महिलाओं के लिए घोषित एक दिन 'महिला दिवस' की क्या वास्तव में कोई सार्थकता है ..?
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महिलाओं के लिए 'आधी आबादी' का संबोधन क्या संप्रेषित करता है .?
महिलायें जिस स्वतंत्रता की खोज में हैं ,उसका आरम्भ कहाँ से होता दिखाई देता है .. क्या पर्याप्त है उसके लिए कुछ धरने,कुछ भाषण ,कुछ मार्च .
रेप, मोलेस्टेशन जैसी घटनाओं के बाद पुरुष वर्ग न्याय की मांग के लिए तो महिलाओं के साथ खड़े हो जातें है लेकिन उपलब्धियों के शिखर पर पहुँचती हुई स्त्री को देखकर उसी पुरुष के अहंकार को ठेस पहुँचता है . सार्वजनिक स्थलों पर लड़कियों और महिलाओं को घूरती हुई पुरुषों की आँखों को देखकर नहीं लगता की वो स्त्री को देह से अधिक कुछ समझतें हैं ..
फेसबुक जैसी सोशल साइट्स पर महिलाओं के प्रति पुरूषों का रवैया , महिलाओं की वाल एक्टिविटी .. उनका प्रोफाइल फोटो चेंज करना .. पोस्ट पर लाइक, कमेन्ट को देखकर पुरुषों की तीखी प्रतिक्रियाये .
साहित्य जगत की बात करें तो महिलाओं की उपलब्धियों को लेकर महिलाओं-पुरुषों द्वारा समान रूप से उनके ऊपर गलत रास्ते अपनाने का इलज़ाम लगाना क्या उनको मात्र शरीर मान लेने की बात को पुख्ता नहीं करता .
कामकाजी महिलाओं को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है ... वो समस्याएँ किस तरह की हैं .. उनका हल क्या होना चाहिए ... इन सभी बातों पर एक सामूहिक चर्चा जरुरी है ..क्या आपको लगता है कि दोषारोपण बंद कर के इस आन्दोलन को अपने भीतर से शुरू करने की ज़रुरत है .??
महिलाओं के लिए घोषित एक दिन के लिए मन में कुछ प्रश्न थे ... कुछ महिलाओं के सामने ये प्रश्न रखे जाने पर उनकी प्रतिक्रया कुछ इस तरह थी .... इस श्रृंखला में आज पहले दिन पत्रकार , लेखिका शिखा वार्ष्णेय के विचारों का फरगुदिया पर स्वागत हैं ........
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नाम - शिखा वार्ष्णेय
जन्म स्थान - नई दिल्ली
मोस्को स्टेट यूनिवर्सिटी से टीवी जर्नलिज्म में परास्नातक ( with honor ) करने के बाद कुछ समय भारत में एक टीवी चेनल में न्यूज़ प्रोडूसर के तौर पर काम किया .वर्तमान में लन्दन में स्वतंत्र पत्रकारिता और लेखन में साक्रिय.
साहित्य निकेतन परिकल्पना सम्मान 2009,2010 - यात्रा वृतांत के लिए एवं संवाद सम्मान द्वारा संस्मरण के लिए वर्ष की श्रेष्ठ लेखिका सम्मान.
