Friday, June 01, 2012

"एक शाम - फर्गुदिया के नाम " कार्यक्रम में डॉ सोनरूपा द्वारा प्रस्तुत कविता



















तुमने ले ही लिया था

जन्म

कि तुम्हे लेना था

लोरियाँ ,थपकियाँ नहीं थीं तुम्हरे लिए

मगर तुम थी तो छोटी सी बच्ची ही ना

सो ही जाती थीं पैरों ,हाथों ,को पेट से लगा के

बढ़ने लगी थीं तुम

कि तुम्हे बढ़ना ही था

रोटियां बस खाने को नहीं थीं तुम्हारे लिए

दिन भर के काम का मेहनताना था तुम्हारा

जो ईधन देता रहे तुम्हारी अंतडियों को

तुम रजस्वला हो गयी थीं

कि तुम्हे होना ही था

अब तुम कुम्हार की चाकी पर चढ़ ही गयी थीं

पकने कि लिए

तुम्हारे उभरते बदलाव चमकने लगे थे निगाहों में बहुतों के

अचानक तुम तोड़ दी गयीं

लेकिन तुम्हे टूटना नहीं था

कच्चे गीले बर्तन से भी कोई पानी पी गया

और चाक से गिर कर तुम बिखर गयीं ऐसे चक्रव्यूह में

जिसे भेदना तुमने भी सीखा ना था .....

तुम्हे बहुत कुछ होना था

मगर तुम हो ना पायीं

तुम पवित्र थीं गिरजे के घंटे की मुंदरी की तरह

हैवानियत ने छुआ तुम्हे

तुम बजीं भी मगर एक चीख की तरह,

महकना था तुम्हे सुगंध की तरह

तुम बिखर गयीं भस्म की तरह,

खेलना था तुम्हे बच्चों की तरह

मगर तुम खेली गयीं खिलौनों की तरह,

तुम्हे कहना था बहुत कुछ

मगर तुम कह ना पायीं

‘बच्ची’ से ‘स्त्री’ बनने तक

तुम हो ही जातीं

तीखी ,कसैली ,पैनी

इस समाज की बदौलत

आक्रोश का लावा धधकता रहा होगा तुम्हारे अंदर तब तक


जब तक तुम्हारी चिता की सुलगती लकड़ियों ने उसे ठंडा ना कर दिया होगा

क्या अग्नि ही काट थी तुम्हारी

































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