Sunday, February 15, 2015

जीवन के सच और उसकी भयावह विचित्रता की कहानी: "अनोखा" - स्वाती ठाकुर

जीवन के सच और उसकी भयावह विचित्रता की कहानी: "अनोखा" - स्वाती ठाकुर 
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'अनोखा' यह शीर्षक हठात ही ध्यान आकर्षित करता है और पाठकीय मन जाने कौन कौन से  बोध तैयार कर लेता है। मेरे भीतर के पाठक पर भी शीर्षक का कुछ ऐसा ही प्रभाव पड़ा। सबसे पहले हिन्दी भाषा में जो लिंगभेद व्याप्त है, उस दृष्टि से भी इस शीर्षक ने ध्यान खींचा। 

अनोखेपन को हम दो रूपों में ले सकते हैं। ज़िंदगी के स्याह सफ़ेद दोनों ही पक्षों में इसे व्यवहृत किया जा सकता है। हालांकि यह सच है कि अनोखेपन को मानव मन सामान्यत: सकारात्मक रूप में ही ग्रहण करने का अभ्यस्त हो चुका है। और इस लिहाज़ से जब हम इस कहानी से गुजरते हैं तो कहानी कई जगहों पर हमें हौंट करती है, कई जगहों पर हमसे सवाल करती है, कई जगहों पर हमें ठहर कर सोचने को विवश करती है। किसी पाठ का मूल्यांकन उस पाठ के भीतर से ही किया जाना चाहिए। इस आधार पर जब हम ‘अनोखा’ कहानी को देखते हैं तो कहानी का भाव पक्ष, उसका विषय हमसे कई प्रश्न करता है और ये प्रश्न अनदेखा कर दिए जाने वाले कतई नहीं हैं. यह अलग बात है कि प्रश्न को प्रस्तुत करने वाली शैली भी प्रश्न के प्रभाव को तय करती है। पर हम पहले उस शैली पर न जाते हुए यदि भाव की बात करें तो कहानी का नायक एक स्त्री है जिसका नाम अनोखा है पर जिसके जीवन में तनिक भी अनोखापन नहीं है, उसके जीवन को क्रूर कहना गलत न होगा... व्यक्ति के नाम से उसके व्यक्तित्व या जीवन के किसी न किसी पहलू की संगति की अपेक्षा स्वाभाविक रूप से कर ली जाती है, पर इस तरह की अपेक्षा अनोखा के सन्दर्भ में हमें निराश ही अधिक करती है: “करीब पाँच फुट लम्बी, साँवला रंग, छोटी निर्जीव आँखें, भूरे सूखे बाल, ऊपर के चारो दांत कुछ आगे को निकले हुए, उसके पास से आती पसीने की असहनीय गंध और शरीर में लिपटे हुए पुराने कहीं-कहीं से फटे हुए कपड़े” यह है ‘अनोखा’ कहानी के केन्द्रीय चरित्र ‘अनोखा’ का परिचय, जिसमें कहीं कोई विलक्षणता, कोई अनोखापन नहीं है।

