Saturday, March 08, 2014

साहित्य और स्त्री - अल्पना मिश्र


साहित्य और स्त्री - अल्पना मिश्र
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    आज साहित्य में स्त्री की उपस्थिति को नजरअंदाज करना मुश्किल हुआ है। साहित्य के पन्नों में दर्ज स्त्री चरित्रों को भी और साहस के साथ कलम हाथ में थामे स्त्री जीवन और उसके व्यापक सरोकारों को व्यक्त करती स्त्री रचनाकारों को भी। एक वक्त था, जब पुरूषों का साहित्य पर पूर्ण वर्चस्व था, उनके ही लेखन में स्त्री चरित्र वर्णित हुआ करते थे। ऐसे चरित्र परम्परा से प्राप्त स्त्री की रूढ़ छवि को दृढ़ करने का ही काम करते थे। कवियों ने तो एक ऐसी काम्या रम्या का चरित्र सृजित कर डाला था जो प्रकृति प्रदत्त सुन्दरता से बढ़ कर था और उस काल्पनिक स्त्री जैसी स्त्री का होना लगभग असंभव था। इस काम्या की प्राप्ति का लक्ष्य भी असंभव ही था अतः अप्राप्य के असंतोष ने समाज को स्त्री के संदर्भ में भीषण रूप से कुंठित किया। खुद स्त्री भी इस कुंठा से नहीं बच सकी। आज बाजार उसी काम्या की रूप छवि पा लेने के लिए स्त्री को उकसाता है और एक गहरी अंधी दौड़ का हिस्सा बनाता हुआ कुंठित ही करता है।

    इसके अतिरिक्त पुरूष रचित साहित्य में चरित्रों के दो और मोटे वर्गीकरण देखे जा सकते हैं- एक, करूणा, त्याग की मूर्ति ममतामयी देवी स्त्री का, जो ‘आॅचल में है दूध और आॅखों में पानी’ वाली छवि के साथ पुरूषों को अपने उपर दया के लिए प्रेरित करती थी या फिर अगाध श्रद्धा के लिए प्रेरणास्रोत थी- ‘‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो’’ या फिर कुटनी, घर तोड़ने वाले खल रूपों का, जिन्हें समाज में आदर प्राप्त नहीं था। स्त्री को इन्हीं चरित्रों के बीच अंटा कर देखा जाना भी पितृसत्तात्मक परम्परा का हिस्सा था। स्त्री इसी के भीतर मनुष्य बन जाने की इच्छा लिए तड़प रही थी। लेखन में स्त्रियों के हस्तक्षेप से रूढ़ छवि का इतना बड़ा वितान छितरा गया। स्त्री रचनाकारों ने रूढि़यों को नकारा और अधिक मनुष्य स्त्री को उसके अस्तित्व के साथ साहित्य में लाने का प्रयत्न किया। इस मनुष्य स्त्री के पास छोटे छोटे दुख, तकलीफें, राग, विराग, घृणा, द्वेष, संशय, द्वंद्व, पल पल पराजयों, निरन्तर संघर्षेंा और छोटी छोटी सफलताओं के मनोत्सव भी थे। इसी के साथ स्त्री को पितृसत्ता के द्वारा तैयार की गई आचार संहिता के लिए सदियों से बनाई गयी उसकी अपनी दिमागी कंडिशनिंग से भी लड़ना था, यह द्वंद्व भी साहित्य में आने लगा और नियन्त्रण के शोषण व दमनकारी रूपों की शिनाख्त करते हुए मुखर सवाल उठाए जाने लगे। प्रतिरोध और स्त्री प्रश्नों ने नई स्त्री के लिए एक अधिक सशक्त जमीन तैयार की और पितृसत्ता की संरचना व संगठित स्वरूप की तहें खुलनी शुरू हुई।

