Tuesday, February 25, 2014

नक्श फ़रियादी है-अनघ शर्मा

   
                 
 नक्श फ़रियादी है















इस
यथार्थ से अतीत के शिलालेखों तक ................
अतीत के शिलालेखों से बादलों की तरतीब तक .........
बादलों की तरतीब से आगामी भविष्य तक ............
उसे सिर्फ अंधेरा ही नज़र आता था। हर दिशा में व्याप्त अन्धकार। अंधेरे के इस दिग्दर्शन से ये उसका पहला साक्षात्कार था। उसने करवट ले कर पाँव सिकोड़ लिए, टाट के बोरे पर उसका पूरा शरीर पैर मोड़े बिना एक सीध में नहीं सकता था। बबूल के छितराये हुए पत्तों के बीच में से चांदनी की एक धुंधली रेखा मवाना शुगर मील  के टाट के बोरे से सरक कर उसके मुँह पर गयी तो उसने मुँह फेर लिया।
थोड़ी देर में उसे झींगूरों के शोर ने सुला दिया। मीठी नींद के पुल को पार करता हुआ वो घर के दरवाज़े पर पहुँच गया। दरवाज़े पर दो कनेर के पेड़ एकदूजे के गलबहियां डाले खड़े थे। गर्मियों में इसी के नीचे पापा की खटिया बिछती थी। अन्दर की गैलरी के पार उसकी बुलेट खड़ी है। धूल की एक पतली पर्त उसके ऊपर चढ़ी हुई है। गैलरी के पार के बरामदे में सुलगते चूल्हे पर दूध की हंडिया चढ़ी हुई थी। धुएँ और उबलते दूध की महक उसके नथूनों को महका गयी।बरामदे के पार उसका कमरा था। जिस पर माधवी की पुरानी साड़ी का पर्दा टंगा था। पर्दा हटा कर उसने अन्दर झाँका सामने उसका पलंग पड़ा था। वो जा कर पलंग पर लेट गया। कितना पास था माधवी का चेहरा। ज़रा जोर से सांस ले तो चेहरे से चेहरा टकरा जाए। दूध की धुएँ घुली महक में जलने की बदबू कैसे गयी? क्या जल रहा है?  ये माधवी रोज़ चूल्हे में लकड़ियाँ ठूंस आती है। ये लकड़ियों की बदबू नहीं है। क्या है ये? ये तो घर में रखा सामान जल रहा है। वो उठ कर बैठ गया। ये तो घर नहीं है। एक नज़र घुमा कर उसने चारों तरफ देखा। पत्तों से छनती हुई ओस बूँद-बूँद कर के उसके ऊपर गिर रही थी। उसने थूक निगल कर सूखे गले को गीला किया और फिर लेट गया।
नींद के दूसरे किनारे पर सुगबुगाहटें थीं।
आज से तू हमारा नेता सुख्खी। हाँ सुखबीर तू ही हमारा नेता है। तू पढा -लिखा है, समझदार है, होशियार है हम क्या जाने कुछ? ज़मीन को सरकारी खाते में जाने से कैसे रोकें?
रोकेंगे ताऊ, अपनी ज़मीन है। किसी के बाप का माल थोड़े है। जो चार टुकड़े फ़ेंक कर हथिया लेगा। उसने थूकते हुए कहा। पूरा पैसा देगी सरकार, जितना हम मांग है। तभी अपने खेत जायेंगे।
