"घर यूं तो एक छोटी सी स्पेस दिखाई देती है और घरेलू काम एक ऐसी जिम्मेदारी जिसका अहसानमंद घर का कोई सदस्य नहीं होता । अक्सर घर की चहारदीवारी के भीतर पलने पनपने वाले तनाव, घर के सभी सदस्यों की ज़रूरतों को समय पर पूरा करने का दायित्व-बोध एक कामकाजी महिला का पूरा समय लील लेता है । वह प्रतिभावान हो तो इन दायित्वों के अंबार तले उसकी प्रतिभा के स्फुलिंग कहीं दबे रह जाते हैं । एक महिला उन्हें कुरेदने और तलाशने की कोशिश भी नहीं करती । पर अन्ततः जब सारी ज़िम्मेदारियां निबट जाती हैं और अपनी अस्मिता सर उठाने लगती है तो वह दबी हुई चिनगारी की चमक धीरे धीरे अपनी लौ तेज करती है ।
‘‘ कुरेदते हो जो अब राख ....‘‘
सुधा अरोड़ा
राख में दबी चिनगारी -आत्म कथ्य
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हम कभी बीतते नहीं हैं ......
सुदर्शन प्रियदर्शिनी
मेरा यह आत्म कथ्य मेरे लिए अग्नि परीक्षा थी क्यों कि मैं कभी सोच भी नही सकती थी कि मैं कभी अपना आत्मकथ्य लिखूंगी या मेरे कथ्य का कोई महत्व हो सकता है . जो ऊँचाई आत्म कथ्य की नींव होनी चाहिए, जिसे देखने के लिए कोई ऊँची-गर्दन कर ऊंचा हो , वह मुझ में कहाँ . आत्म कथ्य की ऊँचाई उपलब्धियों के पायों पर खड़ी होती है , मेरे पास जिस का शायद एक पाया भी नही है , पर सुधा (अरोड़ा) जी ने न जाने कैसे मुझे उत्साहित कर -कर के मुझे पायों पर खड़ा कर दिया और मैं अंदर से डगमगाती -घूमती , जैसे-तैसे इस कथ्य को खड़ा कर पाई . यह सुधाजी के आग्रह ,स्नेह और उत्साह की ठोक थी जिस ने अपनी थपथपाहट से एक कच्चे घड़े की मांद भर दी . यों भी उन से बात कर के हमेशा लगता है जैसे मैं खुद अपने से बतिया रही हूँ .
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इस कथ्य को बचपन की उन अर्धोन्मीलित आँखों से देखू तो आज भी घर की तीसरी मंजिल की छत पर खड़ी होकर दूर - बहुत सारा शोर , आग की लपटे और छतों पर सोये हुए लोगों की उठा-पटक मेरी उन निंदियाई आँखों को फिर से मटियाला कर देती है . पिछवाड़े में फुस हो गया बम और घर के लोगों की आपसी फुसफुसाहट से उस दहशत का अनुमान लगाया जा सकता है जो सायास मेरी बचपन की मासूमियत से छिपा कर रखने का प्रयास होता था . आज उस का विकसित रूप मेरे सामने है . मनुष्य का एक संकीर्ण , साम्प्रदायिक , स्वार्थ और अहम से पिटा हुआ रूप जो आज भी सरहदों पर कराह रहा है . क्या ये सब कभी मुझ में से बीत सकता है ! न बीतता है , न रीतता है .
हम कभी बीतते नही हैं ! बीतना कभी अतीत नही होता ! उल्टा वह कहीं अंदर ही अंदर वर्तमान बन कर किसी कोने में सुलगता रहता है . हमें न जीने देता है न मरने . हम उस बीतने की जुगाली करते करते , अतीत को अतीत की तरह दफन नही कर पाते और हमारे वर्तमान को उसी का ग्रहण लगा रहता है . उस की चुभलाहट हमें एक अन्यतम सुख भी देती है ...चाहे उस के नीचे कही पीड़ा के अम्बार लगे हों .
मैंने गलत को गलत कहा तो बाहर हो गई . प्यार को केवल प्यार समझा और किया तो अलग हो गई . दो दूनी पांच नहीं , दो दूनी चार का ही पहाड़ा पढ़ा - तो बेदखल कर दी गई . जो जैसा था उसे वैसा ही समझने की भूल हो गई . इस लिए आज परकटे क्रौंच की तरह कहीं कोने में बदबदा रही हूँ . अधमरे पंख बीच-बीच में फडफडाते हैं पर उड़ नही पाते . कभी कभी भीड़ घेरती है और इंतजार करती है कि कब पंखों का फडफडाना बंद हो और उसे उठा कर बाहर फेंक दिया जाय और कोने को साफ-सुथरा कर के , दो दूनी पांच का पहाडा उस पर बिठा दिया जाय .
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जन्म लाहौर में . बचपन बीता शिमला में . पिता की सरकारी नौकरी घुमाती रही - शहर दर शहर . पांच साल ग्वालियर (मध्य-प्रदेश ) में बिताये . फिर वापसी हुई . दो एक साल बीच अंतराल के बीते अम्बाला में और फिर स्थायी रूप में चंडीगढ़ . सन् 1958 से ले कर आज तक. यही पडाव रहा . बीच में जमीनों के टुकडे़ हुए - एक पंजाब , हरियाणा और हिमाचल बन गया और चण्डीगढ़ उस सब से बाहर अपने केंद्रीय अस्तित्व को ले कर अपने घर-घाट से बाहर हो गया. उसी तरह मैं भी अपनी नौकरी और शादी के चक्कर में खानाबदोशी का जामा पहन कभी धर्मशाला, कभी लुधियाना , कभी चम्बा , नाला गढ़ , सोलन -- घर और बसेरे बदलती रही . अंतत देश निकाला मिला सन् 1982 में . यह बनवास अब तक जारी है और अब तो शायद आखिरी सांस तक रहेगा .
