Friday, February 06, 2015

मीरा क्रिस्तान - हेमा दीक्षित



 कहानी : मीरा क्रिस्तान
लेखिका : हेमा दीक्षित


"कवयित्री हेमा दीक्षित की स्त्री प्रधान, मौलिक कविताओं से तो हम सभी परिचित हैं   ... कविताओं की ही तरह अपनी पहली कहानी 'मीरा क्रिस्तान' में भी हेमा ने स्त्री जीवन को ही केंद्र में रखा है.. कहानी में अतिनिम्नवर्ग की एक स्त्री की दयनीय स्थिति का बखूबी मार्मिक चित्रण किया है ...
बैसवारी, अवधी की आम बोलचाल की आत्मीय बोली में गढ़े गए संवाद कानपुर और उसके आस-पास के परिवेश से सीधे जोड़तें हैं... रचनात्मक सफ़र की इस नई सकारात्मक शुरुआत के लिए हेमा को बहुत बधाई और शुभकामनायें ! प्रिय  मित्र का फरगुदिया पर पुनः स्वागत ! "

------ शोभा मिश्रा


मीरा क्रिस्तान


 आधी पालथी लगाए, एक पाँव मोड़े घुटने पर सर टिकाए मीरा बही जा रही थी. आँखों से, नाक से और  मुँह से निकलते आधे-अधूरे शब्दों में.
वृंदा पलंग पर बैठी उसे देखे जा रही थी. वह बाहर-बाहर बह रही थी और वृंदा भीतर-भीतर. मीरा उफनाई-उफनाई बाढ़ग्रस्त धारा सी बहकी-बहकी चली जा रही थी. बस कहे जा रही थी.
भाभी बहुतई अपमान हुआ हमारा. तीन बरसन से तुमाय साथ काम करत-करत हम भुलाय गए हते कि कऊन जात है हम. हमऊ मनई हुई गए हते. चार दिन भये तुमाओ काम छोड़े. हम्मै सब्बै याद आई गओ. हम का है औउर का रहिये. जा चोला से मरत-मरत जनम केर खेल नाई मिटी. ऊ पर से हम औरत जात हमाय कऊन जोर. हम गू की औलाद गू माय रहिये. ऊ डाक साब हम्मै सब्बै याद दिलाए दीन.
वृंदा को ताकते एक बार वृंदा की भाषा में बहती फिर अपनी आंतरिक भाषा पर आ जाती. हर-हर बहती मीरा में वृंदा उतरती चली गई लहर-दर-लहर.
वो एक बेहद व्यस्त दिन था और उसने तय कर रखा था कि आज वो अस्पताल में काम मांगने आने वाले किसी भी व्यक्ति से नहीं मिलेगी. और सिर्फ उसकी तरफ से बाहर दिखाई पड़ने और उसे अदृश्य रखने वाले शीशे से वृंदा को दिखाई दे रहा था कि पहले भी पांच-छै बार जगह न होने के कारण लौटाई जा चुकी वह औरत अस्पताल की बेंच पर पाँव ऊपर कर के बैठे, कभी फ़ौज में रहे पर अब सचमुच के लाला में बदल चुके उसके मैनेजर लाला चौहान से लगभग गिड़गिड़ाने की मुद्रा में कुछ कह रही है. और लाला चौहान की हिलती तोंद और हाथों की मुद्रा से नकार और उपेक्षा का भाव स्पष्ट हो रहा था. अचानक ही वह औरत जमीन पर उकड़ौवा बैठ गई और साड़ी से अपना चेहरा ढाँप लिया. उसके हिलते हुए कंधो और देह के कम्पन से वृंदा को अंदाज लगा कि शायद वह रो रही है. तभी जाने कहाँ से लपक कर एक सात-आठ बरस की लड़की आई और उसके कंधे पर हाथ धर कर दूसरा हाथ माँ की मानिंद उसकी झुकी पीठ पर फिराने लगी. उसे नहीं पता कब उसका हाथ घंटी के रिमोट बटन को दबा कर उसकी गोद में वापस अपनी जगह आ गया और क्यों ?
घंटी के बाहर घुनघुनाते स्वर से लाला चौहान अपनी जगह से हिला और दरवाजे से अपने को अड़ा कर बोला, ”जी”. वृंदा ने उस, अपने अंदाजे में रोती हुई स्त्री को अन्दर भेजने को कहा. अपने पल्लू के छोर से अपना चेहरा और आँखे पोछते अन्दर आई हुई उस स्त्री का नाम था मीरा. वो सात-आठ बरस की लडकी उसकी छोटी बेटी पिंकी थी. वृंदा कुछ पूछती उससे पहले ही उसने दुबारा रोना चालू कर दिया. हमें काम पे रख लो बस, कुछ भी काम कर लेंगे हम, कुछ भी पैसे ले लेंगे हम. बस हमें काम पे रख लो. हमसे जादा जरूरत किसी को काम की नहीं होगी. वृंदा ने उसे आँख भर देखा लगभग चार फुट की लम्बाई वाली सांवली दुबली-पतली पिचके पेट वाली स्त्री. उसने कहा, कुछ भी काम का मतलब तुम जानती हो ? तुम एक अस्पताल में काम मांगने आई हो. क्या जानती हो इस काम के बारे में ? पहले कभी किसी अस्पताल में काम किया है ? कभी खून,चोट,रोग,बीमार और उल्टी-टट्टी यह सब देखा है. कभी कोई पूरा जला आदमी देखा है अपने सामने लोगो को दर्द में तडपते,चीखते-चिल्लाते देखने की, संभालने की, मरते-जीते देखने की हिम्मत है या बस ऐसे ही. कुछ भी सीखा-संभाला है इस तौर-तरीके का कभी ? हर सवाल का जवाब, न.  
उसे कभी अपने लिए भी अस्पताल का मुंह देखने की नौबत तक न आई थी फिर भी काम पर रख लो की रट. वृंदा ने उससे कहा, फिलहाल तो हमें सिर्फ एक सफाई-कर्मचारी की जरूरत है तुम कर सकोगी क्या … ?” एक क्षण में उसका चेहरा उतर और लटक गया. थोडा रुक कर उसने कहा, वैसे तो हम कर लेते अब तक की पूरी जिनगी यही काम तो करते आये है पर छह महीने पहले हमने अपना धरम बदल लिया अब हम चरच में जाते है. वृंदा के चेहरे पर उपजी चौकन को भांपते मीरा ने आगे बोलना जारी रखा, मेरी बड़ी बिटिया को उधर महोबा के आगे एक स्कूल है वही रह कर पढने के लिए छठी किलास में दाखिला मिल गया है हमको एकौ पैसा नहीं देना है खाना-कपड़ा भी वहीं मिलता है. हम देख भी आए है. सुबह एक गिलास दूध और एक फल भी मिलता है. बिटिया अंग्रेज़ी की किताब भी पढने लगी है. बड़ी किलास में और भी बहुत दूर उसको केरल भेज देंगे. बस हमे इतिवार को चरच जाना पड़ता है और हमारा नाम अब मीरा बाथम हो गया है.
