Friday, November 22, 2013

सूखी पत्तियों का दर्द - यशवंत यश

यशवंत   यश
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"मैं यशवन्त यश संप्रति संघर्षरत एवं लिखने में रुचि रखता हूँ। जहाँ तक लिखने की बात है मैं 6 वर्ष की उम्र से लिख रहा हूँ.सब से पहली रचना कुछ बेतुकी 4-5 लाइनें थीं जो 28 अप्रैल 1990 को आगरा से प्रकाशित साप्ताहिक 'सप्तदिवा' समाचार पत्र में प्रकाशित हुई थीं। उसके बाद से कागज़ के पन्नों से होता हुआ अब अपने ब्लॉग http://jomeramankahe.blogspot.com पर सक्रिय हूँ। सच कहूँ तो पापा (श्री विजय माथुर) को लिखते देख कर मैंने लिखना सीखा है.वो लेख लिखते रहते थे जो प्रकाशित भी होते थे मेरे मन में आया कि मैं कवितायेँ (वैसे अब मैं अपने लिखे को कविता नहीं ‘पंक्तियाँ’ ही कहता हूँ।) लिखुंगा और उन्होंने मुझे इसके लिये प्रेरित भी किया और आज भी अच्छा लिखने को प्रेरित करते हैं।
मेरे बारे में और विस्तार से इस लिंक पर जान सकते हैं-http://jomeramankahe.blogspot.in/p/blog-page_26.html"






1-

उसने देखे थे सपने

बाबुल के घर के बाहर की

एक नयी दुनिया के

जहां वह

और उसके

उन सपनों का

सजीला राजकुमार

खुशियों के आँगन में

रोज़ झूमते

नयी उमंगों की
अनगिनत लहरों पर

उन काल्पनिक
सपनों का
कटु यथार्थ
अब आने लगा था
उसके सामने
जब उतर कर
फूलों की पालकी से
उसने रखा
अपना पहला कदम
मौत के कुएं की
पहली मंज़िल पर

और एक दिन
थम ही गईं
उसकी
पल पल मुसकाने वाली सांसें.....
दहेज के कटोरे में भरा
मिट्टी के तेल
छ्लक ही गया
उसकी देह पर
और वह
हो गयी स्वाहा
पिछले नवरात्र की
अष्टमी के दिन।


2-

कल सारी रात

चलता रहा जगराता

सामने के पार्क में

लोग दिखाते रहे श्रद्धा

अर्पण करते रहे

अपने भाव

सुगंध,पुष्प और

प्रसाद के साथ

नमन,वंदन

अभिनंदन करते रहे
झूमते रहे
माँ को समर्पित
भजनों-भेंटों की धुन पर ।

मगर किसी ने नहीं सुनी
नजदीक के घर से
बाहर आती
बूढ़ी रुखसाना की
चीत्कार
जो झेल रही थी
साहबज़ादों के कठोर वार
मुरझाए बदन पर ।

कोई नहीं गया
डालने एक नज़र
क्या... क्यों... कैसे...?
न किसी ने जाना
न किसी ने समझा ...
क्योंकि
दूसरे धर्म की
वह माँ नहीं!
औरत नहीं!
देवी नहीं !!

हमारी आस्था
हमारा विश्वास
बस सिकुड़ा रहेगा
अपनी चारदीवारी के भीतर
और हम
पूजते रहेंगे
संगमरमरी मूरत को
चुप्पी की चुनरी ओढ़ी
मुस्कुराती औरत के
साँचे में ढाल कर।



3-
वह देवी नहीं
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सड़क किनारे का मंदिर
सजा हुआ है
फूलों से
महका हुआ है
ख़ुशबुओं से
गूंज रहा है
पैरोडी भजनों से
हाज़िरी लगा रहे हैं जहां
लाल चुनरी ओढ़े
माता के भक्त
जय माता दी के
जयकारों के साथ।

उसी सड़क के
दूसरे किनारे
गंदगी के टापू पर बसी
झोपड़ी के भीतर
नन्ही उमा की
बुखार से तपती
देह
सिमटी हुई है
एक साड़ी से
खुद को ढकती माँ के
आँचल में।

उसकी झोपड़ी के
सामने से
अक्सर निकलते हैं
जुलूस ,पदयात्रा , जयकारे
जोशीले नारे
पर वह
नन्ही उमा !
सिर्फ गरीब की देह है
देवी या कन्या नहीं
जिसे महफूज रखे हैं
आस-पास भिनकते
मच्छरों और मक्खियों की
खून चूसती दुआएं।



4-
दिन भर की थकान के बाद
उस मैदान में
पसरी हुई
हरी घास के
नरम बिस्तर पर
जब वो लेटता है
और देखता है
बंद आँखों के भीतर
चमकती दमकती
दुनिया की रंगीनियाँ
और खुली आँखों से
जब महसूस करता है
ऊंचे पेड़ों से गिरती
सूखी पत्तियों का दर्द
तब अचानक ही
मुस्कुरा देते हैं
उसके मजदूर होंठ
क्योंकि
शून्य के
शिखर पर चढ़ कर
वह
नाप चुका होता है
अनंत की
गहरी खाई को।



5-

आज भर गयी ख्यालों की गुल्लक
तो उसे तोड़ कर देखा
भीतर जमा मुड़ी पर्चियों को
खोल कर देखा
किसी में लिखा था संदेश
आसमान के तारे गिनने का
किसी में लिखा था स्वप्न
अमावस में चाँद के दिखने का
किसी में बना था महल
गरीब के झोपड़ के भीतर
किसी में अनपढ़ पढ़ा रहा था
जीवन के शब्द और अक्षर
अनगिनत इन पर्चियों पर
कल्पना के हर रूप को देखा
आज भर गयी ख्यालों की गुल्लक
तो उसे तोड़ कर देखा।

4 comments:

  1. जन्मदिन का इससे अच्छा उपहार और कुछ हो ही नहीं सकता कि आपने मेरे लिखे को फर्गुदिया पर प्रकाशन के योग्य समझा।
    बहुत बहुत धन्यवाद शोभा मैम। अपना आशीर्वाद यूं ही बनाए रखिएगा।

    सादर

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  2. सभी रचनाएं बहेतरीन .....

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  3. सभी पोस्ट शानदार

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