Sunday, March 17, 2013

दीपक अरोड़ा की प्रेम कवितायें


दीपक अरोड़ा      


     " दीपक अरोड़ा  ने शब्दों की दुनिया में नए आयाम बनाए हैं ,नए प्रतिमान तय किये हैं .दीपक की कलम से जैसी प्रेम कवितायें निकली हैं ,वो अपने आप में एक मिसाल हैं .वही एक भाव प्रेम , और कैसे कैसे अनूठे बिम्ब ... .दीपक का पाठक-वर्ग खुद को खो देता है उस दुनिया में और मूक सा बार बार अपने भाव प्रकट करने की असफल कोशिश में अंततः दीपक के पास ही पहुँचता है ..और कह उठता है --आह ! प्रेम .." 

                                                                                                        वंदना ग्रोवर
1- 
अनिद्रा के तकिये पर सर रख,

बेहोश सोती है लड़की,

अर्धरात्रि के किसी अनचीन्हे पल में,

अपनी छाती पर टिक गये अपने ही हाथ को,

पा खोल देती है आँख,

बची रात में नींद तिलचिट्टों सी आँख में रेंगती है .


परिचित सह्याद्रियों के साथ के मील पत्थर,

स्मृतियों में कील से गढ़ते हैं,

रात गहराते किसी अदृश्य गंध सा,

सोते चेहरे पर मक्खियों की तरह बैठता है,

कोई अवांछित,परिचित स्पर्श,

नींद छत के पंखे के साथ घूमती है,

गोल ,काली और भूरी उन के गोले सी .


चेतना की परत को छूने लगती है,

छिपते सूर्य की रौशनी,

लड़की सैंडल के तलवे पर रखती है ऊँगली,

पूछती है सही जमीन का पता,

अगला कदम रखने को ,

मेट्रो की तीखी किनारी वाला कार्ड,

चढ़ने और उतरने की सही जगह बता देगा,

मिला तो .


लेम्प पोस्ट की रौशनी में चलते,

अपनी पदचाप से चौंक -नहीं डर जाती है लड़की,

मानती है मन्नत,

मत कहीं घर पहुँचने से पहले गुल हो जाए बत्ती,

अपने भीतर ही उग आये एक गहरा अँधेरा,

सारे अस्तित्व को घेर लेता है एक कुंडली दार अजगर,

टप्पे खाती फुटबाल सा कुछ,

पसलियों से बजता है धाड़ धाड़ .


घर लौटी लड़की सुनिश्चित नहीं होती लौट कर भी,

सोते हुए लेती है दो तकिये,

एक सर के लिए ,एक खुद के लिए ."



2-
तुम्हारी पदचाप ने कहा ,

तुम यहीं हो बहुत पास,

मैंने और गहरे खोदा भूमि को ,

और दुबक कर बैठ गया, 

एक डरे उदबिलाव की तरह .

तुम्हारी स्थिर चाल ने बताया,

तुम्हारा चले जाना,

बिल से सर निकाल कर मैंने देखा ,

तुम्हारा ना होना ,

तुम्हारे पाँव के पीछे छूटे निशान को,

कुरेदा मैंने अपने पंजे से ,

पाया तुम यहीं हो ,


लगने और होने के बीच का फर्क,

मेरे पंजों में छपा है,

हलकी हरी घास की प्याज सी गाँठ,

मिटटी उतार मैं अपने मुहं से चखता हूँ ,

तुम्हें पहली बार चूमा याद आता है,

फिर फिर फिर .


रोज़ और गहरा और चौड़ा करता हूँ,

अपने बिल को मैं,

हवा की तरह ख़ामोशी से चलती तुम,

एक दिन दाखिल होगी इसमें ,

तुम्हारी ऊष्मा से भरा मैं,

मिटटी को लिपटा लूँगा तन से .


उस दिन हम खायेंगे एक मूंगफली,

एक साथ बिना बांटे ."



3-
ऋतुओं को नापने के लिए ,

मेरी हथेली छोटी है,

शाखों से सूखकर गिरे पत्ते ,और

उगती हुई जामुनी कोंपलें,धीरे से मुस्कुरा,

प्रश्न के उत्तर में देतीं हैं एक दिगम्बर संकेत .


हवन की वेदी में धधक कर,

उत्तर देती हैं,आम ,बेरी ,पीपल जामुन की लकडियाँ,

याद करती हैं,यौवन के दिन,

स्मृति पटल पर छप जाती हैं फिर फिर,

जड़ में उगी दीमकों की बांबी,और

स्वाद भर बदलने को चुभती,

कठफोड़वा की तीखी चोंच से जन्मी टीस


परिक्रमा करते ताम्बई लोटों से छलकता है दूध,

लाल धागों ,और कामनाओं से बंधा बरगद,

एडियों के नीचे पड़े,अक्षत और सिंधूर को,

अपने पत्ते टूटने से टपके दूध से धोता है,

कौवों के बैठने के लिए फैला देता है बाहें,

नीम को देता है कड़वाहट धोती एक स्निग्ध मुस्कान.


बूढ़े वृक्ष छूते हैं झरते हुए बुढ़ापे को,

दुनिया बचाने का यह उनका अपना तरीका है,

शांति से अनगिनत सूर्यास्त देखने के बाद,

एक दिन अचानक वे तय करते हैं,

फिर से सूखी लकड़ी होना ,और

जाने कैसे उनके कट जाने के कुछ ही दिन बाद ,

वहीँ उग आता है एक छोटा सा पौधा .


(मैं निष्कर्ष नहीं निकालता पर अक्सर लगता है मुझे ,दुनिया झूला झूलती है ,लकड़ी और बीज के बीच कहीं )"




4-
.कल से निरंतर भूख से श्रृंगारित स्त्री ने,

संझा को चाँद से बात कर खाया कुछ ,और

कुछ छोड़ दिया उनके लिए,

कौवो का बोलना जिनके लिए नहीं है पूर्वाभास,

प्रिय के आगमन का.


वे जिनके लिए तय किया जाता है केश तर्पण,कि

किन्हीं और विस्फरित नेत्रों से ताका जाना,

विस्मृत उसे, नहीं भुलाये ,

कुछ गहरे लाल पीले रंगों की अनुपस्थिति से उपजे ,

ओढ़े गये वैराग्य और उदासी के घोल में,

अनुदानित कार्तिकेय प्रात: शीत स्नान का,


कल ! दिन भर मौन रहा मैं,और

सुना मैंने,छनकती कांच की चूड़ियों से रिसता,

उपेक्षिताओं का मौन विलाप,

जरूर,मैं नहीं बन पाया चित्रकार,कि

कभी नहीं जान पाया मैं औरत को प्रिय सही ,

पर जरूरी भी नहीं है,लाल रंग ही .


(कल इसे कहना अपशगुन माना जाता ,सो नहीं कहा )

( विलम्ब के लिए क्षमा निराश्रित स्त्री )"

Friday, March 15, 2013

स्त्री लेखन की मुश्किलें -गणेश पाण्डेय

स्त्री लेखन की मुश्किलें -गणेश पाण्डेय

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साहित्य जगत में  लेखिकाओं को अनेक तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है .. ..  इस सम्बन्ध में कवि, आलोचक गणेश पाण्डेय जी का सार्थक आलेख कुछ सवालों और सुझाव के साथ .. 