वृंदा ने पूछा, और तुम्हारा घरवाला ? मीरा का चेहरा इस सवाल पर एकदम से से तन-खिंच गया, उस हरामी की बात नहीं करते हम मैडम जी. लाला चौहान ने बीच ही में घुड़का, ए गाली नही. उसने जीभ काटते हुए दोनों कानों को हाथ लगाया और अपनी बात जारी रखी, हमको अपनी दूसरी बिटिया को भी वहीं भेजना है पढ़ने. पर अब वो लोग कहते है कि दूसरे बच्चे की स्कूल की फीस हमको अपने पास से देनी होगी. इसी कर के हमको जल्दी से काम पकड़ना होगा. अम्मा के हियाँ भाई-बहन की रोटी, झाडू-बर्तन के बदिले में रोटी तो पा जाते है पर पैसा वो तो हमें ही कमाना होगा न. हम कमाएंगे और इसे जरूर पढ़ाएंगे.  
इतनी दृढ़ता, एक अनपढ़ औरत में कि अपनी लड़कियों की पढाई के लिए अपना धरम बदल ले. वृंदा उसे अब बस बिना काम भी काम पर रख ही लेना चाहती थी पर फिर भी उसने दिखावे के तौर पर उससे कहा, देखो काम तो सफाई का ही है. करना है तो आओ. बस इतना किया जा सकता है कि किसी को ये न बताया जाए कि तुम सफाई का काम करती हो यहाँ. इसके बजाय तुम कह सकती हो कि तुम वार्ड आया का काम करती हो. ऐसा करो कि तुम आओ कल से दो दिन काम करो सफाई के अलावा भी कुछ यहाँ अस्पताल में मरीज सम्भालने और ऊपर का काम रहता है. वो भी कर के देखो. यहाँ का माहौल तुमसे सधे तो. और देखो खून देख कर बेहोश होना हो तो बिलकुल मत आना. तुमसे पहले आई तीन बेहोश हो कर गई है. चौहान साब से उसने कहा, देखो इसे बता दो कि सफाई कर्मचारी को कुल अट्ठारह सौ तनख्वाह मिलेगी. एक्स्ट्रा ड्यूटी का पैसा इसी हिसाब से अलग से मिलता है और हाँ छुट्टी, फिलहाल नया अस्पताल है तो कोई नहीं है. अगर काम पसंद नहीं आया या ये नहीं कर पाई तो सिर्फ दो दिन का जो भी पैसा इस हिसाब से बनेगा इसे उसी रोज दे दिया जाएगा. और हाँ ड्यूटी पर समय की पाबंदी से आना और जाना होगा. उसमें एक मिनट की भी छूट नहीं मिलेगी. वृंदा की बात पूरी हो भी नहीं पाई थी कि वह लपक कर उसके पाँव छू कर वापस खड़ी हो गई थी. रोती हुई मीरा के आँसू सूख गए थे और उन सूखी और पुछी हुई लकीरों पर एक मुस्कान बादलों के नीचे से सूरज की किरण की तरह निकल आई थी.
तो इस तरह से मीरा वृंदा को मिल गई थी. मीरा अगले ही दिन से चाकचौबंद अपनी नौकरी पे मुस्तैद हो गई. वो बेहद साफसुथरी सलीके वाली थी. उसके सारे काम बिलकुल कायदे से होते थे. मीरा सुबह की पाली से पंद्रह दिनों बाद रात की ड्यूटी में आ गई.
पाँच-छह महिने सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा. फिर एक दिन जब वृंदा सुबह दस बजे अपने चैम्बर में आई तो उसने देखा कि मेडिकल स्टोर के सामने वाली बेंच पर मीरा अब तक बैठी हुई है. कुछ जरूरी कामों के बाद लाला चौहान अंदर आए. उसने सवालिया आँखें उन पर रख दी. लाला चौहान ने अपने दोनों हाथ अपने वृहदाकार पेट की मेज के ठीक ऊपर हमेशा की तरह एक में एक घुमाते और मलते हुए कहा, मैडम एक समस्या हो गई है और जरा विकट वाली है. वृंदा ने उनकी तरफ देखा तो बोले, रात पाली में यादव ने मीरा और शेरसिंह को वो ऑटोक्लेव रूम में एक साथ पकड़ा. वृंदा चौंकी, क्या ... वो मेडिकल स्टोर वाला शेरसिंह. ‘जी’, एक बात और है, इससे पहले भी परसों वो सबेरे की ड्यूटी वाली कमली और इसकी जम कर झोंटा-नुचौव्व्ल हुई थी. लेकिन क्यों वृंदा को समझ नहीं आया कि आज के पहले तक तो सब उसकी खूब बड़ाई कर रहे थे. मीरा के बखान में जाने कहाँ से कहाँ तक की लम्बाई- चौड़ाई के पुल बाँध दिए गए थे.
ठाकुर ने बताया, वो इसने सफाई वाले ठेकेदार बल्लू के छोटे भाई मोटबुद्धि हक्कल संजुआ से कुछ सेटिंग कर ली है और अब शौचालय धोने या इस तरह की सारी सफाई और बाहर कूड़ा फेंकने का काम भी इसके बदले वो ही कर आता है. और तो और इसके लिए रोज सबेरे एक दुन्ने में चौरसिया की जलेबी और गुप्ता की पूड़ी भी लाता है. और तो और वो डिलीवरी के बाद जच्चा के रिश्तेदारों से मिला खुशखबरी सुनाने और बच्चा उन्हें देने के लिए पैसा, सख्त मनाही के बाद भी लेती है. सिर्फ़ लेती ही नहीं है अकेले जीम भी जाती है. उसने पूछा कि आपने जांचा कि क्या यह सब बातें सच है. ठाकुर बोला आपसे बताने में हमें शर्म तो बड़ी आई पर कहना तो पड़ेगा ही, जब मालिकाना आप का है तो बात आज नहीं तो कल आप पे पहुंचनी ही ठहरी. है सब सोलह आने सच है. आज तो मैंने शेरसिंह को भी जाने नहीं दिया है. और हक्कल संजुआ को भी बैठा रखा है. यादव को फोन कर दिया है वो भी बस पहुँचता ही होगा.”
