बात-चीत 20.11.2014
१.
कहा जाता है कि अभिव्यक्ति की बराबरी से बड़ी कोई बराबरी नहीं हो सकती.
दुनिया भर के जनतांत्रिक आंदोलनों का अंतिम आदर्श भी यही अभिव्यक्ति की
बराबरी रहा है.हिंदी जगत में स्त्रियों द्वारा रचे जा रहे साहित्य की
प्रचुरता और विपुलता के मद्देनज़र क्या आपको लगता है कि आज एक स्त्री के लिए
अभिव्यक्ति के समान अवसर हैं और वह निर्द्वंद हो कर मनचाहा रच और
अभिव्यक्त कर पा रही है?
२. साहित्य को
स्त्री,दलित,पिछड़ा जैसे खांचों में रख कर पढना और समझना मुझे उन्हें
मुख्यधारा से परे धकेलने का एक षड्यंत्र ज्यादा लगता है. मगर, कुछ लोग
अनुभवों और यथार्थ की प्रमाणिकता की दृष्टि से वर्गीकरण और रेखांकन को
युक्तिसंगत भी ठहराते हैं. आप अपने लेखन पर चस्पां 'स्त्री लेखन' के लेबल
से कितनी सहज या असहज महसूस करती हैं?
३.आधुनिक
स्त्री रचनाधर्मिता में जाहिर तौर पर 'कॉमन थ्रेड' पितृसत्ता के विरुद्ध
संघर्ष और प्रतिरोध है. हिंदी साहित्य में लेखिकाओं ने भावनात्मक, शारीरिक,
सामाजिक और आर्थिक स्तरों पर पितृसत्ता की जकड़न, उसकी प्रविधियों और उसके
पाखंडों का उद्घाटन और उदभेदन बहुत कुशलता से किया है. यहाँ तक की स्त्री
यौन शुचिता की खोखली अवधारणाओं की भी धज्जियाँ उड़ाई गई हैं.मगर, कुटिल
पितृसत्ता जिस प्रकार आज भी राजनीति और संस्कृति के क्षेत्र में महिलाओं के
लिए लक्ष्मण रेखाएं खींच रही है, उससे हिंदी जगत की लेखिकाएं आँखें फेरे
क्यों दिखाई देती हैं?
४.व्यापक स्त्री हित से
जुड़े राजनीति और अर्थनीति के ज्वलंत प्रश्न, जैसे विधायिका में महिला
आरक्षण, मंत्रिमंडलों, नौकरियों और शैक्षिक संस्थाओं में सानुपातिक
प्रतिनिधित्व, इत्यादि महिलाओं के रचनात्मक सरोकारों में अपेक्षित स्थान
क्यों हासिल नहीं कर पाते हैं?
५. 'मातृत्व' एक
ऐसा गुण है, जो स्त्री को श्रेष्ठ कृति बनाता है. सो, स्वाभाविक रूप से
दुनिया भर के स्त्री-साहित्य में इसे 'सेलिब्रेट' किया जाता रहा है. मगर
कुछ पश्चिमी नारीवादियों(फेमिनिस्ट्स) ने यह महसूस किया है कि मातृत्व के
प्रति भावुक सम्मोहन को बढ़ावा देना किसी स्तर पर मर्दवादी राजनीति का एक
आयाम भी हो सकता है. आप इस निष्कर्ष से कितनी सहमत हैं?
६.समाज
में स्त्रियों के संगठित दमन चक्र के कमजोर पड़ने और स्त्री स्वातंत्र्य की
सशक्त छवियों के समानांतर इर्ष्या और कुंठा की लहरें भी दिखाई पड़ रही हैं.
इस का नतीजा है कि यौन हमलों और हिंसा की बाढ़ सी आ गई है और कार्य स्थलों
पर और अन्यत्र स्त्री-पुरुष रिश्ते असहज होते चले जा रहे हैं..समाज में
गहराती लैंगिक कटुता क्या आपको चिंतित करती है?
७.आज
पारंपरिक साहित्य की तुलना में सोशल मीडिया का स्त्री-लेखन ज्यादा
चर्चाएँ बटोर रहा है. सोशल मीडिया की अराजकता, उसका औसतपन, उसकी
क्षणभंगुरता और उसके आभासी चरित्र की आलोचनाएँ और आक्षेप अपनी जगह हैं,
मगर अब उसे नज़रअंदाज़ करना नामुमकिन है. साहित्य में सोशल मीडिया के
विवादास्पद हस्तक्षेप को गंभीर लेखन और साहित्य में कहाँ देखती हैं आप?
८.साहित्य
के बारे में शुरू से एक मासूमियत भरी स्थापना रही है कि स्तरीय साहित्य
अपने बूते जिंदा रहता है. मगर हकीकत यह है कि आज जो रचना साहित्यिक
परिचर्चा, गोष्ठी, जलसा, विमोचन, समीक्षा, पुरस्कार के जुगाड़ तंत्र में
अपनी जगह नहीं बना पाती, पाठक उस तक पहुँच भी नहीं पाता, चाहे वह जितनी भी
उच्च कोटि की हो. एक स्त्री के नजरिये से साहित्य की यह धक्कम-पेल आपको
हताशाजनक लगती है या चुनौतीपूर्ण?
९.
एक सवाल जो मुझे हमेशा परेशान करता है कि आखिर हिंदी के स्त्री लेखन से
'हास्य' और 'विनोद' लगभग निष्कासित क्यों है? कटाक्ष और व्यंग अगर है तो
उसकी प्रकृति हास्य-मूलक नहीं है. ऐसा क्यों?
१०.अपनी आगामी लेखकीय योजनाओं के बारे में बताएं.
1-
उत्तर:
मैं तो ये मानती हूँ कि अभिव्यक्ति की ताकत ने ही जानवर से मनुष्य को मनुष्य बनाया ! अगर उसमें अभिव्यक्ति की ताकत नहीं होती तो वह जानवर की तरह ही रहता! आज भी हमारे देश में बहुत से ऐसे लोग हैं, जो जानवर की तरह ही रहने को अभिशप्त हैं। ऐसी स्थिति में समाज ने उन्हें रख छोड़ा है या रहने पर मजबूर कर दिया है कि वे जो बोल कर अपनी पीड़ा भी बता नहीं पाते । जहां तक स्त्रियों का सवाल है, कुछ टेक्नॉलॉजी की बढ़त, कुछ मानवता के मुद्दों पर ज्यादा जोर देने, कुछ विश्व की स्थिति या फिर विश्व भर में लोकतान्त्रिक संस्थाओं के आ जाने के कारण, स्त्रियों की अभिव्यक्ति के अवसर बढ़ने की मुहिम चली है। पर यह दृष्टिकोण बदलने के लिए प्रयाप्त नहीं है । यह कितनी कामयाब हुई है, इसके तोलने या विवेचन की दरकार है ! अलग-अलग देशों से अलग-अलग स्थितियां हो सकती हैं। भारत के सन्दर्भ में मध्यमवर्गीय समाज व दलित समाज की स्त्रियां भी अब बोलने लगी हैं। शिक्षा के चलते वे लिखने भी लगी हैं !
अभिव्यक्ति को दो तरह से बांटना होगा! एक तो है बोलना और दूसरा है लिखना ! लिखने वाली स्त्रियों का प्रतिशत बहुत कम है, फलतः उनकी अभिव्यक्ति की ताकत भी उस अनुपात में बहुत कम है। ऐसे भी हर वह औरत, जो लिखती-पढ़ती है जरुरी नहीं कि वह लिखती ही हो। हर पुरुष भी जो पढ़ा-लिखा है, जरुरी नहीं कि लिखना जाने या लेखक हो। जैसे लेखकों की संख्या कम है, उसी तरह लेखिकाओं की संख्या भी कम है! उसके दो कारण हैं - एक तो स्त्रियों में अशिक्षा, दूसरा राजनीती और तीसरा समाज की वर्जनाएं व प्रतिबंन्ध। हमारे संविधान को अभी समाज ने स्वीकार नहीं किया है! उसने स्त्री को पुरुष के बराबर नहीं माना है, भले संविधान में बराबरी का प्रावधान दर्ज है । और फिर जो स्त्रियां लिख भी रही हैं, उन पर लांछन लगते हैं ! मैत्रोयी पुष्पा पर लांछन लगा दिया गया! उनके लिए ‘छिनाल’ शब्द का इस्तेमाल किया गया ! स्त्री जब आत्मकथा लिखती है, तो सच लिखती है ! जब कोई स्त्री कई पुरुषों के बिस्तर में आने की बात लिखती है, तो उसमें पुरुष भी तो शामिल होता है ना ? फिर केवल स्त्री को ही छिनाल क्यों कहा जाता है ? ऐसे भी सच बोलने वाली स्त्री को लोग पसंद नहीं करते फिर हिंदी में तो आत्मकथाएं लिखने की परम्परा ही नहीं रही । यह तो माहात्मा गांधी ने सत्य से हमारा साक्षात्कार कराया । अभी दलितों और स्त्रियों ने आत्मकथाएं लिखनी शुरू की हैं! पहले अगर किसी ने लिखा भी तो उसमें अपने ऐश्वर्य, सामर्थ्य, वर्चस्व का ही चित्राण किया। ऐसी रचना आत्मकथा नहीं होती । आत्मकथा सच्चे मायने में वही होती है, जिसमें आपकी पीड़ा के साथ-साथ,आपने जो भोगा है, आपका जो शोषण हुआ, उसे सच्चाई से चित्रित किया जाय! जिसमें आपकी कमजोरियां भी दर्ज हों और संघर्ष भी, जैसे महात्मा गांधी ने किया । इसलिए जो स्त्रियां सच लिखती हैं, उन पर लांछन लगते ही हैं! जब तक वे पति के आने का इंतज़ार करती स्त्रियों की ऐसी ही कहानियाँ लिखती रहीं, गृहिणी होने के नाते अपने फर्जों को गिनाती या दर्शाती रहीं अथवा माँ के नाते ममता का ढिंढोरा पीटती रहीं .. किसी ने आपत्ति नहीं की । लेकिन जैसे ही वे सच लिखने लगी, आपत्ति होने लगी ! उन पर अघोषित प्रतिबन्ध लगने लगे! संविधान में प्रतिबंध नहीं है लेकिन समाज ने तो लगा रखा है प्रतिबन्ध। स्त्रियां भी स्त्रियों को क्रिटीसाइज करने लगती हैं क्योकि वे स्वयं भी पुरूष अनुकूलित ही नहीं पुरुष वर्चस्व से आतंकित भी हैं । इसलिए मेरी राय में अभिव्यक्ति के समान अवसर होने के बावजूद अभी भी औरत निर्द्वन्द होकर, मनचाहा रच या लिख नहीं पा रही । विरले ही कुछ लेखिकाएं लिख रही हैं और झेल रही हैं चुनौतियां ।