    साहित्य के क्षेत्र में स्त्रियों के लिखे इस प्रतिरोधी लेखन का भी एक इतिहास रहा है। भले ही इसे कितना विस्मृत किया गया हो, उपेक्षा के कितने ही थपेड़े इसे लगे हों, इसकी सांसें मीरा से पूर्व भी चलती रहीं और मीरा के बाद अधिक गतिशील होती चली गयीं। लेकिन चूॅकि बुद्धि के क्षेत्र में आने से उन्हें हमेशा रोका गया, इसलिए इतनी आसानी से उन्हें लेखक स्वीकार कर पाना भी कठिन ही हुआ। बहुत दूर न भी जाएं तो द्विवेदी युग में ही स्त्री लेखन और स्त्री पत्रकारिता का एक चमकता हुआ ऐतिहासिक पन्ना दिख जाएगा। स्त्रियाॅ वहाॅ संपादक हैं, विचारोत्तेजक लेख लिखने वाली हैं, अपने समय के ज्वलंत मुद्दे उठाने वाली हैं, किंतु उन्हें लेखक नहीं कहा गया, निबंधकार नहीं माना गया, पुस्तक समीखा लिखने वाले को समीक्षक नहीं कहा गया। पहली आत्मकथा ‘सरलाः एक विधवा की आत्मजीवनी’ को आत्मकथा विधा की पहचान नहीं दी गई। बल्कि वह कालक्रम में भुला दी गई। उसमें सरला की अपने भाई से की गई जिरहों की व्याख्या स्त्री चेतना और उसके सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में नहीं की गई। यह वह भी समय रहा, जबकि लेखन में इतने साहस के साथ आने वाली स्त्रियाॅ भी पितृसत्ता के नियमों की जकड़बंदी से त्रस्त रहीं और यह जकड़बंदी इतनी भयकारक थी कि स्त्रियाॅ अपना नाम लिख पाने का साहस नहीं कर पा रही थीं। राजेन्द्रबाला घोष अपना नाम न लिख कर अपने लिए ‘बंग महिला’ लिखती हैं। ‘सरलाः एक विधवा की आत्मजीवनी’ की लेखिका अपने लिए ‘एक दुखिनी बाला’ लिख कर काम चलाती हैं। उन्हें हिंदी की पहली महिला आत्मकथा का गौरव भी तब मिलता है, जब महिलाएं शिक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भरता की तरफ बढ़ती हुई अपना इतिहास ढूंढती हैं।  बल्कि पितृसत्तात्मक स्थितियों से संचालित हिंदी साहित्य का जो महान इतिहास लिखा गया, उसमें उन्हें कहीं दर्ज तक करना जरूरी नहीं समझा गया। सिर्फ एक बंग महिला राजेन्द्रबाला घोष के अतिरिक्त किसी अन्य महिला कहानीकार का नाम आचार्य रामचंद्र शुक्ल वाले इतिहास में भी नहीं मिलता। प्रेमचंद युग में भी अनेक स्त्री रचनाकार रचनारत थीं, पर उनके स्वर अनसुने कर दिए गए। लेकिन यह उपेक्षा बहुत दूर तक न चल सकी। स्त्रियों ने अपने लिखे का लोहा मनवाया। उनकी सशक्त उपस्थिति और महत्वपूर्ण कथ्य ने बड़ा पाठक वर्ग तैयार किया। वह समय भी आया जब उनके लिखे को घर परिवार का लेखन कह कर दोयम दर्जे का साबित करना संभव नहीं रह गया। उनके लिखे पर बात करना जरूरी होने लगा। स्त्री मुद्दों पर नये सिरे से बहसें होने लगी। ये बहसें नवजागरणकालीन सुधार आन्दोलन की स्त्री जीवन की बहसों से अलग थीं। लेखिकाओं ने भी स्त्री जीवन से जुड़े अनेक अनकहे कोने सामने रखे। कृष्णा सोबती, चित्रा मुद्गल, मन्नू भंडारी, ममता कालिया, मृदुला गर्ग, मैत्रेयी पुष्पा आदि ने अभिव्यक्तियों के नये गवाक्ष खोले और नये मुद्दों की तरफ ध्यान आकृष्ट किया। स्त्री यौनिकता पर इससे पहले तक इतने मुखर तरीके से न तो बात की गयी थी और न ही उसे बहस के केन्द्र में रखा गया था। यह स्त्री लेखन से ही इस रूप में संभव हुआ। महिलाओं का लिखना किसी अय्याशी का शगल कभी नहीं रहा। उनका लिखना हमेशा ही अस्मिता के संघर्ष और सामाजिक व्यवस्था में उनके हिस्से डाल दी गई अवमाननाएं, अमानुषिक परिस्थितियॅा, बेगार श्रम के अंतहीन सिलसिले जैसी तमाम सच्चाइयों को समझना, समझाना भी था।    