प्रकाशित पुस्तक -संस्मरण/यात्रा वृतांत - "स्मृतियों में रूस "(डायमंड बुक्स -२०१२) के लिए "जानकी बल्लभ शास्त्री साहित्य सम्मान"
कुछ दिन पहले "इनकार" फिल्म देखी, कॉरपरेट जगत में बुलंदियों को छूती एक स्त्री के शोषण की कहानी और फिलहाल में ही लन्दन के एक समाचार पत्र में एक सतम्भ "हाँ पहुँच गईं महिलायें शीर्ष पर , तो क्या ?" पढ़ा , जिसमें लेखिका का कहना था कि बेशक आज महिलायें हर क्षेत्र में शीर्ष पर पहुँच गई हैं पर उस पद की वांछित शक्ति उनके पास नहीं होती , उसका सञ्चालन अभी भी कहीं कोई पुरुष प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कर रहा होता है .मेरे दिमाग में जो पहला सवाल आया वह यह कि रोमन सभ्यता में नारी की दशा से, रूस में 1860 की नारी वादी क्रांति से आरम्भ होकर 1936 में स्पेन की क्रांति से होते हुए हम बहुत आगे आ गए हैं। पर क्या और कितना बदला है . जमीनी तौर पर देखा जाए तो आज भी हम वहीँ हैं जहाँ से चले थे।
1860 में शुरू हुए 8 मार्च के महिला दिवस को आज भी हमें टॉफी की तरह पकड़ा दिया गया है . की ये लो पकड़ो फूल और चॉकलेट और चुप बैठो . उतना ही तुम्हें लेने का हक है जितना हम देना चाहते हैं। इससे इतर अपनी इच्छा या मर्जी से कुछ करने का तुम्हें कोई हक नहीं .
आज भी किसी महिला को उसके अपने बूते पर अपने से उच्च स्तर पर जाते देख पुरुष अहम् को ठेस पहुँचती है ,और वे येन केन प्रकरेण उसे नीचे धकेलने में अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं। आज भी किसी महिला की प्रगति या प्रतिभा को उसका जायज श्रेय देने को हमारा समाज तैयार नहीं होता। उसकी हर प्रतिभा और तरक्की को उसके औरत होने के पीछे धकेल दिया जाता है , और उस पर यदि वह थोड़ी खूबसूरत और जवान भी हो तो उसकी सारी उपलब्धियों का क्रेडिट बेझिझक उसकी सूरत के हवाले कर दिया जाता है. यानि सीधा सीधा ये ऐलान , कि अगर तुम कुछ हो , या कुछ बनना चाहती हो तो हमारी बदौलत, वरना तुममे अपनी कोई क़ाबलियत नहीं . सामने कुर्सी पर बैठ कर बोलो, हम तालियाँ बजा देंगे, थोडा बहुत सम्मान भी दे देंगे , पर खबरदार जो मंच पर हमारे साथ चढ़ने की कोशिश की , परिणाम स्वरुप बहुत कुछ भुगतना पड़ सकता है. और यदि तुममे हिम्मत है शब्दों या कानूनी लड़ाई लड़ने की तो हमारे पास राम बाण हैं - नैतिक/चरित्रगत आक्षेप। उससे पार पाना तुम्हारे बस का नहीं।
असल में औरतों के शोषण की सबसे बड़ी वजह शायद यही है कि आज भी बहुत सी रुढियों से आजाद होकर , आत्म निर्भर होकर और शिक्षित होकर भी वह इस तथाकथित चारित्रिक बंधन से मुक्त नहीं हो पाई है. आज भी वह किसी पुरुष मित्र या कलीग के साथ व्यावसायिक चर्चा कर मीटिंग रूम से बाहर निकलती है तो बाहर लोग मुंह छिपा कर हँसते हैं या फब्तियां कसते हैं , ऐसे में वह पुरुष तो गर्व से मुस्कुरा देता है परन्तु महिला दुखी होती है.वह अपने चरित्र पर उठती उंगली आज भी बर्दाश्त नहीं कर पाती. और शायद यहीं वह चूक जाती है और पुरुष समाज जीत जाता है. पुरुष कभी अपने चरित्र पर उठती किसी उंगली को अपनी तरक्की में बाधा नहीं बनाता। जबकि स्त्री इसी डर से हर मौक़ा छोड़ देती है और बेवजह उस कारण से मानसिक और शारीरिक शोषण का शिकार होती है, जो खुद उसकी ही देह से जुड़ा है.