2-
उत्तर: इसमें मैं कुछ डिफर करती हूँ । ऐसे मैं केवल स्त्री पर ही नहीं विभिन्न विषयों और मुद्दों पर लिखती हूं । फिर भी स्त्रीवादी कहलाने में मुझे कोई दिक्कत नहीं । मुझे अपने स्त्री होने पर गर्व है, इसलिए मेरे लेखन पर स्त्री का लेबल लगने पर शर्मिंदा होने का सवाल ही नहीं उठता । स्त्री होने के कारण स्त्री –व्यथा और स्त्री -समस्या का विशेष जानकार होना अच्छी बात है वह उपलब्धि है मेरी । ऐसे इसका एक और पहलू भी है । पुरूष लेखकों को यह भ्रम आज तक है कि कोई स्त्री उनके समकक्ष लिख ही नहीं सकती,जैसे कि लेखन केवल उन्हीं का अधिकार है। उन्हें हमारे लेखन पर स्त्री लेखन का लेबुल लगा कर संतोष मिलता है कि स्त्रियां उनकी टक्कर में नहीं हैं । यह कि उनका लेखन अलग कैटेगरी का है । इस भ्रम को तोड़ना जरूरी है । यदि साहित्य मानवता का दर्पण है और मानवता ही दलित, अदलित आदिवासी,स्त्री -पुरूष, काला-गोरा ऊंचा-नीचा में बंटी है, तो साहित्य एक जैसा कैसे होगा ? उनकी समस्यायें तो तथाकथित मुख्यधारा, जिसमें केवल उच्च जाति, वर्ण या वर्ग के लोग ही हैं से भिन्न ही होगीं । उनकी दृष्टि भी अलग होगी । इस तथाकथित मुख्यधारा के लोग जो 10 प्रतिशत हैं, पढ़ते-लिखते आए हैं सदियों से और 90 प्रतिशत जो अवर्ण हैं, उन्हें इन 10 प्रतिशत सवर्णों ने तो पढ़ने ही नहीं दिया। आबादी में आधी आबादी की भी शामिल है। फिर 10 प्रतिशत मुख्यधारा कैसे हुई? वह तो अल्पधारा हैं! मुख्यधारा तो 90 प्रतिशत वे लोग हैं, जिन्हें अनपढ़ रखा गया इस देश में । अब वे लिखने लगे हैं! फिर उनकी पहचान तो अलग होगी ही न । एक बात और कहना चाहूंगी, "समुद्र बहुत बड़ा होता है, जो नदियों से मिलने से बनता है! नदी मिल जाती है समुद्र में, तब वह भी समुद्र बन जाती है, लेकिन नदी की अपनी पहचान तो बनी रहती है है न जहां वह बहती है? नदी तो खत्म नहीं हो जाती ? नदी न हो, तो समुद्र भी नहीं होगा।" जब मानवता में दलित, अदलित, अवर्ण-सवर्ण या लिंग भेद के खाचों वाली सोच मिट जाएगी, तो साहित्य में भी भेद खत्म हो जाएंगें । सारी धाराओं, विभिन्न नस्लों, जातियों, पिछड़ों, दलितों से मिलकर ही तो मानवता बनती है। इनकी अपनी पहचान कायम रखते हुए अगर ये सब मानवता में मिलते हैं, तो ज्यादा भाईचारा कायम हो सकता है ! अगर कोई षड़यंत्र रचा गया है, तो वह तथाकथित सवर्ण निर्मित मुख्यधारा ने रचा है । उन्होंने मानवता के नाम पर षड़यंत्र करके गैर सवर्णों को पहचान तक नहीं दी। स्त्रियों के लेखन को आप स्त्री का लेबल लगा दीजिये या कुछ लगा दीजिये, है तो वह मानवता का साहित्य ही न ! मानवता का वह पक्ष, जिसे आपने स्त्री कहकर निग्लेक्ट किया, लेखिकाएं उसे उभारती हैं! वह साहित्य नहीं तो क्या है ? स्त्रियां अपनी पहचान का साहित्य लिख रहीं हैं और पुरुषों से बढ़कर लिख रही हैं ! कोई भी पुस्तक आती है, तो पुरुष लेखक की तुलना पुरूष लेखक से तो की जाती है पर लेखिकाओं से नहीं। मुझे लेबल लगने में कोई एतराज़ नहीं है । मैं दलित साहित्य पर भी काम करती हूँ और आदिवासी साहित्य पर भी। स्त्री के मुद्दे पर लिखती हूँ और पूरी वंचित जमातों पर भी, जिन्हें मुख्याधारा ने नेग्लेक्ट किया, उपेक्षित किया । मैं उन्हें आगे लाने का प्रयत्न कर रही हूँ ! उस पर आप कोई भी लेबुल लगाएं, क्या फर्क पड़ता है ? बात तो मानवता की ही होती है न ।
3-
उत्तर: मेरे विचार से यह आरोप सही नहीं है । स्त्रियां पितृसत्ता के विरुद्ध भी लिखती हैं और उससे इतर सामाजिक सरोकारों, सामाजिक अन्याय व अन्य विविध विषयों पर भी लिखतीं हैं! ये कहना गलत होगा कि वे केवल पितृसत्ता के विरुद्ध ही लिख रहीं हैं। स्त्रियों ने अपने लेखन में आदिवासी, दलित और वंचित समाज के मुद्दों पर लिखा है । सच्चाई यह है कि चूंकि वह साहित्य स्त्रियों द्वारा सृजित है, इसलिए उसे स्त्री -साहित्य कह दिया जाता है। इससे इतर वे प्रेम, प्रकृति, परस्पर रिश्ते, ट्रेड यूनियन, विदेश गए भारतीयों के सांस्कृतिक द्वंद्व, राजनीतिक आर्थिक विभेद, धार्मिक संकीर्णताओं, पुरानी परंपराओं व अंधविश्वासों की जकड़न के खिलाफ या नई पीढ़ी की सोच आदि कई विषयों पर भी लिखती हैं । यह सच है कि पुरूषों की तुलना में लेखिकाएं कम है पर जो हैं उनका दायरा व्यापक है, आयाम बड़ा है। स्त्री मुद्दे पर जो लिखा हो उसे ही आप स्त्री - साहित्य कह सकतें हैं। मैंने पहले भी कहा - लोग स्त्री को अपने बरक्स लेखक के रूप में स्वीकारनें को तैयार नहीं हैं। इसी लिए यह प्रश्न उठाए जाते हैं ।राजनीति को देखें तो अभी तक महिला - आरक्षण का बिल पास नहीं हुआ है। स्त्री को पुरुष मानसिकता किसी भी क्षेत्रा में आगे बढ़ने नहीं दे रही । मैत्रोयी पुष्पा, स्त्रियों पर भी लिख रहीं हैं और दूसरे मुद्दों पर भी। उनकी आत्मकथा कबूतरी पूरे आदिवासी समाज की कथा है। चित्रा मुदद्गल अपने आपको स्त्रीवादी नहीं कहती हैं । वे दूसरे मुद्दों पर लिख रहीं हैं और स्त्रियों पर भी। ट्रेड यूनियन संघर्ष के विभिन्न पहलुओं पर उन्होंने लिखा है । कृष्णा सोबती, नासिरा शर्मा, निर्मला पुतुल, मृदुला गर्ग, कुसुम अंचल, अनिता भारती, अर्चना वर्मा, अनामिका, मृदुला गर्ग, सरोजनी श्रीवास्तव, जय वर्मा, सुधा ओंम ढींगरा, सुधा अरोड़ा, जाकिया जुबैरी, ग्रेस कजूर, मीरा आदि लेखिकाएं स्त्री मुद्दों के साथ - साथ तमाम और दूसरे मुद्दों पर भी लिख रहीं हैं! सुषुम बेदी,कविता वाचनकवि दिव्या, विदेश में रहकर लिख रही हैं! लेखिकाएं अनुवाद भी कर रहीं हैं! उनके लेखन का मूल्यांकन न करना भी पुरुषों की एक राजनीती है। ये पितृसत्ता स्त्री का वर्चस्व है! किसी भी क्षेत्र में पुरुष स्त्रियों को आगे नहीं बढ़ने देना चाहता ! ये बात ठीक है कि का स्त्री मुद्दे पर लिखना उनके ज्यादा नज़दीक पड़ता है, इसलिए वे स्त्री मुद्दों पर ज्यादा लिख रही हैं और पाठकों का भी ध्यान उनकी उन रचनाओं पर ज्यादा जाता है। सच तो यह है कि पुरूष मानसिकता उन्हें स्त्री तक ही सीमित कर देना चाहती है । स्त्री मुद्दा सब में एक कॉमन थ्रेड होने का अर्थ यह नहीं कि दूसरे मुद्दे उनके लिए वर्जित हैं । वे उन पर लिख रही हैं। लिख सकती हैं और लिखेंगी भी ..! .. और लिखा भी है .. लेखिकाओं ने आँखें नहीं फेरी हैं .. आप उनकी चर्चा और मूल्यांकन नहीं कर रहे हैं। मैं किस किस का नाम लूं? मैंने खुद भी स्त्री के अतिरिक्त हर मुद्दे पर लिखा है। हाशिए के वंचित समाज पर, प्रेम समाज, राजनीति और प्रकृति पर भी लिखा है। अधिकारों से वंचित समाज पर भी लिखा है ।
4-
