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शिक्षा - स्नातकोत्तर (साहित्य)
कार्य - प्रबन्ध निदेशिका (आईटी फार्म)
स्थान - जमशेदपुर (टाटानगर)
रुचियाँ - साहित्य, संगीत, समाज सेवा, पठन पाठन, लेखन (ब्लॉग - संवेदनासंसार, ब्लागस्पाट पर, तथा विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में )
एक स्त्री हूँ,उन समस्त विषम परिस्थितियों से गुजरी हूँ जिससे एक आम भारतीय स्त्री को गुजरना पड़ता है.अपने आस पास असंख्य स्त्रियों को भी उन त्रासदियों से गुजरते,उनसे जूझते, देखा सुना है, परन्तु फिर भी बात जब समग्र रूप में स्त्री पुरुष की होती है तो पता नहीं क्यों लाख चाहकर भी इस विषय को मैं स्त्री पुरुष के हिसाब से नहीं देख पाती..मैं यह नहीं मान पाती कि पूरा स्त्री समुदाय पीड़िता और पुरुष समाज प्रताड़क है..आज तक के अपने अनुभव में जितनी स्त्रियों को पुरुषों द्वारा प्रताड़ित देखा है उससे कम पुरुषों को स्त्रियों द्वारा प्रताड़ित नहीं देखा,चाहे वे किसी भी जाति धर्म भाषा या आय वर्ग से सम्बद्ध हों.
सृष्टि के प्रारंभ से ही मनाव समाज में अच्छे बुरे लोग रहें हैं और आगे भी रहेंगे..सदियों से समाज में न ही कुल समाज उद्धारक स्त्रियों की कमी रही है और न ही कुलनाशक विपत्तिसृजनी स्त्रियों की. अपने कर्मो से यदि प्रजाति को गौरवान्वित करने वाली स्त्रियाँ हुई हैं तो दुष्टता के प्रतिमान स्थापित करती स्त्रियों की भी कोई कमी नहीं..बल्कि सहज ही देखा जा सकता है,एक स्त्री दूसरी स्त्री के लिए जितना कठोर हो सकती है,जिनती मानसिक यंत्रणा दे सकती है, उसकी बराबरी पुरुष शायद नहीं कर पाएंगे. पुरुष में पुरुषत्व के अहंकार को,उसके प्रताड़क रूप को भी भिन्न भूमिकाओं में स्त्रियाँ ही परिपुष्ट और पूर्ण करती हैं.
वस्तुतः स्त्री पुरुष का अबला- सबला और प्रताड़क- प्रताड़ित वाला यह विषय और द्वन्द स्त्री पुरुष का है ही नहीं. मनुष्य से लेकर पशु जगत तक में एक ही एक सिद्धांत अनंत काल से चलता आ रहा है और सदा चला करेगा..और वह है." जिसकी लाठी उसकी भैंस ".. यह "लाठी " शारीरिक बल वाली नहीं, बल्कि बौद्धिक क्षमता वाली है..यहाँ बौद्धिक क्षमता से मेरा तात्पर्य विधिवत शिक्षा से उपार्जित बौधिकता से नहीं, बल्कि सामान्य सोच समझ से है..स्त्री पुरुष दोनों में से जिसमे भी सूझ बूझ अधिक होगी,अपनी बात मनवाने की कला में भी वह अपेक्षाकृत अधिक कुशल होगा..अपने आस पास ही देखिये न,कई घरों में एक अनपढ़ स्त्री भी माँ बहन पत्नी या बेटी किसी भी रूप में यदि मानसिक रूप से अधिक सबल या समझदार होती है तो घर में उसीका सिक्का चलता है.अपने से कई गुना बली या पढ़े लिखे पर वह अति स्वाभाविक रूप से शासन करती है..यह सर्वसिद्ध है कि स्त्री हो या पुरुष ,व्यक्ति नियोजन में जो जितना कुशल/चतुर होगा, चाहे परिवार में हो या समाज में, अपना स्थान और स्थिति सुदृढ़ करने में वह उतना ही सक्षम होगा. बाकी रही चुनौतियों की बात तो,यदि नारी अपने जीवन में कंटकाकीर्ण पथ पर चलने को बाध्य है तो पुरुषों के जीवन में भी कम चुनौतियां नहीं हैं..
