मनीषा कुलश्रेष्ठ
एम.फिल (हिंदी साहित्य), विशारद (कथक)
पाँच कहानी संग्रह (बौनी होती परछाई, कठपुतलियाँ,
कुछ भी तो रूमानी नहीं,केयर ऑफ़ स्वात घाटी, (गंधर्व-गाथा)
दो उपन्यास (शिगाफ़, शालभंजिका )
अनुवाद - 'माया एँजलू की आत्मकथा' वाय केज्ड बर्ड सिंग' के अंश,
लातिन अमरीकी लेखक मामाडे के उपन्यास 'हाउस मेड ऑफ़ डान' के अंश , बोर्हेस की कहानियों का अनुवाद
पुरस्कार व सम्मान: चंद्रदेव शर्मा पुरस्कार - 1989 (राजस्थान साहित्य अकादमी ),
कृष्ण बलदेव वैद फेलोशिप -२००७, डॉ घासीराम वर्मा सम्मान -2009 ,
रांगेय राघव पुरस्कार वर्ष -2010 (राजस्थान साहित्य अकादमी) , कृष्ण प्रताप कथा सम्मान- 2012
शिगाफ़' का हायडलबर्ग (जर्मनी) के साउथ एशियन मॉडर्न लेंग्वेजेज़ सेंटर में वाचन
स्वतंत्र लेखन और हिंदी वेबपत्रिका 'हिंदीनेस्ट' का दस वर्षों से संपादन .
चर्चित कहानीकार मनीषा कुलश्रेष्ठ ने गुवाहाटी प्रकरण को तालिबानी करतूत करार दिया और अपनी नाच गाने को पेशा मानने वाली जाति की महिलाओं की एक कहानी " रक्स की घाटी और शब-ए-फ़ितना" के कुछ मार्मिक अंश सुनाए जिसके माध्यम से स्त्री की दुर्दशा की एक और तस्वीर सामने आई .....
" रक्स की घाटी और शब-ए-फ़ितना"
और अब कोई उम्मीद नहीं बाकी.....
एक दिन यूँ हुआ ‘एफ एम’ पर तीन चोरी से नाच देखने वालों और दो साज़िन्दों को सरेशाम चौक में कोड़े मारने का ऎलान हुआ और शहर के सब वाशिन्दों को तमाशा देखने बुलाया गया.
उस तारीख को आधी रात बरबाद और टूटी हवेली का “ख़ारा कुआँ” गूँज गया और एक जामुनी किरण पानी में से निकली और अँधेरे में लहर बनाती सारी हवेली में फैल गयी, जैसे किसी ने रात में आतिशबाज़ी चलायी हो। चमकते हुए पानी पे एक अक्स औंधा तैर रहा था।
'गुलवाशा!
शोरे शुदबाजखुबाबे अदम चश्म कुशुदेम,
दी देम के बाकीस्त शबे फितना गुनुदेम।
(दुनिया के शोर ने मुझे जन्नत के ख़्वाब से जगा दिया और मैं इस दुनिया में आ गया लेकिन यहां का हँगामा देखकर मैंने फिर आँखें बन्द कर लीं और मौत की पनाह ली।)
क्या अब भी लुबना कहती है - "मेरा दिल कहता है कि बेहतर समय आएगा और मैं उम्मीद करती हूँ कि तब तक मैं तो जीवित रहूँगी."
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ग़ज़ाला ने एक ख़त में लुबना को लिखा, वह ख़त बिना पते के कहीं न पहुँच सका.
अम्मा पगलाई सी छाती धुनती हैं, जब लोगों को अपने खच्चरों पर सामान लादे, बिना मुड़े मैदानी शहर की तरफ जाते देखती है. मुझसे कहती हैं, मैं बस करूँ, स्कार्फ से मुँह ढक लूँ. किसी भले, अमीर अधेड़ से शादी कर लूँ, लड़कियों को किताब पढ़ाना और खुद कंप्यूटर पढ़ना बन्द कर दूँ?”
“ क्या तुम्हें अब भी मानना चाहिए इस कानून को जो ईश्वर के नाम से हर धर्म में औरतों के लिए अलग से बनाया जाता रहा है.” मेरा कम्प्यूटर टीचर मुझसे पूछता है.
“हाँ क्यों नहीं, मेरा भी एतकाद है, इस ईश्वर में और उसके बनाए कानून में, अम्मी और गुलवाशा की तरह ही, लेकिन क्या करूँ कि पिछले कई दिनों से मेरे कान रोते बच्चों और माँओं की कराहों को सुन रहे हैं. मैं अपने घर, तबके और आने वाले वक्त में अमन की पूरी तबाही देख पा रही हूँ. “
“तुमने कभी सोचा है? स्कूल जाती लड़कियों को कोई कैसे जला सकता है? नाचना – गाना धर्म के खिलाफ कैसे हो सकता है?” वह फिर पूछता है. मैं क्या जवाब दूँ? औरतों और बच्चियों को फुसफुसा कर पढ़ाते हुए मैं थक गई हूँ...उन्हें क्या - क्या नहीं समझाती, यह मजहबी कानून और इसका सही मतलब मगर सुनने वालियों के कान बहरे हैं और आँखें उजाड़, ज़बानें उमेठ दी गई हैं....मेरी भी हिम्मत टूट रही है अब.
“मुझे उम्मीद है – क्या तुम्हें है कि एक दिन ये कान देखेंगें और आँखें सुनेंगी. ज़बानों की उमेंठनें खुल जाएंगी.” कहते हुए, कभी कभी मेरा टीचर अपनी बैसाखी खिड़की से टिका कर, मुझे थाम कर मेरा माथा चूमता है. उस रात मैं सपना देखती हूँ, न केवल हम तीनों बहनों के होंठ, न केवल संगीत गली की हर लड़की बल्कि रक्स की घाटी की हर औरत के होंठ बैंगनी से फिर गुलाबी हो गए हैं और सेब के पेड़ों के बीच, हरे कच पत्तों में झुण्ड – के झुण्ड अब्बा की कोई रोमांटिक बंदिश गुनगुना रहे हैं. टहनियाँ रबाब की तरह बज रही हैं.