                     यह कैसा कथाकंस है, जिसने एक ऐतिहासिक महत्व की कथापत्रिका को ही नहीं,अपने समय के स्त्रीलेखन को कलंकित किया है। अभी हाल में आभासी दुनिया के किसी पटल पर देखा है कि एक स्त्री विधिपरामर्शदाता ने उसी बदनाम कथासंपादक को एक पिलपिले चरित्र वाले लेखक के रूप में याद किया है।

            जानते तो सब हैं, पर जब स्त्री खुद बुलंद आवाज में ऐसे भ्रष्ट लेखकों का सच उजागर करने लगे तो समझो कि परिवर्तन की लौ तेज हुई। काफी समय से कथाकंस के किस्से हर शहर में चटखारे लेकर सुने जाते रहे हैं। ऐसे ही संपादक के इर्द-गिर्द स्त्रीलेखन का जो दायरा बना, संदेह की दृष्टि से देखा गया। कुछ ने अप्रिय ही नहीं, अपमानजनक भी इसीलिए कहा। आखिर ऐसा क्यों कि हमारे समय के स्त्रीलेखन में उपलब्धियाँ कम रहीं और मुश्किलें और चुनौतियाँ ज्यादा। स्त्रीलेखन का यह संकट सिर्फ एक कथासंपादक के व्यभिचार तक ही सीमित नहीं रहा। कई संपादक और आलोचक बराबर के हिस्सेदार रहे। छोटे सुकुल के नाम से लिखे गये एक लेख ‘‘आलोचक का भीतर-बाहर’’ में तो यह कहा ही गया है कि ‘‘ हिंदी आलोचना के दसवें से लेकर अट्ठारहवें रत्नों में कई ऐसे मिलेंगे, जिनकी कीमत दो कौड़ी की है। दिल्ली या कोलकाता का एसी टिकट है। ये ऐसे गरीब आलोचक हैं जो प्रोफेसरी से रिटायर होने के बाद एक-एक पैसे को दाँत से पकड़ते हैं। गरीब औरतो की तरह अमीर औरतों या लेखिकाओं की साड़ी में फाल लगाते हैं, उनके लिए कई तरह के पापड़ बेलते हैं, अचार बनाते हैं, उनकी पाण्डुलिपियों को उनके बच्चों की तरह सजाते-सवाँरते हैं।’’ जाहिर है कि आलोचक का यह चरित्र जितना बीसवीं सदी की अंतिम चौथाई का है, उतना ही आज का भी है और आगे भी रहेगा। आखिर संपादक और आलोचक का यह चरित्र हमारे समय का प्रतिनिधि चरित्र हुआ ही क्यों ? दिक्कत कहाँ हुई ?  क्या कहीं कोई चूक, जरा-सी ही सही गलती, लेखिकाओं से नहीं हुई ?  लेखक तो बुरा था ही तो क्या लेखिकाओं को भी उसी रास्ते पर चलना जरूरी था ? 

              यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि हमारे समय के लेखक के लिए कि लेखन उसकी ड्यूटी नहीं, यश और पुरस्कार का जरिया है। कोई बेचैनी अपने परिवेश और समाज को लेकर नहीं है, जिसके लिए किसी प्रतिरोध या असहमति के बड़े मूल्य या किसी बडे उद्देश्य के प्रभाव में वह लेखन करे। हद तो यह कि वह जहाँ सामाजिक परिवर्तन और क्रांति का स्वाँग अपनी रचना में करता है, वह भी सचमुच के बदलाव के लिए नहीं बल्कि पुरस्कार और यश के लिए ही। काव्य के प्रयोजन के रूप में यश, आधुनिक काल से बहुत पहले की चीज है भाई। हिंदी कविताई से भी पहले की चीज। इक्कीसवीं सदी में तो यश के शव को अपने कंधे से उतार फेंको भाई। अफसोस की बात यह कि लेखक आज भी उतना ही कमजोर है। लालची है। तनिक भी नहीं सोचता कि जिस कबीर से लेकर मुक्तिबोध तक के जिन कवियों को अपना आदर्श मानता है, उनका साहित्यकर्म पुरस्कार के लिए नहीं, बल्कि सचमुच के समाजिक बदलाव के लिए है।  जैसे लेखक यश और पुरस्कार के लिए पतित होता जा रहा है, कहीं स्त्रीलेखन भी तो इसी बीमारी का शिकार नहीं है ? यह प्रश्न बेचैन करता है। ऊँची कक्षा के बच्चों से कहता हूँ कि तुम पृथ्वी के सबसे बड़े महाकाव्य हो। तुम हो तो महाकाव्य है। नही तो महाकाव्य और भूसे में कोईफर्क नहीं। आखिर महाकाव्य जैसे बच्चों की रचना करके एक माँ जीवन में क्या कोई पुरस्कार या यश अपने लिए चाहती है ? एक माँ अपने बच्चे के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर देती है। उसे भला पुरस्कार की चिरकुटई से क्या लेना-देना ? वह तो दुनिया-जहान सिर्फ बच्चे के लिए चाहती है।

            वह चाहती है कि उसका बच्चा अच्छा बनें और जग में जाना जाए।  लेकिन आज औसत से भी खराब कविता लिखने वाली एक कवयित्री क्यों पृथ्वी का सारा यश अपने नाम कर लेना चाहती है ?  सारे पुरस्कार अपनी गोद में डाल लेना चाहती है ?  स्त्री किसलिए लिखती है ? मीरा और महादेवी किसलिए लिख रही थीं ? सुभद्राकुमारी वीरों का नाम क्यों ले रही थीं ? आज स्त्रीलेखन का प्रयोजन क्या है ? आधुनिक स्त्री स्त्रियों की बेहतरी के लिए लिख रही है या किसी निजीआंकांक्षा को पूरा करने के लिए ?  स्त्रीविमर्श आखिर किस मर्ज की दवा है, जब अपने ही प्रवक्ताओं का इलाज नहीं कर पा रहा है ? स्त्रीविमर्श दृष्टि है या आंदोलन ? क्या सिर्फ और सिर्फ स्त्रियाँ ही अपने बारे में बेहतर कहेंगी ? पुरुष उनके बारे में बेहतर नहीं कहेंगे ? प्रेमचंद और जैनेंद्र आदि ने उनके बारे में खराब कहा है ? क्या स्त्री की मुक्ति केवल देह की मुक्ति है ? स्त्रीस्वतंत्रता का कोई बड़ा सामाजिक और आर्थिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य नहीं है ? क्या यौनसंदर्भ ही जीवन में सबसे बडा है ?  क्या भारत की नब्बेफीसदी स्त्रियों की सबसे बडी समस्या यौनस्वतंत्रता है ? क्या इस देश के महानगरों में रहने वाली उच्चशिक्षाप्राप्त स्त्रियाँ देश की बहुसंख्यक गरीब और अशिक्षित महिलाओ का प्रतिनिधित्व करती हैं ? आज भी ग्रामीण महिलाओं की मुश्किलें किन छोटी-छोटी चीजों के लिए बड़ी से बड़ी हैं, कहने की बात नहीं। सबको पता है। नोन, तेल, लकड़ी और उससे जुड़ी हजार बुनियादी दिक्कतें ही उनके लिए सबसे बड़ी हैं। इन्हीं दिक्कतों का सामना करने के दौरान ही उन्हें कई अत्याचारों और शोषण और प्रतिरोध करने पर दमन का शिकार होना पड़ता है। ऐसा नहीं कि वे मशीन हो गयी हैं या पत्थर की स्त्री बन गयी हैं, उनके हृदय में प्रेम नहीं है या जीवन का उल्लास नहीं है या स्वप्न नहीं है। सवाल यह है कि आज स्त्रीलेखन के परिसर की सीमा क्या है ?  हमारे समय की कथापत्रिकाओं ने किस स्त्रीलेखन को प्रतिष्ठित किया है ? क्या स्त्री और दलित विमर्श का परचम लहराने वाली कथापत्रिका ने कुछ अविस्मरणीय कहानियो को लाने का काम किया है या सिर्फ लेखिकाओं को प्रमोट करने में ही रुचि ली है ? नई कहानी और आंचलिक कहानी का आंदोलन हवा-हवाई था या उसमें कुछ बहुत महत्वपूर्ण कहानियाँ भी आयीं ? कई ताकतवर लेखकों के आने से वह आंदोलन प्रतिष्ठित हुआ। फणीश्वरनाथ रेणु, मोहन राकेश, कमलेश्वर जैसे लेखकों ने अपने समय के रचनात्मक आंदोलन को प्रतिष्ठित किया। क्या यह सच नहीं कि आज कथाकंस का यश का यह सारा साम्राज्य पाप और बेईमानी की धुरी पर टिका हुआ है ? आखिर कुछ लेखिकाओं ने स्त्रीमुक्ति को कथाकंस की दासी के रूप में क्यों देखा ? क्यों नहीं उन्होने अपनी पत्रिका खुद निकाली, बीस पेज की ही सही ? अपनी बात कहने के लिए कथाकंस जैसे बदनाम संपादक की गुलामी क्यों ?
या फिर आजादी के बाद की और अपने से पहले के लेखिकाओं की तरह स्वाधीन लेखन क्यों नहीं किया ?

