नाम - अनुपमा तिवाड़ी
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शिक्षा - हिंदी व समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर व पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातक.
कार्यरत - पिछले 25 वर्षों से विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर काम करने वाली संस्थाओं में कार्य करती रही हैं, वर्तमान में अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन, राजस्थान में कार्यरत.
रचनाकर्म - अनुपमा की कविताएं और लेख कादम्बिनी, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, मधुरिमा, अनुराग, लोकमत, अमन पथ, अनौपचारिका, विमर्श आदि में प्रकाशित होते रहे हैं
कुछ ई - मेगजींस में लेख और कवितायेँ प्रकाशित हुई हैं.
वर्ष 2011 में बोधि प्रकाशन जयपुर से " आइना भीगता है " प्रथम कविता संग्रह प्रकाशित.
कवि सम्मेलन और आकाशवाणी पर कविता पाठ में भाग लेती रही हैं.
अभी लिखना जारी है ......
अनुपमा तिवाड़ी
07742191212
सपना बुनती औरत
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शिक्षा - हिंदी व समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर व पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातक.
कार्यरत - पिछले 25 वर्षों से विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर काम करने वाली संस्थाओं में कार्य करती रही हैं, वर्तमान में अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन, राजस्थान में कार्यरत.
रचनाकर्म - अनुपमा की कविताएं और लेख कादम्बिनी, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, मधुरिमा, अनुराग, लोकमत, अमन पथ, अनौपचारिका, विमर्श आदि में प्रकाशित होते रहे हैं
कुछ ई - मेगजींस में लेख और कवितायेँ प्रकाशित हुई हैं.
वर्ष 2011 में बोधि प्रकाशन जयपुर से " आइना भीगता है " प्रथम कविता संग्रह प्रकाशित.
कवि सम्मेलन और आकाशवाणी पर कविता पाठ में भाग लेती रही हैं.
अभी लिखना जारी है ......
अनुपमा तिवाड़ी
07742191212
सपना बुनती औरत
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एक औरत
आईने के सामने बैठ
देखती है, अपने को
भरपूर नज़र
से.
ये
खूबसूरती जो उसे आईने में दिख रही है
वो उसके
सपने से बुनी है.
वो ऐसी
खूबसूरती के सपने और, और बुनना चाहती है
वो ऐसी
खूबसूरती के खूब – खूब स्वेटर बुनना चाहती है
जी भर कर
पहनना चाहती है, उन्हें
कभी – कभी
दुनिया में तिरते खूबसूरती के डिज़ाइन उसकी आंखों में आ कर रुक जाते हैं
वो उन
डिजाइनों से फिर नए सपने बुनने लगती है
पर कुछ
हाथ उसकी सलाईयां छीन लेना चाहते हैं
उसकी ऊँन
के गोले को छुपा देना चाहते हैं
जिससे
नहीं बुन सके, वो कोई सपना
कुछ आँखें
कहती हैं, क्या
स्वेटर बुनना ?
‘’बाज़ार में हर तरह का स्वेटर मिलता है,
जाओ और
खरीद लाओ’’
पर वो
जानती है कि,
जो सपना
वो बुनेगी
वो किसी
बाज़ार में नहीं मिलेगा
इसलिए वो
बुनती है, सपने
वो फिर -
फिर बुनेगी सपने
वो एक
नहीं, अनंत
सपने बुनेगी
वो इस
प्रकृति की कला को और आगे ले जाएगी आसमान तक.
वो जानती
है
कि, वो कितनी
खूबसूरत कलाकृति है और
कला ही
कला को गढ़ सकती है .......
मटमैले
हाथ क्या कला रचेंगे ?
वो हाथ
सिर्फ रोक सकते हैं
एक सपना
बुनती औरत को.
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रिश्ते पुर्जे थे
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एक मशीन के पुर्जे ने
दूसरे पुर्जे से कहा
हम मिलें कभी
पर यह प्रस्ताव मैं नहीं रखूंगा
तुम रखना.