किसी भी व्यक्ति की कहानी उसका जीवन सिर्फ उसी तक सीमित नहीं  रहता। अनोखा के जीवन की कहानी में भी कई अन्य पात्र हैं, जो अलग-अलग किरदार निभाते हैं और उसके जीवन को प्रभावित करते हैं। बेटे को विशेष महत्त्व देने वाली उसकी माँ रामरती है, जो दूसरों के घर चौका-बासन और लिपाई-पुताई कर अपना घर चलाती है, जिसने बेटे की आकांक्षा में पांच बेटियाँ जनी हैं। यह स्थिति भी अपने आप में कोई अनोखी स्थिति नहीं है, हमारे समाज में आज भी बेटे की चाह में जाने कितनी अनचाही लड़कियां जन्म लेती हैं और जाने कितनी मार दी जाती हैं। और बेटे की आकांक्षा को समाज के बड़े तबके ने स्वाभाविक रूप में स्वीकार भी कर लिया है। पर कहानी में व्यक्त समाज का यह सच, जो सही नहीं है, जो अपने आप में बेहद क्रूर और भयानक है, बड़े सवाल खड़े करता है: स्त्री में पुरुष को जनने की ऐसी आकांक्षा क्यों? जबकि कहानी में ही यह स्पष्ट कर दिया गया है कि पति के रूप में अनोखा की माँ के जीवन में जो पुरुष है, उसने उसके जीवन को और अधिक यंत्रणामय ही बनाया है। हालांकि कहानी स्वयं इस प्रश्न का जवाब इस रूप में देती है कि रामरती को यह उम्मीद है कि बेटे के रूप में पुरुष उसे उन कष्टों/यंत्रणाओं से उबार लेगा, जो उसे पति रूपी पुरुष से मिले हैं। “एक लड़के की चाह में पाँच बेटियाँ जनी थीं उसने, दबाव किसी का नहीं था उसे खुद ही बेटा चाहिए था अपने बुढ़ापे को सँवारने के लिए  पर क्या वास्तव में यह उम्मीद भर ही उस प्रश्न का पूरा जवाब हो सकता है?

कहानी का विषय उस वक़्त अपने महत्वपूर्ण मोड़ (टर्निंग प्वाइंट) पर पहुंचता है जब अनोखा  चौदह वर्ष की हो चुकी है। उसका शरीर स्वाभाविक रूप से विकसित हो रहा है। कभी कभी ऐसा भी लगता है स्त्री के शरीर में होने वाला यह स्वाभाविक विकास ही क्या उसका अनोखापन नहीं है? जहां पुरुष अपने जीवन में किसी भी तरह के अनोखेपन को स्वयं गढ़ता या निर्मित करता है, वहां स्त्री में एक ख़ास तरह का नैसर्गिक अनोखापन होता है, जिसकी उसे इस सभ्य समाज के अति सभ्य पुरुषों द्वारा सजा भी मिलती है। अनोखा को भी इसकी सजा मिली है, जिसे वह समझ नहीं पाई।  अनोखा के विकसित होते शरीर को देख स्त्री को भोगने के आकांक्षी उसके परिवेश के पुरुषों की जीभ लपलापाई हुई है, ये वही पुरुष हैं, जो ऊपर से भद्रता की सफ़ेद चादर ओढ़े हुए हैं, ये वही पुरुष हैं जिन्हें अनोखा चाचा-भैया कहती है, ये उन्हीं घरों के पुरुष हैं, जिनमें अनोखा की माँ काम करती है। 