आज इस मकाम पर जहाँ कम से कम कानूनी तौर पर महिलाओं को हर वो हक हासिल है जो पुरुष को है ,जरूरत इस बात की है कि स्त्री अपनी खुद की सीमाओं से बाहर निकले। उसे जरूरत साल में एक दिन की नहीं , बल्कि हर दिन में अपने बराबर के हिस्से की है.उसके किसी भी नैतिक, सामाजिक या चारित्रिक सीमाओं का निर्धारण करने का किसी पुरुष समाज को हक नहीं कि वह कैसे उठे , बैठे, कहाँ , किससे बोले या मिले , क्या पहने या क्या काम करे। अपनी मानसिक या शारीरिक जिम्मेदारियां वह खुद संभाल लेगी। जरूरत अब उस पुरुष वर्ग को सिखाने की है कि यह महिला नाम की जीव भी इंसान है, इसका भी समाज में वही अधिकार और स्थान है जो तुम्हारा है। अत: उसे तुम्हारी पूजा या श्रद्धा नहीं चाहिए , उसे चाहिए तुम्हारा एक इंसान के प्रति दूसरे इंसान का एक सामान्य : और सम्माननीय व्यव्हार. और यह कोशिश हर उस स्त्री को ही करनी होगी, जो एक बेटी है , एक पत्नी है और सबसे बढ़कर जो बेटे की माँ है.
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महिलाओं के लिए 'आधी आबादी' का संबोधन क्या संप्रेषित करता है .?
महिलायें जिस स्वतंत्रता की खोज में हैं ,उसका आरम्भ कहाँ से होता दिखाई देता है .. क्या पर्याप्त है उसके लिए कुछ धरने,कुछ भाषण ,कुछ मार्च .
रेप, मोलेस्टेशन जैसी घटनाओं के बाद पुरुष वर्ग न्याय की मांग के लिए तो महिलाओं के साथ खड़े हो जातें है लेकिन उपलब्धियों के शिखर पर पहुँचती हुई स्त्री को देखकर उसी पुरुष के अहंकार को ठेस पहुँचता है . सार्वजनिक स्थलों पर लड़कियों और महिलाओं को घूरती हुई पुरुषों की आँखों को देखकर नहीं लगता की वो स्त्री को देह से अधिक कुछ समझतें हैं ..
फेसबुक जैसी सोशल साइट्स पर महिलाओं के प्रति पुरूषों का रवैया , महिलाओं की वाल एक्टिविटी .. उनका प्रोफाइल फोटो चेंज करना .. पोस्ट पर लाइक, कमेन्ट को देखकर पुरुषों की तीखी प्रतिक्रियाये .
साहित्य जगत की बात करें तो महिलाओं की उपलब्धियों को लेकर महिलाओं-पुरुषों द्वारा समान रूप से उनके ऊपर गलत रास्ते अपनाने का इलज़ाम लगाना क्या उनको मात्र शरीर मान लेने की बात को पुख्ता नहीं करता .
कामकाजी महिलाओं को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है ... वो समस्याएँ किस तरह की हैं .. उनका हल क्या होना चाहिए ... इन सभी बातों पर एक सामूहिक चर्चा जरुरी है ..क्या आपको लगता है कि दोषारोपण बंद कर के इस आन्दोलन को अपने भीतर से शुरू करने की ज़रुरत है .??
महिलाओं के लिए घोषित एक दिन के लिए मन में कुछ प्रश्न थे ... कुछ महिलाओं के सामने ये प्रश्न रखे जाने पर उनकी प्रतिक्रया कुछ इस तरह थी .... इस श्रृंखला में आज पहले दिन पत्रकार , लेखिका शिखा वार्ष्णेय के विचारों का फरगुदिया पर स्वागत हैं ........
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नाम - शिखा वार्ष्णेय
जन्म स्थान - नई दिल्ली
मोस्को स्टेट यूनिवर्सिटी से टीवी जर्नलिज्म में परास्नातक ( with honor ) करने के बाद कुछ समय भारत में एक टीवी चेनल में न्यूज़ प्रोडूसर के तौर पर काम किया .वर्तमान में लन्दन में स्वतंत्र पत्रकारिता और लेखन में साक्रिय.
साहित्य निकेतन परिकल्पना सम्मान 2009,2010 - यात्रा वृतांत के लिए एवं संवाद सम्मान द्वारा संस्मरण के लिए वर्ष की श्रेष्ठ लेखिका सम्मान.