अपने बारे में कहना या बतियाना मुझे कभी नही रुचा , और सच बताऊं तो कुछ बताने लायक है भी नही . अनाम - गुमनाम जिन्दगी बितायी है ! इतने वर्ष अपने आप से भी छुपती रही हूँ . परिस्थितयों से समझौता करती . उनके सामने घुटने टेकती . अपनी डिग्री , अपने अनुराग , अपनी प्राथमिकतायें छुपाती ! अपने-आप से भागती रही हूँ . पच्चीस साल की ये भाग-दौड अब अचानक ठहर गयी है . यह भाग मुझे ही लताडती और निगलती रही है .अपने आप की पहचान को दबा कर रखा . सायास कहिये या विवशता या मूर्खता . पर अब पिछले पांच -छह सालों से अपने सपनों को धूप दिखाने लगी हूँ . और यह धूप दिखाना बहुत अच्छा लगता है . सच !
पर अंदर ही अंदर सालती है अपनी मिटटी की याद . सब कुछ है यहाँ - जिसे दुनियाई पूर्णता कह सकते हैं . पर मेरे मन की धर्मशाला और चेरापूंजी यहाँ चाय नही उगा सकती थी . मेरे रेगिस्तानी रेह्टों की रुनझुन -राजस्थानी संगीत पैदा नही कर सकती थी . इस नये नक्शे की लकीरें , मेरा अपना भूगोल नही बना सकती थी . मैंने नक्शे की राजधानियां नही बदलीं , केवल घर की चैखट नापती रह गई . यहाँ त्रिवेणी की रहस्यमयी तरंगों का निमंत्रण नहीं था , न रामेश्वरम का सूर्योदय या सूर्यास्त . बड़े बड़े समुद्रों में बेड़े की तरह डूबने वाला सूरज तो था पर मेरे देश की सी पौ फटने की लाली नही थी . यहाँ दूरन्दाज घरों में सिमटे हुए बच्चे थे , उन का संयमित व्यवहार - मां - पिता की औपचारिकताएं , सभ्यता की ओढ़नी थी पर वह तख्त पोश के सामने वाली कुर्सी पर बैठी माँ का ममता की जुगाली करता हुआ आग्रह नहीं था जो पूछ रहा था ...
क्यों जा रहे हो !
कब तक लौटोगे !
इन प्रश्नों के जवाब पाए बिना ही , वे सल्तनते ढह गई और मैं यहाँ त्वरा में बंधी , मशीनों से चालित दिनचर्या में चार पहियों वाले हिंडोले में दिन भर झूलती व्यस्त रहती . इधर से उधर . उधर से इधर . ऐसा लगता है कि एक रोशनी की लकीर होती है जिसे हम आप ही मुट्ठी में बांध कर , ढक कर अनदेखा कर देते हैं , जब तक मुट्ठी खुलती है वह रोशनी मर चुकी होती है .
बचपन में जाऊं तो लगता है कितनी जल्दी हम अपने निर्णय - निर्णीत कर लेते हैं . आज तक यही लगा कि हमारी माँ ने हमें कभी हमें प्यार नहीं किया . कितना बड़ा आरोप है -जो शायद परोक्ष अपरोक्ष रूप में उन तक भी पहुंचा होगा और उन का दिल भी कितना दुखा होगा ! बकरे का सर गया और खाने वाले को स्वाद भी नही आया - जैसा !
आज सोचती हूँ तो लगता है कैसे करती वह प्यार या उसे जता भी कैसे पाती . घर में नौ बच्चे अपने , फिर चाचा-चाची के बच्चे , पास-पड़ोस के बच्चे , जिन का आधा लालन-पालन उसी एक आंगन में होता था . उस पर घर , बीमार सास , ससुर , ननद-देवर , ये सब मांगने वाले रिश्ते - देने वाला कोई नही . उन सब के साथ या अपने से प्यार करना - पति से प्यार करना ..आखिर कितना प्यार हो -जो बांटा जा सके . फिर सब का अधिकार -सब की डांट -फटकार, उपेक्षा, जरूरतें. इन सब के बीच कहीं एक भी कृपा दृष्टि बरसाने वाला कोई नहीं , बांहों में भरने वाला नहीं . पिता का स्वरूप सामने आता है तो माँ के सन्दर्भ में एक अभिमानी-उन्नत सा अलग थलग व्यक्ति . वह कैसा प्यार करते होंगे . वही रात के नियमित रोला-रोली , दैहिक उछाड- पछाड और फिर सिरहाने-पैताने , सृष्टि-निर्माण करने वाला प्यार . नोचने-खसोटने वाला अहसान भरा मनुहार ! दही-बिलोने जैसा , मधानी-पिरोने जैसा प्यार ....मक्खन निकाला और छोड़ दिया ! इस लिए प्यार नाम की चीज हमें नहीं मिली ! नदी थी , तट था , पर मछेरे वाला जाल नहीं था जो पकड़ कर अपने जाल में लपेटता और जिबह करने से पहले दुलराता . यहाँ मछेरा स्वयं रोज जिबह होता था.
हाँ , माँ को इन सब के बीच भी एक चीज से प्यार था ! बेहद प्यार ! कह सकते हैं घर से नहीं, घर से नहीं - घर की करीनगी से ! माँ के लिए चीजों का नियमित होना , अलमारिओं के बीच रखे सामान की एक तरतीबी , एक विशिष्ट दिशा - दशा , एक सार्वभौम दृश्य , एक दैविक स्वच्छता जैसा झिलमिल सितारों सी झलक जैसा सलीका ! यही झलक थी जो उन की आँखों में चमक और चेहरे पर स्मित-भरी सकून की लाली छिडक देती थी .
पिता के व्यक्तित्व की ऊँचाई आज भी एक हौव्वा बन कर रातों को जगा जाती है . दिन भर एक डर सा समाया रहता है . जैसे आज भी कहीं से निकल कर हमें पकड़ कर झिंझोड़ देंगे और डांट कर कहेंगे - यह क्या किया ! यह क्यों किया ! आज भी कोई काम करने से पहले उन का बुलंदियों सा ऊँचा व्यक्तित्व , चारों तरफ से घेर लेता है . उन की दी हुई हिदायतें , अनुशासन और अपने अहम को मार कर जीने की आदत आज भी अपने आप में सहेज कर रखती है .