उत्तर: कौन नहीं कर पातीं हैं ? कौन ? स्त्रियां नहीं कर पाती हैं या पुरुष उन्हें हासिल करने नहीं देते ? सवाल तो फिर वहीं आ जाता है ! इसके लिए संगठन की दरकार है! भारत में अधिकांश स्त्रियां गृहिणी हैं, वे सही नागरिक भी नहीं बन पाईं हैं । उनके लिए सारा संसार सिर्फ उनका घर ही होता है । घर के बाहर क्या हो रहा है, उन्हें नहीं मालूम ! ज्यादातर स्त्रियां वोट भी डालने जाती हैं, तो पति से पूछ कर कि किसे वोट दें ? अभी तक पढ़ी-लिखी स्त्रियां भी अंधवश्वासों से मुक्त नहीं हो पायी हैं ! पढ़ी-लिखी डॉक्टर बनी महिलाओं की भी यही स्थिति है । अगर उन्हें बेटा नहीं हुआ है, तो वे पूजा -पाठ या जादू-टोना का सहारा लेने लग जाती हैं, जबकि तथ्य यह है कि लड़का होने के लिए पुरुष के 'Y' का होना जरुरी है! यानी उस डॉक्टरनी की पढ़ाई - लिखाई बेकार गयी! पुरुष भी ये जानते हुए कि बेटा उन्हीं के कारण होता है, तब भी दूसरा विवाह करने के बारे में सोचते हैं । सामाजिक, राजनितिक, वैज्ञानिक चेतना का अभाव और अन्धविश्वास के प्रभाव और रूढि़वादी मानसिकता से स्त्रियां तो क्या, पुरुष भी मुक्त नहीं हो पाएं हैं ! कया यह समाज की, विशेषकर जागरूक व पढ़े लिखे पुरूषों की जिम्मवारी नहीं बनती कि वे स्त्रियों को जागरूक करें, नागरिक बनने में उनके सहायक, सहयोगी बनें ? दरअसल पुरुष अपनी सत्ता को गंवाना नहीं चाहता । फलतः वह स्त्रियों को नौकरी में आरक्षण नहीं देने में कोताही करता है । अभी तक आरक्षण का बिल लटका पड़ा है ! अनुपात में स्त्रियां कम संगठित हैं, उनका संगठित होना बहुत जरुरी है और गृहिणियों को नागरिक बनाना भी बहुत जरुरी! स्त्री यह नहीं चाहती है कि वह पुरुष की जगह ले ले । स्त्री तो चाहती है कि वह पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर, अपना कर्त्तव्य निभाते हुए, अपना हक हासिल करे। पुरुष चाहता है कि वह उसकी दासी बनी रहे और जो वह कहे, वही करती रहे । हर पुरुष के बारे में मैं यह नहीं कहती, लेकिन हज़ार में कोई एक पुरुष ही होगा, जो चाहेगा कि स्त्री आज़ाद रहे, शायद दस घर में एक ही हो ! संगठन के अभाव और चेतना के अभाव में इन मुद्दों पर संगठित रूप से प्रदर्शन, आंदोलन, जो कभी पहले शुरू हुए थे, आज नहीं हो रहे। सरकार भी ध्यान नहीं दे रही । सरकारें बदल रहीं हैं लेकिन बदलाव की राजनीति नहीं कर रहीं । बदलाव की राजनीति होगी और समाज भी बदलाना चाहेगा, तो ही स्त्री की स्थिति में सुधार आएगा ! इसलिए स्त्रियों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता, स्त्रियों की इस स्थिति के लिए समाज दोषी है ।
5-
उत्तर: काफी हद तक यह सही है । मातृत्व के इस गुण को कब सराहा है पुरुष ने ? स्त्री का माँ बनना उसका एक स्पेशल गुण है, जो पुरुष में नहीं है ! लेकिन वह माँ के इस गुण का ही सर्वाधिक गुहादोहन करता है ! स्त्री के मातृत्व को पुरुष के साथ नत्थी कर दिया गया है । मातृत्व के गुण को सराहे जाने का मतलब होता है बच्चा पैदा करने को सराहा जाना, न कि किस विशेष रिश्ते में बंधे पुरूष से बच्चा पैदा होने पर ही इस गुण को सराहना ! अन्यथा उसे नकारना और धिक्करना। गुजरात के एक आदिवासी क्षेत्र में, बिना शादी के बच्चा पैदा हो जाता है । उसे नाजायज़ नहीं माना जाता ! मातृसत्ता का एक प्रदेश है मेघालय, वहाँ बच्चा नाजायज़ नहीं होता । हमारे समाज में विवाह से इतर पैदा होने वाले बच्चे को नाजायज़ माना जाता है, जिसमें बच्चे का कोई दोष नहीं होता । तब पुरूष और समाज स्त्री के मातृत्व गुण को क्यों नहीं स्वीकार करता ? दरसल मातृत्व के गुण को पुरुष समाज ने कभी सराहा ही नहीं । जब सराहा तो अपनी ही पैदा की हुई औलाद के संदर्भ में । दूसरा यह कि पुरूष माँ की ममता को ब्लैकमेल करता है! तलाक लेने पर बच्चे का क्या होगा, इसका डर स्त्री को सताता रहता है! जबकि बच्चा, माँ - बाप दोनों की जिम्मेदारी होता है! बच्चे को नौ महीने पेट में रखने के कारण बच्चे के प्रति माँ में ममता ज्यादा होती है। यह स्वाभाविक भी है। स्त्री की इसी ममता को भंजाता है पुरुष । यह मर्दवादी चाल है। वह स्त्री को ममता का हवाला देकर आज़ाद नहीं होने देता । बहुत सी स्त्रियां सिर्फ यह सोचकर पुरूष से अलग नहीं हो पातीं कि बच्चों का क्या होगा ? इस सोच को पश्चिम या पूरब की राजनीति कह कर खारिज नहीं किया जा सकता ! यह विश्व-पुरूष की सोच है । पश्चिम की राजनीति के अनुसार आज सुप्रीम कोर्ट ने बिना ब्याह के साथ रहने और उस रिश्ते से पैदा बच्चों को भी मान्यता दे दी है । बिन ब्याह वाले बच्चों को भी भारत में मुवावजा देने की बात हो रही है । यह अच्छी बात है । बच्चों के मोह में पड़कर औरत उसकी दासी बने रहना कबूल करती रही है! बच्चे के प्रति भावुक सम्मोहन तो दरअसल स्त्री-पुरूष दोनों में होता है, पर पुरूष ने चूंकि स्त्री को घर तक सीमित कर दिया, उसे अपने पर आश्रित बना दिया, इसलिए वह स्त्री को ममता का बार-बार अहसास दिला कर डराता रहता है । यह साजिश आज की नहीं, जब आदिम समाज ने कृषि को अपनाया, तभी से चली आ रही है । ऐसी भी अगर पश्चिम का कोई विचार अच्छा हो, तो उसे सिर्फ इसलिए ही नकारना नहीं चाहिए कि वह पश्चिम से आया है ! हमारे देश का कोई संस्कार बुरा है, तो सिर्फ इसलिए स्वीकारना नहीं चाहिए कि वह हमारे देश का है! जातिवादी प्रथा हमारे देश की है, हम इसे नकार रहे हैं , संविधान ने भी उसे नकारा है । पश्चिम ने हमे डेमोक्रेसी सिखाई, तो क्या वह बुरी है ? तो अगर पश्चिम का नारीवादी आन्दोलन यह कहता है कि मर्दवादी समाज स्त्री की ममता को भुनाता है, तो वह सही कहता है! मैं सहमत हूँ इससे !
6-
उत्तर: आज हमारा ट्रासीजनशन का समय है । पुरानी संस्कृति नए युग की मानवतावादी बराबरी भाईचारे और आज़ादी की नव संस्कृति को पचा नहीं पर रही है । समाज का जो वर्ग इस व्यवस्था से सुविधाएं लेते रहा है वह वर्ग कटुता पैदा कर रहा है । उनका जो शिकार था, आज वह जाग रहा है । इसलिए द्वन्द्व तो होगा ही । यह एक चुनौती है। आज कटुता चिंता का नहीं बल्कि बहस का विषय है। इसका कारण पुरूष है समाज है, स्त्री नहीं । स्त्री को लिंग के आधार पर हमने दोयम दर्जा दे रखा है, भारत में यह भेदभाव केवल स्त्रियों के प्रति ही नहीं है। दलितों के लिए भी हमारा सभ्य समाज ईष्र्या और कुंठा से ग्रस्त है ! हाशिये के समाज या कमज़ोर समाज को ऊपर लाने या बराबरी का दर्जा देने की बात होगी, तो जो समाज इस व्यवस्था में फायदा उठता आ रहा है, ईष्र्या करेगा ही! उस ईष्र्या की परवाह करके क्या हम न्याय के लिए लड़ना छोड़ दें ? लैंगिंग कटुता भी वंचित समाज यानी स्त्री नहीं लाती । पुरूष जिसकी सुविधाएं छिन रही हैं, वह पैदा करता हैं । स्वीडेन की स्त्रियों ने कहा कि हम खाना बनाते हैं, हमारा भी मूल्यांकन करो और वहां मूल्यांकन हुआ। वहां घरेलू स्त्रियां अपने हक की लड़ाई लड़ रही हैं । वे अपने घरेलू काम का मूल्यांकन और मुआवज़ा मांग रही हैं । हमारी स्त्री घर के सारे कपडे धोती है, तो धोबी का काम करती है । खाना बनती है, तो दाई का काम करती है । बच्चे पालती है तो आया का काम करती है और सौदा लाती है तो छोटे मुंडू का काम करती है । पति के साथ रात को बिस्तर में सोती है, तो वेश्या का काम भी करती है । इतने सारे काम करने के बाद किसी स्त्री से पूछो कि क्या करती हो, तो कहेगी ”कुछ नहीं !“ वह नौकरी करेगी, तभी उस ‘कुछ नहीं’ को काम करना मानेगी । आज यदि वह इस ‘कुछ नहीं’ से ‘कुछ’ बनना चाहती है, तो घर में कटुता बढ़ जाती है । इसमें स्त्री का क्या दोष ? वह क्या करे ? वह तो अपना हक मांग रही है ! इसलिए लैंगिग कटुता मुझे चिंतित नहीं करती है ! बहुत बड़ी चुनौती है यह स्त्रियों के लिए । स्त्रियों को स्वीकार करके, अपने अधिकारों की लड़ाई लड़नी पड़ेगी ! और यह उन पुरुषों के लिए भी चुनौती है, जो सामाजिक न्याय के लिए लड़ रहे हैं। पुरुष स्त्रियों को अधिकार दिलाने के लिए उनका साथ दें और समाज में बराबरी दिलायें तो कटुता दूर होगी । पुरुष भी कंधे से कंधा मिलाकर स्त्रियों के साथ चलें ताकि उस मुक्त स्त्री के साथ मिलकर एक नयी संस्कृति की रचना की जा सके और बराबरी की नई दुनिया कायम हो ।
मनुष्य बेसिकली एक जानवर है और उसमें ईष्र्या और छीनने की प्रवृत्तियाँ रहती हैं ! सभ्य मनुष्य में ये प्रवृत्तियाँ नहीं होतीं ! अगर पुरुषों को, सभ्य मनुष्य बनना है तो उन्हें इस कटुता और ईष्र्या को त्यागना होगा !