             यह तो अच्छा हुआ कि कुछ लेखिकाओं ने आभासी दुनिया को माध्यम के रूपमें चुना। अपने स्टेटस, अपने नोट, अपने ब्लॉग के जरिये अपनी बात ताकत से उठायी। इस आभासी दुनिया में मेरी मित्र सूची में कई ऐसी प्रतिभाशाली और दृढ़ चरित्र लेखिकाएँ हैं। जिनके लिए अपने को व्यक्त करना महत्वपूर्ण। किसी पुरस्कार और यश की लालसा नहीं। यह जरूर है कि एफबी पर उनकी सभी रचनाएँ बहुत अच्छी नहीं होती हैं। पर कुछ जरूर अच्छी होती हैं। सभी रचनाएँ किसी की भी अच्छी नहीं होती हैं। बड़े से बड़े कवियों की तमाम कविताएँ औसत होती हैं। कुछ ही होती हैं, जो अविस्मरणीय होती हैं। कुछ रचनाएँ औसत होती हैं, कुछ अच्छी, कुछ बहुत अच्छी और कुछ अविस्मरणीय होती हैं। कविता हो या कहानी, अनगढ़ता में भी कुछ अच्छा दिख जाता है। बहुत गढ़ी हुई कविताएँ या रचनाएँ टकसाली हो सकती हैं। नयापन ही किसी कृति को देखने के लिए सबसे पहले ध्यान खींचता है। यह नयापन, विषय का भी हो सकता है, चरित्र का भी, शिल्प और कथाभाषा का भी। मेरी एक कविता है-‘सफेददाग वाली लड़की’। यह अच्छी कविता नहीं है, साधारण कविता है पर इससे पहले
मैंने कविता में किसी सफेददाग वाली लड.की को नहीं देखा था -

सफेददाग वाली लड़की

कोई
आया नहीं
देखने कि कैसी हो
कहाँ हो मिट्ठू
किस हाल में हो
न तो पास आकर छुआ ही उसे
कोई नब्ज
दिल का कोई हिस्सा
कि बाकी है अभी उसमें कितनी जान
किस रोशनाई और किन हाथों का
है उसे इन्तजार
कहाँ-कहाँ से बह कर आता रहा
गंदा पानी
किसी को हुई नहीं खबर
किस-किस का गर्द-गुबार आ कर
बैठता रहा उस पर
सब अपने धंधे में थे यहाँ
चाहिए था काफी और वक्त था कम
उसके सिवा
मरने की फुर्सत न थी किसी के पास
यह जानने के लिए तो और भी नहीं
कि कैसे हुई अदेख
पृथ्वी के एक कोने में
जमानेभर से रूठकर लेटी हुई
कुछ-कुछ काली
और बहुत कुछ सफेद दाग वाली
कुछ लाल कुछ पीली
एक लंबी नोटबुक
औंधेमुँह
कैसे अपने एकांत में
सिसकते और फड़फड़ाते रहे
पन्ने सब सादे
कैसे सो गये उसके संग
उदास कागज
एक छोटी-सी प्रेम कविता की उम्मीद में
सारी-सारी रात और सारा-सारा दिन
जागते हुए
कोई आए उसे फिर से जगाए।

इसलिए हमेशा बहुत अच्छी-अच्छी कविताओं के चक्कर में ही नहीं रहना चाहिए। जहाँ कुछ दिख जाय, उसे कविता में रचो। मेरे लिए कविता पुनर्जीवन है, चाहें तो पुनर्जन्म कह लें, जिसमें पहले के जीवन में हुई टूट-फूट को ठीक करने की कोशिश करता हूँ। चाहता हूँ कि मित्रसूची में शामिल मेरी बहनें, चाहे राजधानी से बाहर रहती हों या राजधानी में, साहित्य की राजधानी की हवा से महफूज रहें। देश की धड़कन बनें। जहाँ भी रहें, अपनी नौकरी या दूसरी वजहों से, अपने ह्नदय को धरती का विस्तार दें। जरूरत इस बात की है कि लेखिकाएँ सिर्फ रचना तक ही अपने को सीमित न रखें, आलोचना और संपादन में भी दिखें और ताकत के साथ दिखें।

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प्रोफ़ेसर, हिंदी विभाग,
दीनदयाल उपाध्याय यूनिवर्सिटी,
गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर
संपादक : यात्रा साहित्य पत्रिका
ई पता :  yatra.ganeshpandey@gmailcom 

Tuesday, March 12, 2013

महिलाओं के लिए घोषित एक दिन 'महिला दिवस' की क्या वास्तव में कोई सार्थकता है ..?


महिलाओं के लिए घोषित एक दिन 'महिला दिवस' की क्या वास्तव में कोई सार्थकता है ..?
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महिलाओं के लिए 'आधी आबादी' का संबोधन क्या संप्रेषित करता है .?
महिलायें जिस स्वतंत्रता की खोज में हैं ,उसका आरम्भ कहाँ से होता दिखाई देता है .. क्या पर्याप्त है उसके लिए कुछ धरने,कुछ भाषण ,कुछ मार्च .
रेप, मोलेस्टेशन जैसी घटनाओं के बाद पुरुष वर्ग न्याय की मांग के लिए तो महिलाओं के साथ खड़े हो जातें है लेकिन उपलब्धियों के शिखर पर पहुँचती हुई स्त्री को देखकर उसी पुरुष के अहंकार को ठेस पहुँचता है . सार्वजनिक स्थलों पर लड़कियों और महिलाओं को घूरती हुई पुरुषों की आँखों को देखकर नहीं लगता की वो स्त्री को देह से अधिक कुछ समझतें हैं ..

फेसबुक जैसी सोशल साइट्स पर महिलाओं के प्रति पुरूषों का रवैया , महिलाओं की वाल एक्टिविटी .. उनका प्रोफाइल फोटो चेंज करना .. पोस्ट पर लाइक, कमेन्ट को देखकर पुरुषों की तीखी प्रतिक्रियाये .
साहित्य जगत की बात करें तो महिलाओं की उपलब्धियों को लेकर महिलाओं-पुरुषों द्वारा समान रूप से उनके ऊपर गलत रास्ते अपनाने का इलज़ाम लगाना क्या उनको मात्र शरीर मान लेने की बात को पुख्ता नहीं करता .

कामकाजी महिलाओं को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है ... वो समस्याएँ किस तरह की हैं .. उनका हल क्या होना चाहिए ... इन सभी बातों पर एक सामूहिक चर्चा जरुरी है ..क्या आपको लगता है कि दोषारोपण बंद कर के इस आन्दोलन को अपने भीतर से शुरू करने की ज़रुरत है .??

महिलाओं के लिए घोषित एक दिन के लिए मन में कुछ प्रश्न थे ... कुछ  महिलायें जिनमें  गृहिणी, अध्यापिका और लेखिकायें शामिल हैं  उनकी प्रतिक्रया कुछ इस तरह थी ..

 
                                                       
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रोली पाठक                                             
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हम सिर्फ आज ही के दिन नारी के अधिकार व उसके अस्तित्व की बातें करते हैं, क्यों ?
नारी जननी है | घर की इज्ज़त है | पिता का अभिमान, भाई का मान व ससुराल का सम्मान है, जिस पर कभी ठेस नहीं लगनी चाहिए , किन्तु वह स्वयं के लिए क्या है ???

महिलाएं कई प्रकार की होती हैं - शिक्षित महिलाएं, आत्म-निर्भर महिलाएं, घरेलू महिला, समाज-सेविका, संघर्षरत महिला, ग्रामीण महिला, दमित महिला, क्रांतिकारी नारी , समाज सेविका, उपभोग के लिए उपलब्ध नारी, उच्च पदस्थ महिला, राजनीति में सक्रीय नारी , मजदूर स्त्री आदि-आदि |
शहरों व महानगरों की महिलाएं निश्चित ही काफी हद तक स्वतंत्र हैं |

रहन-सहन, वेश-भूषा, निर्णय लेने के अधिकार, आत्मनिर्भरता यह सब उनके अधिकार क्षेत्र में है किन्तु नारी तो वो भी है जो हाथ भर का घूँघट निकाल कर आज भी डोली में बैठ कर जिस देहरी के अंदर आती है, उसकी अर्थी ही उसे लांघ पाती है | इसका बहुत कारण है -
अशिक्षा , रूढिवादिता , दकियानूसी परम्परायें | 

जींस पहन कर फर्राटेदार अंग्रेजी बोलना आधुनिकता नहीं है | फेसबुक, ट्विटर, कम्पूटर, लैपटॉप, टैब , मोबाइल आदि की अधिकतम जानकरी रखना आधुनिकता नहीं है | 

स्वतंत्रता या आधुनिकता है - विचारों का आधुनिकरण | यदि कोई स्त्री स्वयं को स्वतंत्र मानती है, अपना एक अस्तित्व बनाये रखना चाहती है तो आज के दौर में नारी उत्थान के लिए ही कुछ करना अत्यावश्यक है |
आज नारी ही नारी का भला करे, इस सोच को बढ़ाना है | अनपढ़ को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया जाए | समाज की कुरीतियों जैसे - बाल विवाह, कन्या भ्रूण ह्त्या आदि का पुरजोर विरोध कर इन्हें पोलियो की भाँति ही जड़ से उखाड फेंकने का संकल्प लेना चाहिए | 