इन्ही सब विरोधाभासों में कही लिखने का शौक पैदा हो गया जो दबे पांव आया और धीरे-धीरे जैसे गले की घंटी बन गया . अब तो वह मेरे ब्रह्मांड में नगाड़ों की तरह गूंजता है . जैसे वह मेरी साँस है . घर में कहीं कोई वातावरण नहीं , किताबें या मैगजीन नहीं - ले दे कर कोर्स की किताबे और उन्ही की तहों में कहानी ,उपन्यास पढ़े जाते . जिस का पता कभी किसी को नही चला क्यों कि अज्ञानता थी . बस पढाई की आड़ में अन्यथा पढना चलता रहा . यह अपने आप से रोमांस करने जैसा था और यह रोमांस खूब चला . इसी रोमांस के तहत महादेवी , सुमित्रानंदन पन्त , जयशंकर प्रसाद , निराला , अमृता प्रीतम ( जिन से परिचय ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान ‘ के माध्यम से हुआ ). स्कूल , कालिज की लाइब्रेरी ने बहुत हाथ बटाया . मैं तो एक अदृश्य कल्पना लोक में डूबी रहती - अंगीठी पर उबलता दूध उफनता. तवे की रोटी जलती , पानी का गिलास हाथ में लिए मुंह बाये खड़ी रहती ( भूल जाती कि किस के लिए है ) और कई बार तो घर आते - आते रास्ता भूल जाती जब होश आता तब बीच सडक पर खड़े हो कर अपने आप को झिंझोडती या चुटकी काटती कि कहाँ हूँ और जोड़-तोड़ कर रास्ता बनाती और घर पहुंचती और फिर देहरी पर तकरार -
कहाँ गयी थी ?
इतना क्या काम था जो इतनी देरी हुई ?
वह समय ऐसे तिरोहित हो गया जैसे कभी घटा ही नहीं . पन्ने पर लिखी मैजिक इबारत की तरह . जिन्दगी जैसे एक स्लेट हो , लिखो और मिटा दो . पर स्लेट - मैली हो ही जाती है और यह तो रहता ही है कि स्लेट अब कोरी नहीं है . धुंधलके की तरह कुछ मिचमिचा सा कहीं कौंधता तो रहता ही है . यों सोचा जाय तो तीन बच्चे जन कर चालीस साल की जिन्दगी बिता कर कोई कुछ पलों में सब कुछ ताक पर रख कर भूल जाय -- अजीब है न ! पर कभी कभी सर्दी के दिनों में जब सुबह उठती हूँ तो कमर कसमसा कर जैसे चीख पडती है तब लगता है शायद उस तरफ की रजाई उघडी रह गई है पर नहीं - वह तो पन्द्रह साल पहले की कोई निशानी चरमरा उठी है जिस का पटाक्षेप हो चुका है . कभी कभी कोई कमी ही उसे याद दिलाती है नहीं तो क्या याद करें उन कच्चीच दीवारों को जो कभी- कभी भरभरा कर अपने में दबोच लेती हैं, धराशायी कर देती हैं -- छलनी करने की हद तक - पर फिर भी जब वह सब बच्चों द्वारा ,या कभी परायी लडकी के हाथों दुहराया जाय तो जरा ज्यादा ही दुखता है .
जब यहाँ क्लीवलैंड , अमेरिका में आई तो लगा कि किसी गलत स्टेशन पर उतर गई हूँ जहाँ का कोई रास्ता पहचाना हुआ नही है . जहाँ कोई व्यक्ति जानने वाला नही है और गाडी जा चुकी है ! जो कुछ था उस गाड़ी में चला गया . अब कैसे लौटाऊ अपनी गाड़ी - कैसे लौटू घर या आगे कहाँ जाऊ और कैसे जीऊं- मन की दीवारों पर जो टंगा था किसी ने बड़े लाघव से उतार लिया था . तब जैसे-तैसे अपने आप को उठाया और अपने ही गोद में प्यार से सहला कर बिठाया और अपने आप को दिलासा दिया कि इन्हीं दीवारों के बीच घर बनाना होगा , इन को ही आबाद क्ररना होगा .
मुझे दुनियावी बातों से हमेशा वितृष्णा सी रही है . पैसे की बात होती तब , रिश्तों की बात होती तब , जैसे लगता था कि क्यों लोग बेजा की बातों पर अपनी शक्ति खर्च कर रहे है . उन सब बातों का आखिर वजूद क्या है ? महात्मा बुद्ध का प्रभाव पड़ा बहुत गहरे से - याद नही ठीक से कोई नाटक था ‘‘सिद्धार्थ’’ उस में शायद भाग भी लिया था - या कहीं बचपन में जुडी थी उस के साथ और एक दार्शनिकता सी घुल -मिल गई मेरे व्यक्तित्व में . इसी लिए मैंने जीवन कभी लिप्त होकर नही जिया . जितना जो है -ठीक है . शिकायत नही होती -अपने कर्मों पर ध्यान ज्यादा जाता है . आत्म -विशलेष्ण पर दृष्टि अधिक केन्द्रित होती है . पर सौंदर्य, सम्वेदना, सोहार्द और स्नेह मुझे बाँध लेते हैं . जहाँ भी हो , मैं दोनों हाथों बटोरने पहुंच जाती हूँ . इसी लिए मैं अपनी पहली कवितायों की प्रेरणा अपनी एक टीचर को मानती हूँ . जिस का शायद नाम था गुरप्रीत - बेहद खूबसूरत , छरहरी , गंभीर आँखों वाली , अनूठा व्यक्तित्व , अपनापन और पढ़ाने का एक अलग ही अंदाज . मैं तो एकटक उसे देखती रहती . उस समय मैं अपने ननिहाल के शहर आगरा में शायद छठी या सातवीं क्लास में थी . ग्वालियर पहुचने से पहले का अस्थायी पड़ाव था यह . गुरप्रीत जी ने मेरे अंदर उड़ेली महादेवी - कह दे माँ अब क्या देखू .- मै नीर भरी दुःख की बदली . इन पंक्तियों ने मेरी कोख में सर्जना की बीजों को खाद-पानी दिया .
