Tuesday, February 17, 2015

हमारी झुटपुट अभिव्यक्ति में ही इन्द्र जनों का आसन डोलने लगता है- किरन सिंह


"स्त्री को अक्सर अपनी अभिव्यक्ति के लिए तिनके की ओट लेनी पड़ती है। मीरा ने जिस कृष्ण को ढोल बजा कर खरीदा वह ईश्वर न होकर मनुष्य होता तो ? महादेवी की पीडा किसी अज्ञात के लिए नहीं बल्कि किसी इंसान के लिए होती तो ? राणा जी के जहर के प्याले और हाथी के पाँव के नीचे से मीरा बच पाती ? ‘बंग महिला’, ‘एक विधवा की आत्मकथा’ इत्यादि इस बात के उदाहरण हैं कि स्त्रियाँ अपनी रचनाओं के अन्त में अपना नाम तक नहीं लिख पाती थीं। "
---- किरन सिंह



'लमही' जनवरी - मार्च अंक  'स्त्री का कहानी पक्ष ' में  पत्रिका  द्वारा आयोजित   परिचर्चा के दस  प्रश्नों  के उत्तर  के माध्यम  से वरिष्ठ  और  युवा  स्त्री -कथाकारों  ने अपने विचार बहुत बेबाकी से रखें हैं ! कुछ लेखिकाओं के विचार आप फरगुदिया पर पढ़ सकतें हैं !
लेखिका किरन सिंह जी ने 'संझा' कहानी के माध्यम से  किन्नर समाज की समस्याओं का मार्मिक चित्रण किया है !   हंस कथा सम्मान और रमाकांत स्मृति सम्मान से सम्मानित
किन्नर समाज की समस्याओं पर आधारित 'संझा' कहानी से चर्चा में आई लेखिका  किरन सिंह जी के विचार आप सभी के लिए ...



१.
कहा जाता है कि अभिव्यक्ति की बराबरी से बड़ी कोई बराबरी नहीं हो सकती. दुनिया भर के जनतांत्रिक आंदोलनों का अंतिम आदर्श भी यही अभिव्यक्ति की बराबरी रहा है.हिंदी जगत में स्त्रियों द्वारा रचे जा रहे साहित्य की प्रचुरता और विपुलता के मद्देनज़र क्या आपको लगता है कि आज एक स्त्री के लिए अभिव्यक्ति के समान अवसर हैं और वह निर्द्वंद हो कर मनचाहा रच और अभिव्यक्त कर पा रही है?

२.
साहित्य को स्त्री,दलित,पिछड़ा जैसे खांचों में रख कर पढना और समझना मुझे उन्हें मुख्यधारा से परे धकेलने का एक षड्यंत्र ज्यादा लगता है. मगर, कुछ लोग अनुभवों और यथार्थ की प्रमाणिकता की दृष्टि से वर्गीकरण और रेखांकन को युक्तिसंगत भी ठहराते हैं. आप अपने लेखन पर चस्पां 'स्त्री लेखन' के लेबल से कितनी सहज या असहज महसूस करती हैं?

३.
आधुनिक स्त्री रचनाधर्मिता में जाहिर तौर पर 'कॉमन थ्रेड' पितृसत्ता के विरुद्ध संघर्ष और प्रतिरोध है. हिंदी साहित्य में लेखिकाओं ने भावनात्मक, शारीरिक, सामाजिक और आर्थिक स्तरों पर पितृसत्ता की जकड़न, उसकी प्रविधियों और उसके पाखंडों का उद्घाटन और उदभेदन बहुत कुशलता से किया है. यहाँ तक की स्त्री यौन शुचिता की खोखली अवधारणाओं की भी धज्जियाँ उड़ाई गई हैं.मगर, कुटिल पितृसत्ता जिस प्रकार आज भी राजनीति और संस्कृति के क्षेत्र में महिलाओं के लिए लक्ष्मण रेखाएं खींच रही है, उससे हिंदी जगत की लेखिकाएं आँखें फेरे क्यों दिखाई देती हैं?

४.
व्यापक स्त्री हित से जुड़े राजनीति और अर्थनीति के ज्वलंत प्रश्न, जैसे विधायिका में महिला आरक्षण, मंत्रिमंडलों, नौकरियों और शैक्षिक संस्थाओं में सानुपातिक प्रतिनिधित्व, इत्यादि महिलाओं के रचनात्मक सरोकारों में अपेक्षित स्थान क्यों हासिल नहीं कर पाते हैं?