विधवा विवाह, महिला शिक्षा आदि का समर्थन करना खुले विचारों के साथ करना चाहिए, ना कि आलोचना के साथ |
 
एक महिला होने के नाते ना हमें पुरुषों से बराबरी के विषय में सोचना चाहिए, ना कि उनसे कोई प्रतियोगिता रखना चाहिए , क्योंकि तुलनात्मक अध्ययन ही गलत है | प्रकृति ने पुरुष व स्त्री दोनों को समान बनाया है | हम अपनी राह पर चल कर मंजिल प्राप्त करें | समय-समय पर जिस तरह पुरुष नारी को संबल देता है , उसी तरह नारी भी सहभागिता के चलते उसे दुश्मन ना समझ कर सहयोगी, मित्र व सखा के रूप में ग्रहण करें, तब "महिला दिवस" मनाने की नौबत नहीं आएगी, क्योंकि "पुरुष दिवस" नहीं होता |
हम सकारात्मक व स्वतंत्र सोच रख कर चलेंगे तो हमारा हर दिन -
"महिला दिवस" होगा |
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- रोली पाठक


   सरोज सिंह     


"हमें सत्ता नहीं साथ चाहिये "
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महिलाओं का 'आधी आबादी' का संबोधन तब तक पूर्ण नहीं है जब तक कि अधिकारों पर आधे का अधिपत्य न हो ....और यही कारण है कि व्यवस्था को महिलाओं को "महिला दिवस"रूपी लोली पॉप से रिझाने की जरुरत पड़ती है, मैं तो "महिला दिवस" मनाने के सख्त खिलाफ हूँ ऐसा कर हम समाज में अपने को कमतर और कमजोर साबित करते हैं "पुरुष दिवस" क्यों नहीं मनाया जाता ?हालाकिं "यह खाई अरसों से बनती आई है, तो पाटने में बरसों लगेंगे "

सबसे पहले तो हमें अपने दिलो दिमाग से यह सोच निकालनी होगी की हम किसी से हीन या कमजोर हैं और हमारे लिए अलग से सहूलियतें मुहैया हों। यह जरुर है हमें इसके लिए खुद को मजबूत बहुत मजबूत करना होगा !प्रयास इस दिशा में हो न की हमें महिला काउंटर, महिला रेल,महिला नौकरी में सहूलिययतों का झुनझुना पकड़ा दिया जाए और महिला दिवस के दिन बड़ी बड़ी भाषण बाजी हो और हम संतुष्ट हो जाएँ !

".अरस्तु "ने कहा था कि-"नारी की उन्नति या अवनति पर ही राष्ट्र की उन्नति या अवनतिआधारित है।"स्वतंत्रता संग्राम के मध्य नारीयों के योगदान को देख कर महात्मा गाँधी ने कहा था कि-"नारी को अबला कहना उसका अपमान करना है।" और मै समझती हूँ अबला और नारी दिवस में कोई विशष अंतर नहीं है !

.... हाँ कुछ समस्याएं बहुत गंभीर हैं आज गर्भ से लेकर गृह तक महिलाएं कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं ! चेष्टा इस दिशा में हो और वो भी मात्र एक दिन का प्रयास नहीं इसके लिए जुझारू रूप से रोज़ की लड़ाई लड़नी होगी ......!
हमारे पोशाकों ,देर रात बाहर निकलने पर की गई आपत्तियों का डटकर करारा जवाब देना होगा ! सड़क चलते छेड़खानी ,घरेलु हिंसा ,शोषण ...पर हमें भी कमर कसनी होगी ..निरीह हो हम पुरुष,व्यवस्था और समाज से उम्मीद लगाए नहीं बैठ सकते ! हमें सत्ता नहीं साथ चाहिये ...और अंत में यही कहना है कि ........!


ना पथ प्रदर्शक ना अनुचर

हम है सभी के समानांतर

जीवन मूल्यों का निर्वाह कर

बढ़ना,निर्बाध गति से निरंतर !

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आशा पाण्डेय ओझा 

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही प्रश्न उठता है आख़िर यह दिवस मानाने की नौबत क्यों आ रही है .. अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस क्यों नहीं मनाया जता प्रश्न का उत्तर भी ज्ञात है ,जब तक स्त्री सभी बाधाओं को दूर करती हुई ..सफलताओं के डग भरती हुई .. सारी खाइयों व भेद को पाटती हुई आगे नहीं बढ़ेगी तब तक दीन ,हीन बनी महज दया का पात्र बनेगी रहेगी .. स्त्री दिवस मनना हमारे लिये गौरव की बात नहीं बल्कि यह साबित होता है कि हम पुरुषों के मुकाबले कमज़ोर व असहाय हैं ,यह आम धारणा जो बनी हुई है कि पुरुष अधिक बलशाली ,समर्थ है बुद्धिमान है ..पुरुषों की बनाई हुई इस धारणा को स्त्री भी स्वीकार करती आई है उसकी इस मौन स्वीकारोक्ति ने उसें कमजोर ना होते हुवे भी कमजोर सिद्द किया है .. क्योंकि स्त्री महत्वाकांक्षी नहीं है ,वो सहनशील है ..त्याग से भरी है ..ये उसके गुण ही उसके विकास में बाधक बने हैं .. जाने क्यों स्त्री अपनी ही बुराई बड़ी आसानी से सह जाती है ..जिस रामायण में तुलसीदास जी लिखते हैं ढोर ,गंवार ,क्षुद्र ,पशु नारी ये सब ताड़न के अधिकारी ..उस बात को बड़ी आसानी से पचा ही नहीं गईं बल्कि उस रामायण को माथे पर लगा कर बलाईयां लेती हैं .. बजाय प्रश्न उठाने के कि क्यों है व ताड़ना की अधिकारी ?जबकि सच्चाई यह की तुलसीदास को गोस्वामी तुलसी दास बनाने का श्रेय भी एक स्त्री के खाते में जाता है .. अकेला न पुरुष पूर्ण है न स्त्री .!.यह परम व सर्वमान्य सत्य है कि प्रत्येक सफ़ल पुरुष के पीछे एक स्त्री है .. यानि उसका प्रेम , त्याग उसकी प्रेरणा उसका मार्गदर्शन व उसका विश्वास पुरुष को सफल बनाने के साधन हैं ,पर क्या एक सफल स्त्री के पीछे पुरुष है ?शायद बहुत कम .. जब स्त्री पुरुष के साथ सूरज लेकर चल सकती है उसें प्रगति की राह पर आगे बढ़ाने को तो पुरुष क्यों कतराता है उस स्त्री की राह में दीया भी जलने से ,,सिर्फ़ सम्मेलनों व गोष्ठियों भर में चर्चा परिचर्चा कर लेना या ..एक दिन धरना प्रदर्शन कर लेना या कोई एक दिवस भर घोषित कर देने भर से अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेता है पुरुष वर्ग .. क्या कोई पुरुष आज तक नारी की गूंगी पीड़ा को आवाज़ दे पाया है ?.. पुरुष ने स्त्री के माथे सारे कर्तव्यों के बोझ के टोकरे रख दिये ..फिर कहा यह हमारे बराबर दौड़ नहीं सकती ..स्त्री भी भी अपने सर के बोझ को बराबर बाँटने के बजाय यह मान लिया कि वाकई वो पुरुष के बराबर दौड़ नहीं सकती .वो भूल क्यों जाती है वो सृष्टि की सृजनकर्त्ता है !उसके पास पुरुष सें अधिक बौधिक व शारीरिक क्षमता है ..उसें जरुरत है संव्य के गुणों को पह्चानने की ..अपने सपनो की बात सुनने की ..पुरुषसत्तात्मक सोच को धिकियाते हुवे अपने आप को उनके बराबर खड़ा करने की ..इस पुरुष प्रधान समाज ने संसार को सदा ही खांचों में बांटा ..अंतिम खांचे में नारी को रखा .. नारी को हमेशा खुद की निजी संपत्ति समझा ..उसें अपने अनुसार हांका ..फिर उस पर कमजोर होने के इलज़ाम भी लगाये .दोहरी रणनीति खेलते इस पुरुष ने हमेशा नारी को नारी के खिलाफ़ इस्तमाल भी किया !