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उत्तर: सोशल मीडिया से प्रचार बहुत हो जाता है, इसलिए लोग उसकी तरफ ज्यादा झुक रहे हैं ! सोशल मीडिया से ज्यादा गंभीर लेखन नहीं हो सकता, मुझे ऐसा लगता है, उसके लिए पुस्तक पढ़ना बहुत जरुरी है ! आप एकांत में पुस्तक पढ़ते हैं, तो उस पर कुछ सोचते हैं । कंप्यूटर पर बैठकर पढ़ने या लिखने और पुस्तक पढ़ने या लिखने में बहुत अंतर है । लेकिन आज लेखक भी प्रचार चाहता है और प्रचार के लिए सोशल मीडिया का सहारा लेता है । प्रचार हेतू वह भी इलीट समाज के प्रचार का यह सक्षम माध्यम जरूर बन रहा है । सोशल मीडिया कई बार अराजक भी हुआ है, अराजक इस मायने में कि - कई ऐसी बहसें हुई हैं, जो दुखद हैं! पहले सीनियर लेखकों के प्रति आदर होता था । जूनियर लेखक उनसे सीखने की कोशिश करते थे ! आज बढ़े-बढ़े लेखकों पर सोशल मीडिया के माध्यम से आक्षेप लगाए जा रहे हैं ! अरे.. इन सीनियर लेखकों ने भी तो अपने समय में बदलाव के लिए संघर्ष किया है, दिशा दी है । भले आज का समय उनसे भी आगे निकल आया है पर उनका निरादर तो नहीं करना चाहिए । किसी का आप के विचारों से मतभेद हो सकता है लेकिन अपनी बात तो तर्क पूर्ण तरीके से रखें । मन भेद की हद तक तो मत जाइये। अनामिका पर ही बहस चलाई लोगों ने ! मैं उसका सख्त विरोध करती हूँ! अनामिका ने कैंसर की पीडि़त एक औरत के बारे में कविता के माध्यम से अपनी संवेदनाएं व्यक्त की । उस पर बहस चली, जो अर्थपूर्ण नहीं लगी । गोष्ठियों में आमने-सामने बहस कीजिये, वह अधिक सार्थक और जीवन्त होती है । उन गोष्ठियों में जिन्हें कम्प्यूटर चलाना नहीं आता या जिनके पास कम्प्यूटर नहीं है, वे भी भागीदारी कर पाते है । कम्प्यूटर पर बहस केवल इलीट की बहस बन कर रह जाती है । सोशल मीडिया की बहस हमें किसी नतीजे पर नहीं ले जा रही । आपस में बैठकर जो बहस होती है, उससे संगठन बनता है । कहीं एसी बहसें चन्द लोगों का शगल न बन कर रह जाएं, इनसे इस खतरे की संभावना भी है ।
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उत्तर: केवल स्त्री के नज़रिये से ही क्यों ? यह तो स्त्री -पुरूष दोनों के लिए एक समान समस्या है । एक स्त्री के नजरिये से नहीं, एक मनुष्य के नज़रिये या एक लेखिक के नज़रिये से इस पर बात होनी चाहिये । ये सही है कि आज सामाज में समय के अभाव के चलते लोगों के पास मिलने जुलने का समय नहीं है ! इसलिए लोग टेक्नॉलॉजी का सहारा लेते हैं और सोशल मीडिया के माध्यम से बहुत सारे काम करते हैं । पहले वाला सोशल मीडिया का प्रश्न और ये प्रश्न दोनों एक दूसरे के कहीं जुड़े भी है और अलग भी ! हकीकत यह है कि पहले बहुत कम लोग लिखते थे। दरबारों या साहित्य प्रेमी धन्ना सेठों के द्वारा आयोजित साहित्य गोष्ठियों में साहित्य पनपता था या फिर लोक में । आज लेखक व पाठक गोष्ठियों में मिलते है । वहां एक-दूसरे को लोग जान पाते है । लेकिन अब लिखने वाले बहुत ज्यादा हो गए हैं! विमोचन होता है तो उसमे लोग जुट जाते हैं। गोष्ठियों में, जलसों में इनकी समीक्षा होती है, तो लोग जान जाते है कि फलां पुस्तक आई है और कैसी है ! कई बार महँगी पुस्तकें लोग खरीद नहीं पाते! पहले भी अप्राप्त होती थीं पुस्तकें ! कइयों की तो पांडुलिपियों पर ही चर्चा होती थी ! गोष्ठियां होना लेखक और पाठक दोनों के लिए अच्छा है । प्रत्यक्षतः यह कोई बुरी बात नहीं लगती । लेकिन इसमें प्रायोजित प्रसार ( Projectid Publicity) का खतरा भी है, जो जेनुयिन रचनाओं को पछाड़ सकता है । स्तरीय लेखन अपने बलबूते लेखक के घर में, जिन्दा तो रह जाता है लेकिन जब उसे कोई पढ़ेगा ही नहीं, तो वह स्तरीय है या नहीं ये कोई कैसे जानेगा ? जानने के लिए पुस्तक का व्यापक रूप से पढ़ा जाना जरुरी है! और पढ़े जाने के लिए पुस्तक का सस्ता तथा उपलब्ध होना भी जरुरी है ! सस्ता होने के लिए सरकार या प्रकाशकों के स्तर पर एक नीति निर्धारण की जरूरत होगी। वे ही पुस्तकों के दाम घटा सकते हैं । ये सारी इन्टरकनैक्टिड चीज़ें हैं ! इसलिए शॉर्टकट करके लेखक व प्रकाशन गोष्ठियों में उसकी समीक्षा या विमोचन करा के लोगों को सूचना दे देते हैं । ये सब सूचना के आदान-प्रदान का एक ढंग है ! और आज के भीड़-भाड़ के जमाने में यह जरुरी हो गया है ! अच्छा है या बुरा मैं इस पर कोई कमैन्ट नहीं करुँगी । आप इसे नसैसरी ईविल (Necessary Evil ) कह सकते हैं ।
जैसे आज मोबाइल जरुरी हो गया है ! रिक्शेवाले के लिए भी मोबाइल जरुरी है ! कुछ लोग कहते हैं मोबाइल के ज्यादा इतेमाल से कान में कैंसर हो जाता है लेकिन फिर भी उसका इस्तेमाल होता है ! बिजली जरुरी है! करंट लग जाने के डर से बिजली का इस्तेमाल तो बंद नहीं कर सकते ! कहने का मतलब है विकल्पहीनता की स्थिति में किसी भी प्रक्रिया को एहतियात के साथ इस्तेमाल करना पड़ता है। रही पुरस्कार की बात ! इसमें कोई शक नहीं कि पुरस्कार भी एक जुगाड़ू तंत्र बन रहा है । मेरे ख्याल में पुरस्कार या तो उत्साह बढ़ाने के लिए अथवा अच्छी रचना के लिए देने चाहिए ! आजकल लोग गुटबाजी करके भी पुरस्कार दे रहे हैं ! इसके खिलाफ लड़ना पडे़गा ! पुरस्कार अपने में गलत नहीं होते, उन्हें देने वाले गलत हो सकते हैं । इसी तरह से गोष्ठी कराना, परिचर्चा कराना, विमोचन कराना, समीक्षा कराना .. ये अपने में गलत नहीं हैं ! इसका कौन इस्तेमाल करता है, कैसे इस्तेमाल करता है उस पर डिपेंड करता है ! आज कि तारीख़ में ये सब जरुरी हैं ! ये चुनौतियां हैं, हताशा नहीं है ! स्त्री क्यों हताश होगी ? वह भी उस चुनौती का मुकाबला करेगी ! जब स्त्री बराबरी चाहती है,तो उसे हक के लिए लड़ाई लड़नी ही पड़ेगी बराबर की चुनौतियां भी स्विकारनी होंगी स्त्री होने के नाते प्रिबेलेज (Priveldge) नहीं ।
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उत्तर: लगता है हमारी जिंदगी से ही हास्य और विनोद खत्म हो गया है । दरअसल हिंदी लेखन में हास्य इस हद तक नीचे गिर गया है कि कवियों और शायरों ने बीबी को भी हास्य की पात्र बना दिया । कवि सम्मेलनों और गोष्ठियों में कभी बीवी, तो कभी साला और कभी-कभी शौहर और ब्याह भी प्रायः हंसाने के विषय बनाकर प्रस्तुत किए जाते हैं । आज के हास्य और व्यंग में स्वाभाविकता नहीं रही । जबरन हँसाने की कोशिश की जाती है। कटाक्ष और व्यंग ऐसा हो जो हँसाये भी और दिल पर चोट भी करे ! हँस कर बिखर नहीं जाए ! आज हंस कर या हंसी में बिखरने वाला , हँस कर खत्म होने वाला साहित्य लिखा जा रहा है! शरद जोशी जी, परसाई जी, जन्मजेय जी जैसा लेखन नए लोगों में नज़र नहीं आता । मंचीय लोगों में तो बिलकुल नज़र नहीं आता । वे तो केवल तालियां बजवाकर अपना या रिश्तों का मज़ाक उड़ाते हैं! हंसी कभी कभी खटकती जरूर है ।
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उत्तर: हमारी कई योजनाएं हैं ! हमारा संगठन है रमणिका फॉउन्डेशन ! यह एक ट्रस्ट है । इसी की दूसरी अनुषगी ईकाई है । आखिल भारतीय आदिवासी साहित्यिक मंच All India Tribal Literary Foram ( AITLF) उसके माध्यम से हम आदिवासियों की लोककथाएं , लोकगीत , शौर्यगाथाएं और समकालीन लेखन जमा कर अनुवाद करवा रहे हैं ! कई किताबें छप गईं और कई आने वाली हैं! कई सेमीनार हुएं हैं, उनकी दस्तावेज़ी रिपोर्टें तैयार हो रही हैं कि हमारे संगठन ने कितने आदिवासी दलित और स्त्री सम्मलेन करवाए तब से लेकर आज तक आदिवासी, स्त्री, दलित साहित्य ने कहां तक कितनी यात्रा तय की इसका दास्तावेजीकरण भी हो रहा है। रमणिका फाउंडेशन ने साहित्य अकादमी के सहयोग से दिल्ली में हुए 2 जून 2002 को संपन्न आखिल भारतीय आदिवासी लेखक सम्मिलन में आदिवासी-साहित्य का नामकरण किया था । उसमें नौ राज्यों के आदिवासी लेखक शामिल हूए थे । तब से दलित-साहित्य की तरह आदिवासी-साहित्य भी जाना जाने लगा है । इससे पहले आदिवासियों का साहित्य आदिवासी - साहित्य के नाम से नहीं जाना जाता था । इधर 2003 से हम लोग एक परियोजना के तहत स्त्री -मुक्ति, स्त्री सशक्तिकरण की कथाओं का चालीस भाषाओं से हिंदी में अनुवाद भी करवा रहे हैं ! उसमें आदिवासी महिलाओं के साथ-साथ हर जाति व वर्ग की, हर उम्र की महिलाओं की रचनाओं शामिल हैं। हमारी एक वेबसाइट युद्धरत आम आदमी की www.yuddhrataamaadmi.com के नाम से हैं । दूसरी रमणिका फाउंडेशन नाम से पुनः बनवाई जा रही है। युद्धरत आम आदमी की वैवसाइट पर पत्रिका की सारे अंक अपलोड हैं, ताकि शोधार्थी या पाठक पत्रिका को निशुल्क डाउनलोड करके पढ़ सकें । लेखन में मेरी दूसरी आत्मकथा छपने के लिए चली गई है और तीसरी आत्मकथा हजारीबाग से दिल्ली तक लिखनी शुरू की है । झारखण्ड के 17 आदिवासी कवि जो हिंदी में लिखते हैं की पाण्डुलिपि तैयार कर के हम छपने के लिए भेज चुके हैं । भारत के और दूसरे आदिवासी कवि, जो हिंदी में लिखतें हैं और ऐसे कवि भी, जो अपनी भाषा में भी लिखते हैं, हिंदी में अनुवाद करवा रहे हैं । अब तक हम टोटल 44 भाषाओं में अनुवाद करवा चुके हैं ! ‘हाशिए उलांघती औरत: कहानी’, परियोजना के तहत हम कुल मिलाकर आठ खंड निकाल चुके हैं ! बाकी 22 खंड अभी आने हैं । पांच भाषाओं के खण्ड आ चुके हैं । अभी तमिल बंगाली, मलयालम, नार्थ-ईस्ट की 15 भाषाओं की तथा उडि़या भाषा की कथाओं के हिन्दी अनुवाद के खण्ड मार्च 2015 तक आ जाएंगे । इधर मेरी दो कविता पुस्तकें भी आ रही हैं ‘मैं हवा को पढ़ना चाहती हूँ’ और ‘कोयले की चिंगारी’ के नाम से । मेरी रचनावली भी प्रकाशनार्थ जा चुकी है। मेरी कुछ किताबों के अंग्रेजी में अनुवाद हुए हैं, वे भी सम्पादित हो रही हैं । मेरा लेखन जारी है । हमारी संस्था के माध्यम से कहानियों, कविताओं, लोक-कथाओं, सृजन मिथकों, शौर्यगाथाओं, लिजिन्द्रियों यानी आदिवासी और लोक विरासत के संकलन, चयन, संपादन, अनुवाद व प्रकाशन का काम जारी है । एक आदिवासी लाइब्रेरी की स्थापना का प्रयास भी हो रहा है ।
उत्तर:
मैं तो ये मानती हूँ कि अभिव्यक्ति की ताकत ने ही जानवर से मनुष्य को मनुष्य बनाया ! अगर उसमें अभिव्यक्ति की ताकत नहीं होती तो वह जानवर की तरह ही रहता! आज भी हमारे देश में बहुत से ऐसे लोग हैं, जो जानवर की तरह ही रहने को अभिशप्त हैं। ऐसी स्थिति में समाज ने उन्हें रख छोड़ा है या रहने पर मजबूर कर दिया है कि वे जो बोल कर अपनी पीड़ा भी बता नहीं पाते । जहां तक स्त्रियों का सवाल है, कुछ टेक्नॉलॉजी की बढ़त, कुछ मानवता के मुद्दों पर ज्यादा जोर देने, कुछ विश्व की स्थिति या फिर विश्व भर में लोकतान्त्रिक संस्थाओं के आ जाने के कारण, स्त्रियों की अभिव्यक्ति के अवसर बढ़ने की मुहिम चली है। पर यह दृष्टिकोण बदलने के लिए प्रयाप्त नहीं है । यह कितनी कामयाब हुई है, इसके तोलने या विवेचन की दरकार है ! अलग-अलग देशों से अलग-अलग स्थितियां हो सकती हैं। भारत के सन्दर्भ में मध्यमवर्गीय समाज व दलित समाज की स्त्रियां भी अब बोलने लगी हैं। शिक्षा के चलते वे लिखने भी लगी हैं !