चिलचिलाती धूप में वो सब सड़क के किनारे बैठे हुए थे। सुखबीर, बृजवीर, मदनपाल, भूपेंद्र, और भी अनगिनत। थोड़ी देर पहले सेक्शन इंजिनियर की पिटाई की थी सुखबीर ने। गुस्से के मारे भीड़ ने जेoसीoबीo में आग लगा दी थी। उसका धुआँ अभी थमा नहीं था की एक के बाद एक करके पुलिस की चार जीपें दनदनाती हुई गाँव में घुसीं तो भगदड़ मच गयी।आमने-सामने की लड़ाई थी अब ये। पुलिस बनाम गुंडागर्दी, हक़ बनाम हुकूमत, सरकार बनाम जनता, और सब में सरकार का पलड़ा ही भारी था। पुलिस ने उतरते ही हवाई फायर दागने शुरू कर दिए, लाठी चार्ज हो गया। हवाओं की तरह काफ़ूर हो गया उनका हौंसला। हवा में लहराती एक लाठी मदनपाल के सर पर लगी तो खून की धार पगड़ी से रिसती हुई सफ़ेद बुर्राक कुरते पर फैली,तो उनका हौसला वापस गया। सारा गाँव इकठ्ठा हो गया। पुलिस की एक जीप भी आग के हवाले हो गयी। उसके घंटे भर में ही सब मैदान ख़ाली। पुलिस के सामने कोई भी नहीं टिक पाया। रह गए सिर्फ बच्चे और औरतें। ख़ाली मैदान में रह गयी सिर्फ़ उडती हुई हवा और खून मिली धूल। भागते में सिर्फ़ उसने इतना ही देखा कि भूपेंद्र ट्यूबवेल की हौज में कूद रहा था।
किसी ने उसका कन्धा झंकझोर कर हिला दिया। बेवक़ूफ़ ऐसे ही सोता रहेगा तो कभी भी पुलिस की पकड़ में जायेगा। तेरी तलाशी में पुलिस जगह-जगह दबिश दे रही है। ले ये अखबार पढ़, भूपेंद्र ने उसे अखबार पकड़ाते हुए कहा। पहले ही पन्ने पर लिखा था।
"
किसान नेता सुखबीर पर सरकार ने पच्चीस हज़ार का ईनाम रखा"
वो रातों-रात मशहूर हो गया है। अखबारों में उसका नाम छपता है। लोग उसकी खबर दिलचस्पी से पढ़ते है।पर वो तो बिरादरी से अलग हो गया। और आदमी तो चोरी-छुपे रातों को गाँव चले जाते हैं, घर वालों से मिल लेते हैं। एक वो ही नहीं जा सकता।
नया सीoo गया है। भूपेंद्र ने उसकी सोच तोड़ते हुए कहा।
कौन?
जेo एसo सिंघल। औरतों को बुलाता है थाने बयान के बहाने। सुना है कल भाभी को बुलाया है उसने| बयान दर्ज कराने के लिए।
तो तू चला जइयो साथ भैया।
मैं कैसे जा सकता हूँ? दरोगा ने मुझे जेनरेटर फूंकते हुए देख लिया था। वहीं धर लेगा।
सुखबीर ने डबडबाई आँखों से उसे देखा तो भूपेंद्र ने चेहरा फेर लिया। ये वही सुख्खी है जो बाप के साथ रातों में कभी खेतों में पानी देने नहीं गया कि सांप-बिच्छू निकल आते हैं। ये वही सुख्खी है जो बल्ला ले कर निकल जाये तो गाँव की टोलियों की टोलियाँ अकेले उसके दम पर जीत जायें। इसी को देख कर गाँव के लड़कों ने अपने-अपने बापों से बुलेट के लिए ज़िद की थी। और आज ये ही टाट के बोरों पर सोता है। बीहड़ों-बीहड़ों मारा-मारा फिर रहा है। भूपेंद्र ने धीमी सांस छोड़ते हुए सोचा। वो उठ खड़ा हुआ तो चन्द्रगुप्त से अशोक तक और बिन्दुसार से आज तक के राजाओं की कुलीनता और अकुलीनता के सारे परिदृश्य का बिम्ब सुखबीर की आँखों में धूमकेतु की तरह गुज़र गया।
कहाँ होगी माधवी ? उसने सोचा।