 अब भी यह तय है की कोई पुरुष किसी स्त्री को आगे बढ़ता हुआ नहीं देख सकता .. जब लेखन ..अधिवक्ता .. मिडिया चिकित्सक या किसी भी क्षेत्र में कार्यरत नारी अपने पुरुष सहकर्मियों से आगे निकल कर श्रेष्ठ साबित होती है तो वो ही पुरुष मन अवगुंठित विरोध करने लगता है जो खुद कभी उसें आगे बढ़ने की प्रेरणा देता था ..उसका मन ईर्ष्या से भर उठता है ..वो फिर उसें गिराने के लिये साम- दाम- दंड- भेद अपनाता है .

अत :मेरा मानना है महिला दिवस मनना न मनना कोई माने नहीं रखता जब तक स्त्री पूर्ण से स्वतंत्र होकर खुद के फैसले खुद नहीं लेगी !

स्त्री को चाहिए कि व खुद के प्रति खुद के मन में आते नकारत्मक विचारों से बचे .. समय संयोजन से खुद के लिये वक्त जरुर निकले खुद के सपनो की अनदेखी न करे ..वो समझौते  कतई न करे जो उसके अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगाये ,आत्मविश्वास को बढ़ाये .. अपनी राह में बाधा बनती .. हर मानसिकता का मुंह तोड़ जवाब दे .. हर दिन को महिला दिवस बनाये .. इतनी ऊँचाइयों पर जाये नारी यही कामना है ..
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मृदुला शुक्ला     

आओ मनाएं फिर से एक औचित्य हीन महिलादिवास ,जंह वे औरतें इकट्ठी होकर भाषण करेंगे ,गोष्ठी और सेमीनार मैं हिस्सा लेंगी जिनकी अपनी न तो कोई पीड़ा है और न ही कोई ध्वनी वे तो प्रतिधावनी मात्र हैं इस समाज की सुशुप्त इच्छाओं की ,जो असमानता का अर्थ ही नहीं जानती ,वे उस स्त्री समाज का प्रतिनिधत्व करती हैं जिसे बदलाव की जरूरत ही नहीं है कन्या भ्रूण हत्या से लेकर ..............................गैंग रेप तक की जघन्यतम समस्याओं से जूझता स्त्री समाज एक दिन फिर टेबल बजा काफी पी औपचारिक महिला दिवस मनायेगा और अगले वर्ष तक के लिए भूल जाएगा.


आइये मनाएं महिला दिवस
की शायद कल हट सकें
अस्पतालों के बाहर लगी तख्तियां
जिन पर लिखा होता है
की "यहाँ लिंग परिक्षण नहीं किया जाता"
(की जो इशारा मात्र होता है
यह बताने का यहाँ ये संभव है)

की शायद बंद हो सके
दी जाने वाली बधाईयां
पुत्र जन्म पर
गाये जाने वाले सोहर
बजाई जाने वाली थाली
हिजड़ों के नाच
और बेटी के जन्म पर
"कोई नहीं जी आजकल तो
बेटे और बेटी बराबर हैं"

की शायद फिर न
नोच कर फेक दी जाए
गटर के पास कोई कन्या
जो पिछले नवरात्रों में
पूजी गयी थी
देवी के नाम पर

की शायद बंद हो सके चकले
जहाँ हर दिन औरत
तौलकर खरीदी जाती है
बकरे और मुर्गे
के गोश्त के भाव

की शायद जीवन साथी चुनते समय
देखि जाए सिर्फ और सिर्फ लड़की
न तौली जाए रूपए या रसूख के पलड़े पर
और फिर न ढ पड़े किसी बाप को अपनी
जिन्दा जलादी गयी बेटी की लाश

की शायद खाली पेट
और दोहरी हुई पीठ
पर बच्चा बांधे
सर पर सीमेंट का टोकरा लिए
बिल्डिंग की इमारत पर चढ़ती औरत
न तौली जाए
ठेकेदार की नज़रों से
रात के
स्वाद परिवर्तन के लिए

की शायद फिर न
कोई प्यारी खूबसूरत शक्ल
जला दी जाए एसिड से
अस्वीकार करने पर
अवांछित प्रणय निवेदन

की हम औरते भी मानी जाए
देह से परे भी कुछ
बलत्कृत न हों
हर बार
घर से बाहर निकलने पर
भीतर तक भेदती निगाहों से
और उन गालियों से
जो हमारे पुरुषों को दी जाती हैं
हमारे नाम पर

की शायद.........
की शायद......

की हम भी
स्वीकार कर लिए जाएं
सामान्य इंसान की तरह
आइये मनाये महिका दिवस
इस उम्मीद के साथ
की अगले वर्ष कुछ तो
बदला रहेगा हमारे लिए

मृदुला शुक्ला      


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गीता पंडित      

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                      धन्य हुई स्त्री आज एक दिन तो कम से कम उसे सम्मानित किया गया | एक दिन की साम्राज्ञी बनाया गया | उसके लियें जय - जयकार के नारे लगाए गये जिसने उम्रभर संस्कारों को जिया | घूँट - घूँट समर्पण को पिया | बंद कमरे, बंद तहखानों में बिन हवा धूप रोशनी के स्वयं को भुलाकर तुम्हें केवल तुम्हें स्मरण किया | आहा !!!! तालियाँ बजानी चाहियें उसे आज वो कृतग्य हुई |

                   यही हुआ हमेशा कभी लक्ष्मी, कभी देवी दुर्गा पूजनीया बनाकर अस्तित्व ही छीन लिया | उसमैं स्त्री कब रही उसे याद नहीं | केवल भोग्या, दासी, इंसान कब समझा गया ? हर काल में, हर हाल में समर्पिता होकर भी समर्पण को तरसती रही, घुट्ती रही | क्या कहूँ बहुत क्षोभ है, बहुत पीड़ा है आक्रोश है, फिर भी प्रेम है तुमसे |

               स्त्री यानी आधी आबादी, पराये तो पराये अपनों से ही त्रस्त, अपनों से ही खौफज़दा | ओह!!!!! अपनों पर भी विश्वास न कर पाये तो कहाँ जाये, किससे कहे, कैसे सहे, कैसे निबटे ? घर या बाहर हर जगह असुरक्षित |

               लेकिन कितना भी तोड़ो, नोचो खसोटो, आघात करो उन अंगों पर जहाँ से तुम्हें जन्म मिला है वो न टूटेगी, न अंधेरों को अपना साथी बनाएगी |

                     वो देह नहीं मन है, विचार है | निडर हो जियेगी | वो सृष्टा है, निर्मात्री है सृष्टि की | फिर से निर्माण करेगी एक
नयी सृष्टि का, जहाँ वह स्त्री होने का सुख भोग सके, और गर्व कर सके अपने जननी होने पर | आमीन !!!!!!




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 उपासना सियाग    
 

महिलाओं के लिए घोषित एक दिन 'महिला दिवस' की क्या वास्तव में कोई सार्थकता है ..?
इसका उत्तर है , " नहीं "
हाँ यही सही है कि स्त्री मात्र देह ही है और कुछ नहीं ...!
पुरुष सिर्फ बातों से ही स्त्री का साथ देता है और वह भी दूसरों की ...उसके स्वयं की पत्नी अगर उससे आगे बढ़ जाती है तो उसके लिए यह असहनीय है .......
फेसबुक की बात मत कीजिये यहाँ सब भ्रम है ...यहाँ भी मन में कुछ और सामने कुछ और यहाँ पर भी औरतों के प्रति कोई खास सम्मान की भावना नहीं है .
लेकिन मैं बात करुँगी सिर्फ घरेलू स्तर की औरतों की ...यहाँ पर जो पीड़ित होती है वही आगे जा कर पीड़क बन जाती है तो सुधार कहाँ हुआ ...मुझे आज तक यह समझ नहीं आया जो स्त्री अपनी आज़ादी की बात करती है अपने पर हुए जुल्मो की दुहाई देती रहती है , वह जब सास बन जाती है तो क्या वह औरत नहीं रहती ...! सुधार जब तक घरेलू स्तर पर नहीं होता , कोई भी उम्मीद नहीं की जा सकती ..यहाँ शिक्षा भी मायने नहीं रखती. सिर्फ आपसी ईर्ष्या को भुला कर आगे बढ़ना होगा .