अभिव्यक्ति को दो तरह से बांटना होगा! एक तो है बोलना और दूसरा है लिखना ! लिखने वाली स्त्रियों का प्रतिशत बहुत कम है, फलतः उनकी अभिव्यक्ति की ताकत भी उस अनुपात में बहुत कम है। ऐसे भी हर वह औरत, जो लिखती-पढ़ती है जरुरी नहीं कि वह लिखती ही हो। हर पुरुष भी जो पढ़ा-लिखा है, जरुरी नहीं कि लिखना जाने या लेखक हो। जैसे लेखकों की संख्या कम है, उसी तरह लेखिकाओं की संख्या भी कम है! उसके दो कारण हैं - एक तो स्त्रियों में अशिक्षा, दूसरा राजनीती और तीसरा समाज की वर्जनाएं व प्रतिबंन्ध। हमारे संविधान को अभी समाज ने स्वीकार नहीं किया है! उसने स्त्री को पुरुष के बराबर नहीं माना है, भले संविधान में बराबरी का प्रावधान दर्ज है । और फिर जो स्त्रियां लिख भी रही हैं, उन पर लांछन लगते हैं ! मैत्रोयी पुष्पा पर लांछन लगा दिया गया! उनके लिए ‘छिनाल’ शब्द का इस्तेमाल किया गया ! स्त्री जब आत्मकथा लिखती है, तो सच लिखती है ! जब कोई स्त्री कई पुरुषों के बिस्तर में आने की बात लिखती है, तो उसमें पुरुष भी तो शामिल होता है ना ? फिर केवल स्त्री को ही छिनाल क्यों कहा जाता है ? ऐसे भी सच बोलने वाली स्त्री को लोग पसंद नहीं करते फिर हिंदी में तो आत्मकथाएं लिखने की परम्परा ही नहीं रही । यह तो माहात्मा गांधी ने सत्य से हमारा साक्षात्कार कराया । अभी दलितों और स्त्रियों ने आत्मकथाएं लिखनी शुरू की हैं! पहले अगर किसी ने लिखा भी तो उसमें अपने ऐश्वर्य, सामर्थ्य, वर्चस्व का ही चित्राण किया। ऐसी रचना आत्मकथा नहीं होती । आत्मकथा सच्चे मायने में वही होती है, जिसमें आपकी पीड़ा के साथ-साथ,आपने जो भोगा है, आपका जो शोषण हुआ, उसे सच्चाई से चित्रित किया जाय! जिसमें आपकी कमजोरियां भी दर्ज हों और संघर्ष भी, जैसे महात्मा गांधी ने किया । इसलिए जो स्त्रियां सच लिखती हैं, उन पर लांछन लगते ही हैं! जब तक वे पति के आने का इंतज़ार करती स्त्रियों की ऐसी ही कहानियाँ लिखती रहीं, गृहिणी होने के नाते अपने फर्जों को गिनाती या दर्शाती रहीं अथवा माँ के नाते ममता का ढिंढोरा पीटती रहीं .. किसी ने आपत्ति नहीं की । लेकिन जैसे ही वे सच लिखने लगी, आपत्ति होने लगी ! उन पर अघोषित प्रतिबन्ध लगने लगे! संविधान में प्रतिबंध नहीं है लेकिन समाज ने तो लगा रखा है प्रतिबन्ध। स्त्रियां भी स्त्रियों को क्रिटीसाइज करने लगती हैं क्योकि वे स्वयं भी पुरूष अनुकूलित ही नहीं पुरुष वर्चस्व से आतंकित भी हैं । इसलिए मेरी राय में अभिव्यक्ति के समान अवसर होने के बावजूद अभी भी औरत निर्द्वन्द होकर, मनचाहा रच या लिख नहीं पा रही । विरले ही कुछ लेखिकाएं लिख रही हैं और झेल रही हैं चुनौतियां ।
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उत्तर: इसमें मैं कुछ डिफर करती हूँ । ऐसे मैं केवल स्त्री पर ही नहीं विभिन्न विषयों और मुद्दों पर लिखती हूं । फिर भी स्त्रीवादी कहलाने में मुझे कोई दिक्कत नहीं । मुझे अपने स्त्री होने पर गर्व है, इसलिए मेरे लेखन पर स्त्री का लेबल लगने पर शर्मिंदा होने का सवाल ही नहीं उठता । स्त्री होने के कारण स्त्री –व्यथा और स्त्री -समस्या का विशेष जानकार होना अच्छी बात है वह उपलब्धि है मेरी । ऐसे इसका एक और पहलू भी है । पुरूष लेखकों को यह भ्रम आज तक है कि कोई स्त्री उनके समकक्ष लिख ही नहीं सकती,जैसे कि लेखन केवल उन्हीं का अधिकार है। उन्हें हमारे लेखन पर स्त्री लेखन का लेबुल लगा कर संतोष मिलता है कि स्त्रियां उनकी टक्कर में नहीं हैं । यह कि उनका लेखन अलग कैटेगरी का है । इस भ्रम को तोड़ना जरूरी है । यदि साहित्य मानवता का दर्पण है और मानवता ही दलित, अदलित आदिवासी,स्त्री -पुरूष, काला-गोरा ऊंचा-नीचा में बंटी है, तो साहित्य एक जैसा कैसे होगा ? उनकी समस्यायें तो तथाकथित मुख्यधारा, जिसमें केवल उच्च जाति, वर्ण या वर्ग के लोग ही हैं से भिन्न ही होगीं । उनकी दृष्टि भी अलग होगी । इस तथाकथित मुख्यधारा के लोग जो 10 प्रतिशत हैं, पढ़ते-लिखते आए हैं सदियों से और 90 प्रतिशत जो अवर्ण हैं, उन्हें इन 10 प्रतिशत सवर्णों ने तो पढ़ने ही नहीं दिया। आबादी में आधी आबादी की भी शामिल है। फिर 10 प्रतिशत मुख्यधारा कैसे हुई? वह तो अल्पधारा हैं! मुख्यधारा तो 90 प्रतिशत वे लोग हैं, जिन्हें अनपढ़ रखा गया इस देश में । अब वे लिखने लगे हैं! फिर उनकी पहचान तो अलग होगी ही न । एक बात और कहना चाहूंगी, "समुद्र बहुत बड़ा होता है, जो नदियों से मिलने से बनता है! नदी मिल जाती है समुद्र में, तब वह भी समुद्र बन जाती है, लेकिन नदी की अपनी पहचान तो बनी रहती है है न जहां वह बहती है? नदी तो खत्म नहीं हो जाती ? नदी न हो, तो समुद्र भी नहीं होगा।" जब मानवता में दलित, अदलित, अवर्ण-सवर्ण या लिंग भेद के खाचों वाली सोच मिट जाएगी, तो साहित्य में भी भेद खत्म हो जाएंगें । सारी धाराओं, विभिन्न नस्लों, जातियों, पिछड़ों, दलितों से मिलकर ही तो मानवता बनती है। इनकी अपनी पहचान कायम रखते हुए अगर ये सब मानवता में मिलते हैं, तो ज्यादा भाईचारा कायम हो सकता है ! अगर कोई षड़यंत्र रचा गया है, तो वह तथाकथित सवर्ण निर्मित मुख्यधारा ने रचा है । उन्होंने मानवता के नाम पर षड़यंत्र करके गैर सवर्णों को पहचान तक नहीं दी। स्त्रियों के लेखन को आप स्त्री का लेबल लगा दीजिये या कुछ लगा दीजिये, है तो वह मानवता का साहित्य ही न ! मानवता का वह पक्ष, जिसे आपने स्त्री कहकर निग्लेक्ट किया, लेखिकाएं उसे उभारती हैं! वह साहित्य नहीं तो क्या है ? स्त्रियां अपनी पहचान का साहित्य लिख रहीं हैं और पुरुषों से बढ़कर लिख रही हैं ! कोई भी पुस्तक आती है, तो पुरुष लेखक की तुलना पुरूष लेखक से तो की जाती है पर लेखिकाओं से नहीं। मुझे लेबल लगने में कोई एतराज़ नहीं है । मैं दलित साहित्य पर भी काम करती हूँ और आदिवासी साहित्य पर भी। स्त्री के मुद्दे पर लिखती हूँ और पूरी वंचित जमातों पर भी, जिन्हें मुख्याधारा ने नेग्लेक्ट किया, उपेक्षित किया । मैं उन्हें आगे लाने का प्रयत्न कर रही हूँ ! उस पर आप कोई भी लेबुल लगाएं, क्या फर्क पड़ता है ? बात तो मानवता की ही होती है न ।
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उत्तर: मेरे विचार से यह आरोप सही नहीं है । स्त्रियां पितृसत्ता के विरुद्ध भी लिखती हैं और उससे इतर सामाजिक सरोकारों, सामाजिक अन्याय व अन्य विविध विषयों पर भी लिखतीं हैं! ये कहना गलत होगा कि वे केवल पितृसत्ता के विरुद्ध ही लिख रहीं हैं। स्त्रियों ने अपने लेखन में आदिवासी, दलित और वंचित समाज के मुद्दों पर लिखा है । सच्चाई यह है कि चूंकि वह साहित्य स्त्रियों द्वारा सृजित है, इसलिए उसे स्त्री -साहित्य कह दिया जाता है। इससे इतर वे प्रेम, प्रकृति, परस्पर रिश्ते, ट्रेड यूनियन, विदेश गए भारतीयों के सांस्कृतिक द्वंद्व, राजनीतिक आर्थिक विभेद, धार्मिक संकीर्णताओं, पुरानी परंपराओं व अंधविश्वासों की जकड़न के खिलाफ या नई पीढ़ी की सोच आदि कई विषयों पर भी लिखती हैं । यह सच है कि पुरूषों की तुलना में लेखिकाएं कम है पर जो हैं उनका दायरा व्यापक है, आयाम बड़ा है। स्त्री मुद्दे पर जो लिखा हो उसे ही आप स्त्री - साहित्य कह सकतें हैं। मैंने पहले भी कहा - लोग स्त्री को अपने बरक्स लेखक के रूप में स्वीकारनें को तैयार नहीं हैं। इसी लिए यह प्रश्न उठाए जाते हैं ।