मीरा की पेशी पहले हुई. वृंदा ने पूछा, “ये क्या चल रहा है, सब तुम्हारी शिकायत कर रहे है ...” उसने मार मोटे-मोटे आँसू गिरा-गिरा कर सुबकना शुरू कर दिया, “भाभी हमने कुछ नहीं किया शेरसिंह भैया के घर में कुछ परेशानी है वई वो हमें बता रहे थे.” पीछे से अब तक आ चुका यादव बोल उठा, “बत्ती बंद कर के, छिटकनी लगा कर, कौन बात बता रहे थे हम तो समझते ही नहीं न. मैडम हमने कल रात रोज की तरह सारे इंस्ट्रूमेंटस धो-पोछ कर सब ट्रे और ड्रम्स भर कर तैयार किये थे और ऑटोक्लेव रूम को ठीक से लॉक किया था. रात में शेरसिंह रिसेप्शन में रहते है और सारी चाभियाँ वहीं तो टंगी होती है की बोर्ड पर. जे लोग अब एक कमरे का ताला खोल कर उसमें अपनी कहानी सुनावेंगे तो फिर हो चुका काम. हमारी ड्यूटी तो आपने खुद आजकल ऊपर जनरल वार्ड में लगाईं है. हम तो बस अस्पताल का नाईट राउण्ड ले रहे थे. पिछले हफ्ते एक कम्बल दो सी.एफ.एल. चोरी हुई थी इसी करके हम जादा चौकस थे .”
मीरा बोली, जे जादव भैया तो वैसे ही हमसे चिढ़ते है पहले ही हमे बोले थे, “ऐसी लगायेंगे तुम्हारी कि तुमसे बुझेगी नय, तुमको हम निकलवा देंगे, रहने नय देंगे इस अस्पताल में, जे सब जने हमें क्रिस्तान-क्रिस्तान बोलते है कोई हमें हमाय नाम से थोरे न बुलाता है. जे लोग कोई अपनी न कहेंगे. हम अकेली बिना मरद वाली औरत है न इसीलिए. आप शेरसिंह भैया को बुलाओ उनसे ही पूछो. हम अपनी दोनों बिटियन की किरिया उठा रहे है जे सब बात कुल्ल झूठ है.”
“और संजुआ वाली, ये क्या बात है ?”
“भाभी हम सुबह देर तक अस्पताल में काम करते है. घर जा कर खाना तो हमें ही बनाना होता है सबका. हम छुट्टम-छूटा वाली औरत हमें कौन बना कर खिलायेगा. सोई हमने इसे कह दिया है कि हमारे लिए कछु खाय को लाय दिया करो.”
पीछे से कब का अन्दर आ चुका हक्कल संजुआ बोल उठा, “हाँ-हाँ भाभी जे रोज हमें १० रुपया देती है, तब न हम लाते है. अपनी जेब से लावे इत्ते बड़े चूतिया हम नहीं है.” लाला ठाकुर ने संजुआ को धर के घुरचा, उसने गाली देने के लिए झट्ट जबान काट ली और फिर बोला, “छह जलेबिन मा से दुई हमाई होती है.”
वृंदा ने आँख उठा कर उसे घूरा एक बारगी वो सकपका गया फिर सम्भला और रुक-रुक कर बोला, “भाभी जे सब जने हमें धमका रय है कि चंपा को सब बता देंवेंगे. वईसे भी कमली रिश्ते में हमाई दूर की मौसिया सास लगती है. ऐसे तो फिर चंपा तक बात जावेगी वो पंचायत बुलावेगी और अपने भाई से बीच बज़ार हमें कुटवायेगी. भाभी हम काम न करेंगे. हम तो मीरा दीदी को खाय को लाय दे रहे थे बस.”
शेरसिंह की पेशी पर जट्ट काले पक्की रंगत और मोतियों से अक्षरों की सुघड़ अंग्रेजी लिखाई वाले शेरसिंह ने अपनी बिलकुल नई गाथा खोल दी कि उनकी घरवाली खूब गोरी-चिट्टी बी.ए. पास है जबकि वो खुद बारहवीं फेल है वो जित्ता अंग्रेज़ी जानती है वो उसकी चौथाई भी नहीं जानते है. वृंदा ने पूछा, “फिर ये बेमेल ब्याह हुआ ही क्यों ?”
शेरसिंह तन गए और चौड़िया के बोले, “हमाय बाबू तीन दाय परधानी जीते है. अबकि हमाई अम्मा परधानी जीती है. पचास बीघा से ऊपर खेती है. गाँव में पक्का मकान और टूब बेल भी है.”
“फिर ... ?” वृंदा के इस सवाल पर चौड़ी छाती सिकुड़ गई सर झुका कर नजर चप्पल कुरेदते अपने अँगूठे में गाड़ कर बोले, “वो हाथ नही धरने देती.”
लाला चौहान चिहुके, “तो तुम मीरा पे हाथ धरोगे ?  जे तो हमाई-तुम्हाई बिरादरी की भी नहीं है कहीं भी गिर पड़ोगे ? और इत्ते ही बड़े खेती-पाती औउर पक्के मकान वाले हौ तो हिया काहे अपनी मरा रय हौ.”
 अबकि वृंदा चिहुंकी, “चौहान साहब जरा संभल कर बोलिए.” लाला चौहान भी संभले कि हाँ जे मालिक नई, मलकिन हैं. हाथ बाँध कर खड़े हो गए, “जी, गलती हो गई.”
शेरसिंह को गुर्राते तो वृंदा ने देखा नहीं था अलबत्ता रिरियाते जरूर देख लिया, “हम सिर्फ़ अपना दुःख कहि रय थे. जे भी तो अपने मरद का हमसे रोती है. हमें कौन सा जिनगी भर हियाँ काम करना है हम कुछ दिन अस्पताल का सब परचा देखेंगे दवा निकालेंगे सीख जावेंगे. फिर बाबू हमें खुदै दुकान कराय देंगे.”
वृंदा चकराई, “एक मिनट, सीख जावेंगे, क्या सीख जावेंगे ? और किस चीज की दुकान करोगे ?”