Sunday, March 10, 2013

"अपनी दिशा दशा सतर्कता से निर्धारित करें स्त्रियाँ "- रंजना सिंह

रंजना सिंह 
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शिक्षा - स्नातकोत्तर (साहित्य)
कार्य - प्रबन्ध निदेशिका (आईटी फार्म)
स्थान - जमशेदपुर (टाटानगर)
रुचियाँ - साहित्य, संगीत, समाज सेवा, पठन पाठन, लेखन (ब्लॉग - संवेदनासंसार, ब्लागस्पाट पर, तथा विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में )







    एक स्त्री हूँ,उन समस्त विषम परिस्थितियों से गुजरी हूँ जिससे एक आम भारतीय स्त्री को गुजरना पड़ता है.अपने आस पास असंख्य स्त्रियों को भी उन त्रासदियों से गुजरते,उनसे जूझते, देखा सुना है, परन्तु फिर भी बात जब समग्र रूप में स्त्री पुरुष की होती है तो पता नहीं क्यों लाख चाहकर भी इस विषय को मैं स्त्री पुरुष के हिसाब से नहीं देख पाती..मैं यह नहीं मान पाती कि पूरा स्त्री समुदाय पीड़िता और पुरुष समाज प्रताड़क है..आज तक के अपने अनुभव में जितनी स्त्रियों को पुरुषों द्वारा प्रताड़ित देखा है उससे कम पुरुषों को स्त्रियों द्वारा प्रताड़ित नहीं देखा,चाहे वे किसी भी जाति धर्म भाषा या आय वर्ग से सम्बद्ध हों.

                सृष्टि के प्रारंभ से ही मनाव समाज में अच्छे बुरे लोग रहें हैं और आगे भी रहेंगे..सदियों से समाज में न ही कुल समाज उद्धारक स्त्रियों की कमी रही है और न ही कुलनाशक विपत्तिसृजनी स्त्रियों की. अपने कर्मो से यदि प्रजाति को गौरवान्वित करने वाली स्त्रियाँ हुई हैं तो दुष्टता के प्रतिमान स्थापित करती स्त्रियों की भी कोई कमी नहीं..बल्कि सहज ही देखा जा सकता है,एक स्त्री दूसरी स्त्री के लिए जितना कठोर हो सकती है,जिनती मानसिक यंत्रणा दे सकती है, उसकी बराबरी पुरुष शायद नहीं कर पाएंगे. पुरुष में पुरुषत्व के अहंकार को,उसके प्रताड़क रूप को भी भिन्न भूमिकाओं में स्त्रियाँ ही परिपुष्ट और पूर्ण करती हैं.

              वस्तुतः स्त्री पुरुष का अबला- सबला और प्रताड़क- प्रताड़ित वाला यह विषय और द्वन्द स्त्री पुरुष का है ही नहीं. मनुष्य से लेकर पशु जगत तक में एक ही एक सिद्धांत अनंत काल से चलता आ रहा है और सदा चला करेगा..और वह है." जिसकी लाठी उसकी भैंस ".. यह "लाठी " शारीरिक बल वाली नहीं, बल्कि बौद्धिक क्षमता वाली है..यहाँ बौद्धिक क्षमता से मेरा तात्पर्य विधिवत शिक्षा से उपार्जित बौधिकता से नहीं, बल्कि सामान्य सोच समझ से है..स्त्री पुरुष दोनों में से जिसमे भी सूझ बूझ अधिक होगी,अपनी बात मनवाने की कला में भी वह अपेक्षाकृत अधिक कुशल होगा..अपने आस पास ही देखिये न,कई घरों में एक अनपढ़ स्त्री भी माँ बहन पत्नी या बेटी किसी भी रूप में यदि मानसिक रूप से अधिक सबल या समझदार होती है तो घर में उसीका सिक्का चलता है.अपने से कई गुना बली या पढ़े लिखे पर वह अति स्वाभाविक रूप से शासन करती है..यह सर्वसिद्ध है कि स्त्री हो या पुरुष ,व्यक्ति नियोजन में जो जितना कुशल/चतुर होगा, चाहे परिवार में हो या समाज में, अपना स्थान और स्थिति सुदृढ़ करने में वह उतना ही सक्षम होगा. बाकी रही चुनौतियों की बात तो,यदि नारी अपने जीवन में कंटकाकीर्ण पथ पर चलने को बाध्य है तो पुरुषों के जीवन में भी कम चुनौतियां नहीं हैं..

                जहाँ तक क्षमताओं की बात करें,निश्चित रूप से प्रकृति/ईश्वर ने स्त्रियों को मानसिक रूप से पुरुषों की तुलना में अधिक सबल और सामर्थ्यवान बनाया है.श्रृष्टि रचना का स्रोत पुरुष अवश्य है परन्तु श्रृष्टि की क्षमता स्त्रियों को ही है..संभवतः इसी कारण ईश्वर ने स्त्रियों को शारीरिक बल में पुरुषों से कुछ पीछे कर दिया,क्योंकि यदि दोनों एक साथ स्त्रियों को ही मिल जाता तो इसकी प्रबल सम्भावना थी कि संसार में पुरुषों की स्थिति अत्यंत दयनीय होती..

                                      हाँ, यह अवश्य कहा जा सकता है कि स्त्री की इसी अपरिमित क्षमताओं से भयभीत होकर उसके समग्र विकास की प्रत्येक सम्भावना को बाधित और कुंठित करने का यथासंभव प्रयास किया जाता रहा है. परन्तु पिछले कुछ दशकों से स्त्री उत्थान की दिशा में जो भी महत प्रयास किये जा रहे हैं, ये कम उत्साहजनक नहीं.वस्तु और भोग्या रूप से बाहर निकल उसे मनुष्य समझने का सार्थक प्रयास समावेशी रूप से हो रहा है. वस्तुतः यही वह अनुकूल अवसर है जब स्त्रियाँ अपनी दुर्बलताओं को भली भांति चिन्हित कर उससे बाहर आ सच्चे अर्थों में सबलता प्राप्त करें. उसे यह कदापि नहीं विस्मृत करना चाहिए कि उसके शरीर और सुख दे पाने की क्षमता के कारण ही वर्षों तक पुरुषों द्वारा उसे वस्तु और भोग्या बनाकर रखने का यत्न किया गया. अपने उसी अपरिमित सामर्थ्य अपने शरीर, अपने देय क्षमता को, उसे सतत जागरूक होकर संरक्षित और मर्यादित रखना है..भोगवादी प्रवृत्ति पुरुषों में भी यदि है तो वह उनका मानसिक दौर्बल्य ही है,उसे यदि स्त्री भी बराबरी का अधिकार मानते हुए अंगीकार करेगी तो फिर तो परिवार समाज और संस्कृति का अस्तित्व ही नहीं बचेगा. अगले कुछ वर्षों में आर्थिक स्वाबलंबन की दिशा में स्त्रियाँ कीर्तिमान स्थापित करेंगी, परन्तु उसे सतत यह स्मरण रखना होगा कि लक्ष्य भौतिक भोग विलास भर नहीं.स्वयं तथा अपनी प्रजाति का उत्थान,परिवार समाज और संस्कार संस्कृति का रक्षण भी उन्ही का दायित्व है, क्योंकि यह संरक्षण शारीरिक बल से नहीं बल्कि मानसिक बल से ही संभव है और यह मनोबल संपन्न स्त्री ही कर सकती है.स्त्री यदि एक नया शरीर उत्पन्न कर सकती है तो श्रृष्टि का संरक्षण भी कर सकती है..

मुझे लगता है यदि मैं परिवार समाज में सम्मान की अपेक्षा करती हूँ, अधिकार और बराबरी की अपेक्षा करती हूँ,तो इसके लिए सबसे पहले मुझे अपने आप को ही स्त्री पुरुष के इन विभेदों से ऊपर उठाना पडेगा,स्वयं को मनुष्य समझना पड़ेगा..तभी किसी और से मैं अपेक्षा कर सकती हूँ कि वह मेरे विषय में इन सबसे ऊपर उठकर सोचे..मुझे स्त्री पुरुष के भेद से न देखे..यदि हम अपने आचरण में दृढ़ता लायें,स्वयं को दोषमुक्त करें, तो नारी उत्थान के मार्ग को कोई कभी अवरुद्ध न कर पायेगा..