कुछ दिन पुर्जे खडकते रहे
अपने - अपने डिब्बे में
वो नहीं मिले कभी
उनके बीच स्नेहक खत्म हो गया था .....
कांच का दिल
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मलमल में लपेट कर रख लिया था
बहुत ही सहेज कर.
उस कांच के दिल को
और बीच - बीच में देखते रहे थे तुम
उसका खाली होना
और भरा होना.
पता है मुझे
तुम बहुत दिन से घूम रहे हो
उसे उठाए - उठाए
पर
जगह नहीं ढूंढ पा रहे हो
उसे रखने के लिए.
चलो, रख दो उसे उठाकर पिछवाडे में
यूँ पुरानी चीजे पिछवाड़े में ही रखी जाती हैं
मौके - बेमौके के लिए !
अपने से परिचय
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चालीस के पार लगाया था
उसने चश्मा
फिर देखा उसने अपने को
उसकी खाल में अभ्रक का चूरा चमकता है
उसके बदन पर पानी की बूँदें ठहर जाती हैं
सारे बादल उसके बालों से हो कर गुज़रे हैं
उसके हाथ कितने मज़बूत हैं
जिन्होंने गिरा दिए हैं
वो दीमक लगे दरवाजे
जो सदियों से खड़े थे
देखने लगी हैं उसकी आँखे,
दिन में सपने
‘हाँ’ दिन के सपने ही तो सच होते हैं
कब जानता है कोई
कि वह क्या आदमी हैं ?
और जब जानने लगता है
वह क्या आदमी है
उसी दिन से बनने लगता है
वह नया आदमी !
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रिश्ते पुर्जे थे
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एक मशीन के पुर्जे ने
दूसरे पुर्जे से कहा
हम मिलें कभी
पर यह प्रस्ताव मैं नहीं रखूंगा
तुम रखना.
कुछ दिन पुर्जे खडकते रहे
अपने - अपने डिब्बे में
वो नहीं मिले कभी
उनके बीच स्नेहक खत्म हो गया था .....
आदमी
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ये जो अपनी पूरी लम्बाई का आदमी
तुम्हें दिखाई दे रहा है
वह पूरा दिखता है
पर पूरा है, नहीं !
वह टूटा है बहुत बार
उसकी लम्बाई बहुत बार छोटी हुई है
वह जब भी वह टूटा है
उसकी आवाज़ खोती गई है
एक कोलाहल में.
अब वह खाली है
उसके अन्दर से झड रहे हैं
अब भी बचे हुए
ऊर्जा के कण
पर, यह आदमी और आदमियों में ऊर्जा भरने का काम
करता है
उससे तुम पूछोगे तो वह कहेगा
कि “वह ऊर्जित कर रहा है ज़रूरतमंदों को”
ये तुम जानते हो कि वह आदमी झूंठ बोल रहा है
पर मजे की बात है
कि तुम भी यही सुनना चाहते हो जो वह कह रहा है
सच सुनना है
तो सुनना
उसकी अँगुलियों को
उसकी आँखों को
उसके दिल को
ये कभी झूंठ नहीं बोलते !
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उस रात तुमने
मलमल में लपेट कर रख लिया था
बहुत ही सहेज कर.
उस कांच के दिल को
और बीच - बीच में देखते रहे थे तुम
उसका खाली होना
और भरा होना.
पता है मुझे
तुम बहुत दिन से घूम रहे हो
उसे उठाए - उठाए
पर
जगह नहीं ढूंढ पा रहे हो
उसे रखने के लिए.
चलो, रख दो उसे उठाकर पिछवाडे में
यूँ पुरानी चीजे पिछवाड़े में ही रखी जाती हैं
मौके - बेमौके के लिए !
जो किनारे पर खड़े हैं .