*****************
सुबह की चढ़ती हुई धूप के साथ साथ पारा भी चढ़ता जा रहा था। बूढ़े ससुर की बाहँ थामी हुई माधवी ने रिक्शे से उतरते हुए सरसरी निगाह से थाने को देखा। भय और आतंक ने दोनों तरफ से कर उसकी एक-एक बाहँ थाम ली। चारदीवारी के भीतर एक अधजली जीप खड़ी थी। जो उसके पति की शौर्य-गाथा का एक नमूना बनी हर आते-जाते से जैसे अपनी कहानी कह रही थी।
दूर से ही एक सिपाही ने उन्हें आते देख लिया। आओ नेताइन सीo o साब तुम्हारा ही इंतज़ार कर रहे हैं।
अपने आस-पास इतनी पुलिस देख कर माधवी के हाथ-पाँव सुन्न पड़ गए। साड़ी के पल्ले से चेहरे पर आया पसीना पोंछ माधवी ने बूढ़े ससुर की ओर देखा और आँखों ही आँखों में सांत्वना दे डाली। की तुम घबराना मत पापा में हूँ ना सब ठीक हो जायेगा वो कभी बैठ जाती तो कभी उठ कर दीवार के सहारे खड़ी हो जाती। करीब तीन घंटे के इंतज़ार के बाद सीo o ने उसे अन्दर बुलाया।
देखे हम ये बहुत देर से खड़ी थी,पूछ लो इससे बैठेगी। उसने दरोगा से कहा।
बैठेगी शब्द की छुपी हुई व्याख्या उसे अन्दर तक कंपकपा गयी। उसकी पिंडलियों में एक झंझनाहट सी दौड़ गयी।
कहाँ है तेरा आदमी? उसने सिगरेट सुलगाते हुए पूछा।
पता नहीं साब, मैं क्या जानूं? उस दिन से वो आये ही नहीं।
साली झूठ बोलती है पुलिसवालों से। हमें सब पता है। वो साले रातों-रात आते हैं, रोटी खाते हैं, और तुम्हारी देह टटोल कर सुबह कहाँ निकल जाते हैं। सरकार का हुक्म है नरमी बरतनी है वर्ना सब मादर........... की ख़ाल में भुस भरवा देता। हरामजादों के हलक में ही उतार देता सब खेत। बिठाए रखो साली को जब तक सच ना बताये। रात के आठ बजे तक बिठाये रखने के बाद उसे छोड़ दिया गया। जा अब कल आना साब ने कहा है। सिपाही ने उससे कहा। क्यों जी अब नेताजी को पनपती नहीं बना कर खिला रही तू आजकल? सुना उस दिन तो भाग-भाग कर रोटी खिला रही थी। किसी दूसरे ने कहा। माधवी ने सर उठा कर देखा। आँखों के पानी में हज़ार प्रश्न तैर रहे थे। क्या होगा भगवान? जब रक्षकों की भाषा-शैली ऐसी हो।
दूसरे, तीसरे, चौथे दिन दरोगा ने उसे दुबारा सीo o से मिलवाया। अबके आवाज़ में तल्खी कम थी। बैठ जा आराम से उसने एक सरसरी नज़र फेरते हुए कहा तो उसने साड़ी के पल्ले को दोहरा कर बदन से लपेट लिया।
आया तेरा आदमी?
नहीं साब।
क्यों झूठ बोलती है हमसे? हमें सब पता है किस घर में क्या चल रहा है? क्यों चाहती है सख्ती करें हम? बता कहाँ है सुखबीर? अबके आवाज़ में सख्ती थी।   
कसम से साब मुझे नहीं पता वो कहाँ है?
अच्छा -अच्छा। चाहती है वो वापस जाये।
हाँ साब। आपका अहसान होगा।
उसके लिए तुझे हमारा एक काम करना होगा।
क्या साब?
पच्चीस हज़ार का ईनाम है तेरे आदमी पर। तू और तेरा ससुर किसी की शिनाख्त कर दे सुखबीर बता के। पांच हज़ार तुम्हारे। तू सोच ले आराम से, दो-तीन दिन में बता जइयो ऐसी भी कोई जल्दी नहीं है। जैपाल पानी पिला इसे, उसने घंटी बजा कर सिपाही को बुलाया और बात खत्म कर दी।