चौड़ा, मोटा, खुला जवाब आया डाक्टरी की दुकान करेंगे, परचा लिखेंगे और पुडिया बांधेंगे. उन्होंने आगे शान बघारी आपको पता नहीं हमने विगो डारना औउर सुईऔ लगाना सीख लिया है, बोतलौ चढाए लिए हम. आधे से जादा दवाई जानते है हम.”
  भौचक्की वृंदा ने अपना कपाल ठोंका और सबको बाहर निकाल दिया. पेशी हुई किसी और लिए थी. पेशी किसी की थी. कार्यवाही होनी किसी पे थी. हुई किसी पे. पेशी की गाज गिरी परचूनिए डाक्टर शेरसिंह पे.
मीरा को बाद में फिर बुला कर समझाया था वृंदा ने, “देखो तुम अकेली औरत हो सावधानी से रहो. दुनियाँ और समाज का चलन ठहरा, कोई भी तुम पर कभी भी उँगली उठा सकता है.”
 मीरा बोली, “हम सब जानते है भाभी बिना छत की टपरिया औऊर बिना मरद की मेहरिया बरब्बर है. कौनो हाथ डार देवेगा, कोई रोक थोरी हय.”
वृंदा के मन में मीरा के लिए मौजूद कोमल कोना थोडा सा और बड़ा हो गया था. उसने कहा, “कमली कल कह रही थी कि तुम रोज ड्यूटी पर देर से आने लगी हो.”
मीरा बोली, “भाभी ऑटो नहीं मिलता देर हो जाती है. पैदल आते है तो पौन घंटा लगता है.”
उसने कहा, “सुनो एक साईकिल क्यों नहीं ले लेती तुम.”
“भाभी पैसे कहाँ है हमपे साइकिल लेने के लिए. कुछ बिटिया पे लग जाते है बाकी आने-जाने और ...” “और कहाँ जाते है ?”
भाभी अम्मा ले लेती है, “का तुमको जिनगी भर मुफत में सर पे बैठा के खिलायेंगे और हगायेंगे.” उसने कातर निगाहों से वृंदा को देखा और चली गई.
उसकी कातर दृष्टि वृंदा के मन में कहीं फँसी रह गई. दूसरे दिन शाम को उसने मीरा के हाथ में पच्चीस सौ रुपये रखे और कहा, “साइकिल ले लो और पैसे हर माह की तनख्वाह में थोडा-थोडा कर के कटा देना.” वो फिर पाँव छूने को झुकी, तो वृंदा ने रोक दिया. मीरा पैसे ले कर चली गई.
वृंदा ने उसी रोज लाला ठाकुर को कहा, “बाहर दरवाजे के शीशे पर नोटिस लगाओ कि पैर छूना सख्त मना है.” हालांकि बाद में पता चला कि सारी ऐसे प्रतिबन्ध वाली नोटिसों का वही हाल होता है जो ‘थूकना मना है’ या ‘पेशाब करना मना है’ जैसी चेतावनियों के साथ होता है. लोग उस नोटिस के ठीक सामने उसे पढने के बाद जानबूझ कर उसके पाँव छूते थे. खैर.
दो-तीन दिन बाद से मीरा नई चमचमाती साइकिल पर अस्पताल आने लगी. साइकिल पर चढ़ कर नौकरी पर आने वाली धरम बिगड़ी क्रिस्तान मीरा चर्चा ए आम थी. दो-एक हफ्ते तो वह समय से आई फिर वापस उसी ढर्रे पर. अब स्टाफ उसकी शिकायत भी कम करता था सब समझने लगे थे कि वृंदा उसे निकालेगी नही.
खैर समझा यह गया था कि शेरसिंह का किस्सा यहीं तमाम हुआ. पर ये हो न सका.
लगभग चार-पाँच माह बाद दो अजनबी एक तकरीबन बेहोश बुरी तरह घायल व्यक्ति को अस्पताल ले कर आए बोले, “ये हमाय टिरेक्टर के नीचे आए गए. बिहोश होन के पहिले इनने आपके अस्पताल का नाम लओ और कहिन् कि बस हुअई पहुचाय देओ. सो हम हियाँ लई आय.” उस आदमी को देखते ही ड्यूटी पर मौजूद मीरा ने धाड़ मार कर रोना शुरू कर दिया. ये घायल परचूनिये डाक्टर शेरसिंह थे.
बीच-बीच में वृंदा के पास उड़ते-उड़ते बात पहुँचाने का प्रयास किया गया था कि शेरसिंह अक्सर लंच टाइम में मीरा की ड्यूटी में ही अस्पताल में आते है. पर वृंदा ने अनसुना कर दिया था. वो मीरा के बाबत शायद कोई भी शिकायत सुनना ही नहीं चाहती थी.
खबर करने पर शेरसिंह का पूरा कुनबा अस्पताल में हाज़िर हो गया. तीन बार के भूतपूर्व परधान बाबू और वर्तमान परधानिन माता जी खुद नंबर प्लेट पर ‘प्रधान’ लिखी बुलेट पर चढ़ कर आए और अपने साथ दो टिरेक्टर भर आदमी-औरतें भी लाए थे. पूरे अस्पताल में शेरसिंह लल्ला का हल्ला था.
अगले रोज पूरे तीन महीने से अपने मायके गई हुई शेरसिंह की हाथ न धरने देने वाली बी.ए. पास गोरी-चिट्टी घरवाली अपने एक हाथ के घूँघट के साथ वापस आ गई. दिन भर वो अस्पताल में रहती और रात घर चली जाती. राम-जाने उस बी.ए. पास को बारहवीं फेल शेरसिंह ने क्या पट्टी पढ़ाई कि वो तीसरे रोज वृंदा से मिलने आई और कहने लगी, “मैडम जी वो जो मीरा दीदी है न उनकी ड्यूटी रात की लगा दो तो बड़ी किरपा होगी आपकी. दिन को हम रहते ही है रात में दीदी अपने भैया को देख लेवेंगी.”
पीछे से भूतपूर्व परधान ने भी हाँ में हाँ मिला दी, “जी वो परधानिन न आ पावेंगी. इस कर के जे जरूरी है... “ और वोट मांगने के अंदाज में हाथ जोड़ दिए.
मजबूरी में सब समझते हुए भी चौहान साब को ड्यूटी बदलने को कह दिया गया. डाक्टर शेरसिंह पूरे डेढ़ माह अस्पताल में रहे. और मीरा सबसे चिरौरी-सेटिंग करके पूरे समय रात की पाली में बनी रही.
