अल्पना मिश्र
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राजेन्द्र यादव नई कहानी आन्दोलन के एक महत्वपूर्ण स्तंभ तो थे ही, ‘हंस’
की कमान संभाल कर उन्होंने साहित्य संस्कार के बीज छोटे शहरों में भी बो
दिए थे। मुझे भूलता नहीं कि ‘हंस’ के पुनप्र्रकाशन के बाद बस्ती जैसी
छोटी जगह पर भी उसके आने की प्रतीक्षा होती। कुछ लोग ‘हंस’ लेने रेलवे
स्टेशन तक चले जाते। ‘हंस’ से ही मैंने बरबर राव की कविताओं को जाना था।
उनके धारदार संपादकीय- जाति, धर्म, सम्प्रदाय पर बहस छेड़ते ही रहते और
पढ़े जाने के लिए उकसाते। सहमति असहमति के बीच भी पढ़े जाने की ललक और उस
पर जोशो खरोश के साथ की जाने वाली बहसों से निश्चित ही साहित्य में रूचि
रखने वालों का वैचारिक जगत विस्तार पाता था। इसलिए नई कहानी के कहानीकार
रूप में विभिन्न प्रयोगों के बाद संपादक के रूप में भी उन्होंने कम
प्रयोग नहीं किए। असहमति के लिए आमंत्रित करना और उसे सुनने का स्पेस
देना एक लोकतांत्रिक व्यक्तित्व के लिए ही संभव है। हॅलाकि मैं उन्हें
व्यक्तिगत रूप से तब एकदम नहीं जानती थी, बस, एक छोटे से शहर में फैलाई
गई हलचलों के कारण उनकी सक्रियता का और उनके व्यक्तित्व का कुछ अंदाजा कर
लेती थी। अन्यथा आज तो अपनी विरूदावली सुनने से ही लोगों को फुर्सत नहीं
है।
इसीलिए जब 29 अक्टूबर की सुबह राजेन्द्र जी के देहावसान की खबर मिली तो
एकाएक यकीन ही नहीं हुआ। हलचलों से भरी पोटली समेट कर कोई चला गया था
बोलते, बतियाते एकदम अनायास। मनुष्य जीवन भी कैसा है? होता हुआ, नहीं
होने की संभावनाओं से भरा। और राजेन्द्र जी तो होने, न होने दोनों को एक
ही तरह से उड़ाया करते थे। ‘हंस’ में ‘न हन्यते’ काॅलम उन्होंने इसीतरह
का चलाया था। यह भी मैंने पहले नहीं सोचा था जो अब सोच रही हॅू कि 2009
में ‘हंस’ की वार्षिक गोष्ठी में मुझे युवा वर्ग के प्रतिनिधि के तौर पर
बुला कर मुझे उन्होंने एक बड़ा मंच दिया था। जबकि उस समय मैं दिल्ली से
दूर देहरादून में थी और जिन लेखकों को पढ़ा था, उनमें ज्यादातर को चेहरे
से नहीं पहचानती थी। राजेन्द्र जी से भी सिर्फ एक बार मिली थी, अपनी
कहानी लेकर ‘हंस’ कार्यालय गई थी और परिवार ले कर भी। वह कहानी सखेद वापस
आ गई थी। उसके साथ उन्होंने जो नोट्स दिए थे, मैं उससे असहमत थी, और इस
पर उनसे अच्छी किंतु गुमनाम बहस हुई थी। साहित्य धक्के मारता था और मैं
अपने मन का करने पर अड़ी रहती थी। फिर राजेन्द्र जी ने दूर पड़े एक लेखक
को क्यों चुना? क्या राजेन्द्र जी मेरे लेखन पर भरोसा जता रहे थे या कि
मेरे आगे आने वाली चुनौतियों का संकेत दे रहे थे? कुछ ठीक नहीं कह सकती
पर अब ऐसा सोच रही हॅू। दिल्ली आने पर जब भी किसी कार्यक्रम में
राजेन्द्र जी मिलते, कहानी जरूर माॅगते, पर मैं तीन साल तक कोई कहानी
नहीं दे पाई। फिर उन्होंने ‘हंस’ अगस्त अंक के लिए बिना मेरे ‘हाॅ’ किए
ही मेरे नाम की घोषणा कर दी और मुझे फोन करके किसी सख्त जेलर की तरह
तारीख मुकर्रर कर दी। यदि वे ऐसा न करते तो शायद हर बार की तरह इस बार
भी मैं कहानी देने में कुछ और आलस कर जाती। अंततः मैंने अगस्त अंक के लिए
कहानी समय पर दे दी। अगर न दे पाई होती तो आज यह भी एक अफसोस रह जाता। तब
समझ में नहीं आता था, अब इस तरह इन चीजों को देख पा रही हूँ ।
अल्पना मिश्र