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मेरे अंदर एक मंदोदरी रोती है . सीता अपनी सम्वेदना में कराहती है . अहिल्या का पत्थर हो जाना प्रश्न पूछता है . यशोधरा का परित्यक्त होना बिसूरता है . नारी को इंसान कब समझा जायगा ? . टुकडो में नही - सम्पूर्ण नारी के रूप में . उस के सम्पूर्ण देवी गुणों को स्वीकारते हुए .मेरी आँखों में आज भी एक दृश्य जिन्दा है - उस आग की लपटें - एक बिजली की तरह लरजती हुयी मेरी आँख के सामने है . वह अंदर से बाहर की ओर भागी थी . अपने आप को आग के हवाले करती हुयी . वह मर जाना चाहती थी - पर आस पास वालों ने उसे लपेट कर बांध लिया . उसे बचा लिया . उस का पति एक तंत्र -मन्त्र विद्या जानने वाला योगी का धूर्त रूप था जो भोली भाली लडकियों को अपनी कोठरी में बुलाता और मनमानियां करता . वह देखती थी और बिसूरती थी पर एक दिन उस ने अपनी चेतना को ताला लगा कर स्वयं को खत्म करने की ठान ली . उस दिन से मेरे अंदर नारी और पुरुष के बीच के समुन्दरों ने घर कर लिया . वे दो किनारे हो गये . एक ही मझधार के दो किनारे - जो मिलते हैं तो कहीं बीच में - पर उन की नियति अलग-अलग है . वह साथ रहते हैं तो समुद्र खत्म हो जाता है - संवेदना , सौहार्द और प्यार -सब कुछ उम्र भर दांव पर लगा रहता है .
नारी की दैवी प्रदत दैहिक - दुर्बलताएं ही उस की सारी हार की उत्तरदायी हैं . यो तो वह पुरुष से कहीं अधिक सशक्त और साहसी है . पुरुष जितना कमजोर प्राणी इस ब्रहामंड में दूसरा नही है . उस की अपनी हीनताएं ही उसे उतेजित करती हैं और वह उस के वशीभूत होकर अपने शारीरिक बल को प्रदर्शित करता रहता है . मैंने स्त्री को हमेशा अभिशप्त एवं त्रस्त ही देखा . यहाँ आकर भी मैंने देखा नारी पिसती है . यों अपनी आजादी की झोंक में उस ने अपने आप को कुत्ते की बोटी बना कर पुरुष के समक्ष डाल दिया है . पर उस की अस्मिता ,उस की पवित्रता पैरो तले सरे आम रूंधती है . आज यही स्वतन्त्रता भारत को भी लील रही है - नंगा होना स्वतन्त्रता नहीं है . आज इसी स्वतंत्रता की झोंक में स्त्री और पुरुष भूल रहे हैं कि वे एक दूसरे के पूरक हैं - अर्धांग है . अगर संसार का काम एक ही प्रकार की योनि से चल जाता तो ऊपर वाला कभी दो योनियाँ नही बनाता.
इस लिए दोनों की अपनी सीमाएं है , कर्तव्य है . पर दोनों बराबर हैं . कम या ज्यादा , ऊपर या नीचे नही है . यह सारी आजादी बेमानी है . बाहरी है ! यह ओढी हुई नई तरह की आजादी उस के अंदर बसी हुई सदियों से घर में घुसी हुई औरत को पुरुष की दास बनाने और बना कर रखने की मानसिकता को नही बदल सकती .
भारत में , अपने एक सम्भ्रांत , शिक्षित प्राध्यापिका के सम्मान जनक ओहदे को छोड़ कर घरेलू हो जाना आज भी मुझे सालता है . पांच-पांच नौकरों को तड़का लगा कर एक सुदर्शन प्रियदर्शिनी नाम की खिचड़ी बन जाये तो कैसा लगेगा ! नई नई अपेक्षाएं जो पहरावे से लेकर व्यक्तित्व तक को चुनौती देती आत्मा पर ठक -ठक पत्थरों सी बजेगी तो चोट तो लगेगी ही न . पंजाबी में एक कहावत है - ‘ जो सुख छज्जू के चैबारे , वह न बलख , न बुखारे ’ . अपना देश जैसा भी है आज भी सोंधी खुशबू भरी रात की रानी सा अंदर महकता है और कहीं जिन्दा रहने में सहायक बनता है . पर आज वहाँ की बदलती और गर्त में गिरती संस्कृति , पश्चिमी सभ्यता के रंगो में रंगती अपने मान्यताओं की मिटटी पलीद करती रग-रग में बसी भ्रष्ठाचारिता , झूट , फरेब , चालाकी भी अंदर तक कोंचती है . आत्मा को बड़ी पीड़ा पहुंचती है . तीस साल पहले छोड़ा हुआ भारत चाहे स्वर्ग न हो पर आज जैसा नरकासुर का नर्क भी न था . फिर भी माँ है - धरती माँ - गाली भी देगी तो माँ ही रहेगी . ऐसे में कविता एक सावन की घटा बन कर या खालिस उपचार (मलहम ) बन कर सहला जाती है . पर यह सहलाना भी लगभग 25 साल तक हर रोज टलता रहा . यहाँ की परिस्थितियों की जूझ में खो जाना ही मेरी नियति थी . जब आप जीवन के संघर्ष में डूूब जाते है तो कभी कभी अपने वजूद के अस्तित्व को भी भूल जाते हैं . और यही हुआ . एक नई दुनिया , नया वातावरण और सम्बन्धों के बदलते तेवरों ने ऐसी चक्कर-घिन्नी में डाल दिया कि तकली पर रखी रुई का फाहा बन कर घूम - घूम कर कुछ और ही बन गई . मैं रुई से धागा बनने की स्थिति में पहुंच गई . सुबह से शाम तक क्लीवलैंड की सडकों पर इधर से उधर किसी को छोड़ , किसी को पकड़ , बस बच्चों की दिनचर्या के लट्टू का धागा बन कर कार नुमा चैपाये पर भटकती रही . सुबह से शाम मेरे पड़ावों के बस शीर्षक ही बदलते रहे .