और हर रोज वृंदा ने टोकरे भर-भर मीरा और शेरसिंह के इश्क के परवाने सुने.
पर इस पर भी मीरा को काम से निकालने की किसी भी नैतिकतावादी सलाह पर वृंदा अपने कान, न धर पाई.
फिर पता नहीं एक रोज किस बात पर झंझट शुरू हुआ और एक हाथ का घूँघट काढ़े हुई उस बी.ए. पास स्त्री ने शेरसिंह और उसके पूरे खानदान को बिना एक घूँट भी पानी का अपने हलक से नीचे उतारे अपने उसी घूँघट के नीचे से ही अपनी जिनगी एक बारहवीं फेल के हाथों बर्बाद कराने के लिए जम कर गालियाँ दी. समझाने और बीच-बचाव में उतरी मीरा की भी माँ-बहन एक हुई और उसके भी सारे पुरखे सात पुश्तों तक तार दिए गए और मीरा दीदी के शेरसिंह भईया के कमरे में घुसने पर भी पाबंदी लगा दी गई सेवा-टहल तो बहुत दूर की कौड़ी थी.
जो हुआ सो हुआ की तर्ज पर इस घटना के बाद शेरसिंह अपने घर छुट्टी करा कर चले गए. अपने पैर की गहरी चोट से चलने-फिरने में लाचार वो लम्बे वक़्त बिस्तर पर पड़े रहे.
फिर वृंदा के पास भी शेरसिंह और मीरा के परवानों के टोकरे या टोकरियां कुछ भी नहीं आई.
ये एक और बात थी कि शेरसिंह की जगह अब संजुआ के बड़े भाई ठेकेदार बल्लू का नाम मीरा से जुड़े किस्सों में आ गया था.                     
एक रोज सब्जी खरीदते समय सड़क से गुजरती, नंबर प्लेट पर नंबर की जगह पत्रकार लिखी एक डग्गामार बोलेरो वृंदा को पीछे से उड़ा कर भाग गई. इस टक्कर में अन्य छोटी-मोटी चोटों और टूट-फूट के साथ वृंदा के दोनों पाँव भी घुटने से नीचे टूट गए. चलती-फिरती, काम करती-कराती वृंदा एक झटके में अस्थाई अपाहिज बन बिस्तर पर आ गई.
दो-चार रोज जैसे-तैसे घिसट,घिसटा कर गुजरे पर सबसे बड़ी समस्या, घर में कोई न कोई, उसकी देखभाल कौन करे ... खाना बनाने वाली लडकी कभी वक़्त पर पहले ही नहीं आती थी तो अब क्या आती. आने पर भी आधे समय तो कुरते में ठुंसे अपने मोबाइल से ही उलझी रहती. खैर जैसे-तैसे एक नर्स से बात हो ही गई थी. उसे अगले रोज सुबह से आना था. ये तय हुआ कि बाकी समय कोई न कोई स्टॉफ फोन करने पर मौजूद हो जाया करेगा.
मीरा उसी शाम को ही दो दिन की छुट्टी के बाद लौटी थी. सुनते ही भागती चली आई. उसके पलंग के सिरहाने जमीन पर बैठी वो उसका सर दबाने लगी. करवट बदलने पर पीठ सहलाने लगी, “भाभी तुम तो इत्ती अच्छी हौ तुमे काय जे बिपद परी.” मीरा पता नहीं क्यों अक्सर उससे अपने ठेठ देसीपन में बात करती थी. वृंदा ने इसका कोई जवाब न दिया फिर कहा मीरा, “जरा एक प्याला चाय बना दे. दूध फ्रिज में है और चीनी-चायपत्ती वो गैस के ठीक ऊपर स्टील के छोटे-बड़े डिब्बों में है. अलग ही दिखेंगे. कुटनी में अदरख होगी वो भी कूच कर डाल देना.” वो अपनी जगह से रत्ती भर भी नहीं हिली बस उसे ताके जा रही थी.
“जा, जाती क्यों नही?”
“भाभी आप भुलाय गई हम कऊन कुजात है, हम थोरय भुलाय जईये.”
वृंदा चौंकी उसने तो सोचा ही नहीं इस बाबत. उसे निर्णय करने में एक सेकेण्ड भी नहीं लगा. उसने कहा, “जाओ और चाय बनाओ.”
मीरा अभी भी वहीं थी, “भाभी फिर सोच लेवो एक बारि, हमाई जुठत्तर हमेशा की जुठत्तर, गले परि जाई.” वृंदा ने कहा, “बातें मत बना, उठ चाय बना.” चाय पी कर उसने कहा, “कल सुबह सात बजे आ जाना. हम जल्दी चाय पीते है और पानी भी गरम करना रहता है. फिर मुझे बाथरूम तक भी ले जाना रहेगा. ठीक?” वो बस आँखों में आँसू भरे वृंदा को ताके जा रही थी. वृंदा ने कहा, “मीरा मुझे छू कर जुठार दिया है न तुमने. अब क्या बाकी बचा. चलो अब भागो यहाँ से. सबेरे समय पर आना. कोई बहानेबाजी नही.” वो बिना कुछ भी बोले चली गई. लाला चौहान को फोन पर सूचित किया गया कि कल से मीरा घर पर उसके पास रहेगी बचे समय में अस्पताल में जो कर सकेगी, करेगी. उसकी तनख्वाह अब दूनी होगी. लाला ठाकुर ने दबी जबान में कहा, “मैडम मीरा... आपके घर पे ???” वृंदा ने कोई भी उत्तर नहीं दिया.
पूरे अस्पताल में मीरा के घर पर काम करने और रसोई छूने को ले कर खूब खौलन और खदबदाहट मची पर किसकी मजाल कि मलकिन वृंदा के गले में घंटी पहनावे. सो खौल-खौल सब ठंडा गए. सबकी पकाई-धकाई ये घंटी अंततः कूड़े के ढेर में ही बजी होगी. साहब-बहादुर ने कहा, “तुम्हारी रसोई और घर तुम जानो.” उन्हें कुछ करना नहीं पड़ रहा था, बस. मीरा उनकी निश्चिन्तता की चाभी थी.
वृंदा ने पहली बार सच में जाना की मालिक होना कितनी बड़ी ताकत है. 
