Thursday, October 11, 2012

ज्योत्स्ना पाण्डेय : दो कविताएँ





मैं व्यथा हूँ हृदय की
प्रत्येक सहृदय की
करुना भी मेरा नाम
कल्पित हृदय का दाह
कचोटता क्यों मन को?
दे नहीं सकती शीतलता
तो हे देव!
ज्योत्स्ना क्यों मेरा नाम?

गृहिणी
कविता लेखन - स्वान्तः सुखाय
शिक्षा - हिंदी-स्नातक
जन्मस्थान - सीतापुर जनपद (उत्तर प्रदेश )
जन्म तिथि - १२-०१-१९६७
विवाहोपरांत निवास - लखनऊ में
वर्तमान में निवास - गांधीनगर ,गुजरात
वर्तमान पता- द्वारा श्री नाम देव पाण्डेय , बैंक ऑफ़ इंडिया , आंचलिक कार्यालय , सेक्टर -१६ गांधीनगर , गुजरात ३८२०१६



शापित स्त्री


रक्तिम वस्त्रों में विवशता लपेटे
भीतर के आक्रोश को,
आँखों पर बाँध
तुम रोंक लेती हो
ह्रदय के गुह्यतर में
सारी पीडाएं---

लाचारी को कब पहना दिया गया
पतिव्रता होने का लिबास
वो था कोई राजनैतिक कुचक्र
या, तुम्हारी विवशता का मखौल,
तुमने जाना या नहीं---

तुम जीतीं रहीं
एक छलावा
देखती रहीं दुनिया
इर्द-गिर्द घूमती
स्वार्थी आँखों से---

ऋतुओं का आवागमन
जोडता गया
पुराने वर्षों में, नए वर्ष
नए वर्षों में नए सम्बन्ध
और उन संबंधों के
अविकसित मापदंड
आधा-अधूरा मातृत्व --

तुम्हारे भीतर की स्त्री
नहीं बन पाई माँ ?
नन्हीं किलकारियों से
क्योंकर नहीं पिघले
तुम्हारी पीडाओं के हिमखण्ड ?
तुम्हारी उँगलियों के पोरों ने
क्यों नहीं अनुभूत किया
युवा होते हुए बचपन को ?
या उलझी रहीं तुम
"स्व" के वर्चस्व की लड़ाई में---

निज संतानों को
तुम कर सकतीं थी सावधान !
विद्रूप वैमनस्यता से..
राजनैतिक प्रपंचों से..
घृणित क्रियान्वयन से..
युद्ध की विभीषिकाओं से ---

कर सकतीं थीं तुम
कुटिल दुश्चक्रों से विमुख
क्यों पनपने दिये
स्वार्थ के छिछले गड्ढों में
ईर्ष्या के जीवाणु --

संभवतः हम वंचित होते
"गीता" के शाश्वत उपदेशों से
तुम रच सकतीं थी
"महाभारत" को मुँह चिढाता
एक नया इतिहास---

तुम क्यों लगती हो
आज भी
सौ पुत्रों वाली शापित स्त्री
जो ये भूल गईं कि
जब माँ की आँखों पर पट्टी हो ,
तो, हो जाती हैं
संताने दिशाहीन----



अभिजात्य कविता

कहते तो सभी हैं ,
निकलो, अपने खोल से बाहर

देखो , दुनिया में रौनकें , रोशनी , मंहगी सजावटें
करीने से सजी
रंगीन दुकानों की तरह

उठा लो,
कुछ मखमली हसरतें
अपने हिस्से के उजाले
और भी बहुत कुछ
जो तुम चाहो

कहाँ उलझ जाती हो
बेतरतीब बिखरी घुटन चुनने में
और, क्यों कर रख लेती हो
अशोक के पत्तों जैसे सहेज कर
अपनी डायरी के बीच

पीड़ाओ को बटोर
क्यों बना देती हो
शब्दों का बंधक

जब भी कुछ लिखती हो
तुम्हारे पन्नों से आती है
कच्ची हल्दी, कसैले मसालों
और तेल की गंध
कभी कभी तो ,
अति कर देती हो
पल्लू से पोंछने के बाद भी
धूल के कतरे और फिनायल की बू
कागज पर चस्पा कर देते हैं
तुम्हारी उँगलियों के निशान .

कुछ हसरतें और अपने हिस्से के उजाले
समेटने की जद्दोजहद में
बैंगनी से काले होते जा रहे दर्द
और कत्थई हो कर जम गए
रिसाव धोने को
ना काफी हैं सारे डिटर्जेंट


एक आम घरेलू औरत की तरह
व्यावहारिक शालीनता में
समेट लेती हूँ
खोल के भीतर की सारी पीडाएं
होठों पर सजा लेती हूँ
सतुष्टि का भ्रम .

प्रश्न बन कर घूमती हैं
जेहन में सब की बातें
गोल रोटियों की तरह
बढती जाती है जिनकी परिधि
लगातार .

सोंचती हूँ ,
कब लिख पाऊँगी
कोई अभिजात्य कविता
रंगीन रोशनी और सजावटों से भरी





प्रस्तुति : शोभा मिश्रा 


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