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जो किनारे पर खड़े हैं
वही सबसे पहले डूबेंगे ।
सबसे पहले उनकी नौकरियाँ जाएँगी
सबसे पहले उन्हीं की बस्तियाँ,
आग के हवाले होंगी ।
सबसे पहले वही विस्थापन के नाम पर
धकेले जाएँगे
यहाँ - वहाँ, वहाँ - यहाँ पर कहीं नहीं।
सबसे पहले उन्हीं की गलतियाँ अक्षम्य होंगीं
सबसे पहले उन्हीं की माँ - बहन बलात्कार की शिकार होंगी
रोंदी जाएँगी, कुचली जाएँगी और अंततः मार दी जाएँगी
ये किनारों पर खड़े आदमी
नहीं डरते हैं,
प्राकृतिक विपदाओं से
नहीं डरते हैं
किसी अज्ञात ताकत से
इन्हें डर है,
आदमी की ताकत का ।
कितना डर है, एक आदमी को, एक आदमी से ।
क्या तुम भी किसी से डरते हो ?
यदि डरते हो
तो वह आदमी नहीं है
जिससे तुम डरते हो ।
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जो किनारे पर खड़े हैं
वही सबसे पहले डूबेंगे ।
सबसे पहले उनकी नौकरियाँ जाएँगी
सबसे पहले उन्हीं की बस्तियाँ,
आग के हवाले होंगी ।
सबसे पहले वही विस्थापन के नाम पर
धकेले जाएँगे
यहाँ - वहाँ, वहाँ - यहाँ पर कहीं नहीं।
सबसे पहले उन्हीं की गलतियाँ अक्षम्य होंगीं
सबसे पहले उन्हीं की माँ - बहन बलात्कार की शिकार होंगी
रोंदी जाएँगी, कुचली जाएँगी और अंततः मार दी जाएँगी
ये किनारों पर खड़े आदमी
नहीं डरते हैं,
प्राकृतिक विपदाओं से
नहीं डरते हैं
किसी अज्ञात ताकत से
इन्हें डर है,
आदमी की ताकत का ।
कितना डर है, एक आदमी को, एक आदमी से ।
क्या तुम भी किसी से डरते हो ?
यदि डरते हो
तो वह आदमी नहीं है
जिससे तुम डरते हो ।
दो और दो का मेल हमेशा, चार कहाँ
होता है ?
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जीरो से सौ तक रेंज होती है
रिश्तों की,
प्यार की,
रंगों की,
भेदभावों की.
इन सब में नहीं होती
स्पष्ट कोई रेखा
इनमें होता है ओवरलैप– सा
इसलिए तुम क्लेम नहीं कर पाते हो असलियत को
कभी – कभी नहीं, बहुत बार.
जीवन गणित नहीं होता
एक और दो के बीच होते हैं
बहुत से धागों के रेशे
जिन्हें तुम पकड़ नहीं पाते हो
पर वो होते हैं ......
अपने से परिचय
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चालीस के पार लगाया था
उसने चश्मा
फिर देखा उसने अपने को
उसकी खाल में अभ्रक का चूरा चमकता है
उसके बदन पर पानी की बूँदें ठहर जाती हैं
सारे बादल उसके बालों से हो कर गुज़रे हैं
उसके हाथ कितने मज़बूत हैं
जिन्होंने गिरा दिए हैं
वो दीमक लगे दरवाजे
जो सदियों से खड़े थे
देखने लगी हैं उसकी आँखे,
दिन में सपने
‘हाँ’ दिन के सपने ही तो सच होते हैं
कब जानता है कोई
कि वह क्या आदमी हैं ?
और जब जानने लगता है
वह क्या आदमी है
उसी दिन से बनने लगता है
वह नया आदमी !
सुन्दर रचनाएँ। सादर।।
ReplyDeleteनई कड़ियाँ : 25 साल का हुआ वर्ल्ड वाइड वेब (WWW)
तुषार जी आपका बहुत आभार !
ReplyDeleteअनुपमा तिवाड़ी
तुषार जी बहुत - बहुत आभार !
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