राजनीति को देखें तो अभी तक महिला - आरक्षण का बिल पास नहीं हुआ है। स्त्री को पुरुष मानसिकता किसी भी क्षेत्रा में आगे बढ़ने नहीं दे रही । मैत्रोयी पुष्पा, स्त्रियों पर भी लिख रहीं हैं और दूसरे मुद्दों पर भी। उनकी आत्मकथा कबूतरी पूरे आदिवासी समाज की कथा है। चित्रा मुदद्गल अपने आपको स्त्रीवादी नहीं कहती हैं । वे दूसरे मुद्दों पर लिख रहीं हैं और स्त्रियों पर भी। ट्रेड यूनियन संघर्ष के विभिन्न पहलुओं पर उन्होंने लिखा है । कृष्णा सोबती, नासिरा शर्मा, निर्मला पुतुल, मृदुला गर्ग, कुसुम अंचल, अनिता भारती, अर्चना वर्मा, अनामिका, मृदुला गर्ग, सरोजनी श्रीवास्तव, जय वर्मा, सुधा ओंम ढींगरा, सुधा अरोड़ा, जाकिया जुबैरी, ग्रेस कजूर, मीरा आदि लेखिकाएं स्त्री मुद्दों के साथ - साथ तमाम और दूसरे मुद्दों पर भी लिख रहीं हैं! सुषुम बेदी,कविता वाचनकवि दिव्या, विदेश में रहकर लिख रही हैं! लेखिकाएं अनुवाद भी कर रहीं हैं! उनके लेखन का मूल्यांकन न करना भी पुरुषों की एक राजनीती है। ये पितृसत्ता स्त्री का वर्चस्व है! किसी भी क्षेत्र में पुरुष स्त्रियों को आगे नहीं बढ़ने देना चाहता ! ये बात ठीक है कि का स्त्री मुद्दे पर लिखना उनके ज्यादा नज़दीक पड़ता है, इसलिए वे स्त्री मुद्दों पर ज्यादा लिख रही हैं और पाठकों का भी ध्यान उनकी उन रचनाओं पर ज्यादा जाता है। सच तो यह है कि पुरूष मानसिकता उन्हें स्त्री तक ही सीमित कर देना चाहती है । स्त्री मुद्दा सब में एक कॉमन थ्रेड होने का अर्थ यह नहीं कि दूसरे मुद्दे उनके लिए वर्जित हैं । वे उन पर लिख रही हैं। लिख सकती हैं और लिखेंगी भी ..! .. और लिखा भी है .. लेखिकाओं ने आँखें नहीं फेरी हैं .. आप उनकी चर्चा और मूल्यांकन नहीं कर रहे हैं। मैं किस किस का नाम लूं? मैंने खुद भी स्त्री के अतिरिक्त हर मुद्दे पर लिखा है। हाशिए के वंचित समाज पर, प्रेम समाज, राजनीति और प्रकृति पर भी लिखा है। अधिकारों से वंचित समाज पर भी लिखा है ।
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उत्तर: कौन नहीं कर पातीं हैं ? कौन ? स्त्रियां नहीं कर पाती हैं या पुरुष उन्हें हासिल करने नहीं देते ? सवाल तो फिर वहीं आ जाता है ! इसके लिए संगठन की दरकार है! भारत में अधिकांश स्त्रियां गृहिणी हैं, वे सही नागरिक भी नहीं बन पाईं हैं । उनके लिए सारा संसार सिर्फ उनका घर ही होता है । घर के बाहर क्या हो रहा है, उन्हें नहीं मालूम ! ज्यादातर स्त्रियां वोट भी डालने जाती हैं, तो पति से पूछ कर कि किसे वोट दें ? अभी तक पढ़ी-लिखी स्त्रियां भी अंधवश्वासों से मुक्त नहीं हो पायी हैं ! पढ़ी-लिखी डॉक्टर बनी महिलाओं की भी यही स्थिति है । अगर उन्हें बेटा नहीं हुआ है, तो वे पूजा -पाठ या जादू-टोना का सहारा लेने लग जाती हैं, जबकि तथ्य यह है कि लड़का होने के लिए पुरुष के 'Y' का होना जरुरी है! यानी उस डॉक्टरनी की पढ़ाई - लिखाई बेकार गयी! पुरुष भी ये जानते हुए कि बेटा उन्हीं के कारण होता है, तब भी दूसरा विवाह करने के बारे में सोचते हैं । सामाजिक, राजनितिक, वैज्ञानिक चेतना का अभाव और अन्धविश्वास के प्रभाव और रूढि़वादी मानसिकता से स्त्रियां तो क्या, पुरुष भी मुक्त नहीं हो पाएं हैं ! कया यह समाज की, विशेषकर जागरूक व पढ़े लिखे पुरूषों की जिम्मवारी नहीं बनती कि वे स्त्रियों को जागरूक करें, नागरिक बनने में उनके सहायक, सहयोगी बनें ? दरअसल पुरुष अपनी सत्ता को गंवाना नहीं चाहता । फलतः वह स्त्रियों को नौकरी में आरक्षण नहीं देने में कोताही करता है । अभी तक आरक्षण का बिल लटका पड़ा है ! अनुपात में स्त्रियां कम संगठित हैं, उनका संगठित होना बहुत जरुरी है और गृहिणियों को नागरिक बनाना भी बहुत जरुरी! स्त्री यह नहीं चाहती है कि वह पुरुष की जगह ले ले । स्त्री तो चाहती है कि वह पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर, अपना कर्त्तव्य निभाते हुए, अपना हक हासिल करे। पुरुष चाहता है कि वह उसकी दासी बनी रहे और जो वह कहे, वही करती रहे । हर पुरुष के बारे में मैं यह नहीं कहती, लेकिन हज़ार में कोई एक पुरुष ही होगा, जो चाहेगा कि स्त्री आज़ाद रहे, शायद दस घर में एक ही हो ! संगठन के अभाव और चेतना के अभाव में इन मुद्दों पर संगठित रूप से प्रदर्शन, आंदोलन, जो कभी पहले शुरू हुए थे, आज नहीं हो रहे। सरकार भी ध्यान नहीं दे रही । सरकारें बदल रहीं हैं लेकिन बदलाव की राजनीति नहीं कर रहीं । बदलाव की राजनीति होगी और समाज भी बदलाना चाहेगा, तो ही स्त्री की स्थिति में सुधार आएगा ! इसलिए स्त्रियों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता, स्त्रियों की इस स्थिति के लिए समाज दोषी है ।
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उत्तर: काफी हद तक यह सही है । मातृत्व के इस गुण को कब सराहा है पुरुष ने ? स्त्री का माँ बनना उसका एक स्पेशल गुण है, जो पुरुष में नहीं है ! लेकिन वह माँ के इस गुण का ही सर्वाधिक गुहादोहन करता है ! स्त्री के मातृत्व को पुरुष के साथ नत्थी कर दिया गया है । मातृत्व के गुण को सराहे जाने का मतलब होता है बच्चा पैदा करने को सराहा जाना, न कि किस विशेष रिश्ते में बंधे पुरूष से बच्चा पैदा होने पर ही इस गुण को सराहना ! अन्यथा उसे नकारना और धिक्करना। गुजरात के एक आदिवासी क्षेत्र में, बिना शादी के बच्चा पैदा हो जाता है । उसे नाजायज़ नहीं माना जाता ! मातृसत्ता का एक प्रदेश है मेघालय, वहाँ बच्चा नाजायज़ नहीं होता । हमारे समाज में विवाह से इतर पैदा होने वाले बच्चे को नाजायज़ माना जाता है, जिसमें बच्चे का कोई दोष नहीं होता । तब पुरूष और समाज स्त्री के मातृत्व गुण को क्यों नहीं स्वीकार करता ? दरसल मातृत्व के गुण को पुरुष समाज ने कभी सराहा ही नहीं । जब सराहा तो अपनी ही पैदा की हुई औलाद के संदर्भ में । दूसरा यह कि पुरूष माँ की ममता को ब्लैकमेल करता है! तलाक लेने पर बच्चे का क्या होगा, इसका डर स्त्री को सताता रहता है! जबकि बच्चा, माँ - बाप दोनों की जिम्मेदारी होता है! बच्चे को नौ महीने पेट में रखने के कारण बच्चे के प्रति माँ में ममता ज्यादा होती है। यह स्वाभाविक भी है। स्त्री की इसी ममता को भंजाता है पुरुष । यह मर्दवादी चाल है। वह स्त्री को ममता का हवाला देकर आज़ाद नहीं होने देता । बहुत सी स्त्रियां सिर्फ यह सोचकर पुरूष से अलग नहीं हो पातीं कि बच्चों का क्या होगा ? इस सोच को पश्चिम या पूरब की राजनीति कह कर खारिज नहीं किया जा सकता ! यह विश्व-पुरूष की सोच है । पश्चिम की राजनीति के अनुसार आज सुप्रीम कोर्ट ने बिना ब्याह के साथ रहने और उस रिश्ते से पैदा बच्चों को भी मान्यता दे दी है । बिन ब्याह वाले बच्चों को भी भारत में मुवावजा देने की बात हो रही है । यह अच्छी बात है । बच्चों के मोह में पड़कर औरत उसकी दासी बने रहना कबूल करती रही है! बच्चे के प्रति भावुक सम्मोहन तो दरअसल स्त्री-पुरूष दोनों में होता है, पर पुरूष ने चूंकि स्त्री को घर तक सीमित कर दिया, उसे अपने पर आश्रित बना दिया, इसलिए वह स्त्री को ममता का बार-बार अहसास दिला कर डराता रहता है । यह साजिश आज की नहीं, जब आदिम समाज ने कृषि को अपनाया, तभी से चली आ रही है । ऐसी भी अगर पश्चिम का कोई विचार अच्छा हो, तो उसे सिर्फ इसलिए ही नकारना नहीं चाहिए कि वह पश्चिम से आया है ! हमारे देश का कोई संस्कार बुरा है, तो सिर्फ इसलिए स्वीकारना नहीं चाहिए कि वह हमारे देश का है! जातिवादी प्रथा हमारे देश की है, हम इसे नकार रहे हैं , संविधान ने भी उसे नकारा है । पश्चिम ने हमे डेमोक्रेसी सिखाई, तो क्या वह बुरी है ? तो अगर पश्चिम का नारीवादी आन्दोलन यह कहता है कि मर्दवादी समाज स्त्री की ममता को भुनाता है, तो वह सही कहता है! मैं सहमत हूँ इससे !