अनोखा, जो अपने घर में हर स्नेह-सुविधा से वंचित रही, जिसका कारण उसकी गरीबी और माँ रामरती का पक्षपातपूर्ण व्यवहार था, को अपने शरीर के ये बदलाव अच्छे लग रहे थे क्योंकि उसने गौर किया था कि इन्हीं की वजह से अब:“जब भी वो घर में रहती तो चचेरे भाई भी उसे बड़े ध्यान से निहारते और जब भी बाहर जाती 
गाँव के चाचा-ताऊ सब उसे अपने पास बुलाते, उसके हाल पूछते और बिना किसी काम के ही दो – चार रुपए भी पकड़ा देते कि रख लो कुछ अपनी पसंद का ले लेना”इन्हीं चाचाओं में से एक हैं रज्जन काका, जिनकी उम्र है ४६ वर्ष और जिन्होंने अपनी ११ वर्षीय बेटी का अभी हाल ही में विवाह किया है, और अब उनका मन रम गया है अनोखा के शरीर पर और इस आकांक्षा में वे उसे नित नए तोहफे देते हैं और एक दिन कहानी के शब्दों में उसका कौमार्यभंग कर देते हैं, अनोखा समझ नहीं पाती कि: “अच्छा क्या लगा रज्जन का साथ या अपने पैरों में चाँदी की पायल” और यह सिलसिला तब तक चलता है जब तक अनोखा गर्भवती नहीं हो जाती, फिर अपमान और यंत्रणा का दौर और फिर गर्भपात। रामरती अपनी इस बेटी, जिसकी शुचिता भंग हो चुकी है 
उससे मुक्ति पाने के लिए उसकी शादी तीन बेटियों के बाप से कर देती है जो ‘ब्याह की ही रात बिना किसी वार्तालाप के वसूल लेता है अपने पति होने का अधिकार’ परिणामस्वरूप अनोखा फिर गर्भवती होती है। बेटे के आकांक्षी उसके पति पक्ष द्वारा लिंग जांच कराई जाती है, जिसमें पेट में पल रहे बच्चे के बेटी पाए जाने पर अनोखा का फिर से गर्भपात कराया जाता है, पर यह सिलसिला थमता नहीं है, डॉक्टर के शारीरिक संबंध से मना करने के बावजूद अनोखा फिर गर्भवती होती है, पर इस बार उसके गर्भ में पुरुष पल रहा है, जिसे उसका परिवार जन्म देना चाहता है, बेशक अनोखा के जीवन की कीमत पर ही, क्योंकि “डॉक्टर से बच्चा बचाने के लिए ही कहा गया था माँ तो नई भी आ जाएगी लेकिन लड़का,  इतनी मुश्किल से तो घर का चिराग मिला है इसलिए बच्चा हर हाल में बचना चाहिए” यह कहानी अनोखा की कहानी भर नहीं यह उस मरे हुए समाज की कहानी है, जहां स्त्री, पुरूषों की भूख मिटाने तथा पुरुष जात को पैदा करने के लिए ही है। और स्त्री की भूख, उसके जीवन का कोई मोल नहीं है इस सभ्य समाज के लिए। एक स्थान पर जब अनोखा का शराबी बाप 
हरिप्रसाद अपनी भूख मिटाने के लिए अपनी बीवी रामरती पर टूट पड़ता है, और थक कर सो जाता है तो रामरती सोचती है अपनी भूख के बारे में और खुद ही कहती है: “ उसकी भूख? उसे भूख है ही नहीं. ज़िंदगी ने इतना भर दिया है उसे कि वो भूख को ही भूल चुकी है. कई बार तो उसे खुद के जीवित होने पर भी शक हो उठता है” यह कहानी एक ऐसे सच को हमारे सामने लाती है, जो नया कतई नहीं है, पर स्वाभाविक भी 
नहीं कि आँखें मूँद ली जाए। हमें इस बात को मानना ही पड़ेगा कि आज हमारे समाज में ऐसी बहुत सी चीजें/व्यवहार प्रचलन में हैं जो एक तरह से सच/समय के सच के रूप में व्यवहृत/स्वीकृत होती हैं, पर वे सही किसी भी लिहाज से नहीं है। हमें सच और सही के इस फांक को मिटाने की ज़रूरत है। कला का कोई भी रूप समस्या का समाधान नहीं देता। कुछ सच की कड़वाहट को थोड़ा कम करने के लिए एक सुखद आदर्श प्रस्तुत कर देते हैं। और कुछ उस कड़वाहट को उसके यथार्थ रूप में ही व्यक्त कर देते हैं। इस विद्रूप समय में किसी भी तरह 
के मुलामियत के आवरण की आवश्यकता भी नहीं है। ज़रूरत है सच को सही बनाने की। किसी का जीवन अनोखा हो या न हो, पर हर किसी को एक सामान्य गरिमापूर्ण जीवन तो मिलना ही चाहिए, बिना किसी वर्ग, जाति और लिंग के भेद के। यह कहानी कोई अनोखी बात नहीं करती, अनोखी समस्या नहीं उठाती, इसकी शैली में भी कोई अनोखापन नहीं है, पर यह कहानी समस्या  की क्रूरता से हमें झकझोड़ती है, हममें एक अकुलाहट भरती है और यही इसकी खासियत है, यही 

इसका अनोखापन है।

साभार लमही

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स्वाती ठाकुर
शोधार्थी, हिंदी विभाग 
दिल्ली विश्वविद्यालय

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