Friday, November 15, 2013

शेष अवाक है ! -रश्मि प्रभा

रश्मि प्रभा 











शीर्षक से परे

खुद सी लगती है वह खामोश लड़की, 
जो किसी रचनाकार की रेखाओं में होती है  - 
बाह्य बोलता प्रतीत होता है,
अंतर की ख़ामोशी का अनुमान सम्भव नहीं -

अनुमानित श्रृंखला से बहुत दूर रहा मेरा गंतव्य,
बिल्कुल अज्ञात !!!
मैं खुद भी अपरिचित रही उस दिशा से 
जो मेरे आगे क्रमशः 
अचानक खुलते गए 

सामने रहस्य का घुप्प अँधेरा ही नहीं  
चकाचौंध रौशनी के भी स्रोत थे 
जिसमें हर अन्धकार से जूझने की 
लड़ने की 
चाभी रखी थी 
… 
किस ताले की चाभी कौन है 
यह जानने को 
ख़ामोशी को मुखर होना ही पड़ता 
खोज की पदचाप 
वर्तमान की धुन बनती 
अपने को पाने-खोने के क्रम में 
मैंने उस सूक्ष्मता को जाना 
जो क्षण क्षण के रूप में 
मेरे ही भीतर थे !!!
…. 
मेरा एक क्षणिक अस्तित्व रक्तबीज था 
मेरी एक शक्ति दुर्गा 
मेरा एक क्षण विरक्त सिद्धार्थ 
एक समर्पित यशोधरा 
नागयोनी की इच्छाधारी शक्ति 
छल,झूठ,हठ का त्रिकोण 
बेबस भी,समर्थ भी 
कभी ठहरा हुआ पल 
कभी द्रुत गति से भागता समय 
कभी यम 
कभी देव 
संक्षेप में कहूँ 
तो कृष्ण के मुख से निःसृत गीता 
विस्तार में - अनुमानित विचार 
जो रह जाता है अनुत्तरित मंथन 
जन्म से मृत्यु तक  ………………!


ईश्वर का दिया अद्भुत वरदान
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माँ एक करिश्मा है 
ईश्वर का दिया अद्भुत वरदान 
इस वरदान की काया में 
मैं चैतन्य हो गई 
....
माँ सिर्फ पाठशाला नहीं होती 
विद्यार्थी भी होती है 
बच्चे  की जिज्ञासा से भरी किताब से 
वह हर क़दम पर ज्ञान का उजाला पाती है 
....
घर-बाहर- 
प्रतिदिन ....... 
परिवार और समाज से 
पर्याप्त ऑक्सीजन लेकर 
व्याधियुक्त कीटाणुओं से बच्चे का बचाव .... एक डॉक्टर भी नहीं कर पाता !
मैं यानि तुम्हारी माँ -
गुडिया घर से जब बाहर आई 
तो तुम्हें पाया 
और तुमसे मेरी दहलीज़ 
मेरा आँगन 
मेरा बागीचा ...विस्तृत हुआ 
अर्थवान हुआ ....
मैंने मन से लेकर कमरों तक 
दुआओं के लाल धागे बांधे 
नज़र से बचाने के लिए कुछ काले धागे !
हो सकता है मेरे चेहरे में मेरी उपरी बनावट की कमजोरी दिखे 
पर तुमसे बेहतर कोई नहीं समझ सकता 
कि मेरा मन - हिमालय भी है,त्रिवेणी भी,अमरनाथ की  गुफा भी 
संजीवनी भी,विषकन्या भी ....
सही मायनों में 
ईश्वर का तेजस्वी त्रिनेत्र .....!
.....
मैं सूनामी में घिरकर डूब सकती हूँ 
घबराकर चीख सकती हूँ 
पर तुम पर सूनामी की हल्की बूंद भी पड़े 
तो मैं ज्वालामुखी बन सकती हूँ 
अपनी तपिश से एक एक बूंद सूखा सकती हूँ 
नौ महीने का साथ 
रक्त,धड़कन,भय,ख़ुशी .... का अद्भुत मिश्रण है 
जो कहीं भी हो 
समझता है अपने पौधे को 
अपने वृक्ष को ....
तभी तो - मैं चिड़िया बनकर अपनी चहचहाहट से 
तुम्हें गीत सुनाती हूँ 
दुआओं की लोरी बनकर हर रात सर सहलाती हूँ 
और चैतन्य होती जाती हूँ ....