इस सब के बीच अपने से कभी कोई बात नही हो पाई . कभी रसोई की ठक -ठक, रिश्तों की तरेड , उधेड़-बुन , प्रोफेशनल से घरेलू हो जाने की अपेक्षायों पर खरा उतरने की कशमकश में अपने आप को कोसना चलता रहा .जब कभी स्थिरता के क्षण मिले तो इस पश्चाताप में बदल गये कि बच्चों का बचपन छिन गया है . इसके साथ साथ अपने से अपनी जवानी , आकांक्षाये और न जाने क्या-क्या पिछली गली से मोड़ मुड गये हैं . बच्चो की पनपती उम्र में न उन्होंने होली खेली , न पतंग उडाई , न गली में गिल्लील-डंडा खेला , न साथियों से लड़े-झगड़े और न कंचों की कंचनता ही उन का खेल बनी . हो सकता है यह मेरी ही सोच हो और बच्चे ऐसा न सोचते हों . और मैं ही इस नई होड़ में , नई तिकडम बाजियां , टेनिस ,फुटबॉल और शतरंज के खेलों में खुद को न ढाल सकी होऊं , पर इस सब के बीच में स्वयं को हारी हुई असफल करारती चली गई और आज भी यही करती हूँ . मैं न अच्छी माँ बन सकी , न सहिंदड ( सहती चली जाने वाली ) , आज्ञाकारिणी पत्नी । न सामाजिकता से भरपूर स्त्रीं और न ही सफल लेखिका . बच्चो को अच्छा भविष्य देने की झोंक में या अपनी महत्वांकांक्षाओं की पतंग उड़ाने की होड़ में कहीं उन्हीं के साथ इतना बड़ा अन्याय कर डाला. बच्चों की अल्हड़ता , बेबाकपन और चंचलता असमय ही तिरोहित हो कर एक सजग प्रौढता बन गई . अब वे एक ठहरी हुई संचित सभ्यता के रंग में रंग चुके हैं . जिस में आज प्राकृतिकता कम और ओढा हुआ परायापन ज्यादा है . ऐसे में सृजनशीलता किस दीवार से सर फोडती . काश ! यह सारी उठापटक सृजनशीलता की उर्जा बन जाती . विवशताएं चुप्पी साध लेती हैं , और लोग समझते है किनारे टूट गये हैं . यही मेरी नियति थी और अन्ततः मैंने इसे स्वीकार कर लिया.
यह नहीं कि इस सब से कहीं दुःख नही व्यापता . व्यापता है बलिक दूसरों से कुछ ज्यादा ही व्यापता है और इस दुखने वाली प्रवृति के हित वह दुःख मुझे अतीन्द्रिय बना देता है . यों भी जोर जोर से दुखों का ऐलान सुन कर कौन आता है . हर इंसान का अपना दुःख होता है जिसे वह स्वयं ही सहलाता या दुलराता है . इसे बाँट कर हम हल्के होते हैं . इसी बाँट के लिए मैंने आज फिर से अपनी कलम को चुना है . कलम का यह संबल बिल्कुल उस तूफानी रात के बाद झंझावत में शांत होने जैसा है जो अपना हाथ स्वआयं पकड़ कर नाव को किनारे ले जाता है . इसी लिए पात्रो में जो दार्शनिकता झलकती है वह कहीं मेरी ही है . अपनी मान्यताओं को इतर - दिशा देने से पहले मुझे अपने आप से जूझना पड़ता है .एक लड़ाई लडनी पडती है - अपने मान्यतायों के विरुद्ध जाने के लिए - जिन खाईयों को लांघना होता है - शायद मुझ में वैसा साहस नही है .
पहले पहल जब अमेरिका में आई तो अपने ओहदे और हिंदी का भूत सवार था . इसी झोंक में मैंने यहाँ अंतराष्ट्रीय हिंदी समिति की स्थापना की . यह बात 1983-84 की है . कुछ कवियों को भारत से बुला कर मंच दिया . कवि सम्मेलन करवाए . सफलता और प्रशंसा भी मिली . कुछ महत्वाकांक्षी बुजुर्गवार जो स्वयम साहित्यकार थे जिन्हें मैंने ही उच्च पद पर बिठा कर उन्हें आदर एवं प्रश्रय दिया था , उन्होंने ही पीठ में छुरा घोपने का काम कर के मुझे अपदस्थ भी किया . साहित्य के रेगिस्तान में साहित्य की स्थापना से मिली निराशा से मोहभंग हुआ और मैंने एक स्वतंत्र कम्पनी बना कर यहाँ की स्थितियों को देखते हुए ,यहाँ के बच्चों की भाषा और संस्कृति के प्रति अनभिज्ञता को समझ पहचान कर टी.वी एवम रेडियो प्रोग्राम शुरू किये .एक सांस्कृतिक पत्रिका - ‘’ फ्रेंगरेंस’’ भी निकाली . फिल्मी संगीत के कार्यक्रम , यहाँ तक कि फिल्मों का प्रदर्शन भी किया जिस से आम जनता और उन के बच्चे जुड़ सकंे और उन की अधिक से अधिक अँग्रेजी दां बनने की होड़ को भी नई दिशा मिल सके . हुआ यह कि कुछ ही वर्षों में क्लीवलैंड जैसे छोटे शहर में लोग और उन के बच्चे हिंदी समझने और बोलने लगे . छोटे - छोटे बच्चों की भी भारतीय संगीत में रुचि बढ़ी . उन्होंने अपने देश की एक नई अनोखी तस्वीर देखी . अब तक वे भारत की वही तस्वीर देखते आये थे जो विदेशी चैनलों पर दिखाई जाती थी - झोपड़-पट्टी , वैश्यालय और गंदगी . अपने देश की कुछ महिला फिल्म कारों ने भी ऐसी फिल्में बना कर उस में अलग से समिधा ही डाली .
फिल्मी जगत की कई नामी हस्तिया अपना संगीत , नाटक और नृत्य जैसे हुनर लेकर आई जिन्हें मैं मंच दे सकी . जैसे हेमा मालिनी का रामायण नाट्य नृत्य , अनुपम खेर , परेश रावल , जया भादुड़ी , अमरीश पुरी और नसीरूदीन शाह आदि के नाटक , पंकज उधास , जगजीत सिंह , गुलाम अली , मेहदी हसन , एवम आशा भोंसले आदि के विविध संगीत को यहाँ प्रस्तुत किया और लोगों को अपने कल्चर और संगीत की सार्वभौमिकता से परिचित करवाया .लोगो से अधिक मुझे स्वयम संतोष होता था जब में उन्हें घर बुला कर खाना - खिलाती और गजल-कविता सुनती सुनाती . अपनी जिन्दगी के शुरूआती पच्चीस साल मैंने इस में लगा दिए . अब मेरा वह मिशन पूरा हो गया है और मैंने कम्पनी बंद कर दी है और अपने आप को पूरी तरह साहित्य साधना में लगा दिया है .