जहाँ तक क्षमताओं की बात करें,निश्चित रूप से प्रकृति/ईश्वर ने स्त्रियों को मानसिक रूप से पुरुषों की तुलना में अधिक सबल और सामर्थ्यवान बनाया है.श्रृष्टि रचना का स्रोत पुरुष अवश्य है परन्तु श्रृष्टि की क्षमता स्त्रियों को ही है..संभवतः इसी कारण ईश्वर ने स्त्रियों को शारीरिक बल में पुरुषों से कुछ पीछे कर दिया,क्योंकि यदि दोनों एक साथ स्त्रियों को ही मिल जाता तो इसकी प्रबल सम्भावना थी कि संसार में पुरुषों की स्थिति अत्यंत दयनीय होती..
हाँ, यह अवश्य कहा जा सकता है कि स्त्री की इसी अपरिमित क्षमताओं से भयभीत होकर उसके समग्र विकास की प्रत्येक सम्भावना को बाधित और कुंठित करने का यथासंभव प्रयास किया जाता रहा है. परन्तु पिछले कुछ दशकों से स्त्री उत्थान की दिशा में जो भी महत प्रयास किये जा रहे हैं, ये कम उत्साहजनक नहीं.वस्तु और भोग्या रूप से बाहर निकल उसे मनुष्य समझने का सार्थक प्रयास समावेशी रूप से हो रहा है. वस्तुतः यही वह अनुकूल अवसर है जब स्त्रियाँ अपनी दुर्बलताओं को भली भांति चिन्हित कर उससे बाहर आ सच्चे अर्थों में सबलता प्राप्त करें. उसे यह कदापि नहीं विस्मृत करना चाहिए कि उसके शरीर और सुख दे पाने की क्षमता के कारण ही वर्षों तक पुरुषों द्वारा उसे वस्तु और भोग्या बनाकर रखने का यत्न किया गया. अपने उसी अपरिमित सामर्थ्य अपने शरीर, अपने देय क्षमता को, उसे सतत जागरूक होकर संरक्षित और मर्यादित रखना है..भोगवादी प्रवृत्ति पुरुषों में भी यदि है तो वह उनका मानसिक दौर्बल्य ही है,उसे यदि स्त्री भी बराबरी का अधिकार मानते हुए अंगीकार करेगी तो फिर तो परिवार समाज और संस्कृति का अस्तित्व ही नहीं बचेगा. अगले कुछ वर्षों में आर्थिक स्वाबलंबन की दिशा में स्त्रियाँ कीर्तिमान स्थापित करेंगी, परन्तु उसे सतत यह स्मरण रखना होगा कि लक्ष्य भौतिक भोग विलास भर नहीं.स्वयं तथा अपनी प्रजाति का उत्थान,परिवार समाज और संस्कार संस्कृति का रक्षण भी उन्ही का दायित्व है, क्योंकि यह संरक्षण शारीरिक बल से नहीं बल्कि मानसिक बल से ही संभव है और यह मनोबल संपन्न स्त्री ही कर सकती है.स्त्री यदि एक नया शरीर उत्पन्न कर सकती है तो श्रृष्टि का संरक्षण भी कर सकती है..
मुझे लगता है यदि मैं परिवार समाज में सम्मान की अपेक्षा करती हूँ, अधिकार और बराबरी की अपेक्षा करती हूँ,तो इसके लिए सबसे पहले मुझे अपने आप को ही स्त्री पुरुष के इन विभेदों से ऊपर उठाना पडेगा,स्वयं को मनुष्य समझना पड़ेगा..तभी किसी और से मैं अपेक्षा कर सकती हूँ कि वह मेरे विषय में इन सबसे ऊपर उठकर सोचे..मुझे स्त्री पुरुष के भेद से न देखे..यदि हम अपने आचरण में दृढ़ता लायें,स्वयं को दोषमुक्त करें, तो नारी उत्थान के मार्ग को कोई कभी अवरुद्ध न कर पायेगा..
सुंदर लेख है ,लेखन में अनुभव व परिपक्वता साफ़ दिखाई देती है
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