डॉ सविता सिंह
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१- आघात
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इस पहर एक आवाज़ आती है
अपनी ही साँस चलने की
इस पहर मेरे ही प्राणों के स्पंदन से
चलती है यह सृष्टि
इस पहर चीज़ों के यूँ होने का
मैं ही हूँ सुखद उदगम
इस पहर एक चिड़िया अपने घोंसले में
स्वप्न देख रही है
की यह दुनिया सुन्दर हो रही है
एक स्त्री अपनी व्यथा को उतारकर
रख रही है एक तरफ ____
चिरपरिचित अपने परिधान को
अपने लम्बे बालों को खोलकर दोबारा बाँध रही है
जैसे किसी तैयारी में हो
कहीं जाने की आतुरता हो उसमें
एक सादगी में जैसे वह उतरना चाहती हो
पार करना चाहती हो जैसे कोई नदी
वह पार उतर भी जाती है
जाती हुई दिखती है फिर उधर
जिधर प्रकृति है और हरीतिमा
नए परिधान उसके
जिसमें प्रसन्नचित्त वह प्रतीक्षा करती है
नए आघात की
२- नया एकांत
_____________
आखिरकार अपनी भाषा में हूँ सुकून से
मुझे खोजने आ सकतें हैं मेरे प्रेमी
मैं मिलूंगी भी अब शायद उन्हें सजी-धजी
उनका स्वागत करती
अब मुझमें कोई संशय नहीं
न भीरुता पहले वाली
जरा भी रहस्यमय नहीं रहूंगी अब मैं
जैसे मैं थी जब नहीं समझती थी भाषा के तिलिस्म को
उसके विस्तार को
इस समय कितनी सहज हूँ मैं
साधारण कितनी साधारण
सचमुच जैसी मैं हूँ
अपनी कविता में जीवन की समझ की तरह
व्यथित-आनंदित एक राग की तरह खुद को गाती
बेफिक्र जैसे कोई नदी
चुपचाप बहती किसी जंगल में
अपनी भाषा में फिर भी कितनी सबके साथ हूँ
बिना किसी द्वेष और स्पर्धा के
जो झिझक है थोड़ी बहुत दूसरों को लेकर
वह कविता की ही है
वह खुद उसे झाड़ लेगी जब वह नया समाज बना लेगी
इसका यकीन है भाषा को ही
मैं हूँ सुकून से जैसे पहले कभी न थी
आश्वस्त भी कि प्रेम पहचान लेगा इस नए एकांत को
३-सपनें और तितलियाँ
_____________________
एक लंबे सपने का यह छोटा सा हिस्सा है
इसमें मैं बेदम भाग रहीं हूँ
देखतीं हूँ एक घने जंगल में हूँ
पेड़ों पत्तों के बीच उन्हीं की तरह आश्वस्त
जंगल के जीवों के बीच निर्भय
उनके प्रलापों से अवगत
इधर-उधर घूमती पास की नदी तक जाती
बैठती किसी पुराने पत्थर पर
तभी आता है कोई घोड़े पर सवार
पास उतरता है मेरे
फिर कहता है ढूँढ़ता रहा है वह कई जन्मों से मुझे
कि मेरे पास उसके कुछ फल और नदियाँ हैं
कि वह भूखा और प्यासा है
पीने आया है अपने हिस्से का जल मुझमें ....... कवितांश
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१- आघात
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इस पहर एक आवाज़ आती है
अपनी ही साँस चलने की
इस पहर मेरे ही प्राणों के स्पंदन से
चलती है यह सृष्टि
इस पहर चीज़ों के यूँ होने का
मैं ही हूँ सुखद उदगम
इस पहर एक चिड़िया अपने घोंसले में
स्वप्न देख रही है
की यह दुनिया सुन्दर हो रही है
एक स्त्री अपनी व्यथा को उतारकर
रख रही है एक तरफ ____
चिरपरिचित अपने परिधान को
अपने लम्बे बालों को खोलकर दोबारा बाँध रही है
जैसे किसी तैयारी में हो
कहीं जाने की आतुरता हो उसमें
एक सादगी में जैसे वह उतरना चाहती हो
पार करना चाहती हो जैसे कोई नदी
वह पार उतर भी जाती है
जाती हुई दिखती है फिर उधर
जिधर प्रकृति है और हरीतिमा
नए परिधान उसके
जिसमें प्रसन्नचित्त वह प्रतीक्षा करती है
नए आघात की
२- नया एकांत
_____________
आखिरकार अपनी भाषा में हूँ सुकून से
मुझे खोजने आ सकतें हैं मेरे प्रेमी
मैं मिलूंगी भी अब शायद उन्हें सजी-धजी
उनका स्वागत करती
अब मुझमें कोई संशय नहीं
न भीरुता पहले वाली
जरा भी रहस्यमय नहीं रहूंगी अब मैं
जैसे मैं थी जब नहीं समझती थी भाषा के तिलिस्म को
उसके विस्तार को
इस समय कितनी सहज हूँ मैं
साधारण कितनी साधारण
सचमुच जैसी मैं हूँ
अपनी कविता में जीवन की समझ की तरह
व्यथित-आनंदित एक राग की तरह खुद को गाती
बेफिक्र जैसे कोई नदी
चुपचाप बहती किसी जंगल में
अपनी भाषा में फिर भी कितनी सबके साथ हूँ
बिना किसी द्वेष और स्पर्धा के
जो झिझक है थोड़ी बहुत दूसरों को लेकर
वह कविता की ही है
वह खुद उसे झाड़ लेगी जब वह नया समाज बना लेगी
इसका यकीन है भाषा को ही
मैं हूँ सुकून से जैसे पहले कभी न थी
आश्वस्त भी कि प्रेम पहचान लेगा इस नए एकांत को
३-सपनें और तितलियाँ
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एक लंबे सपने का यह छोटा सा हिस्सा है
इसमें मैं बेदम भाग रहीं हूँ
देखतीं हूँ एक घने जंगल में हूँ
पेड़ों पत्तों के बीच उन्हीं की तरह आश्वस्त
जंगल के जीवों के बीच निर्भय
उनके प्रलापों से अवगत
इधर-उधर घूमती पास की नदी तक जाती
बैठती किसी पुराने पत्थर पर
तभी आता है कोई घोड़े पर सवार
पास उतरता है मेरे
फिर कहता है ढूँढ़ता रहा है वह कई जन्मों से मुझे
कि मेरे पास उसके कुछ फल और नदियाँ हैं
कि वह भूखा और प्यासा है
पीने आया है अपने हिस्से का जल मुझमें ....... कवितांश
बेहद प्रभावशाली कवितायेँ हैं.. शुक्रिया शोभा आपने इन्हें पोस्ट किया.. तीसरी कविता यदि पूरी पढ़ने को मिलती तो और भी अच्छा होता..
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