प्रकाशित पुस्तक -संस्मरण/यात्रा वृतांत - "स्मृतियों में रूस "(डायमंड बुक्स -२०१२) के लिए "जानकी बल्लभ शास्त्री साहित्य सम्मान"
कुछ दिन पहले "इनकार" फिल्म देखी, कॉरपरेट जगत में बुलंदियों को छूती एक स्त्री के शोषण की कहानी और फिलहाल में ही लन्दन के एक समाचार पत्र में एक सतम्भ "हाँ पहुँच गईं महिलायें शीर्ष पर , तो क्या ?" पढ़ा , जिसमें लेखिका का कहना था कि बेशक आज महिलायें हर क्षेत्र में शीर्ष पर पहुँच गई हैं पर उस पद की वांछित शक्ति उनके पास नहीं होती , उसका सञ्चालन अभी भी कहीं कोई पुरुष प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कर रहा होता है .मेरे दिमाग में जो पहला सवाल आया वह यह कि रोमन सभ्यता में नारी की दशा से, रूस में 1860 की नारी वादी क्रांति से आरम्भ होकर 1936 में स्पेन की क्रांति से होते हुए हम बहुत आगे आ गए हैं। पर क्या और कितना बदला है . जमीनी तौर पर देखा जाए तो आज भी हम वहीँ हैं जहाँ से चले थे।
1860 में शुरू हुए 8 मार्च के महिला दिवस को आज भी हमें टॉफी की तरह पकड़ा दिया गया है . की ये लो पकड़ो फूल और चॉकलेट और चुप बैठो . उतना ही तुम्हें लेने का हक है जितना हम देना चाहते हैं। इससे इतर अपनी इच्छा या मर्जी से कुछ करने का तुम्हें कोई हक नहीं .
आज भी किसी महिला को उसके अपने बूते पर अपने से उच्च स्तर पर जाते देख पुरुष अहम् को ठेस पहुँचती है ,और वे येन केन प्रकरेण उसे नीचे धकेलने में अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं। आज भी किसी महिला की प्रगति या प्रतिभा को उसका जायज श्रेय देने को हमारा समाज तैयार नहीं होता। उसकी हर प्रतिभा और तरक्की को उसके औरत होने के पीछे धकेल दिया जाता है , और उस पर यदि वह थोड़ी खूबसूरत और जवान भी हो तो उसकी सारी उपलब्धियों का क्रेडिट बेझिझक उसकी सूरत के हवाले कर दिया जाता है. यानि सीधा सीधा ये ऐलान , कि अगर तुम कुछ हो , या कुछ बनना चाहती हो तो हमारी बदौलत, वरना तुममे अपनी कोई क़ाबलियत नहीं . सामने कुर्सी पर बैठ कर बोलो, हम तालियाँ बजा देंगे, थोडा बहुत सम्मान भी दे देंगे , पर खबरदार जो मंच पर हमारे साथ चढ़ने की कोशिश की , परिणाम स्वरुप बहुत कुछ भुगतना पड़ सकता है. और यदि तुममे हिम्मत है शब्दों या कानूनी लड़ाई लड़ने की तो हमारे पास राम बाण हैं - नैतिक/चरित्रगत आक्षेप। उससे पार पाना तुम्हारे बस का नहीं।
असल में औरतों के शोषण की सबसे बड़ी वजह शायद यही है कि आज भी बहुत सी रुढियों से आजाद होकर , आत्म निर्भर होकर और शिक्षित होकर भी वह इस तथाकथित चारित्रिक बंधन से मुक्त नहीं हो पाई है. आज भी वह किसी पुरुष मित्र या कलीग के साथ व्यावसायिक चर्चा कर मीटिंग रूम से बाहर निकलती है तो बाहर लोग मुंह छिपा कर हँसते हैं या फब्तियां कसते हैं , ऐसे में वह पुरुष तो गर्व से मुस्कुरा देता है परन्तु महिला दुखी होती है.वह अपने चरित्र पर उठती उंगली आज भी बर्दाश्त नहीं कर पाती. और शायद यहीं वह चूक जाती है और पुरुष समाज जीत जाता है. पुरुष कभी अपने चरित्र पर उठती किसी उंगली को अपनी तरक्की में बाधा नहीं बनाता। जबकि स्त्री इसी डर से हर मौक़ा छोड़ देती है और बेवजह उस कारण से मानसिक और शारीरिक शोषण का शिकार होती है, जो खुद उसकी ही देह से जुड़ा है.