५.
'मातृत्व' एक ऐसा गुण है, जो स्त्री को श्रेष्ठ कृति बनाता है. सो, स्वाभाविक रूप से दुनिया भर के स्त्री-साहित्य में इसे 'सेलिब्रेट' किया जाता रहा है. मगर कुछ पश्चिमी नारीवादियों(फेमिनिस्ट्स) ने यह महसूस किया है कि मातृत्व के प्रति भावुक सम्मोहन को बढ़ावा देना   किसी स्तर पर मर्दवादी राजनीति का एक आयाम भी हो सकता है. आप इस निष्कर्ष से कितनी सहमत हैं?

६.
समाज में स्त्रियों के संगठित दमन चक्र के कमजोर पड़ने और स्त्री स्वातंत्र्य की सशक्त छवियों के समानांतर इर्ष्या और कुंठा की लहरें भी दिखाई पड़ रही हैं. इस का नतीजा है कि यौन हमलों और हिंसा की बाढ़ सी आ गई है और कार्य स्थलों पर और अन्यत्र स्त्री-पुरुष रिश्ते असहज होते चले जा रहे  हैं..समाज में गहराती लैंगिक कटुता क्या आपको चिंतित करती है?

७.आज पारंपरिक साहित्य की तुलना में सोशल मीडिया  का स्त्री-लेखन ज्यादा चर्चाएँ बटोर रहा है. सोशल मीडिया की अराजकता, उसका औसतपन, उसकी क्षणभंगुरता और उसके आभासी चरित्र की आलोचनाएँ और आक्षेप  अपनी जगह हैं, मगर अब उसे नज़रअंदाज़ करना नामुमकिन है. साहित्य में सोशल मीडिया के विवादास्पद हस्तक्षेप को गंभीर लेखन और साहित्य में कहाँ देखती हैं आप?

८.
साहित्य के बारे में शुरू से एक मासूमियत भरी स्थापना रही है कि स्तरीय साहित्य अपने बूते जिंदा रहता है. मगर हकीकत यह है कि आज जो रचना साहित्यिक परिचर्चा, गोष्ठी, जलसा, विमोचन, समीक्षा, पुरस्कार के जुगाड़ तंत्र में अपनी जगह नहीं बना पाती, पाठक उस तक पहुँच भी नहीं पाता, चाहे वह जितनी भी उच्च कोटि की हो. एक स्त्री के नजरिये से साहित्य की यह धक्कम-पेल आपको हताशाजनक लगती है या चुनौतीपूर्ण?

९. एक सवाल जो मुझे हमेशा परेशान करता है कि आखिर हिंदी के स्त्री लेखन से 'हास्य' और 'विनोद' लगभग निष्कासित क्यों है? कटाक्ष और व्यंग अगर है तो उसकी प्रकृति हास्य-मूलक नहीं है. ऐसा क्यों?

१०
.अपनी आगामी लेखकीय योजनाओं के बारे में बताएं.



