Saturday, January 25, 2014

चिनाब! कुछ दिन तुम मुझमें बहोगी -रमा भारती


रमा भारती 
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रमा से मेरी पहली मुलाकात पिछले साल बुक फेयर में एक पुस्तक विमोचन के दौरान हुई, अभिवादन और कार्यक्षेत्र की संक्षिप्त जानकारी के बाद मोबाइल नंबर का आदान -प्रदान हुआ,एक दो बार फ़ोन पर बातचीत के दौरान रमा के संवेदनशील हृदय में उफान भर रही नदी के प्रवाह की कुछ लहरों में मैं भीगी, फेसबुक पर "चिनाब" श्रंखला पढ़ने के बाद तो रमा के सहज व्यक्तित्व के प्रवाह में बहना और भी आसान हो गया ! रमा भारती ने  हाल ही में प्रसिद्द गीतकार शैलेन्द्र जी की अप्रकाशित कविताओं का  संपादन व संकलन किया है जो राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है ! आज रमा का जन्मदिन है, जन्मदिन की ढेर सारी बधाई व् शुभकामनाओं के साथ फ़रगुदिया पर उनका पुनः स्वागत है ! उनका रचात्मक सफ़र चिनाब की तरह प्रवाहित रहे , ईश्वर से यही कामना है ..!!
शोभा मिश्रा 








चिनाब -1

चिनाब! कुछ दिन तुम मुझमें बहोगी
और मैं तुममें ज़िन्दगी तलाश करुँगी
फिर तुम बैठ जाओगी हृदय के कोर पे
बिना छलके ,बिना शोर किए, निश्चल
और जैसे ही कुछ सूखनें लगेगी आत्मा
मैं फ़िर ख़ोज लूँगी तुम्हे वहीँ कहीं से
जहाँ लाकर अक्सर अपनें बहाव को
कहा है अलविदा ! फ़िर मिलेंगे वादा रहा



चिनाब -2

सुनों चिनाब !
तुम्हें तो काटना ही था
किनारों की वादी को
हौले-हौले अपना रास्ता
जो बदलना था और
दायरा भी तो चौड़ा करना था
तुम ठेलती रही और किस्से
खिसकते गए, सिकुड़ते रहे
बह जानें का डर न था कि
तुम्हारे निर्मल बहाव का असीम स्नेह
क़दमों की चाल उलटता रहा है अब तक

चिनाब -3
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याद है न ! तुम्हें चिनाब ...
एक रोज़ सबसे खफ़ा हो
किनारे-किनारे मीलों लहरों पे
अहसासों के पुल बाँध चली थी
और फ़िर थक के एक
चट्टान होते रक्त-प्रवाह में
घण्टों तुममें बहती रही थी
टूटे कंकर से एक चित्र उकेरा था
शाम के धुंधलके में बैठे-बैठे
अभी तक वो शक्ल मुकम्मल
कहीं भी बिम्बित नहीं हो पायी



चिनाब -4
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चिनाब! आज दौड़ती रही हो पहली बार
गाड़ी के चक्के में उलझ-उलझ
ख़्यालों की सड़कों पे मलिन होती
नहीं रोक पायी तुम्हें रगड़ खानें से
चाहा था शहर की धमाचौकड़ी में
तुम्हें कभी उतरनें न दूं पर तुम जिद्दी
जैसी अडिग थी तब और बेख़ौफ़ सी
अब भी कहाँ सुनती हो तनिक भी
देखो! बदलते वक़्त के साथ-साथ
एक इंसानीं उम्मीद तुमसे भी लगा बैठी



चिनाब-5
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तुमनें कहा था न चिनाब!
डूब जाओ गर पार होना चाहो
सो डूब गए और अब धड़कनें
धौकनीं सी चल रही हैं बेहिसाब
सासें जो बाक़ी रह गयीं अभी
पर किनारा कहीं दीखता नहीं
गहरे और गहरे होते तल को
किनारा कहते हैं क्या ?
तो फ़िर समानांतर कौन सी
दुविधा चलती है साथ-साथ ?
-रमा भारती 

2 comments:

  1. सशक्त और प्रभावशाली प्रस्तुती....

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  2. रमा जी से मिलवाने के लिये आभार शोभा जी ………बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

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