि वह पागल बड़ी देर से जीप पर लगी प्लेट पर लिखा सरकारी विभाग का नाम पढ़ रहा था। नानी कह रही थीं कि पाहुने पंचाँग देखे बगैर विदा कराने आए थे इसलिए यह सब हुआ था। आज दिशाशूल लगा था, यह मुहूर्त बिलकुल शुभ नहीं था। मामी कह रही थीं आज के दिन नीले रंग के वस्त्र धारण करना अशुभ होता है और उनके अनुसार आज मौसा जी के नीले सफारी सूट पहनने के कारण यह घटना घटी थी और उनकी सप्ताह के दिनों के अनुसार ही कपड़े पहनने वाली बात सिद्ध हो गई थी।
बी.आर.भड़ेल को कुछ लोग पकड़कर पुलिस चौकी ले गए थे। उस रात मरहमपट्टी कराकर लौटे मौसा जी को पहली बार उस गाँव में रुकना पड़ा था। जब मौसा जी से पुलिस चौकी चलने की बात की गई तो उन्होंने कहा था कि अरे वह पागल है, उसके चक्कर में हम शरीफ आदमी कहाँ थाना कचहरी करते फिरेंगे। उन्होंने रात में वापस लौटते अपने मातहतों से यह भी कहा था कि वह आदमी पागल है और उसके इस गाँव में रहने से हम बच्चों को खतरा हो सकता है। सबरे ही मौसा जी को लेने के लिए एक बड़ी सफेद रंग की एम्बेसेडर गाड़ी आई थी। उसमें ड्राईवर के साथ दो पुलिस वाले भी थे जिनके पास बंदूकें थीं। दोपहर होते-होते मौसा जी बड़ी मौसी को लेकर चले गए थे। उस दोपहर बैठक में लेटे हुए किसी बच्चे को नींद नहीं आई थी। सब दोपहर ढलने का इन्तज़ार कर रहे थे, पर उस रोज़ छोटी मौसी के शाम की चाय बनाकर ले आने तक भी गली में कोई आवाज़ सुनाई नहीं दी थी। पर उसी शाम नाना जी के साथ बाज़ार से कुछ सौदा खरीद कर लाते समय मुझे वह काग़ज़ मिल गया था जिसपर बी.आर.भड़ेल का वह बयान लिखा था, जिसे वह गली-गली जाकर पढ़ा करते थे।
(ऊपर चित्र साभार गूगल से लिये गये हैं यदि कोई चित्र, कलाचित्र इत्यादि किसी सर्वाधिकार का उलंघन हो तो कृपया सूचित करें उसे हटा दिया जायेगा )
विवेक जी की कहानी एक बार फिर ह्रदय को छू गयी और समाज मे फ़ैले कोढ पर प्रहार कर गयी …………जो आज का सच है कि कैसे इंसान ऊँचा बनता है और उसकी उस इमारत के नीचे कितने मासूमों की ज़िन्दगी दफ़न होती है …………हार्दिक आभार इस कहानी को पढवाने के लिये।
ReplyDeletevandna ji, aabhar aapka...,
Deletebahut acchi kahani
ReplyDeleteshukriya...,
Deleteअच्छा लगा विवेक जी की इस कहानी को पढना ..
ReplyDeleteशब्दों के भण्डार के साथ भावों का संसार और उन्हें बांधने की कला उनके पास है .. भविष्य में और भी बेहतर कहानियों की अपेक्षा है ..
बधाई आप दोनों को
Geeta ji aapka aabhar..,
Deletegeeta ji aapaka aabhar...,
Deleteआपकी कहानी पढ़कर बचपन की यादें ताज़ा हो गयीं ...हमारा ननिहाल भी जयपुर में था .....वहीँ समाज के उस सच से भी रुबरु हुए .....जो आज भी धमनियों में बहते रक्त को वाष्प कर देता है ....और हम कर कुछ नहीं पाते ...सशक्त प्रस्तुति ....!!!
ReplyDeleteआपकी कहानी पढ़कर बचपन की यादें ताज़ा हो गयीं ...हमारा ननिहाल भी जयपुर में था .....वहीँ समाज के उस सच से भी रुबरु हुए .....जो आज भी धमनियों में बहते रक्त को वाष्प कर देता है ....और हम कर कुछ नहीं पाते ...सशक्त प्रस्तुति ....!!!
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