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उत्तर: आज हमारा ट्रासीजनशन का समय है । पुरानी संस्कृति नए युग की मानवतावादी बराबरी भाईचारे और आज़ादी की नव संस्कृति को पचा नहीं पर रही है । समाज का जो वर्ग इस व्यवस्था से सुविधाएं लेते रहा है वह वर्ग कटुता पैदा कर रहा है । उनका जो शिकार था, आज वह जाग रहा है । इसलिए द्वन्द्व तो होगा ही । यह एक चुनौती है। आज कटुता चिंता का नहीं बल्कि बहस का विषय है। इसका कारण पुरूष है समाज है, स्त्री नहीं । स्त्री को लिंग के आधार पर हमने दोयम दर्जा दे रखा है, भारत में यह भेदभाव केवल स्त्रियों के प्रति ही नहीं है। दलितों के लिए भी हमारा सभ्य समाज ईष्र्या और कुंठा से ग्रस्त है ! हाशिये के समाज या कमज़ोर समाज को ऊपर लाने या बराबरी का दर्जा देने की बात होगी, तो जो समाज इस व्यवस्था में फायदा उठता आ रहा है, ईष्र्या करेगा ही! उस ईष्र्या की परवाह करके क्या हम न्याय के लिए लड़ना छोड़ दें ? लैंगिंग कटुता भी वंचित समाज यानी स्त्री नहीं लाती । पुरूष जिसकी सुविधाएं छिन रही हैं, वह पैदा करता हैं । स्वीडेन की स्त्रियों ने कहा कि हम खाना बनाते हैं, हमारा भी मूल्यांकन करो और वहां मूल्यांकन हुआ। वहां घरेलू स्त्रियां अपने हक की लड़ाई लड़ रही हैं । वे अपने घरेलू काम का मूल्यांकन और मुआवज़ा मांग रही हैं । हमारी स्त्री घर के सारे कपडे धोती है, तो धोबी का काम करती है । खाना बनती है, तो दाई का काम करती है । बच्चे पालती है तो आया का काम करती है और सौदा लाती है तो छोटे मुंडू का काम करती है । पति के साथ रात को बिस्तर में सोती है, तो वेश्या का काम भी करती है । इतने सारे काम करने के बाद किसी स्त्री से पूछो कि क्या करती हो, तो कहेगी ”कुछ नहीं !“ वह नौकरी करेगी, तभी उस ‘कुछ नहीं’ को काम करना मानेगी । आज यदि वह इस ‘कुछ नहीं’ से ‘कुछ’ बनना चाहती है, तो घर में कटुता बढ़ जाती है । इसमें स्त्री का क्या दोष ? वह क्या करे ? वह तो अपना हक मांग रही है ! इसलिए लैंगिग कटुता मुझे चिंतित नहीं करती है ! बहुत बड़ी चुनौती है यह स्त्रियों के लिए । स्त्रियों को स्वीकार करके, अपने अधिकारों की लड़ाई लड़नी पड़ेगी ! और यह उन पुरुषों के लिए भी चुनौती है, जो सामाजिक न्याय के लिए लड़ रहे हैं। पुरुष स्त्रियों को अधिकार दिलाने के लिए उनका साथ दें और समाज में बराबरी दिलायें तो कटुता दूर होगी । पुरुष भी कंधे से कंधा मिलाकर स्त्रियों के साथ चलें ताकि उस मुक्त स्त्री के साथ मिलकर एक नयी संस्कृति की रचना की जा सके और बराबरी की नई दुनिया कायम हो ।
मनुष्य बेसिकली एक जानवर है और उसमें ईष्र्या और छीनने की प्रवृत्तियाँ रहती हैं ! सभ्य मनुष्य में ये प्रवृत्तियाँ नहीं होतीं ! अगर पुरुषों को, सभ्य मनुष्य बनना है तो उन्हें इस कटुता और ईष्र्या को त्यागना होगा !
7-
उत्तर: सोशल मीडिया से प्रचार बहुत हो जाता है, इसलिए लोग उसकी तरफ ज्यादा झुक रहे हैं ! सोशल मीडिया से ज्यादा गंभीर लेखन नहीं हो सकता, मुझे ऐसा लगता है, उसके लिए पुस्तक पढ़ना बहुत जरुरी है ! आप एकांत में पुस्तक पढ़ते हैं, तो उस पर कुछ सोचते हैं । कंप्यूटर पर बैठकर पढ़ने या लिखने और पुस्तक पढ़ने या लिखने में बहुत अंतर है । लेकिन आज लेखक भी प्रचार चाहता है और प्रचार के लिए सोशल मीडिया का सहारा लेता है । प्रचार हेतू वह भी इलीट समाज के प्रचार का यह सक्षम माध्यम जरूर बन रहा है । सोशल मीडिया कई बार अराजक भी हुआ है, अराजक इस मायने में कि - कई ऐसी बहसें हुई हैं, जो दुखद हैं! पहले सीनियर लेखकों के प्रति आदर होता था । जूनियर लेखक उनसे सीखने की कोशिश करते थे ! आज बढ़े-बढ़े लेखकों पर सोशल मीडिया के माध्यम से आक्षेप लगाए जा रहे हैं ! अरे.. इन सीनियर लेखकों ने भी तो अपने समय में बदलाव के लिए संघर्ष किया है, दिशा दी है । भले आज का समय उनसे भी आगे निकल आया है पर उनका निरादर तो नहीं करना चाहिए । किसी का आप के विचारों से मतभेद हो सकता है लेकिन अपनी बात तो तर्क पूर्ण तरीके से रखें । मन भेद की हद तक तो मत जाइये। अनामिका पर ही बहस चलाई लोगों ने ! मैं उसका सख्त विरोध करती हूँ! अनामिका ने कैंसर की पीडि़त एक औरत के बारे में कविता के माध्यम से अपनी संवेदनाएं व्यक्त की । उस पर बहस चली, जो अर्थपूर्ण नहीं लगी । गोष्ठियों में आमने-सामने बहस कीजिये, वह अधिक सार्थक और जीवन्त होती है । उन गोष्ठियों में जिन्हें कम्प्यूटर चलाना नहीं आता या जिनके पास कम्प्यूटर नहीं है, वे भी भागीदारी कर पाते है । कम्प्यूटर पर बहस केवल इलीट की बहस बन कर रह जाती है । सोशल मीडिया की बहस हमें किसी नतीजे पर नहीं ले जा रही । आपस में बैठकर जो बहस होती है, उससे संगठन बनता है । कहीं एसी बहसें चन्द लोगों का शगल न बन कर रह जाएं, इनसे इस खतरे की संभावना भी है ।
8-
उत्तर: केवल स्त्री के नज़रिये से ही क्यों ? यह तो स्त्री -पुरूष दोनों के लिए एक समान समस्या है । एक स्त्री के नजरिये से नहीं, एक मनुष्य के नज़रिये या एक लेखिक के नज़रिये से इस पर बात होनी चाहिये । ये सही है कि आज सामाज में समय के अभाव के चलते लोगों के पास मिलने जुलने का समय नहीं है ! इसलिए लोग टेक्नॉलॉजी का सहारा लेते हैं और सोशल मीडिया के माध्यम से बहुत सारे काम करते हैं । पहले वाला सोशल मीडिया का प्रश्न और ये प्रश्न दोनों एक दूसरे के कहीं जुड़े भी है और अलग भी ! हकीकत यह है कि पहले बहुत कम लोग लिखते थे। दरबारों या साहित्य प्रेमी धन्ना सेठों के द्वारा आयोजित साहित्य गोष्ठियों में साहित्य पनपता था या फिर लोक में । आज लेखक व पाठक गोष्ठियों में मिलते है । वहां एक-दूसरे को लोग जान पाते है । लेकिन अब लिखने वाले बहुत ज्यादा हो गए हैं! विमोचन होता है तो उसमे लोग जुट जाते हैं। गोष्ठियों में, जलसों में इनकी समीक्षा होती है, तो लोग जान जाते है कि फलां पुस्तक आई है और कैसी है ! कई बार महँगी पुस्तकें लोग खरीद नहीं पाते! पहले भी अप्राप्त होती थीं पुस्तकें ! कइयों की तो पांडुलिपियों पर ही चर्चा होती थी ! गोष्ठियां होना लेखक और पाठक दोनों के लिए अच्छा है । प्रत्यक्षतः यह कोई बुरी बात नहीं लगती । लेकिन इसमें प्रायोजित प्रसार ( Projectid Publicity) का खतरा भी है, जो जेनुयिन रचनाओं को पछाड़ सकता है । स्तरीय लेखन अपने बलबूते लेखक के घर में, जिन्दा तो रह जाता है लेकिन जब उसे कोई पढ़ेगा ही नहीं, तो वह स्तरीय है या नहीं ये कोई कैसे जानेगा ? जानने के लिए पुस्तक का व्यापक रूप से पढ़ा जाना जरुरी है! और पढ़े जाने के लिए पुस्तक का सस्ता तथा उपलब्ध होना भी जरुरी है ! सस्ता होने के लिए सरकार या प्रकाशकों के स्तर पर एक नीति निर्धारण की जरूरत होगी। वे ही पुस्तकों के दाम घटा सकते हैं । ये सारी इन्टरकनैक्टिड चीज़ें हैं ! इसलिए शॉर्टकट करके लेखक व प्रकाशन गोष्ठियों में उसकी समीक्षा या विमोचन करा के लोगों को सूचना दे देते हैं । ये सब सूचना के आदान-प्रदान का एक ढंग है ! और आज के भीड़-भाड़ के जमाने में यह जरुरी हो गया है ! अच्छा है या बुरा मैं इस पर कोई कमैन्ट नहीं करुँगी । आप इसे नसैसरी ईविल (Necessary Evil ) कह सकते हैं ।
जैसे आज मोबाइल जरुरी हो गया है ! रिक्शेवाले के लिए भी मोबाइल जरुरी है ! कुछ लोग कहते हैं मोबाइल के ज्यादा इतेमाल से कान में कैंसर हो जाता है लेकिन फिर भी उसका इस्तेमाल होता है ! बिजली जरुरी है! करंट लग जाने के डर से बिजली का इस्तेमाल तो बंद नहीं कर सकते ! कहने का मतलब है विकल्पहीनता की स्थिति में किसी भी प्रक्रिया को एहतियात के साथ इस्तेमाल करना पड़ता है। रही पुरस्कार की बात ! इसमें कोई शक नहीं कि पुरस्कार भी एक जुगाड़ू तंत्र बन रहा है । मेरे ख्याल में पुरस्कार या तो उत्साह बढ़ाने के लिए अथवा अच्छी रचना के लिए देने चाहिए ! आजकल लोग गुटबाजी करके भी पुरस्कार दे रहे हैं ! इसके खिलाफ लड़ना पडे़गा ! पुरस्कार अपने में गलत नहीं होते, उन्हें देने वाले गलत हो सकते हैं । इसी तरह से गोष्ठी कराना, परिचर्चा कराना, विमोचन कराना, समीक्षा कराना .. ये अपने में गलत नहीं हैं ! इसका कौन इस्तेमाल करता है, कैसे इस्तेमाल करता है उस पर डिपेंड करता है ! आज कि तारीख़ में ये सब जरुरी हैं ! ये चुनौतियां हैं, हताशा नहीं है ! स्त्री क्यों हताश होगी ? वह भी उस चुनौती का मुकाबला करेगी ! जब स्त्री बराबरी चाहती है,तो उसे हक के लिए लड़ाई लड़नी ही पड़ेगी बराबर की चुनौतियां भी स्विकारनी होंगी स्त्री होने के नाते प्रिबेलेज (Priveldge) नहीं ।