जिन्दगी की इस नई घटाटोप और सघन-बादलों के अँधेरे में लगभग पच्चीस लम्बे अन्तराल तक मैंने कुछ नही लिखा . पर एक हैरतअंगेज नजर से अपने महल की टूटती दीवारे देखी . अपने अस्तित्व के धरातल की फटती बिवाइयां महसूस कीं . मोटी- मोटी दरारें देखी , जो रोज जिन्दगी के कोनों में तिडक रही थी . मान्यताएं , संस्कार और व्यक्तित्व की भव्यता को छिन-भिन्न बिखरते देखा . उन्ही दिनों घर के पहिये पटरी से उतर रहे थे . रास्ते बंद हो रहे थे . सौहार्द , समझ और स्नेह के मुंह पर ताला लग गया था . घर के व्योम को ग्रहण लग गया था । आकाश भुरभुराने लगा था . इस नयी दुनिया में अपनी परिपक्व आँखे खोल कर देखते हुए वह कितना चुन्धियाई और अंधियाई , यह तो केवल अनुभव की बात है . फिर टटोल कर उसी उच्छिटित में से अपने लिए लिए कुछ सूत्र निकाले जिन्हें सेतु मान कर , रस्सी की तरह पकड़ कर जिया जा सकता है और उस के साथ दूसरों को भी बांधा जा सकता है पर बांधना ही छुटकारे की वजह बनता चला जाता है और बन गया . उस टूटन का प्रभाव तो स्वतः दबे पाँव रचनाओं में चला आता है - सुनने या गुनने के लिए उस के पाँव में घंटी नही बांधनी पडती . वह घंटी नगाड़े सी गूंजती है . वह लुहार की हथौड़ी सी तो बस सालों अंदर बजती है पर बाहर सुनार की धीमी-धीमी ठुक-ठुक से अपना दीदा सवांरती है . शीशा टूट जाता है और सारी आवाजें आत्मा की अनुगूंज बन कर रह जाती है .तब इस धरती की भोगोलिक विभिन्नता केवल बाहरी नही रह जाती , वह अंदर की ओर मुड कर तुम्हें पीट-पीट कर ठोस बना देती हैं . अमेरिका मेरे बाहर से नहीं , भीतर से हो कर गुजरता है . उसमें मेरी मौलिकता कितनी अक्षुण्ण रह पाई है कितनी नहीं का लेखा-जोखा मैंने कभी नही किया . यो बाहर के साथ सरोकार नहीं के बराबर रहा , इस लिए सीधे - सीधे हवा पानी की तरह उस ने नहीं हिलाया . हाँ भाषा जरूर लडखडाई है . वातावरण की वीरानगी में भाषा सूख -सूख जाती रही है . निहत्थी बेसहारा सी । कभी- कभी सही शब्द तक ढूंढने में थक जाती है पर चलती है वह मेरा हाथ पकड़ पकड़ कर , रेंगती हुई ।
यहाँ बिसूर कर जिन्दगी को मुहं नही चिढ़ाया जा सकता बल्कि उस के रूबरू हो कर उस से जूझना पड़ता है .एक ठोस-वास्तविक कठोर धरती पर स्वयं खड़ा होना पड़ता है . आंसू बहाने , मर-मिटने जैसे स्त्री त्व के दासत्व भाव को कोई फूल नही चढाता . बस लड़ने की ताकत देखी जाती है और उस के भी निश्चित परिणाम होते हैं . पुरुष उसे हिकारत से देखते हैं तो स्त्रियाँ हैरत से , कौतुक से और प्रेरणा भी लेती हैं . मन ही मन सराहती भी हैं. फिर पीठ थपथपाने के लिए तो सारा अमरीकी समाज खुला पड़ा है जो पग पग पर आप को हिम्मत देता है . यहाँ के समाज में इस से किसी का कद छोटा नही होता . पर अंदरूनी तौर पर यह अंदर तक सालता है कई कई तरीकों से . चाहे आप चाहें या न चाहें - सामाजिकता कम हो जाती है . आप जाना चाहें तो भी लोग बुलाना कम कर देते हैं . विशेषत शादियों के निमंत्रण कम हो जाते हैं . हमारे मूल-भूत संस्कार और संशय वही के वही रह जाते हैं शकुन-अपशकुन की सीमा में बंधे हुए . यह कडवा सच आप को रोज जहर के घूंट की तरह पीना पड़ता है कि आप की दुनिया अलग हो गई है . अपने हो या पराये , सब एक ही थैली के चट्टे -बट्टे हो जाते हैं.
आज सोचती हूँ कि अगर उम्र भर टूटे कांच के फर्श पर चलती रहती तो आज और ज्यादा लहुलुहान होती रहती . मैंने उस रोज रोज के टूटे कांचों की जमीन पर चलने से इनकार कर दिया और अपने - आप को बचा लिया . यहाँ भी मैं रोज देखती हूँ तो पता चलता है कि अस्सी प्रतिशत या ज्यादा भारतीय स्त्रियाँ केवल घर की छत के सहारे के लिये बैठी हैं . उन के सम्बन्धों का सोहार्द और विश्वास तो न जाने कब किन पंखों पर उड़ गया है . यह कोई पीठ थपथपाने वाला निर्णय नही होता फिर भी यह स्वयं को और अधिक ध्वस्त होने से बचाना जैसा होता है .कहीं भी कम चुनौती भरा नही पर अपनी स्वतन्त्रता का सुकून देता है और खड़े होने की जमीन को मजबूत करता है , और तोड़ता नही .