                   
1-
     हमारी झुटपुट अभिव्यक्ति में ही इन्द्र जनों का आसन डोलने लगता है। एक मुसलमान अपने अभिव्यक्ति में आजाद हुआ तो उसे ‘संदिग्ध’ कह देंगे। दलितों ने हमारे कुकर्म याद दिलाए तो वे हुए ‘कुंठित’ । और औरत ने जरा पूछ लिया कि साहब, आइना दिखा रही हूँ बताइए वहाँ नर दिखाई दे रहा है या नरभक्षी तो वह साबित हुई- ‘अश्लील।’
      स्त्री को अक्सर अपनी अभिव्यक्ति के लिए तिनके की ओट लेनी पड़ती है। मीरा ने जिस कृष्ण को ढोल बजा कर खरीदा वह ईश्वर न होकर मनुष्य होता तो ? महादेवी की पीडा किसी अज्ञात के लिए नहीं बल्कि किसी इंसान के लिए होती तो ? राणा जी के जहर के प्याले और हाथी के पाँव के नीचे से मीरा बच पाती ? ‘बंग महिला’, ‘एक विधवा की आत्मकथा’ इत्यादि इस बात के उदाहरण हैं कि स्त्रियाँ अपनी रचनाओं के अन्त में अपना नाम तक नहीं लिख पाती थीं।
 मैं मौजूदा समय को स्त्री-अभिव्यक्ति का स्वर्ण काल मानती हूँ। यह सच है कि इस लेखन का एक हिस्सा आरोप-पत्र है। इस लेखन पर प्रति-आरोप है कि,‘वही रोना-धोना वही स्यापा।’’ यह स्यापा नहीं है, शहादत पर मर्सिया गायन है। यह शोक-गीतों का उत्सव है।
  ‘गहने बनवाओ-गहने तुड़वाओ,’ के निर्देश के दरकिनार, परंपराएँ टूट-बन रही हैं। राज्य हिंसा के विरोध में मणिपुर में महिलाएँ नग्न होकर प्रदर्शन के लिए निकल पडी। बलात्कार के विरोध में जगह-जगह महिलाओं ने चादर लपेट कर प्रदर्शन किया। दमन के खिलाफ स्त्रियों ने कविता,कहानी, लेख लिखे। लेकिन राज्य और पितृसत्ताओं की निगाह में, हमारी चरम और परम अभिव्यक्ति भी, पीडित का भड़ास निकलना भर है। वे हमारा विरोध नहीं करते। क्योंकि विरोध करने पर मामला तूल पकड़ेगा। विरोध के प्रति स्वयंभूओं का ठंडा रुख, हमारी अभिव्यक्ति को ठंडा कर देने की योजना के तहत  है। ए.ओ. ह्यूम ने ‘प्रेशर रिलीज थ्योरी’ के तहत कांग्रेस की स्थापना की थी। शुरु में प्रार्थना पत्र ही भेजे जाते रहे। धीरे-धीरे ये प्रार्थना पत्र, गरम दल के दस्तावेज और सरफरोश गीतों में बदल गए।
ताजा चलन में औरत की अभिव्यक्ति को खामोश करने के लिए, महान भारतीय परंपरा और परिवार को बचाने की दुहाई देकर नैतिकता के डंडाधारी लामबन्द हो रहे हैं। ‘लव जेहाद’, औरत के चयन और प्रेम की अभिव्यक्ति पर कंुडली मारने, उसे दिमाग न समझ कर सिर्फ जिस्म समझने की फासीवादी-खाप मानसिकता का ताजा उदाहरण है।
पहरा हुआ करे। जेल में सुरंग बन चुकी है।


 2-
स्त्री, दलित, पिछड़ा... आपसे अल्पसंख्यक छूट गया है।
 तमाम दुश्वारियों के बावजूद, आज स्त्री को अपने स्त्रीत्व पर गर्व है। तुलनात्मक रुप से, स्त्री एक बेहतर इंसान है।
 ‘स्त्री लेखन’ अनुभाग में रखने से औरत को एक आरक्षित और सुरक्षित घेरा मिल जाता है। इससे मूल्यांकन का दायरा छोटा हो जाता है और स्त्री की चुनौतियाँ कम हो जाती हैं। यह ‘स्त्री लेखन’ का लेबिल औरत को ‘कम्फर्ट जोन’ में डाल देगा और स्त्री के विकास को खतरनाक स्तर तक बाधित करेगा।
मेरा दिल औरताना है और संघर्ष मर्दाना। मैं बरसों से बन्द दरवाजे, पाजेबों वाले लात से मार कर चरमरा देना चाहती हूँ। मेरे चेहरे पर अपने आप ऐसा भाव रहता है जैसे मैं ही ‘मित्रो मरजानी’ या ‘सारंग’ हूँ। ऐसे में तो ‘पुरुष लेखन’ को असहज महसूस करना चाहिए।

3-
.महिलाएँ अभी स्वयं के साथ, माँ, दादी, चाची, सहेलियों के साथ जो देखी-सुनी हैं, बहुतायत से उसे लिखने में व्यस्त हैं। कुटिल पितृसत्ता की बंदिशों के बावजूद स्त्रियों ने जब खूब लिखना शुरु कर दिया है तो भविष्य में राजनीति और संस्कृति के क्षेत्रों में जाएँगी।


4-
आपका सवाल वाजिब है और तीसरे प्रश्न का विस्तार है। राजनीति और अर्थनीति, दोनों ही हमारे समाज को गहरे तक प्रभावित करते हैं। लेखक को ‘पैसिव एक्टिविस्ट’ माना जाता है। किन्तु अब लेखक-लेखिकाओं को यह मानना होगा कि लेखन और आन्दोलन एक ही काम की दो विधियाँ हैं।
स्त्री को दूसरों के लिए प्रशिक्षित करके तैयार किया जाता है। फिलहाल वह यह नहीं समझ पा रही है कि अपने बारे में सोचना आत्मकेन्द्रित होना या स्वार्थी होना नहीं है बल्कि अपने माध्यम से स्त्री जाति के बारे में सोचना है। अनुभव की सीमा, संस्कार और आत्मविश्वास की कमी के कारण भी राजनीति आदि विषयों पर कम लिखा जा रहा है।