Saturday, March 09, 2013

महिलाओं के लिए घोषित एक दिन 'महिला दिवस' की क्या वास्तव में कोई सार्थकता है ..? - शिखा वार्ष्णेय

महिलाओं के लिए घोषित एक दिन 'महिला दिवस' की क्या वास्तव में कोई सार्थकता है ..?
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महिलाओं के लिए 'आधी आबादी' का संबोधन क्या संप्रेषित करता है .?
महिलायें जिस स्वतंत्रता की खोज में हैं ,उसका आरम्भ कहाँ से होता दिखाई देता है .. क्या पर्याप्त है उसके लिए कुछ धरने,कुछ भाषण ,कुछ मार्च .
रेप, मोलेस्टेशन जैसी घटनाओं के बाद पुरुष वर्ग न्याय की मांग के लिए तो महिलाओं के साथ खड़े हो जातें है लेकिन उपलब्धियों के शिखर पर पहुँचती हुई स्त्री को देखकर उसी पुरुष के अहंकार को ठेस पहुँचता है . सार्वजनिक स्थलों पर लड़कियों और महिलाओं को घूरती हुई पुरुषों की आँखों को देखकर नहीं लगता की वो स्त्री को देह से अधिक कुछ समझतें हैं ..

फेसबुक जैसी सोशल साइट्स पर महिलाओं के प्रति पुरूषों का रवैया , महिलाओं की वाल एक्टिविटी .. उनका प्रोफाइल फोटो चेंज करना .. पोस्ट पर लाइक, कमेन्ट को देखकर पुरुषों की तीखी प्रतिक्रियाये .
साहित्य जगत की बात करें तो महिलाओं की उपलब्धियों को लेकर महिलाओं-पुरुषों द्वारा समान रूप से उनके ऊपर गलत रास्ते अपनाने का इलज़ाम लगाना क्या उनको मात्र शरीर मान लेने की बात को पुख्ता नहीं करता .

कामकाजी महिलाओं को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है ... वो समस्याएँ किस तरह की हैं .. उनका हल क्या होना चाहिए ... इन सभी बातों पर एक सामूहिक चर्चा जरुरी है ..क्या आपको लगता है कि दोषारोपण बंद कर के इस आन्दोलन को अपने भीतर से शुरू करने की ज़रुरत है .??

महिलाओं के लिए घोषित एक दिन के लिए मन में कुछ प्रश्न थे ... कुछ महिलाओं के सामने ये प्रश्न रखे जाने पर उनकी प्रतिक्रया कुछ इस तरह थी .... इस श्रृंखला में आज पहले दिन पत्रकार , लेखिका शिखा वार्ष्णेय के विचारों का फरगुदिया पर स्वागत हैं ........
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नाम - शिखा वार्ष्णेय 
जन्म स्थान - नई दिल्ली 
मोस्को स्टेट यूनिवर्सिटी से टीवी जर्नलिज्म में परास्नातक ( with honor ) करने के बाद  कुछ समय भारत में एक टीवी चेनल में न्यूज़ प्रोडूसर के तौर पर काम किया .वर्तमान में लन्दन में स्वतंत्र पत्रकारिता और लेखन में साक्रिय. 
 साहित्य निकेतन परिकल्पना सम्मान 2009,2010 - यात्रा वृतांत के लिए एवं संवाद सम्मान द्वारा संस्मरण  के लिए वर्ष की श्रेष्ठ लेखिका सम्मान.
प्रकाशित पुस्तक -संस्मरण/यात्रा वृतांत  - "स्मृतियों में रूस "(डायमंड बुक्स -२०१२) के लिए  "जानकी बल्लभ शास्त्री साहित्य सम्मान" 


               कुछ दिन पहले "इनकार" फिल्म देखी, कॉरपरेट जगत में बुलंदियों को छूती एक स्त्री के शोषण की कहानी और फिलहाल में ही लन्दन के एक समाचार पत्र में एक सतम्भ "हाँ पहुँच गईं महिलायें शीर्ष पर , तो क्या ?" पढ़ा , जिसमें लेखिका का कहना था कि बेशक आज महिलायें हर क्षेत्र में शीर्ष पर पहुँच गई हैं पर उस पद की वांछित शक्ति उनके पास नहीं होती , उसका सञ्चालन अभी भी कहीं कोई पुरुष प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कर रहा होता है .मेरे दिमाग में जो पहला सवाल आया वह यह कि रोमन सभ्यता में नारी की दशा से, रूस में 1860 की नारी वादी क्रांति से आरम्भ होकर 1936 में स्पेन की क्रांति से होते हुए हम बहुत आगे आ गए हैं। पर क्या और कितना बदला है . जमीनी तौर पर देखा जाए तो आज भी हम वहीँ हैं जहाँ से चले थे।
1860 में शुरू हुए 8 मार्च के महिला दिवस को आज भी हमें टॉफी की तरह पकड़ा दिया गया है . की ये लो पकड़ो फूल और चॉकलेट और चुप बैठो . उतना ही तुम्हें लेने का हक है जितना हम देना चाहते हैं। इससे इतर अपनी इच्छा या मर्जी से कुछ करने का तुम्हें कोई हक नहीं .

                             आज भी किसी महिला को उसके अपने बूते पर अपने से उच्च स्तर पर जाते देख पुरुष अहम् को ठेस पहुँचती है ,और वे येन केन प्रकरेण उसे नीचे धकेलने में अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं। आज भी किसी महिला की प्रगति या प्रतिभा को उसका जायज श्रेय देने को हमारा समाज तैयार नहीं होता। उसकी हर प्रतिभा और तरक्की को उसके औरत होने के पीछे धकेल दिया जाता है , और उस पर यदि वह थोड़ी खूबसूरत और जवान भी हो तो उसकी सारी उपलब्धियों का क्रेडिट बेझिझक उसकी सूरत के हवाले कर दिया जाता है. यानि सीधा सीधा ये ऐलान , कि अगर तुम कुछ हो , या कुछ बनना  चाहती हो तो हमारी बदौलत, वरना तुममे अपनी कोई क़ाबलियत नहीं . सामने कुर्सी पर बैठ कर बोलो, हम तालियाँ बजा देंगे, थोडा बहुत सम्मान भी दे देंगे , पर खबरदार जो मंच पर हमारे साथ चढ़ने की कोशिश की , परिणाम स्वरुप बहुत कुछ भुगतना पड़ सकता है. और यदि तुममे हिम्मत है शब्दों या कानूनी लड़ाई लड़ने की तो हमारे पास राम बाण हैं - नैतिक/चरित्रगत आक्षेप। उससे पार पाना तुम्हारे बस का नहीं।


                          असल में औरतों के शोषण की सबसे बड़ी वजह शायद यही है कि आज भी बहुत सी रुढियों से आजाद होकर , आत्म निर्भर होकर और शिक्षित होकर भी वह इस तथाकथित चारित्रिक बंधन से मुक्त नहीं हो पाई है. आज भी वह किसी पुरुष मित्र या कलीग के साथ व्यावसायिक चर्चा कर मीटिंग रूम से बाहर निकलती है तो बाहर लोग मुंह छिपा कर हँसते हैं या फब्तियां कसते हैं , ऐसे में वह पुरुष तो गर्व से मुस्कुरा देता है परन्तु महिला दुखी होती है.वह अपने चरित्र पर उठती उंगली आज भी बर्दाश्त नहीं कर पाती. और शायद यहीं वह चूक जाती है और पुरुष समाज जीत जाता है. पुरुष कभी अपने चरित्र पर उठती किसी उंगली को अपनी तरक्की में बाधा नहीं बनाता। जबकि स्त्री इसी डर से हर मौक़ा छोड़ देती है और बेवजह उस कारण से मानसिक और शारीरिक शोषण का शिकार होती है, जो खुद उसकी ही देह से जुड़ा है.


 

                                  आज इस मकाम पर जहाँ कम से कम कानूनी तौर पर महिलाओं को हर वो हक हासिल है जो पुरुष को है ,जरूरत इस बात की है कि स्त्री अपनी खुद की सीमाओं से बाहर निकले। उसे जरूरत साल में एक दिन की नहीं , बल्कि हर दिन में अपने बराबर के हिस्से की है.उसके किसी भी नैतिक, सामाजिक या चारित्रिक सीमाओं का निर्धारण करने का किसी पुरुष समाज को हक नहीं कि वह कैसे उठे , बैठे, कहाँ , किससे बोले या मिले , क्या पहने या क्या काम करे। अपनी मानसिक या शारीरिक जिम्मेदारियां वह खुद संभाल लेगी। जरूरत अब उस पुरुष वर्ग को सिखाने की है कि यह महिला नाम की जीव भी इंसान है, इसका भी समाज में वही अधिकार और स्थान है जो तुम्हारा है। अत: उसे तुम्हारी पूजा या श्रद्धा नहीं चाहिए , उसे चाहिए तुम्हारा एक इंसान के प्रति दूसरे इंसान का एक सामान्य : और सम्माननीय व्यव्हार. और यह कोशिश हर उस स्त्री को ही करनी होगी, जो एक बेटी है , एक पत्नी है और सबसे बढ़कर जो बेटे की माँ है.