दूसरा यहाँ अमरीकी समाज में , पारस्परिक विच्छेद के बाद भी पति- पत्नी अधिकतर मित्र बन कर रहते है. बच्चो का ध्यान रखना , पत्नी की आर्थिक सहायता , दुःख - सुख में संगी होना और यहाँ तक कि बहुत बार वे पहले से भी कहीं ज्यानदा सौहार्द से ओत प्रोत , अच्छे दोस्त बन जाते हैं . पर हमारे देसी समाज के दायरे भी और सोच भी वही की वही रहती है. इस सम्बन्ध को तोड़ने की सजा भी वही . ऊपरी ताम-झाम दिखावा वहीं का वहीं है . पर वह व्यक्ति विशेष जो इस पुल से गुजरता है , जानता है कि पुल की सीमायों के परे - केवल डूबने के लिए विशाल समुद्र है बस . इस लिए हर कदम सम्भल कर . अन्ततः वह इस सामाजिक और व्यक्तिगत दोनों धरातलों पर खड़े होकर जीवन को चुनौती देती है और अपनी राह निकालती है और अपनी सजा खुद तय करती है , जो नही कर पातीं वह पिछडती हैं , हारती हैं ! वही हार जो आज तक उस ने अपने देश में झेली है . बस इतना अंतर है कि यहाँ वह अकेली है -- सुबह से शाम तक. बाजार से साबुन-तेल , आटा- दाल. दूध -ब्रेड और सारे बिलों का भुगतान करती और अपने निर्णय स्वयं लेती .
यहाँ सहायता मांगना हतक ( एक तरह की हार ) समझा जाता है . यहाँ का प्रचलित जुमला है - एवरीबडी इज़ आॅन देअर ओन ! फिर मेरी यही सम्वेदना मेरे पात्र छीन लेते हैं मुझ से . यह प्राकृतिक है . मुझे इस सम्वेदना के लिए पात्रों का कोई अलग से बनाव-श्रृंगार नही करना पड़ता . वे पात्र वैसे भी जीवंत पात्र होते हैं आप के आस पास रहने वाले , जीने वाले . मैं धीरे-धीरे कल्पना से , अंतर्दृष्टि से या बाहरी दस्तावेजों के आधार पर उन के अंदर घुसने की पूरी कोशिश करती हूँ और पात्र के स्थान पर स्वयं को रख कर परखती हूँ . अंततः मेरी रचना उस पात्र से अधिक उन अंदर की कहीं बहुत गहरी दबी संभावनाओं और संवेदनाओं पर आधारित हो जाती है .
प्रारंभिक लेखन - आज कोई पूछे कि कब से लिख रही हूँ तो बिल्कुल याद नही . पता नही कब कोई इस वीणा को झनझना जाता और इस वीणा के मार्मिक स्वर स्वयं ही वातावरण की अनुगूंज न बन , मेरे हृदय की वेदना बन कर कविता -कहानी में बह जाते . नहीं याद पहली कविता कब लिखी होगी , पहली कहानी कब लिखी -- शायद तभी जब दिल रोया होगा , जब मन नितांत अकेला हुआ होगा , जब किसी घाव की तामीर नही हुई होगी - जब किसी की टूटी चूडियों, किसी की सूनी होती हुई गोद देखी होगी या आँखों से किसी हीर को या किसी रांझे को देखा होगा और उस की पीड़ा उस के बस्ते से चुरा ली होगी जो आज तक मेरे बस्ते के किसी कोने में अपने - आप को छिपाए सुबक रही है .
घर की विवशताएं , विफलताएं एवं अभावों ने भी कहीं इस पीड़ा में जरूर आहुति डाली होगी . यही नही जब से आँख खोली - या कहना चाहिए -जब से होश आया दुनिया के गलत आंकड़े देखे , जिन्हें मन स्वीकार नही कर पाता - न ही उलटबांसियों का नंगा नाच फलीभूत होते देखा . परदे के पीछे के सच को देखा जो अपने आप बिना कहे -सामने उघडता रहा.
फिर मन मसोसना आ गया . दुनिया की इस धीरे -धीरे पनपती हीनतायों से ग्रस्त टुच्चेपन को देख कर झूठ को देखकर , तुम्हारे ही दुर्ग में घुस कर कोई तुम्हे ही नेस्तनाबूंद होते देख कर - पता नही क्या क्या देखा -सहा , पचाया जो समय समय पर अवशिष्टत बन कर सरंचना बनता चला गया . जिस में कोमलता कम - कटुता ज्यादा रही . इस बात का मुझे दुःख है कि मैं फूलों से ज्यादा कांटों से खेलती रही . - क्यों कि फूल एक उगता है और उस के आस - पास कांटे अनगनित . यह विरोधाभास हमेशा खला . फिर धीरे -धीरे अपने आप को समेटना , दूर रहना आ गया । एकांत ढूदना और उसी में अपने -आप को पाना सीखने लगी . यह दौड़ तो बेमानी ही रहती है आखिर तक . क्यों कि अपने आप को तो हम पा ही नही सकते , हर क्षण दूसरों के दरीचों पर हमारी ऑंखें लगी रहती हैं . हम दूसरों की उधडी सीवनें देख-देख कर पुरस्कृत करते रहते हैं अपने-आप को .
पुरानी कुछ पिटारियाँ खोली तो कुछ दस्तावेज मिले .