इंतज़ार कैसा ?
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समझौतों के तपते रेगिस्तान में 
सबके चेहरे झुलसे हैं 
अपनों के न्याय की तलाश में 
साँसें दम्मे सी उखड़ी हैं ...... 
कहीं जाकर क्या मिलेगा भला ?
झूठी हँसी हंसने से 
क्या ज़िन्दगी पुख्ता लगती है 
या हो जाती है  ?

बाह्य प्रसाधन प्रचार में ही फर्क लाते हैं 
सूखे बेबस होठ 
जिन्हें पानी की तलाश हो 
उनकी भाषा रंगकर नहीं बदली जा सकती 
जिन आँखों के आगे 
खून की नदी बही हो 
उनमें काजल डाल देने से 
उजबुजाता भय छुप नहीं जाता !
क्यूँ बेवजह भाषणों से उनके दिल दिमाग को रेत रहे 
थोड़ी ज़मीर बची हो 
तो ...... पानी लाओ 
और उनके हाथ तोड़ डालो 
जो बेशर्मी से खून की होली खेलते हैं 
कभी अपनों को जलाकर 
कभी अपनों को काटकर .... 

अखबारी समाचार तो खटाई हो जाते हैं 
मधुमक्खी सी भीड़ जहाँ देखो 
समझ लो 
कोई पीटा जा रहा है 
या कोई मर गया है ....
भीड़ न बचाती है 
न किसी को खबर देती है 
बस मज़े लूटती है 
और अफवाह फैलाती है !

इन अफवाहों में किसी की बेटी अपनी लगी है 
तड़पते शरीर में कोई अपना दिखा है 
पंखे से लटके प्रतिभाशाली लड़के में 
मृत व्यवस्था की दुर्गन्ध आई है 
.... जिस दिन ऐसी घटनाओं से हमारी तुम्हारी नींद उड़ेगी 
रोटी में अवाक लड़की नज़र आएगी 
हल्की हवा में किसी युवा की सिसकी सुनाई देगी 
उस दिन 
परिवर्तन के लिए कोई मशाल नहीं जलाई जाएगी 
ना ही कोई भीड़ होगी 
बल्कि परिवर्तन की आहट अपने अपने दिलों से निकलेगी 
प्यास  बुझेगी 
आँखों में ज़िन्दगी उतरेगी ....

एक बार 
बस एक बार 
खुद को रखो वहाँ 
दिल से सोचो 
दिमाग से काम लो .... 
खुद को खुद की ताकत दो 
क्योंकि मसीहा हमारे ही भीतर है 
वह जब भी आएगा 
अपने भीतर से ही आएगा 
तो ....... इंतज़ार कैसा !


शेष अवाक है !------------------------------

शब्दों में जब कील लगे हों 
तो चुभते हैं 
हथौड़े हों 
तो चोट लगती है 
घिनौने से एहसास लिपटे हों 
तो एक अजीब सी सनसनाहट होती है 
इस अनचाहे दौर में 
किस पर विश्वास करें 
किस सभ्यता 
और किस संस्कार की बातें करें 
!!!!!!!!!!!!!!!!!
नग्नता यूँ खुलेआम परोसी गई है 
कि घर ही नंगा हो गया 
अब गंगा भी क्या नहाये 
गंगा तो रही ही नहीं 
कीचड़ में कमल लगने के एहसास में 
सब के सब दलदल में धंसते जा रहे हैं ...
.......
बात बेटी और बेटे में फर्क की नहीं 
आँगन और दालान के अस्तित्व की है !
परिधान का असर पूरे व्यक्तित्व पर पड़ता है 
और परिधान ही लुप्त है !!
बेटी को आम भाषा में बेटी की तरह इसलिए रखते थे 
कि किसी की विकृत नज़र उस पर ना पड़े 
पर ........... 
ज़िन्दगी फ़िल्मी पर्दे के जैसी हो गई 
गीत के अश्लील,अस्वाभाविक बोल 
मासूम होठों पर थिरकने लगे 
आगे बढ़ने की होड़ में 
किसी भी गाने पर नन्हें बच्चे ठुमके लगाने लगे 
फिर क्या बालिग़,क्या नाबालिग 
फुलभंगे से विचार कीड़े की तरह रेंगने लगे 
.........
पैसे के आगे 
क्या इतने निरीह,बेशर्म हो गए हम 
कि भविष्य के दरवाज़े पर कालिख पोत दी !
जिम्मेदारियों से परे हमने जीना शुरू किया है 
फिर कौन किसे दोष दे रहा 
और क्यूँ?
क्या बराबरी के लिए हमें बेपर्द होना ज़रूरी था ?
मॉल हो,सड़क हो,रेस्तरां हो  ....
हर जगह हमने बुजुर्गों की उपस्थिति को नकार दिया 
बड़े और छोटे के बीच का फर्क मिटा दिया  
........ आह! यह आग हम सबने मिलकर लगाई है 
और यह इतना फ़ैल चुका है 
कि अब आसान नहीं बुझाना 
....
सर पर हाथ रखकर रोने के सिवा 
हमारे पास कुछ भी नहीं 
सरकार हमारी - हमने चुनी है 
विकृति को देख मान्यता हमने दी है 
कम से कम कपड़ों में अपने बच्चों को भीड़ में गुम कर दिया 
अब ............. किसे ढूंढें ?
किसकी दुहाई किसे दें ?
कहाँ दें ?
सबकुछ तो हमने सूखे पत्ते की तरह जला डाला ....