अब हर सुबह उठने से रात सोने तक वृंदा का संसार मीरामय था. मीरा का बस चलता तो वो वृंदा को छोड़ कर अपने घर भी न जाती. वृंदा को जागना न पड़े और किसी तरह की तकलीफ न हो इसलिए साहब-बहादुर दरवाजे की कुंडी बाहर से लगा जाते थे.
मीरा सुबह-सवेरे खुली पड़ी खिडकियों से आई हवा की मानिंद घर में घुस आती. सोते हुए उसकी आवाज से हुई चौकन वृंदा को हल्की नम हवा सी झुरझुरी देती. उसे अपने गुनगुने माथे पर मीरा की ठंडी हथेली की फिरन अच्छी लगती थी. उन दिनों वैसे भी उसके माथे के अन्दर रात-रात भर अवसादी स्वप्न उठते और टहलकदमी किया ही करते थे. यह स्वप्नों की टहल उसे बेहद अस्त-व्यस्त कर डालती थी. मीरा की आवाज जैसे उस अँधेरी खोह में पड़ी वृंदा को हाथ खींच कर बाहर निकाल लाती. मीरा की ‘हम आयी गये’ की मुस्कान जैसे उसका चाय का ताज़ा प्याला थी.
वृंदा किसी भी कोने में लेटे-बैठे मलकिन मीरा को देखती रहती. इस बीच घर में उसका हाल-चाल पूछने की फर्ज अदायगी में आने वाले बहुत से मेहमान बिना चाय-पानी के ही लौट गए. वृंदा ने किसी की बातों पर कान और ध्यान न धरा कि इन्हें भी और कोई न मिला-पुसाया ... यही टट्टी ‘कमानेवालों’ के घर की मिली.  
यह नवंबर का दूसरा हफ्ता था. आज दिवाली का दिन था. मीरा रोज की अपेक्षा आज थोड़ी देर से आई. वृंदा ने कहा, “क्यों री कहाँ रह गई थी. आज त्यौहार के रोज मुझे उपवास करायेगी चल अपनी मेरी दोनों की चाय बना जल्दी से.” इतना सुनते ही उसने बुक्का फाड़ कर रोना और सारी दुनियाँ को कोसना शुरू कर दिया. वृंदा के बहुत पूछने पर बताया कि कल रात वो बाज़ार से होते हुए आई थी तो गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियां और वस्त्रादि खरीदे थे और अपने साथ ही यहाँ ले आई थी कि सुबह घर ले जायेगी.
“तो फिर ... ?”
“भाभी नीचे बल्लू और मुन्नव्वा ने छिना लिए हमसे छीना-झपटी करी हमें दीवार पर पटक दौ.” वृंदा चौंकी, “छिना लिए ...? मतलब ... क्यों ... ये झगड़ा क्यों ?”
“भाभी हम अब धरम बाहर है न ... क्रिस्तान ... पर भाभी हमाई अम्मा-भाई-भाभी-बहन थोड़ी न धरम बदले है ... भाभी हम तो मजबूरी में बदले है. कौनो शौक में नाई बदले है. बिटियन की खातिन ... ई भगवान् है केहिके? कुच्छो पता नाई. उने कछु दिखातौ नाई का? कऊनों के पास होवे, हमाय तो सगे नाय भये. जाऊ नाई, वाओ नाय.”
वृंदा की लाख कोशिशों के बाद भी मूर्तियाँ मीरा को वापस नहीं मिली. सारा स्टॉफ इस मुद्दे पर एक हो गया. अंत में थक-हार कर वृंदा ने मीरा को अलग से पैसे दिये मूर्तियाँ और सामान खरीदने के लिए. उसके पास भी इसका कोई हल नहीं था.
इतने खानों में बँटी थी मीरा ... विवाहित ... छूटी हुई ... दो बेटियों वाली ... एक धर्म भ्रष्ट कुजात हिन्दू ... अंग्रेजी न जानने वाली, चर्च में प्रार्थना न कर पानी वाली, भुग्गा बन कर बैठी रहने वाली क्रिस्तान ... माँ-भाई-भाभी के घर मुफ्त की नौकरानी और खर्चों की पूर्ति करने वाली दुधारू गाय ... सबकी नजरों में अपनी मांग में और ललाट पर खुद अपने हाथों करखा पोतने वाली ... घाट-घाट का पानी पी और हज़ार नाव चढ़ी और हज़ार बार पार उतरी हुई, बेहाथ मीरा ... अब भी बीस-तीस रुपये का नकली चमक वाला मंगलसूत्र लटकाने वाली मीरा ... पैरो में पूरा तीन जोड़ की बड़ी-बड़ी बेनामी बिछिया पहनने वाली मीरा ... साड़ी छोड़ वृंदा के दिये सलवार-कुरते पहनने वाली ... जाने किस दम पे बिरादरी बाहर जा बैठी अकेली मीरा ...
इस घटना और मीरा के दुःख की समझ और साझे ने उन दोनों को एक दूसरे से और गहरे से जोड़ दिया.
करीने से सजी-सँवरी सबेरे से मालिक सी घूमती मीरा. बिस्तर बिछाती. अलमारी खोलती. कपड़े निकालती. बाथरूम तक ले जाती. ब्रश-मंजन आदि सब कुछ हाथ पर रखना. पानी गरमाना. रखना. नहाने के पहले स्नानघर में कुर्सी और पैरों के लिए स्टूल रखना, पैरों पर पालीथिन बाँधना, टेप लगाना. सारी व्यवस्था किसी चौकस अंगरक्षक की भांति देखना. फिर उस सुरक्षा व्यवस्था के बीच वृंदा को छोड़ना.  इन सब पर भी भारी उसकी जिद, “दरवाजा खुला राखो हम छिटकनी नाइ लगाए दिए.” दरवाजे के बाहर अपने पाँव की अड़ लगाए खड़ी रहती कि सांकल मती लगावो. फिर स्नानघर के बाहर चौकीदार की तरह पाँव-पोंछ पर बैठी मीरा दस बार गुहारती, “हुई गओ ... ??? भाभी हुई गओ ... ???”
आहट लेने में इतनी पक्की मीरा कि इधर स्नान-ध्यान ख़त्म और उधर वो चट्ट से अन्दर. वृंदा चिड़चिड़ाती, “थोडा तो सब्र कर लिया कर.”