1957 में मेरी कहानी सपना टूट गया को साप्ताहिक हिदुस्तान के फुलवारी क्लब उज्जैन से द्वितीय पुरस्कार मिला - संचालक थे ---- बांकेबिहारी भटनागर एवं शान्ति भटनागर !1958में तरुण संघ लुधियाना से प्रांतीय प्रतियोगिता में कहानी पुरस्कृत ( नाम उपलब्ध नहीं है ) 1960 में हिंदी परिषद करनाल से मेरी कहानी ‘‘ चिराग ’’ को द्वितीय पुरूस्कार -संचालक थे --विष्णु प्रभाकर ! उसी साल तरुण परिषद पटियाला की ओर से कविता परुस्कार ( कविता याद नही ) सन् 62 में अमृतसर तरुण परिषद में मेरी कविता ( भगवान चाहिए ) को द्वितीय पुरस्कार 1980 में मेरी कहानी ‘‘ सब कुछ होते हुए ’’ को शिमला के तरुण साहित्य से प्रथम पुरस्कार ! 1988 में हिंदी परिषद टोरंटो से महा देवी पुरस्कार ! जहाँ तक मुझे याद है या जो कुछ कतरने मिली है वह बताती हैं कि सन् 58 से ही मैं छपने लगी थी . वीर अर्जुन , वीर प्रताप जैसी दैनिक अखबारों में , रमनी , माया , हरिगंधा ( और नाम याद नही है ) जैसी कई पत्रिकाओं में . छपने जैसी परिपक्वता तो शायद बहुत बाद में आई होगी पर मुझे आज भी लगता है -कि जो लिखती हूँ वह कही पूरा नही है कहीं कुछ छूटा हुआ सा लगता है .इसी लिए जीवन में पहला लिखा उपन्यास (17-18 साल की उम्र में लिखा ) आज तक छपवाने का साहस नही हुआ . फिर बाद में छपी सारिका में और साप्ताहिक हिंदुस्तान में भी . यहाँ इतने साल विस्मृति के गर्भ में रही कि सब कुछ भूल गई . वह सब खोजने जाती हूँ तो लगता है कोई अंगुली के पोरों से घावों को कुरेद रहा है . पुरानी एक कहानी थी ‘‘तो’’ वह मेरी बड़ी प्रिय कहानी थी जो सारी संवाद में लिखी गई थी और वह चंडीगढ़ की एक पत्रिका ‘‘अभिव्यक्ति’’ में छपी भी थी. पर आज मेरे पास न उस की प्रतिलिपि है न वह पत्रिका . इसी तरह जो मैंने पुरस्कृत कहानियों या कवितायों की चर्चा की उन किसी की भी प्रतिलिपि मेरे पास नहीं है . केवल उन संस्थायों के प्रमाण पत्र हैं . उस समय मैं लिखती भी सुदर्शन आहूजा ‘उलझन’ के नाम से थी .फिर कुछ समय सुदर्शन इन्द्रजीत के नाम से भी लिखा और छपा . पता नही क्या चक्र था इस नाम बदलने के पीछे . बस आज कहूंगी एक भटकन थी जो समझ से बाहर थी . सुदर्शन आहूजा से सुदर्शन उलझन ,फिर सुदर्शन इन्द्रजीत . इस तरह अपने आप को खोजती हुई किसी प्रकाशक के सुझाव पर सुदर्शन प्रियदर्शिनी बन गई - जो आज नाम के साथ जुड़ कर पक्की पूंछ बन गया है . इस की सार्थकता के विषय में , अब भी मैं कुछ नही कह सकती !
इतने सालों का अन्तराल , जिन्दगी की उठा-पटक , खानाबदोशी की लूट -खसूट में क्या बचा क्या छूट गया कुछ याद नही . पर दुबारा लिखने लगी तो लगा अपने से दुबारा मिल रही हूँ . अपने आप को फिर से शीशे में देखती हूँ तो लगता है वह पुरानी ‘‘सुदर्शन‘‘ तो वहाँ है ही नही . न वह शक्ल , न सूरत . न आभा, न रूप , न उम्र - यह तो कोई पिटा हुआ मोहरा है जो समय की मार खा -खा कर बोदा हो गया है . पर अब इसे ही स्वीकार करना होगा और सीवनें उधेड़ कर देखना होगा कि इस की परतों तले क्या है .
लगभग 23 साल बाद वर्तमान साहित्य के प्रवासी अंक में मुझे जगह मिली . अच्छा लगा . कुछ कविताओं की मुंह दिखाई देखकर . अब भी बस मुंह-दिखाई जितने ही दर्शन होते हैं अपनी रचनाओं के . पर ठीक है और सुकून है कि इतने लंबे अंतराल के बाद मैं अपनी सडक पर खडी हूं , भटकी नहीं हूं .पिछले पांच वर्षों में कथासार , वागर्थ , हंस , अन्यथा , कथादेश , हरिगंधा , साक्षात्कार , नवनीत , समकालीन साहित्य , वाणी ,शीराजा , सिलसिला ,पुष्पगंधा, युद्धरत आम आदमी आदि कई अन्य पत्रिकायों ने मुझे अपना सौहार्द और प्रश्रय दिया . मैं आभारी हूँ उन सब की.
आज अपने आप को अलग कर के देखती हूँ तो लगता है , जीवन ने मुझे एक तटस्थता दी है , वीतरागिता दी है इस लिए किसी भी चोट ने हाय-तौबा नही करवाई . आहें सर्द बन कर नही निकली . केवल अंदर एक गहरी घुटन , गहरी निर्लिप्तता बन कर सालती रही . एक स्वीकृति के साथ हमेशा अपने-आप को दोषी ठहराया -- अपनी स्थितियों के लिए . जो भी जिन्दगी ने दिया - नियति मान कर रख लिया . कर्म फल समझ कर उस को निगल लिया .
जिस दुर्ग से अनायास निकली थी , उसमें सायास घुसने के लिये बडी मशक्कत लगती है , यह नहीं मालूम था . पांव लहूलुहान होंगे , ऐसा तो अंदेशा न था पर जब अनजाने आपकी बात अनुत्तरित रहती है तो लगता है , अरे , ये क्या हो गया । शायद सारी कायनात ही बहरी हो गई है . खैर ऐसा भी कुछ आपकी आवाज में नहीं होता कि आप सुने ही जायें इसलिये चल रही हूं धीरे धीरे इस नये साहित्यिक पथ पर . देखें क्या होता है . जो होगा वही होना चाहिये भी शायद .......क्योंकि बस उतने के ही हम हकदार भी होते हैं । http://wwwrakhmeindabichingari.blogspot.in/
20 फरवरी 2013
क्लीवलैंड , अमेरिका - 001 440 7171 699 , प्रियदर्शिनी २४६ स्ट्रेटर्फड ड्राइव ब्राड व्यू हाइट्स, ओहायो
सुदर्शन जी से मिलकर अच्छा लगा शोभा जी आभार …………और कुछ कहने को है नही ना इसलिये बस चुप हूँ ।
ReplyDeleteएक साँस में पढ़ गई यह अद्भुत आत्मकथ्य लगा फिर से जी लिया अपने आपको फि rसे जी लिया ,
ReplyDeleteबे ,हद सुन्दर शैली आशा है हमे आगे भी प्रियदर्शिनी जी कि रचनाये पढ़ पाएंगे।
शोभाजी आभार।
एक साँस में पढ़ गई यह अद्भुत आत्मकथ्य लगा फिर से जी लिया अपने आपको फि से जी लिया ,
ReplyDeleteबे ,हद सुन्दर शैली आशा है हमे आगे भी प्रियदर्शिनी जी कि रचनाये पढ़ पाएंगे।
शोभाजी आभार।