    हॅलाकि यह सत्य भी लागातार बना रहा कि समाज तथा सभी नियन्त्रणकारी जगहों में वर्चस्व की स्थितियाॅ पितृसत्ता के ही अधीन रहीं। साहित्य के संदर्भ में मुझे पश्चिम के विद्वान देबोरा कैमरान की बात याद आ रही है कि ‘‘ लेखन भी एक तंत्र है और अन्य तंत्रों की भाॅति इस पर भी वर्चस्वशाली शक्तियों का कब्जा है।’’ यह बात चाहे कितने ही स्तर पर सही हो, परन्तु साहित्य के साथ उसके अंतरंग सखा पाठक का भी अस्तित्व जुड़ा होता है। और वह लाख प्रचारित, प्रमोटेड रचना को भी, यदि वह उसके काम की नही ंतो नकार देता है। यह पाठक इतना अप्रत्यक्ष है कि इसे ढूंढ कर, दबाव डाल कर कुछ मनवाया नही जा सकता। यही पाठक स्त्री लेखन का सच्चा प्रमोटर बनता है। हॅलाकि कई बार पितृसत्ता की सामंती प्रवृत्तियाॅ अपने फायदे के लिए स्त्री देह को प्रमोट करती हुई बिल्कुल बाजार के तर्ज पर स्त्री को उसकी बुद्धि का एक सीमित दायरा बताती हुई उसे एक दूसरी ही दिशा में ढकेलने का प्रयास करती हंै। पितृसत्ता की इस प्रवृति में सामंती शक्तियों, मनोवृत्तियों और पूंजीवाद का सहयोग भी शामिल रहता है। ये सब स्त्री को वस्तु मान कर व्यवहार करते हैं और उससे अपने अधिकतम मुनाफे को तरजीह देते हैं। स्त्री रचनाकारों का एक बड़ा विरोध इस प्रवृत्ति से रहा है। 
    एक और प्रवृत्ति आज बड़े पैमाने पर बनती दिखने लगी है - स्त्री को लेखिका बनाने का दावा करने वाली प्रवृत्ति। ऐसे तमाम ताकतवर मिल जाएंगे जो स्त्री लेखिका बनाने की बात करते हैं या उनके गाॅडफादर की भूमिका में अपने को रखते हैं और वर्चस्व की स्थितियों वाले ये लोग उसकी प्रतिभा का मूल्यांकन न कर के किन्ही और बातों के कारण उसे तरजीह देते देखे जाऐंगे, यह भी स्त्री लेखन की एक बड़ी बाधा है। लेकिन स्त्रियाॅ अब पहले से ज्यादा साहसी भी हुई हैं और समझदार भी। वे मुखर हो कर अपनी बात कह पाने की कोशिश कर रही हैं, इस बाधा दौड़ को पार कर रही हैं, पाठकों पर भरोसा कर रही हैं और साहित्य में उनकी मजबूत दखल को कमजोर करने की रणनीतियों से जूझती दिख रही हैं। 
    यद्धपि स्त्रियों के लेखन को हमेशा घर के भीतर की बात कह कर कमजोर सिद्ध करने की कोशिश की गई। उनके जीवन को अन्य तंत्रों के साथ जोड़ कर नहीं देखा गया। अर्थतंत्र के साथ जोड़ कर कभी उन पर बात नहीं हुई। राजनीति से दूरी और स्वतंत्रता आन्दोलन के समय उनकी राजनीतिक भागीदारी का कोई अलग स्वतंत्र मूल्यांकन नहीं किया गया। उसी तरह लेखन के साथ भी स्त्री की भूमिका को गंभीरता से बहुत देर में लिया गया। लेकिन आज वह लेखन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। उसने स्त्री के सामाजिक सरोकारों की बात उठाई है। स्त्री दृष्टि से, समय, समाज और इतिहास के पुनरमूल्यांकन का प्रयत्न शुरू हो चुका है। तमाम समाजशास्त्री आज समाज के विश्लेषण के लिए स्त्री रचनाकारों की कृतियों का सहारा ले रहे हैं। भारतीय भाषाओं और विदेशी भाषाओं में उनके अनुवाद हो रहे हैं। देश के अनेक विश्वविद्यालयों में स्त्री विमर्श पाठ्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा बन गया है, जिसमें अनेक नए पुराने महिला रचनाकारों की रचनाएं पढ़ाई जा रही हैं। उनकी व्याख्याएं और विश्लेषण हो रहे हैं। हिंदी विद्र्यािर्थयों के लिए शोध के नए क्षेत्रों में अस्मितामूलक विमर्श आज महत्वपूर्ण हो चुका है। यह भविष्य बेहद आशान्वित करता हुआ हमारे सामने है। 
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एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, दिल्ली विष्वविद्यालय, दिल्ली- 7
मो. 9911378341

1 comments:

  1. महिलाओं की सृजनशीलता ने रोशनी के नए क्षितिज खोले हैं निस्सन्देह ।

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