सारी रात खाट पर पड़े-पड़े माधवी ने गुज़ार दी। सुबह से कुछ पहले उसने बगल में सो रही सास को जगाया और सारी बात बता दी। ऐं  मम्मी  पापा नहीं माने तो। उसकी आवाज़ में भय का अंकुर था।
मानेंगे क्यों , जवान बेटा है। आज इतने दिन हो गए घर में पैर नहीं रखा उसने। तू सो जा मैं बात करुँगी उनसे। उसने माधवी के माथे पर हाथ रखा तो वो चौंक पड़ी।उसने पलट कर हाथ लगाया तो देखा कि भूदेई का सारा पिंडा बुखार से जल रहा था।
ऐं मम्मी तुमने दवा नहीं ली?
हाँ, खा तो ली हरी पन्नी बाली, थोड़ी देर में उतर जाएगा।
भूपेन्दर भैया से बात करूँ मम्मी?
तू मती करियो, तेरे पापा से करवाऊँगी।
डर की धड़कन अगले पूरे दिन रह-रह कर माधवी के कानों में गूंजती रही। सुखबीर का चेहरा बार-बार उसकी आँखों के सामने फिर जाता था। कभी दूल्हे के सेहरे में, कभी बुलेट चलाता हुआ, कभी गली के बच्चों के साथ गेंद-बल्ला खेलता हुआ........ और कभी पुलिस की लाठियों से खुद को बचाता हुआ, भागता हुआ। आखिरी बार उसने सुखबीर की पीठ देखी थी, और कान के पीछे से बहती खून की धार। उसने घबरा कर अपनी आँखें खोल दीं।
पोस्टमोर्टेम रूम में से बूचड़खाने सी उठती गंध ने माधवी का सर चकरा दिया। उसने पलट कर दरवाज़े पर खड़े ससुर को देखा और फैली हुई पुतलियों का खालीपन उसे अवसाद से भर गया। उसने आँखें बंद कर के सफ़ेद कपड़े से ढकी एक देह पर अपना हाथ रखा तो अचानक से दोनों पैरों की जान सी निकल गयी। पसीने की कुछ बूँदें माधवी के माथे से टपक कर उसके हाथों पर गिर पड़ीं। जब वो कमरे से बाहर आई तो चौतरफ़ा फैले अंधेरे ने उसे आकर लपेट लिया। बड़ी भयावय रात गुजारी माधवी ने वो। कभी सुलगते बिटोरों का धुआँ दम घोंट देता था। कभी खाली पड़े खेतों में सुलगती आंच बदन जलाने लगती। कभी सफ़ेद कपड़ों में लिपटी देह दोनों हाथ बढ़ाये उसकी तरफ आती दीखती।
मुँह अंधेरे मोटर साइकिल पर बैठा एक सिपाही आया और कारेलाल को हज़ार-हज़ार के तीन नोट पकड़ा दिए।
साब बात तो पाँच हज़ार की हुई थी। कारेलाल ने पूछा।
और जो तेरे बेटे ने सरकारी जीप फूंक दी उसकी मरम्मत का हर्जा क्या दरोगा जी की लुगाई भरेगी। और हाँ कल सुखबीर की औरत को थाने भेज दियो, लखनऊ से कुछ लोग आये हैं इसका बयान दर्ज़ होगा।
दरवाज़े की आड़ से उसने देखा वो रुपये ससुर की धोती की अंटी में जा बंधे। एक साँस छोड़ कर उसने सोचा पति भी गया और रुपये भी।