आज इस मकाम पर जहाँ कम से कम कानूनी तौर पर महिलाओं को हर वो हक हासिल है जो पुरुष को है ,जरूरत इस बात की है कि स्त्री अपनी खुद की सीमाओं से बाहर निकले। उसे जरूरत साल में एक दिन की नहीं , बल्कि हर दिन में अपने बराबर के हिस्से की है.उसके किसी भी नैतिक, सामाजिक या चारित्रिक सीमाओं का निर्धारण करने का किसी पुरुष समाज को हक नहीं कि वह कैसे उठे , बैठे, कहाँ , किससे बोले या मिले , क्या पहने या क्या काम करे। अपनी मानसिक या शारीरिक जिम्मेदारियां वह खुद संभाल लेगी। जरूरत अब उस पुरुष वर्ग को सिखाने की है कि यह महिला नाम की जीव भी इंसान है, इसका भी समाज में वही अधिकार और स्थान है जो तुम्हारा है। अत: उसे तुम्हारी पूजा या श्रद्धा नहीं चाहिए , उसे चाहिए तुम्हारा एक इंसान के प्रति दूसरे इंसान का एक सामान्य : और सम्माननीय व्यव्हार. और यह कोशिश हर उस स्त्री को ही करनी होगी, जो एक बेटी है , एक पत्नी है और सबसे बढ़कर जो बेटे की माँ है.
जरूरत अब उस पुरुष वर्ग को सिखाने की है कि यह महिला नाम की जीव भी इंसान है, इसका भी समाज में वही अधिकार और स्थान है जो तुम्हारा है। अत: उसे तुम्हारी पूजा या श्रद्धा नहीं चाहिए , उसे चाहिए तुम्हारा एक इंसान के प्रति दूसरे इंसान का एक सामान्य : और सम्माननीय व्यव्हार. और यह कोशिश हर उस स्त्री को ही करनी होगी, जो एक बेटी है , एक पत्नी है और सबसे बढ़कर जो बेटे की माँ है........ वाह यह बात यथिचित है ! सोच में परिवर्तन लाना निहायत जरुरी है !
ReplyDeleteशिखा जी के इस सार्थक आलेख के लिए उन्हें बधाई !!
सच कहा आपने...जरूरत पुरुष वर्ग को अब यही सिखाने की है कि यह महिला नाम की जीव भी इंसान है....ऊँची-ऊँची पदवी देकर उसका शोषण बंद करो...
Deleteबेहद प्रासंगिक विषय है...
ReplyDeleteअपने अधिकारों के लिए महिलाओं का संघर्ष आज भी जारी है...
पद हासिल करने के बाद भी महिलाएं फ़ैसले लेने के लिए आज़ाद नहीं हैं. महिला पंचों, सरपंचों और पार्षदों को ही देख लीजिये... उनकी जगह उनके पति फ़ैसले लेते हैं... हैरत की बात तो यह है कि प्रशासन भी इस पर कोई कार्रवाई नहीं करता...
बहुत सही कहा फिरदौस जी....
Delete8 मार्च के महिला दिवस को आज भी हमें टॉफी की तरह पकड़ा दिया गया है . की ये लो पकड़ो फूल और चॉकलेट और चुप बैठो......जरूरत साल में एक दिन की नहीं , बल्कि हर दिन में अपने बराबर के हिस्से की है.उसके किसी भी नैतिक, सामाजिक या चारित्रिक सीमाओं का निर्धारण करने का किसी पुरुष समाज को हक नहीं कि वह कैसे उठे , बैठे, कहाँ , किससे बोले या मिले , क्या पहने या क्या काम करे।
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति!! बधाई और शुभकामनाएँ शिखाजी!!