खुद को आधुनिक,उच्च श्रेणी का दिखाने में 
अब किसी के घर में न बेटा है न बेटी 
एक होड़ है 
और होड़ की तबाही है 
शेष अवाक है !



रश्मि प्रभा 
जन्म तिथि - 13 फरवरी , 1958
जन्म स्थान - सीतामढ़ी
शिक्षा- स्नातक (इतिहास प्रतिष्ठा)
भाषाज्ञान-हिंदी,अंग्रेजी
पारिवारिक परिचय
माँ - श्रीमती सरस्वती प्रसाद (कवि पन्त की मानस पुत्री)
पिता - स्वर्गीय रामचंद्र प्रसाद
प्रकाशित कृतियाँ
काव्य-संग्रह: शब्दों का रिश्ता (2010), अनुत्तरित (2011), महाभिनिष्क्रमण से निर्वाण तक (2012), मेरा आत्मचिंतन (2012), एक पल (2012) संपादन:अनमोल संचयन (2010), अनुगूँज (2011), परिक्रमा (2011), एक साँस मेरी (2012), खामोश, खामोशी और हम (2012), वटवृक्ष (साहित्यिक त्रैमासिक एवं दैनिक वेब पत्रिका)-2011 से निरंतर।
ऑडियो-वीडियो संग्रह:कुछ उनके नाम (अमृता प्रीतम-इमरोज के नाम)
सम्मान: परिकल्पना ब्लॉगोत्सव द्वारा वर्ष 2010 की सर्वश्रेष्ठ कवयित्री का सम्मान।
पत्रिका ‘द संडे इंडियन’ द्वारा तैयार हिंदी की 111 लेखिकाओं की सूची में नाम शामिल।
परिकल्पना ब्लॉगर दशक सम्मान - 2003-2012
शमशेर जन्मशती काव्य-सम्मान - 2011
भोजपुरी फीचर फिल्म साई मोरे बाबा की कहानीकार, गीतकार
ई-मेल rasprabha@gmail.com
संपर्क - 9371022446

4 comments:

  1. रश्मि दी की यही खासियत है हर रचना पूरा जैसे जीवन हो …………बहुत ही गहन और उत्कृष्ट होती हैं ………आभार्।

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  2. सभी रचनाएं एक से बढ़कर एक
    समाज को आइना दिखाती बढिया रचनाएं
    बहुत सुंदर

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  3. सभी रचनायें एक से बढ़ कर एक ! एक एक शब्द मन और आत्मा को प्रभावित करता है और कुछ समय के लिये चेतना को स्तब्ध ज़रूर कर देता है लेकिन अगले ही पल उसे झकझोर कर जगा भी देता है ! इतनी सशक्त रचनाओं के लिये बधाई स्वीकार करें रश्मिप्रभा जी !

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  4. तुम पर सूनामी की हल्की बूंद भी पड़े
    तो मैं ज्वालामुखी बन सकती हूँ
    अपनी तपिश से एक एक बूंद सूखा सकती हूँ
    नौ महीने का साथ
    रक्त,धड़कन,भय,ख़ुशी .... का अद्भुत मिश्रण है
    जो कहीं भी हो
    समझता है अपने पौधे को
    अपने वृक्ष को ....
    ... सभी रचनाएँ उत्‍कृष्‍ट, नि:शब्‍द करती पंक्तियां

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