9-
उत्तर: लगता है हमारी जिंदगी से ही हास्य और विनोद खत्म हो गया है । दरअसल हिंदी लेखन में हास्य इस हद तक नीचे गिर गया है कि कवियों और शायरों ने बीबी को भी हास्य की पात्र बना दिया । कवि सम्मेलनों और गोष्ठियों में कभी बीवी, तो कभी साला और कभी-कभी शौहर और ब्याह भी प्रायः हंसाने के विषय बनाकर प्रस्तुत किए जाते हैं । आज के हास्य और व्यंग में स्वाभाविकता नहीं रही । जबरन हँसाने की कोशिश की जाती है। कटाक्ष और व्यंग ऐसा हो जो हँसाये भी और दिल पर चोट भी करे ! हँस कर बिखर नहीं जाए ! आज हंस कर या हंसी में बिखरने वाला , हँस कर खत्म होने वाला साहित्य लिखा जा रहा है! शरद जोशी जी, परसाई जी, जन्मजेय जी जैसा लेखन नए लोगों में नज़र नहीं आता । मंचीय लोगों में तो बिलकुल नज़र नहीं आता । वे तो केवल तालियां बजवाकर अपना या रिश्तों का मज़ाक उड़ाते हैं! हंसी कभी कभी खटकती जरूर है ।
10-
उत्तर: हमारी कई योजनाएं हैं ! हमारा संगठन है रमणिका फॉउन्डेशन ! यह एक ट्रस्ट है । इसी की दूसरी अनुषगी ईकाई है । आखिल भारतीय आदिवासी साहित्यिक मंच All India Tribal Literary Foram ( AITLF) उसके माध्यम से हम आदिवासियों की लोककथाएं , लोकगीत , शौर्यगाथाएं और समकालीन लेखन जमा कर अनुवाद करवा रहे हैं ! कई किताबें छप गईं और कई आने वाली हैं! कई सेमीनार हुएं हैं, उनकी दस्तावेज़ी रिपोर्टें तैयार हो रही हैं कि हमारे संगठन ने कितने आदिवासी दलित और स्त्री सम्मलेन करवाए तब से लेकर आज तक आदिवासी, स्त्री, दलित साहित्य ने कहां तक कितनी यात्रा तय की इसका दास्तावेजीकरण भी हो रहा है। रमणिका फाउंडेशन ने साहित्य अकादमी के सहयोग से दिल्ली में हुए 2 जून 2002 को संपन्न आखिल भारतीय आदिवासी लेखक सम्मिलन में आदिवासी-साहित्य का नामकरण किया था । उसमें नौ राज्यों के आदिवासी लेखक शामिल हूए थे । तब से दलित-साहित्य की तरह आदिवासी-साहित्य भी जाना जाने लगा है । इससे पहले आदिवासियों का साहित्य आदिवासी - साहित्य के नाम से नहीं जाना जाता था । इधर 2003 से हम लोग एक परियोजना के तहत स्त्री -मुक्ति, स्त्री सशक्तिकरण की कथाओं का चालीस भाषाओं से हिंदी में अनुवाद भी करवा रहे हैं ! उसमें आदिवासी महिलाओं के साथ-साथ हर जाति व वर्ग की, हर उम्र की महिलाओं की रचनाओं शामिल हैं। हमारी एक वेबसाइट युद्धरत आम आदमी की www.yuddhrataamaadmi.com के नाम से हैं । दूसरी रमणिका फाउंडेशन नाम से पुनः बनवाई जा रही है। युद्धरत आम आदमी की वैवसाइट पर पत्रिका की सारे अंक अपलोड हैं, ताकि शोधार्थी या पाठक पत्रिका को निशुल्क डाउनलोड करके पढ़ सकें । लेखन में मेरी दूसरी आत्मकथा छपने के लिए चली गई है और तीसरी आत्मकथा हजारीबाग से दिल्ली तक लिखनी शुरू की है । झारखण्ड के 17 आदिवासी कवि जो हिंदी में लिखते हैं की पाण्डुलिपि तैयार कर के हम छपने के लिए भेज चुके हैं । भारत के और दूसरे आदिवासी कवि, जो हिंदी में लिखतें हैं और ऐसे कवि भी, जो अपनी भाषा में भी लिखते हैं, हिंदी में अनुवाद करवा रहे हैं । अब तक हम टोटल 44 भाषाओं में अनुवाद करवा चुके हैं ! ‘हाशिए उलांघती औरत: कहानी’, परियोजना के तहत हम कुल मिलाकर आठ खंड निकाल चुके हैं ! बाकी 22 खंड अभी आने हैं । पांच भाषाओं के खण्ड आ चुके हैं । अभी तमिल बंगाली, मलयालम, नार्थ-ईस्ट की 15 भाषाओं की तथा उडि़या भाषा की कथाओं के हिन्दी अनुवाद के खण्ड मार्च 2015 तक आ जाएंगे । इधर मेरी दो कविता पुस्तकें भी आ रही हैं ‘मैं हवा को पढ़ना चाहती हूँ’ और ‘कोयले की चिंगारी’ के नाम से । मेरी रचनावली भी प्रकाशनार्थ जा चुकी है। मेरी कुछ किताबों के अंग्रेजी में अनुवाद हुए हैं, वे भी सम्पादित हो रही हैं । मेरा लेखन जारी है । हमारी संस्था के माध्यम से कहानियों, कविताओं, लोक-कथाओं, सृजन मिथकों, शौर्यगाथाओं, लिजिन्द्रियों यानी आदिवासी और लोक विरासत के संकलन, चयन, संपादन, अनुवाद व प्रकाशन का काम जारी है । एक आदिवासी लाइब्रेरी की स्थापना का प्रयास भी हो रहा है ।
परिचय
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नाम : रमणिका गुप्ता
जन्म- २२ अप्रैल, १९३०, सुनाम (पंजाब);
शिक्षा- एम.ए., बी.एड.।
कार्यक्षेत्र- बिहार/झारखंड की
पूर्व विधायक एवं विधान परिषद् की पूर्व सदस्या। कई
गैर-सरकारी एवं स्वयंसेवी संस्थाओं से सम्बद्ध तथा सामाजिक,
सांस्कृतिक व राजनैतिक कार्यक्रमों में सहभागिता। आदिवासी और
दलित महिलाओं-बच्चों के लिए कार्यरत। कई देशों की यात्राएँ।
विभिन्न सम्मानों एवं पुरस्कारों से सम्मानित।
प्रकाशित कृतियाँ-
कविता संग्रह- पातियाँ प्रेम की, भीड़ सतर में चलने लगी है, तुम कौन, तिल-तिल नूतन, मैं आजाद हुई हूं, अब मूरख नहीं बनेंगे हम, भला मैं कैसे मरती, आदिम से आदमी तक, विज्ञापन बनता कवि, कैसे करोगे बंटवारा इतिहास का, प्रकृति युद्धरत है, पूर्वांचल : एक कविता-यात्रा, आम आदमी के लिए, खूँटे, अब और तब तथा गीत-अगीत।
उपन्यास- सीता, मौसी।
कहानी-संग्रह- बहू-जुठाई।
आत्मकथा- हादसे।
साक्षात्कार संग्रह- साक्षात्कार।
स्त्री विमर्श- कलम और कुदाल के बहाने, दलित हस्तक्षेप, निज घरे परदेसी, साम्प्रदायिकता के बदलते चेहरे।
दलित चेतना पर- साहित्यिक और सामाजिक सरोकार, दक्षिण-वाम के कटघरे और दलित-साहित्य, असम नरसंहार एक रपट, राष्ट्रीय एकता, विघटन के बीज (गद्य-पुस्तकें)।
अन्य- छह काव्य-संग्रह, चार कहानी-संग्रह एवं बारह विभिन्न भाषाओं के साहित्य की प्रतिनिधि रचनाओं का संकलन सम्पादन। शरणकुमार लिंबाले की पुस्तक दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्रा का मराठी से हिन्दी में अनुवाद। इनके उपन्यास मौसी का अनुवाद तेलुगू में पिन्नी नाम से और पंजाबी में मासी नाम से हो चुका है। जहीर गाजीपुरी द्वारा उर्दू में अनूदित इनका कविता-संकलन- 'कैसे करोगे तकसीम तवारीख को' प्रकाशित। इनकी कविताओं का पंजाबी अनुवाद बलवीर चन्द्र लांगोवाल ने किया जो बागी बोल नाम से प्रकाशित हो चुकी है।
सम्प्रति : सन् १९८५ से युद्धरत आम आदमी (त्रौमासिक हिन्दी पत्रिका) का सम्पादन।
प्रकाशित कृतियाँ-
कविता संग्रह- पातियाँ प्रेम की, भीड़ सतर में चलने लगी है, तुम कौन, तिल-तिल नूतन, मैं आजाद हुई हूं, अब मूरख नहीं बनेंगे हम, भला मैं कैसे मरती, आदिम से आदमी तक, विज्ञापन बनता कवि, कैसे करोगे बंटवारा इतिहास का, प्रकृति युद्धरत है, पूर्वांचल : एक कविता-यात्रा, आम आदमी के लिए, खूँटे, अब और तब तथा गीत-अगीत।
उपन्यास- सीता, मौसी।
कहानी-संग्रह- बहू-जुठाई।
आत्मकथा- हादसे।
साक्षात्कार संग्रह- साक्षात्कार।
स्त्री विमर्श- कलम और कुदाल के बहाने, दलित हस्तक्षेप, निज घरे परदेसी, साम्प्रदायिकता के बदलते चेहरे।
दलित चेतना पर- साहित्यिक और सामाजिक सरोकार, दक्षिण-वाम के कटघरे और दलित-साहित्य, असम नरसंहार एक रपट, राष्ट्रीय एकता, विघटन के बीज (गद्य-पुस्तकें)।
अन्य- छह काव्य-संग्रह, चार कहानी-संग्रह एवं बारह विभिन्न भाषाओं के साहित्य की प्रतिनिधि रचनाओं का संकलन सम्पादन। शरणकुमार लिंबाले की पुस्तक दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्रा का मराठी से हिन्दी में अनुवाद। इनके उपन्यास मौसी का अनुवाद तेलुगू में पिन्नी नाम से और पंजाबी में मासी नाम से हो चुका है। जहीर गाजीपुरी द्वारा उर्दू में अनूदित इनका कविता-संकलन- 'कैसे करोगे तकसीम तवारीख को' प्रकाशित। इनकी कविताओं का पंजाबी अनुवाद बलवीर चन्द्र लांगोवाल ने किया जो बागी बोल नाम से प्रकाशित हो चुकी है।
सम्प्रति : सन् १९८५ से युद्धरत आम आदमी (त्रौमासिक हिन्दी पत्रिका) का सम्पादन।
संपर्क-
ramnika01@hotmail.com