Tuesday, June 26, 2012

"एक शाम - फर्गुदिया के नाम" कार्यक्रम में मेरी (शोभा मिश्रा) कविता

शोभा मिश्रा _______________ 


"मौन हुई पवित्रता "
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वो खुद एक गुड़िया सी
अपनी गुड़िया सजाती हुई
बहुत खुश होती थी
कंघी,रिब्बन,लाली,बिंदी
सभी कुछ था उसके पास
अपनी गुड़िया को सजाने के लिए
रंगीन कपड़ों में सजी
अपनी गुड़िया में देखती थी अपनी छवि
खेल-खेल में उसकी गुड़िया की बरात आती,डोली सजती
लाल कपडे की कतरन से साड़ी पहना
विदा कर देती अपनी गुड़िया को एक गुड्डे संग
कल्पना चावला,सानिया मिर्ज़ा को अपना आदर्श मान
कभी किताबों के आसमान में खोयी रहती
कभी अहाते के पास ..
खेल के मैदान में पसीना बहाती रहती

सोलह बसंत देख चुकी वो
पूरे आत्मविश्वाश और लगन के साथ
अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आगे बढ़ी जा रही थी
तभी उसे समझाया जाता है
एक गठबंधन के बारे में
एक ऐसा गठबंधन ...
जिसमें उसका वर कोई साधारण पुरुष नहीं होगा
वो ईश का प्रतिनिधित्व करने वाला
सभी के लिए ईशतुल्य है
वो ईश उसका स्वामी होगा

स्वीकार नहीं था उसे ये गठबंधन
अपनों ही द्वारा उसके मन-मस्तिष्क में ..
गठबंधन का जो बीज बोया गया था
उस बीज को उन्हीं के द्वारा रोज सींचा जाने लगा
और अंततः उस बीज का एक अंकुर
उसे अपने भीतर नज़र आया
वो अनमने मन से तैयार हो गयी उस गठबंधन के लिए
न उसकी बरात आई न डोली सजी
वो ले जाई गयी अपने ईश के घर

वहाँ उसे दिखी सफ़ेद लिबास में कुछ स्त्रियाँ
एक असीम शान्ति थी उन स्त्रियों के चेहरे पर
आँखों में करुणा और कोई रहस्य भी था
उसे स्नान करवाया गया ,सफ़ेद वस्त्र पहनाये गए
उसने सुना कुछ मन्त्रों का उच्चारण
उसके भीगे लम्बे केशों को पहले एक एककर
फिर गुच्छों में हाथों से खींचकर
उसके सर से अलग किया जाने लगा
कराह उठी वो एक असह पीड़ा से
अपनी गुड़िया के नाजुक केशों को वो कैसे संवारती थी
याद करती रही .. और सिसकती रही

न विरोध ..न चीखी
क्योकि इसी तरह होगा उसका श्रृंगार
उसे पहले से ही बताया गया था
चोटी,जूड़ा ना गजरा
केश रहित उसके सर से कहीं कहीं खून की बूँदें रिस रहीं थीं
जो डर और वेदना से आये पसीने के साथ मिलकर
उसके पूरे चहरे को बदरंग कर रही थी
नहीं था उसकी आँखों में काजल
डबडबाई और भयभीत आँखें
होंठों की पपड़ियों की लाल दरारें साफ़ दिख रही थी
उसने आईने में अपना श्रृंगार नहीं देखा
लेकिन कल्पना कर सकती थी अपने विकृत रूप का

सजा धजाकर उसे ईश के सन्मुख ले जाया गया
वो गंगाजली बनी , फूल बनी , भोग बनी
इस पूजा से अनजान
समर्पित हो गयी अपने ईश के चरणों में
ईश को पूज वो अपनी देह की पीड़ा से
और उसकी आत्मा 'उसकी ' पीड़ा से कराह उठी
उसकी देह और आत्मा
पूरी रात एक दूसरे का आलिंगन कर सिसकती रही

वो सुबह उठी
आज की सुबह एक अजीब सा सन्नाटा ओढ़े हुए थी
चिड़िया अपना चहचहाना भूलकर
सहमी सी उसे निहार रही थी
ये नयी सुबह रोज की तरह सबके लिए
रंगीन प्राकृतिक छटाओं से रंगी हुई थी
लेकिन उसे सिर्फ एक रंग याद करने को कहा गया है
वो है सफ़ेद रंग ........!!!




(शोभा)


3 comments:

  1. आप ने नारी की पीड़ा को निर्व्याजरुप से प़कट किया है ।इस में देवदासियाँ का चित्र उभरता है । मेरी बधाई ।

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