मीरा अपनी धुन की पक्की वो पोछा लिए गीली जमीन का तेल निकाल डालती ... पोछे से राई-रेशा-रेशा जमीन सुखा डालती पन्नी खोलती और विजयी भाव से अपनी बेहद सुखी मीठी मुस्कान से वृंदा को उठा कर बाहर ले आती.
कुछ दिनों बाद जब वृंदा को कुर्सी पर बैठा कर उठा कर तीन मंजिल नीचे उसके चैम्बर तक लाया जाता ... तो वह कुर्सी उठा कर ले जाते आदमियों को गरियाते वृंदा को पिछियाती ... वृंदा ने कहानियों में पढ़ा था कि कोई जादूगर होता था उसकी जान बड़ी कीमती होती थी सो वो उसे चिड़िया या तोते में डाल कर पिंजरे में रख देता था. फिर उसका सारा ध्यान और व्यवस्था उसकी सुरक्षा की व्यूह रचना में लगा रहता था.
कुछ ऐसा ही हाल जैसे मीरा का था उसने जैसे अपनी जान निकाल कर वृंदा की टूटी-फूटी चोटिल देह में  डाल दी थी. अब वह दिन भर अपने को पूरा का पूरा अपनी ही हथेलियों में उठाये वृंदा के आगे-पीछे तिरती रहती थी. मीरा की आँखों में वृंदा बसी थी. कानों में वृंदा पिघली हुई थी. वृंदा की आवाज के सिवा उसे कुछ भी सुनाई नहीं देता था. उसकी आवाज की मिठास में वृंदा घुली थी.
वृंदा के पीछे हर किसी से लडती-भिड़ती मीरा. खाना बनाने वाली रोज ही लातियाई जाती, “काय भाभी इत्ती परेशानी मा हय, तुमका जरसो दया-मया छुई नाई गई हय .. तुम रोजय-रोज देर से अवती हौ ... भाभी तुमाय रस्ता मा भुखाय जऊती हय. आंते कंडा बिनन लग जऊती है.” वो इसे और छेड़ती, “तुम काय नाइ पका देती. खिला दिया करो न ...” वृंदा उनके झगड़े में दखल देती, “अब बस चलो पत्ता-गोभी, प्याज, गाजर, मलाई वाले सैंडविच बनाओ ... रेखा तुम आज फिर मिलने गई थी उसे न ... तुम उससे दोपहर बाद क्यों नहीं मिलती. और वो तो रोज लंच टाइम में तुम्हें मिलने भी आता ही है न. तुम समय से आया करो.”
प्लास्टर कट जाने के बाद मीरा के हाथों ने वृंदा के दोनों पैरों पर पडी मैली-कुचैली झुर्रियाँ मिटाने और मरी खाल उतारने में जैसे तेल के साथ अपनी सारी जान निचोड़ दी थी. वक़्त ने गुजरना ही होता है सो ये बुरा वक़्त भी गुजर गया. मीरा के साथ ने जैसे वृंदा को दुगनी तेज़ी से अपने पैरों पर वापस खड़ा कर दिया था.
तो हुआ यूँ कि मीरा की घर पर जरूरत ख़त्म हो गई. वृंदा अपने सारे काम खुद ही निपटाने में सक्षम हो चुकी थी. सो मीरा वापस सिर्फ अस्पताल के कामों पर आ गई. और तनख्वाह भी घट गई. इधर तनख्वाह घटी और उधर मीरा की बेचैनी बढ़ी.
उस दिन जैसे ही वृंदा चैम्बर में पहुँची पीछे से झट से मीरा घुस आई और उसी के पीछे-पीछे अब के नाफौजी फिर भी आजीवन फ़ौजी लाला चौहान. वृंदा ने पूछा, “क्या बात है तो मीरा के बजाय लाला चौहान  ही बोल उठे ये आज पांच रोज बाद आई है और अपने बारह दिन किये काम की तनख्वाह मांग रही है कह रही है कल से काम पर नहीं आयेगी.”
“काम पर नहीं आएगी मतलब ... ?”
अब मीरा के बोलने की बारी थी, “भाभी हमें आपकी तनख्वाह से पुरता नहीं है हमें अट्ठाईस सौ पर दूसरे, वो चौराहे वाले नए गुप्ता जी के अस्पताल में काम मिल गया है. हम पांच रोज से वहीं काम कर रहे थे उन्होंने हमें आधी तनख्वाह का एडवांस भी दिया है. हमने पिछले महीने आपसे तनख्वाह बढ़ाने को कहा भी था पर आप ही ने कहा कि आप अकेले हमारी तनख्वाह नहीं बढ़ा सकती आप जब बढ़ोत्तरी करेंगी सबकी तनख्वाह में एक साथ करेंगी काहे कि आपके लिए सब बराबर है. हम कल से काम पर नहीं आवेंगे. हमाई जगह संजुआ की घरवाली चंपा काम कर लेगी.”
वृंदा को उसकी बातों से बेहद दुःख और चिढ़ दोनों एक साथ हुई. वृंदा ने बस इतना कहा, “तुम जाओ मीरा हम देख लेंगे हमें किसको काम पर रखना है. ठाकुर साहब इसका हिसाब कर दीजिये.”
“पर मैडम इसने एक माह पहले नहीं बताया कि काम छोड़ेगी.”
वृंदा ने हाथ के इशारे से उन्हें बाहर जाने को कह दिया. उसकी बर्तन और कपड़े धोने वाली ठीक काम नहीं कर रही थी. नागे भी बहुत ले रही थी तो उसने सोचा था कि वो मीरा को इस काम पर रख लेगी मीरा का काम भी बन जायेगा. पर वृंदा समझ ही नहीं पाई थी कि मीरा की पैसे की जरूरत वृंदा के लिए उसके लगाव-जुड़ाव से कहीं ज्यादा बड़ी थी. वह दुःख में थी उसे पता था कि काम तो कोई भी कर लेगा पर मीरा की जगह कोई नहीं ले सकेगा.
मीरा चली गई. फिर नहीं आई.
और आज अचानक भरी दुपहरी, पूरे साल भर बाद भरी हुई मीरा, वृंदा के सामने बैठी इस कदर बहे जा रही है ...                                              
वृंदा ने उसे बहने और बोलने दिया और खुद को भी.
मुरझाई हुई मीरा का रोना कुछ थम जाने पर उसने उससे पूछा, “चाय पियोगी?” मीरा ने कहा, “हम बनाई देते है.”
चाय पीते हुए वृंदा ने पूछा, “क्या हुआ है अब बताओ मीरा बात क्या है?”