Friday, March 08, 2013

बेरंग जिंदगियों में रंग भरती 'फरगुदिया' - एक प्रयास

लक्ष्मी     


पिछले दिनों फरगुदिया समूह द्वारा आयोजित कार्यक्रम  ' इनकी भी सुनें ' में झुग्गी-बस्ती में रहने वाली कुछ महिलाओं ने अपनी समस्याओं को हमसे साझा किया, ज्यादातर घरों में काम करने वाली महिलाऐं अपनी आर्थिक स्थिति से परेशान थी , कुछ को  स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या थी.
 
         उन्ही में से एक महिला लक्ष्मी अपने दांतों की बीमारी से बहुत परेशान थी, उसके लगभग सभी दाँतों में इन्फेक्शन की वजह से दांतों की जड़ों  में पस पड़ चुका था, सामने के सारे दांत गल जाने  से लक्ष्मी ठीक से मुस्कराती भी नहीं थी.

       लक्ष्मी को जब हम डेंटिस्ट के पास  ले  गए  तो  डॉ  ने दांतों की बीमारी की वजह से शरीर  के दूसरे हिस्सों  में पड़ने  वाले  बुरे  प्रभाव  के बारे  में भी बताया, लक्ष्मी को तुरंत इलाज़ की जरुरत थी, फरगुदिया समूह के कुछ सदस्यों के सहयोग से लक्ष्मी के दाँतों का इलाज़ संभव हो सका.

     लक्ष्मी के रूट केनाल ट्रीटमेंट में लगभग दो महीने का समय लगा, इलाज़ के दौरान डॉक्टर्स के मित्रवत व्यवहार से लक्ष्मी को एक मोरल सपोर्ट भी मिला,  एक तरह से इलाज़ के साथ-साथ उसकी काउंसलिंग भी होती रही, उसको उसके  हाथों.. वस्त्रों  और शरीर की साफ़-सफाई के बारे में भी डॉ समझाते रहे.
     
   लक्ष्मी के दांत अब पूरी तरह से ठीक हैं, वो खुलकर मुस्कराती है, अब वो जब भी मिलती है उसमें एक अलग तरह का आत्मविश्वास नज़र आता है,    लक्ष्मी को बांगला  भाषा आती है, वो हिंदी भी सीखना चाहती   है .

    घर से कभी अकेली बाहर ना निकलने वाली लक्ष्मी ने इलाज़ के दौरान अकेले बाहर निकलना शुरू किया , एक दो दिन की हिचक के बाद वो बेहिचक अकेले हॉस्पिटल जाने लगी .

       इस सार्थक उद्देश्य में सहयोग करने के लिए वंदना ग्रोवर जी, चंद्रकांता, रश्मि भारद्वाज और निरुपमा जी का हार्दिक आभार !!


 एक कदम बढ़ाने की जरुरत है, बेरंग जिंदगियों में रंग भरते देर नहीं लगेगी .... 














  प्रस्तुति
फरगुदिया समूह 

Saturday, March 02, 2013

माघ के सवनवा -सरोज सिंह

सरोज सिंह     
निवास : जयपुर
नैनीताल से भूगोल विषय स्नातकोत्तर एवं बी एड 
बास्केटबाल उत्तर प्रदेश राज्य स्तर पर सहभागिता 
विवाहोपरांत कुछ वर्षों तक सामाजिक विज्ञानं की शिक्षिका रहीं.  
सी आई एस ऍफ़ " के परिवार कल्याण केंद्र की संचालिका के तौर पर कार्यरत 
 "स्त्री होकर सवाल करती है" (बोधि प्रकाशन) ,युग गरिमा और कल्याणमयी पत्रिका और विभिन्न ई पत्रिका में कविताएँ प्रकाशित हैं





"बदलते मौसम का मिजाज़ हो,  या गींव की मीठी याद, संघर्ष करती स्त्री के प्रति संवेदना,व्यंग, उलाहना .... हर रंग के भाव लिए सरोज जी की रचनाओं को पढ़ना एक अलग तरह के सुखद अनुभव से गुजरना है ... प्रस्तुत है सरोज जी की कुछ रचनाएँ 'फरगुदिया' पर ... "



1- 

वो पीपल की छाँव     
_________________

वो पीपल की छाँव,
वो गंगा की नाँव
वो बरगद की ठांव
है वही मेरा गाँव,



वो आँगन की खटिया

वो जूट की मचिया ,
वो राब की हंडिया
वो स्लेट की खड़िया,

वो सावन की “कजरी”

वो बलिया की “ददरी “
चईता,बिरहा” की नगरी ,
बगईचा की साँझ दुपहरी,

वो चूल्हे का धुआं

वो पास का कुआं
चाचा का अखाडा
वो गिनती वो पहाडा

वो भूंजा भुनाने

वो आजी के उल्हाने
बडकी भौजी के ताने
वो मझली का गाने

वो छट का ठेकुआ

वो फाग का फगुआ
वो लाई का तिलवा
वो आटे का हलुआ

वो परसाद की मिसरी

बसरोपन की टिकरी
वो मटर की घुघरी ,
वो सकरात की खिचड़ी

वो लिट्टी और चोखा

वो बेसन का “धोखा ‘
क्या था स्वाद अनोखा
खेल वो “ओका बोका”
जब याद आता है मन भर आता है
******


2-
(भोजपुरी गीत )

माघ के सवनवा 

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सखी,माघ महिनवा अमवा मउराला
 
देख त कईसन सवनवा बउराईल 

अब हम फगुआ के फाग सुनाईं
 
के असो बईठ के कजरी गाईं
 
मारsता करेजवा में जोर हो रामा, माघ के सवनवा !



सखी,माघ महिनवा सरसों पियराला
 
देख त कईसन इ,घाटा घिर आईल

अब हम आपन खेत सरियाईं
 
के सरसों के भिजल फर फरीयाईं 

भीजsता अचरवा के कोर हो रामा, माघ के सवनवा !




सखी, माघ महिनवा के घाम सोहाला
 
देख त कईसन झटास भर आईल 

कैसे सुरुज के हम जलवा चढाई

कैसे फूलगेंदवा के झरला से बचाईं
 
देहिया सिहराला पोरे पोर हो रामा, माघ के सवनवा !

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3-

"हम ता मछरिया जल कय" (भोजपुरी)

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लोराईल अंखिया


केहू न देखे


हम त मछरिया जल कय ...!



जिया छपुटाला


पंवरत जाला


हम त मछरिया जल कय ...!




भईया जनमले थरिया बाजल


हम जनमली बिपत जागल


हम त मछरिया जल कय



पनीये जन्मली


पनीये मरब


हम त मछरिया जल कय ...!



मैं तो हूँ मछली जल की "(हिंदी)

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मेरे आंसू कोई न देखे


मैं तो हूँ मछली जल की !



जिया छटपटाता


तैरता जाता


मैं तो हूँ मछली जल की !


भईया जन्मे थाली बजी


हम जन्मे विपत जगी


मैं तो हूँ मछली जल की !


जल में जनमना


जल में ही मरना


मैं तो हूँ मछली जल की !

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4-
कमाऊ बेटे से ….


माँ की फटी एडियाँ,रुखी दरारें


शायद देखी ना गयीं होंगी


सो ले आया उसके लिए


एक जोड़ी गुलाबी चप्पल


पर जिसने ता-जिंदगी नंगे पाँव


बोझा ढोते काट दी हो!

अपना सुख- श्रृंगार


अपने परिवार में बाँट दी हो


भला वो चप्पल उसका दुःख


कैसे बाँट सकता है!


वो तो बस उसके पैरों को


काट सकता है !


फिर भी बेटे के तसल्ली को


वो,रोज घर से निकलती है


चप्पल पहन कर !


कुछ दूर चल कर चप्पलों को


धर लेती है सर पर !


वो चप्पल उसके बोझ में


इक इजाफा सा है !


पर बेटे की ख़ुशी के आगे


वो बिलकुल जरा सा है !!


*******



5-
हम समझे थे के,वो “रब” के हैं
धत्त! वो तो बस,मज़हब के हैं !


तोड़े से भी नहीं टूटती वो दीवार

बीच हमारे खड़ी,जाने कब से है !

देखें है हमने कई कद्दावर ऐसे

जो बौने नियत के,गज़ब के हैं !


सदनों में कूदते हैं ,कुर्सियों पर

फ़नकार सभी बड़े क़रतब के हैं !


आईनें में खुद को पहले देखना

बस यही इल्तजा आप सब से है !!

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