*****************
पीपल के पत्ते आवारा लड़कों की तरह गाँव की गलियों में यहाँ-वहाँ उड़ते फिर रहे थे। जलते सूरज के माथे पर बादल का एक भी टुकड़ा था। शाम के चीत्कार करते सन्नाटों के मुहँ में भी कोई रोटी का टुकड़ा नहीं ठूंसता था कि घडी भर को ही सही उसका मुहँ तो बंद हो। हर तरफ मुहँ उठाये चीखता-फिरता अंधेरा था और ऐसे अंधेरे में सिर्फ दो लोगो को नींद नहीं आती थी।
आज से तू हमारा नेता सुख्खी”,ये आवाजें अब उसका गला दबाती हैं। धूप, लू, गर्मी सब शरीर के रोम से अन्दर का खून धीरे-धीरे चूस रही हैं। खाने को भरपेट खाना, कपडे, बिस्तर। वो जिस शौक और मशहूरियत के लिए बैठा था उसने तो इन तीन महीनों में दम तोड़ दिया।
रात के अंधेरे में एक सिपाही उसे गाँव के मुहाने पर छोड़ गया। वहां से चुपचाप भूदेई उसे घर तक ले आई। चूँकि सास बहू दोनों साथ थीं इसलिए किसी ने कुछ पूछा। गए अंधेरे भूदेई ने उसकी साड़ी उठा कर सरसों के तेल का फ़ाया लगा दिया। उसने नींद में डूबे माधवी के उतरे चेहरे और सूजी हुई आँखों को देखा और सोचा सत्ता ने ज़मीन का एक और टुकड़ा निगल लिया। भूदेई ने अपनी आँखों पर हाथ रख लिए।
सत्ता और उसके साईस उन सामानांतर रेखाओं की तरह है जो कभी कहीं टकराती नहीं है पर अपनी राह में आने वाली हर चीज़ निगल लेती हैं।
सुरसा सा मुँह फाड़े रात कहीं खत्म ही नहीं होती। उसके बदन पर सुबह-शाम रेंगती यादें चीटियों की तरह उसे काटती फिरती हैं। ज़ख्म-दर-ज़ख्म देती रहती हैं। उसने अपने हाथ दाढी पर फेरे। हफ़्तों से उसने शीशा नहीं देखा था। बाल बढ़ कर कानों के नीचे तक गए थे।
सफ़ेद हाथी पर बैठ कर इन्द्र देवता उसकी पूँछ में बादलों को बांध कर दिन में तीन-तीन बार गुज़रते थे पर फिर भी सूखे का सूखा। पोखर में फैली सिंघाड़े की बेल सूख चली थी साथ में माधवी भी। सारी पत्तियां पीली पड़ने लगी थीं जब जा कर कहीं आकाश से पहली बूँद गिरी। टप-टप, टप-टप सब सूखे खेत पानी में डूब गए।
ये जाने कहाँ होंगे? माधवी ने चूल्हा ढकते हुए सोचा। घर का आकाश बादलों से ढंका हुआ था। आज फिर पानी पड़ेगा उसने कहा। पानी के बोझ से पीले अमलतास, लाल गुलमोहर टूट-टूट कर ज़मीन पर गिर रहे थे। मिट्टी में सने हुए एक दूसरे में गड्ड-मड्ड। बीहड़ों में फैले गुडहल, कनेर,और शहतूत नाक में पानी भरने की वजह से दम तोड़ रहे थे। शहतूत की डाल पर एक चौखाने की काली-सफ़ेद टंगी कमीज़ से पानी टपक रहा था। वो नंगे बदन बैठा दूर तक फैली पगडंडी को देख रहा था। बादलों से दो घडी के लिए चाँद सरक के उसके पास पहुँचा। अब ये भी पहले जैसा चाँद नहीं है, उसने सोचा। जो शाम ढले निकल आया करता था। अब तो ये भी आने से डरता है। क्या पता इससे भी सड़क बनाने के लिए ज़मीन मांग ली जाए।