मीरा ने उसे बड़ी कातर निगाहों से देखा और बताना शुरू किया, “भाभी सब ठीक चल रहा था हम ठीक से काम कर रहे थे कुछ ऊपर से मिल जाता था. सब अच्छा था. तनख्वाह आपके हियाँ जैसे तारीख़ पर तो नहीं पर एकाध हफ्ते आगे बढ़ कर जरूर मिलती थी पर कोई दिक्कत नहीं थी. ठीक पंद्रह दिन पहले तक. वो पुराना सफाई वाला वहां का, सरजू वो सरकारी नौकरी पा गया. सो चला गया. उसकी जगह एक नया सफाई वाला आया. हमने उसके साथ काम करने से मना कर दिया.”
वृंदा ने पूछा, “क्यों तुमने क्यों मना किया ?”
मीरा एक मिनट चुप रही फिर बोली, “भाभी मेरा मरद था वो. अब जिसे छोड़ कर आये उसी के साथ में कन्धा मिला कर काम थोड़ी न करेंगे. भाभी दो चार दिन काम किया उसने पर हमने भी काम बंद कर दिया कि या तो ये करेगा या हम. हमने तय कर लिया था अपनी जगह हम किसी को आने नहीं देंगे और इसे करने नहीं देंगे. जो भी आई डाक साब जिसे भी बुलाए हमने सबसे बैर मोल लिया. बल्लू और संजुआ भी हमारा साथ दिए. हार कर डाक साब ने उसको निकाल दिया. फिर. भाभी कल वो फिर आ गया इस बार मेरी सास को भी साथ लाया था. मेरी सास ने मेरी जगह काम पकड़ लिया. मैंने डाक साब से कहा तो उन्होंने मेरे आदमी और सास को बुला कर कहा कि तेरे से तेरी औरत और तुम्हारी बहू ही नहीं संभलती अस्पताल की सफाई क्या ख़ाक करोगे. इस दो कौड़ी की छुट्टा छिनार ने जीना हराम कर दिया है पूरा अस्पताल हिला कर रख दिया है ... तुम लोग कुछ करोगे या हमें ही दरोगा को बुलाना पड़ेगा. दरोगा का नाम सुनते ही हमारा आदमी और सास दोनों हम पे जुट पड़े बाल पकड़ कर खींच कर सड़क पर ले आये और लातों-घूँसों दोनों जनिन ने बहुत मारा. भाभी बेदम हुई गए मार खात-खात हम. कौनो बचावे नई आवा. घर वाले से रार में पुलिस-वुलिस भी काम नाइ आवे है. भाभी कल दिन भरे परे रहे. आज हिम्मत करी के भैय्या की साइकिल पे आये है. भाभी तुम हमें काम पे फिरि रखि लेव जिनगी भर तुमाई गुलामी करिहे अबती दाय धोखा नाय दिये.”
वृंदा ने कहा, “ठीक है मीरा रख लेंगे तुम परेशान मत हो, पर मीरा अगर तुम उसके साथ काम करती रहती, तो क्या बिगड़ जाता? उसको अपना काम करना था, तुम्हे अपना. तुम्हारा उससे क्या लेना-देना जब तुमने उसे छोड़ ही दिया है तो.”
 मीरा ने मुझे देखा यह बेइंतेहा नफरत और क्रोध की मिली-जुली दृष्टि थी. उसने कहा, “भाभी हमाई बिटिया न होती तो इन दोनों को मिट्टी का तेल डार बार देते और फाँसी पर चढ़ जाते. बस बिटियन का मुंह देख कर गम खाई गए.” मैंने उसे देखा. उसने खिड़की से बाहर देखते हुए बोलना जारी रखा, “ब्याह के बाद ही से हमारा आदमी हमसे कम ‘बोलता-बतियाता’ था. हमाय पास ही कमती आता था. भाभी हमने इत्ता ध्यान भी नाइ किया. घर में कुल्ल जने औऊर कुल्ल काम हतो. फिर साल भीतर, बड़ी वाली बिटिया पेटे मा आई गयी. आदमी औरो कम बोलने-बताने लगा. फिर ताके दुई बरस बाद छोटी वाली भई. हम संवर मा हते भाभी. कोई हमाय पास झकनेव नाय आओ. सब कुछ हम खुदही करि रहे हते. फिर एक दिन राति मा हम पानी पियन उठे तो हमें लगा हमाई सास के कमरा मा कउनो है. हमने झाँकि के देखो भाभी, हमाई सास और हमाय आदमी एक पे एक बिलकुल नंगे परे हते.
मीरा रुकी और उसने वृंदा को देखा .. वृंदा का पीला बेआवाज चेहरा देख कर उसने बोलना जारी रखा,
“हमें भी पहिले नै पता था कि हमाय ससुर ने हमाई सगी सास के ख़तम होने पे इने ऐसे ही बिना बियाह के बैठाय लिया था. बैठान के समय हमाय आदमी दस बरस के हते. फिर पांच बरसन बाद हमाय ससुर ख़तम हुई गए. हमाई सास नौकरी करती थी. पैसा-कौड़ी सब उनी की गाँठ में था सो हमाय आदमी को भी उनने तभही से साधि लौ ... भाभी हमने जब हल्ला मचाओ, तो दोनों जनी ने बहुत मारो हमें. फिर कहा कि दोनों बच्चों को मार डालेंगे अगर हमने किसी से कुछ कहा तो. भाभी हम चुप्पे रहे, पर फिर तो नंग-नाच शुरू हो गया साल भर हमाई आँखिन के आगे... सब देखा हमने रोजहि ... रोज जौन मिलो ताहि से झोरे गए हम, हम मनई नई रय गए हते ...  जनावर से बुरी जिनगी थी हमाई ...
एक दिन हमने सोच लिया कि बस अब औउर नाई औऊर हम गहना-गुरिया कपरा-लत्ता सब हुऐ छोड़  बिटियन को उठाई के भाजि आए. बकिया सब आप जानती हो. ... अब बताओ हम कैसे करि सकेंगे ऐसे आदमी के संग काम जाको हमें क़तल करे को मिले तो हम खुशी-खुशी करि देवे ...”
हतप्रभ बैठी वृंदा के पास मीरा के सवाल का कोई जवाब हो भी कैसे सकता था ...
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परिचय: हेमा दीक्षित, हिन्दी की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ एवं आलेख प्रकाशित
       पहली कहानी, सम्प्रति:गौरी अस्पताल कन्नौज में कार्यरत
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