एसोसियेट प्रोफेसर , कहानीकार , उपन्यासकार
की कमान संभाल कर उन्होंने साहित्य संस्कार के बीज छोटे शहरों में भी बो
दिए थे। मुझे भूलता नहीं कि ‘हंस’ के पुनप्र्रकाशन के बाद बस्ती जैसी
छोटी जगह पर भी उसके आने की प्रतीक्षा होती। कुछ लोग ‘हंस’ लेने रेलवे
स्टेशन तक चले जाते। ‘हंस’ से ही मैंने बरबर राव की कविताओं को जाना था।
उनके धारदार संपादकीय- जाति, धर्म, सम्प्रदाय पर बहस छेड़ते ही रहते और
पढ़े जाने के लिए उकसाते। सहमति असहमति के बीच भी पढ़े जाने की ललक और उस
पर जोशो खरोश के साथ की जाने वाली बहसों से निश्चित ही साहित्य में रूचि
रखने वालों का वैचारिक जगत विस्तार पाता था। इसलिए नई कहानी के कहानीकार
रूप में विभिन्न प्रयोगों के बाद संपादक के रूप में भी उन्होंने कम
प्रयोग नहीं किए। असहमति के लिए आमंत्रित करना और उसे सुनने का स्पेस
देना एक लोकतांत्रिक व्यक्तित्व के लिए ही संभव है। हॅलाकि मैं उन्हें
व्यक्तिगत रूप से तब एकदम नहीं जानती थी, बस, एक छोटे से शहर में फैलाई
गई हलचलों के कारण उनकी सक्रियता का और उनके व्यक्तित्व का कुछ अंदाजा कर
लेती थी। अन्यथा आज तो अपनी विरूदावली सुनने से ही लोगों को फुर्सत नहीं
है।
इसीलिए जब 29 अक्टूबर की सुबह राजेन्द्र जी के देहावसान की खबर मिली तो
एकाएक यकीन ही नहीं हुआ। हलचलों से भरी पोटली समेट कर कोई चला गया था
बोलते, बतियाते एकदम अनायास। मनुष्य जीवन भी कैसा है? होता हुआ, नहीं
होने की संभावनाओं से भरा। और राजेन्द्र जी तो होने, न होने दोनों को एक
ही तरह से उड़ाया करते थे। ‘हंस’ में ‘न हन्यते’ काॅलम उन्होंने इसीतरह
का चलाया था। यह भी मैंने पहले नहीं सोचा था जो अब सोच रही हॅू कि 2009
में ‘हंस’ की वार्षिक गोष्ठी में मुझे युवा वर्ग के प्रतिनिधि के तौर पर
बुला कर मुझे उन्होंने एक बड़ा मंच दिया था। जबकि उस समय मैं दिल्ली से
दूर देहरादून में थी और जिन लेखकों को पढ़ा था, उनमें ज्यादातर को चेहरे
से नहीं पहचानती थी। राजेन्द्र जी से भी सिर्फ एक बार मिली थी, अपनी
कहानी लेकर ‘हंस’ कार्यालय गई थी और परिवार ले कर भी। वह कहानी सखेद वापस
आ गई थी। उसके साथ उन्होंने जो नोट्स दिए थे, मैं उससे असहमत थी, और इस
पर उनसे अच्छी किंतु गुमनाम बहस हुई थी। साहित्य धक्के मारता था और मैं
अपने मन का करने पर अड़ी रहती थी। फिर राजेन्द्र जी ने दूर पड़े एक लेखक
को क्यों चुना? क्या राजेन्द्र जी मेरे लेखन पर भरोसा जता रहे थे या कि
मेरे आगे आने वाली चुनौतियों का संकेत दे रहे थे? कुछ ठीक नहीं कह सकती
पर अब ऐसा सोच रही हॅू। दिल्ली आने पर जब भी किसी कार्यक्रम में
राजेन्द्र जी मिलते, कहानी जरूर माॅगते, पर मैं तीन साल तक कोई कहानी
नहीं दे पाई। फिर उन्होंने ‘हंस’ अगस्त अंक के लिए बिना मेरे ‘हाॅ’ किए
ही मेरे नाम की घोषणा कर दी और मुझे फोन करके किसी सख्त जेलर की तरह
तारीख मुकर्रर कर दी। यदि वे ऐसा न करते तो शायद हर बार की तरह इस बार
भी मैं कहानी देने में कुछ और आलस कर जाती। अंततः मैंने अगस्त अंक के लिए
कहानी समय पर दे दी। अगर न दे पाई होती तो आज यह भी एक अफसोस रह जाता। तब
समझ में नहीं आता था, अब इस तरह इन चीजों को देख पा रही हूँ ।
अल्पना मिश्र
एसोसियेट प्रोफेसर , कहानीकार , उपन्यासकार
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