Monday, March 10, 2014

दोराहे पर अस्तित्व ? शिखा वार्ष्णेय


दोराहे पर अस्तित्व ? शिखा 
वार्ष्णेय      
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         जब से इस दुनिया की आधी आबादी ने अपने अस्तित्व की लड़ाई आरम्भ की तब से अब तक यह लड़ाई न जाने किन किन मोड़ों से गुजरी। कभी चाहरदिवारी से निकल कर बाहर की दुनिया में कदम रखने के लिए लड़ी गई, कभी शिक्षा का अधिकार मांगती, कभी अपने फैसले खुद करने के लिए लड़ती तो कभी कार्य क्षेत्र में समान अधिकारों की मांग करती। अपने लिए न्याय की मांग करती ये लड़ाई आधुनिक समय में काफी हद तक आगे निकल आई. परन्तु कालांतर में आते आते इसने अपना मूल मकसद खो दिया और एक इंसानी आस्तित्व की लड़ाई, दूसरी आधी आबादी से बराबरी की होड़ की लड़ाई बन गई. अब सवाल यह नहीं बचा कि सही क्या है? अधिकार क्या हैं ? आजादी क्या है? सवाल बचा तो सिर्फ यह कि वे यह कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं ? उन्हें ये मिलता है तो हमें क्यों नहीं ? और हमारे इस आधुनिक समाज में आधुनिकता की परिभाषा मानसिक और नैतिक आजादी न होकर सिर्फ कपड़ों, खाना पीना और भोग विलास या तफरी तक सिमित रह गई.

अब उसे शिक्षा प्राप्त करने से कोई रोकने वाला नहीं है. शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जहाँ उसने अपनी योग्यता न साबित की हो. वह आर्थिक रूप से सम्बल हुई तो अपने फैसले लेने का अधिकार भी उसने पाया। अपने पैरों पर खड़ी हुई तो अपने जीवन को अपनी मर्जी से जीने का हक़ उसने लिया। आज इस दुनिया के अधिकतर समाजों में कानूनी रूप से यह आधी आबादी पूर्णतया स्वतंत्र है. कानूनी रूप से उसे वे सभी अधिकार प्राप्त हैं जो एक पुरुष को हैं.

इस अधिकार का पश्चिमी देशों में तो महिलाओं ने खुल कर उपयोग किया खुद को सामाजिक ही नहीं आतंरिक रूप से भी आजाद करने में वे काफी हद तक सफल रहीं।एक स्वछन्द , आत्मनिर्भर जीवन जीने में अब वह आमतौर पर कोई रूकावट महसूस नहीं करतीं हैं. हालाँकि कुछ समस्याएं अभी भी हैं जो अप्रत्यक्ष रूप से इन समाजों में भी अब तक पाई जाती हैं. परन्तु हमारे (एशियाई )भारतीय समाज में यह स्वतंत्रता जैसे अभी तक अपने सही गंततव तक पहुँचने में असफल प्रतीत होती है. हमारे देश में भी नारी ने स्वतंत्रता हासिल तो कर ली, लड़ कर पुरुषों के समान सारे हक़ भी ले लिए परन्तु कहीं न कहीं आधुनिकता की इस दौड़ में मानसिक,और संवेदात्मक रूप पुरुषों की बराबरी करने में वह अब भी पीछे रह गई है.

आज आधुनिक नारी के नाम पर वह आधुनिक लिबास पहनने लगी, स्वछन्द विचरण करने लगी, खुद कमा कर अपना जीवन अपनी मर्जी से तो जीने लगी परन्तु भावात्मक रूप से फिर भी स्वतंत्र नहीं हो पाई. आज भी जब इस आधुनिक नारी को प्रेम में असुरक्षा महसूस होती है तो वह टूट जाती है. आज भी अपने साथी को अपने से दूर जाते देश वह बर्दाश्त नहीं कर पाती। और आज भी प्रेम में असफलता और असुरक्षा उसके लिए सबसे बड़ा अवसाद और विषाद का कारण होता है. वह दिमाग से तो जीत जातीं हैं पर दिल के हाथों मार खा जातीं हैं.

फिर बेशक हम किसी भी समाज या परिवेश में रहें उस भावात्मक गुलामी से नहीं निकल पाते।
मुझे याद आ रहा है अभी पिछले कुछ समय का ही लंदन का एक वाकया। जब एक एशिया मूल की एक अत्याधुनिक युवती ने इसलिए आत्महत्या कर ली क्योंकि उसे अपने प्रेम प्रसंग का समाज और परिवार के समक्ष उजागर हो जाने का डर था.
भारत में तो ना जाने कितनी आधुनिक और आर्थिक रूप से सफल कही जाने वाली महिलायें प्रेम में असफल हो कर या तो आत्महत्या कर लेती हैं या फिर इस असफलता और असुरक्षा को न झेल पाने के कारण अवसाद का शिकार हो दिमागी रूप से बीमार हो जाती हैं. अत्याधुनिक कहे जानी वाली भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री और हमारे समाज के उच्च और शिक्षित वर्ग में, दिव्या भारती, ज़िया खान और हाल में सुनंदा पुष्कर जैसे कितने ही ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे। दुर्भाग्यवश आधुनिकता के बढ़ने से साथ साथ ऐसे हादसों की संख्या भी लगातार बढ़ती जा रही है.

शायद समय आ गया है जब हम यह विचार करें कि आधुनिकता का अर्थ आखिर है क्या।आधुनिक कपड़े पहनकर, शराब सिगरेट पीकर या डिस्को में जाकर हम खुद को स्वतंत्र आधुनिक नारी का तमगा नहीं दे सकते। नारी तब आजाद होगी जब वह अपने मन से अपने दिमाग से आजाद होगी। जब वह भावात्मक रूप से भी उतनी ही मजबूत और समर्थ होगी जितनी वह शारीरिक और आर्थिक रूप से है. जिसदिन उसे अपने साथी की वेवफाई आत्महत्या करने को या पागल हो जाने को मजबूर नहीं करेगी। जिसदिन वह अपनी भावनाओं पर काबू पाकर आगे बढ़ना और लड़ना सीख लेगी हमारे समाज की नारी उसदिन आधुनिक और स्वतंत्र होगी।


फिलहाल तो अपने समाज में नारी की अवस्था पर यह फिकरा याद आता है कि - लड़कर पुरुषों की बराबरी तो कर लोगी पर उनके जैसा कड़ा जिगरा कहाँ से लाओगी ?























































































2 comments:

  1. आधुनिकता के नाम पर हो रहे खिलवाड़ पर एक अच्छी टिप्प्णी। .
    बधाई शिखा जी और शोभा जी को

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  2. स्त्री जब तक भावनात्मक स्तर पर आत्मनिर्भर नहीं होगी ....जब तक उसके जीवन साथी के माथे की त्योरियाँ उसकी खुशियों का मापदंड नहीं तै करेंगी .....तब तक वह वास्तविक रूपसे स्वतंत्र, आधुनिक एवं प्रगितिशील नहीं कहलाएगी

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