5-
मातृत्व की विशेषता के कारण स्त्री में जन्मजात रचनात्मकता का गुण आ जाता है। चालीस की उम्र के बाद औरत को अपने स्वतन्त्र तरीके से जीना चाहिए। बच्चों का हाल-चाल लेकर उन्हें अपना निर्णय लेने के लिए छोड़ देना चाहिए। लेखन में हम क्या लाते हैं, यह व्यक्ति के समय और रुचि के हिसाब से बदलता रहता है।
6.
समाज में गहराती लैंगिक कटुता क्या आपको चिन्तित करती है ? क्या मतलब ? स्त्रियों पर बढती हिंसा को लेकर गहरा शोक रहता है, उदासी रहती है, अवसाद रहता है  भयानक क्रोध और घृणा रहती है। मोहनलालगंज में, मैं घटनास्थल पर गई थी। उसके बाद  मुझे कुछ दिन नींद नही आई। मैं यही सोचती रहती थी कि मरने से पहले उस विधवा स्त्री की आँखों के आगे इंतजार करते उसके दो बच्चे घूम रहे होंगे। वह अपनी जिन्दगी के लिए बलात्कारी-हत्यारों से कितना गिड़गिड़ाई होगी। ज्यादातर हत्याओं में प्रेमी और परिचित शामिल रहते हैं। अपने प्रेमियों और परिचितों को अपनी हत्या में शामिल देख कर  औरतों पर मरने से पहले क्या बीतती होगी ?


7-
सोशल मीडिया का सदुपयोग भी हुआ है। जन आन्दोलन, सम्पादन, कार्यक्रमों के प्रचार, सूचना प्राप्त करने में इसकी भूमिका रही है। लेकिन ज्यादातर मामलों में यह सस्ती लोकप्रियता बटोरने, प्रपंच करने, चापलूसी करने और बेशर्म आत्मप्रचार का माध्यम है। मुझे डर है कि रिश्तों के आधार पर बरसाया गया अतिरिक्त पानी और पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर की गई अनावश्यक काँट-छाँट, हमारे रचनाकारों के एक बड़े वर्ग को बोनसाई न बना दे।
     सोशल मीडिया को नजरअंदाज करना नामुमकिन क्यों है भाई ? सोशल मीडिया न हुआ बंबइया  डॉन हो गया।


8-
सभी प्रश्न बहुत अच्छे हैं। किन्तु प्रश्न आठ, प्रेमचन्द, निराला और मुक्तिबोध की परंपरा का नहीं है। प्रश्न का उत्तर न देना प्रश्नकर्ता की शान में गुस्ताखी होगी इसलिए कह दूँ कि बूढ़ा समय जब शाम को झाड़ू-बूहारू करेगा तो ग्लिटर से लिखे पन्नों को कूड़ा डम्प करने वाले गड्ढे में पाट देगा। साहित्य का इतिहास  इस बात की तस्दीक करता है।

9-
 या तो दीवाना हँसे या तू जिसे तौफीक दे’ स्त्रियों में जहर के प्रति इम्यून विकसित हो जाता है। इसलिए वो दीवाना होने से बच जाती हैं। और हमारा ही बनाया, वो कल का ईश्वर, हम पर कभी मेहरबान नहीं रहा। तो हम कैसे हँसे ? फिलहाल तो स्त्रियों का लेखन सामूहिक रुदन है। वे हँसती भी हैं तो गम छिपाने की तर्ज पर। अभी आने वाले कई वर्षो तक स्त्रियों का हास्य-लेखन नहीं आएगा।


10-
मैं पाण्डुलिपि तैयार कर रही हूँ। यह कहानी की मेरी पहली किताब होगी।

---------------------------

किरन सिंह
----------------

3/2शिक्षा: एम्. ए. ( हिंदी, प्राचीन भारतीय इतिहास ) बी. एड., पी -एच. डी.रचनाएँ: "सूर्यांगी" पर उ.प्र. हिंदी संस्थान से 'महादेवी वर्मा पुरस्कार' ,
मुजफ्फर अली द्वारा निर्देशित 'शाल' एवं 'मंगला' तेली फिल्मों में अभिनय.
आकाशवाणी, दूरदर्शन, लखनऊ में आकस्मिक समाचार वाचिका एवं उदघोषिका.

सम्प्रति: अध्यापन, स्वतंत्र लेखन .26 विश्वास खण्ड
गोमती नगर, लखनऊ



         


0 comments:

Post a Comment

फेसबुक पर LIKE करें-