देखते-देखते दो महीने और बीत गए। बादलों से घिरा अगस्त भी गया पर वो नहीं लौटा। महीनों इधर-उधर चक्कर लगा कर अब माधवी लखनऊ जा रही है। सरकार के दरवाज़े पर ही दुहाई दी जाएगी अब। ले लो ज़मीन पर वापसी के दरवाज़े खोल दो माई-बाप। जिस रात वो लखनऊ की गाडी में बैठी, उसी सुबह वो लौट आया। धुआँ छोडती ढिमरी उठाये मुँह-अंधेरे भूदेई ने किवाड़ खोले तो वो सामने खड़ा था। सुबह तक सारा गाँव उसके कमरे में चला आया था। मदनपाल, भूपेंद्र, ओमपाल,और भी जाने कौन-कौन बस एक वही नहीं थी।
............................................................................................................................................

हफ़्ते बीत गए पर वो लखनऊ नहीं पहुँची। कोई कुछ कहता कोई कुछ। जितने मुँह उतनी बातें।
चौथे-पांचवे या शायद किसी अखबार के छठे पन्ने पर लिखा था। "सियालदाह एक्सप्रेस से कट कर तेईस-चौबीस साल की युवती की मृत्यु, शिनाख्त का अनुरोध" अखबार में छपी ख़बर को पढने वालों ने पढ़ा भी, पर कौन जाने जिला आगरा के शम्साबाद की माधवी कौन है?

कम्पाउण्डर अभी-अभी सुखबीर के बोतल लगा के गया था। बाहर सानी लगाती भूदेई ने कारेलाल से कहा। छोड़ दो यह ज़मीन, जो जितना मिल रहा है उसी पर राज़ी हो जाओ। बहू गई, बेटे की हालत ऐसी है। मुझ पर अब और नहीं झेला जाता।

अन्दर लेते सुखबीर की पलकें झपकी हीं थीं कि माधवी का चेहरा सामने गया। उसने उसके रूखे चेहरे पर हाथ फेरा और बोली। मेरे लिए दुखी मत होना। वहाँ बहुत सुख है। मुझे चाँद पर एक सौ दस गज का प्लॉट मिला है। पीछे के हिस्से में अमीर देशों की तरफ़। वहाँ सूरज भी सीधी धूप नहीं फेंकता। नीम का पेड़, गुलमोहर, शहतूत, हरी घास सब है वहां।
सुखबीर ने कुछ कहना चाहा पर बात आह में डूब गयी। और उस आह में बस यही था।
"
ये रास्ता, ये गाँव, ये खेत, ये ज़मीन हमारी है। किसी और की नहीं। कोई हमें यहाँ से अलग नहीं कर सकता। हममें से कोई भी अब जिलावतनी नहीं जियेगा "
नींद ने फिर कर उसकी पलकों को झुका दिया।


                                                       ...............................




नाम : अनघ शर्मा 
जन्मतिथि : 27/11/1982 
जन्मस्थान : फ़िरोज़ाबाद, उत्तर प्रदेश
शिक्षा -दीक्षा :बारहवीं तक की शिक्षा फ़िरोज़ाबाद में ही हुई है| बैचलर ऑफ़ होटल मैनेजमेंट {मैसूर यूनिवर्सिटी ,कर्नाटक }, मास्टर ऑफ़ होटल मैनेजमेंट {अन्ना मलाई यूनिवर्सिटी, तमिलनाडू  } एम बी ए {यू पी टी यू ,उत्तर प्रदेश }
व्यवसाय : असिस्टेंट प्रोफेसर   
वर्तमान निवास स्थान: गाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश


मोबाइल : 08447159927



2 comments:

  1. मन को विचलित कर देने वाली कहानी. किसानों की दुर्दशा और बेबसी का बहुत सशक्त चित्रण किया गया है. ग्रामीण समाज की निर्मम हकीकत दिलचस्प शैली में व्यक्त किया गया है. अनघ की कहानियां जमीन से जुडी हैं.

    ReplyDelete
  2. ये कैसा यथार्थ !
    सोचने पर विवश करती समाज का आईना है ये कहानी ....!!!

    ReplyDelete

फेसबुक पर LIKE करें-