Monday, May 27, 2019

टीस महिला दिवस की - मीना पाठक



टीस महिला दिवस की
---------------------------

"हिंदी अकादमी द्वारा प्रकाशित इंद्रप्रस्थ भारती के मई अंक में मीना (दीदी) पाठक की कहानी "टीस महिला दिवस की" प्रकाशित हुई है। आज मीना दीदी का जन्मदिन भी है।"
खूब बधाई दीदी को💐







“का भाग ले के जन्मे रहे महतारी की कोख से..नैहर में ढेर नाही त कुछ कम भी नाही था..बाबू कउनों चीज की कमी नाहीं होवे देत रहे..बड़ा देख सुन कर अपने से अच्छे घर में बियाहे रहे कि उनकी बबुनिया रानी बन कर रहेगी..बाकिर हमरे करम फूटल रहा..त ऊ का करें..खेती-पाती..घर-दुआर..जनावर..सबेकुछ रहा..बाकी भाइन में बटवारा के बाद जऊन खेती-पाती हिस्से आयी..मंगरुआ के बापू धीरे-धीरे सब बेच खाए..अब तो बस गुजर-बसर भर को ही जमीन बची है..गाय-गोरू के नाम पर दुइ ठो बैल..का से का हो गयी जिनगी !”
सोचते-सोचते उसकी आँख भर आयी, अपनी सूती साड़ी की खूँट से आँसू पोंछ कर वह जल्दी-जल्दी खुरपी चलाने लगी |
बुधिया खेत की मेड़ पर बैठी खुरपी से हरी-हरी घास खोदते हुए मन ही मन अपने भाग्य को कोसती जा रही थी | तभी अचानक उसके पीछे से आवाज आयी --
“अरी बुधिया..! आज इतनी धूप में ?”
उसने घूम कर देखा, गाँव के सरकारी स्कूल की मास्टरनी जी थीं | उसने खुरपी छोड़ कर दोनो हाथ जोड़ दिए | उनके हाथ में फूलों का गुच्छा और चमचम करती कोई चीज थी जिसे देख कर वह पूछ बैठी – “ई का है मास्टरनी जी ? अऊर ई इत्ता सारा फूल !”
उसकी जिज्ञासा शांत करते हुए मास्टरनी जी मुस्कुरा कर बोलीं- “महिला दिवस पर मुझे सम्मानित किया गया है..कल छुट्टी है..इस लिए आज ही हेडमास्टर जी ने सभी अध्यापिकाओं के साथ मेरा भी सम्मान किया है |”
दोपहर में स्कूल की छुट्टी कर के रोज इस मेड़ से मास्टरनी जी चल कर अपने गाँव जाती थीं और अक्सर बुधिया से उनकी मुलाकात हो जाती थी| फिर थोड़ी गप-शप, थोड़ा हँसी-मज़ाक कर वह आगे बढ़ जातीं थीं और इन सब से बुधिया का मन भी हल्का हो जाता था | आज भी वही हुआ, स्कूल से लौटते हुए मास्टरनी जी को बुधिया घास छीलती दिख गयी और वह उसकी ओर बढ़ आयी थीं |

“अच्छा !” बुधिया की आँखें आश्चर्य से फ़ैल गयीं, महिला दिवस क्या होता है उसे कुछ समझ नहीं आया | मास्टरनी जी उसे अचकचा कर अपनी ओर देखते देख कर बोलीं -
“हाँ...महिला दिवस के दिन महिलाओं को उनके अच्छे कार्यों के लिए सम्मानित किया जाता है |”
“तो का सबही मेहरारून के सम्मान होत है ? हम जइसन का भी ?” आँखें झपकाती हुई पूछ बैठी बुधिया |
“हाँ बुधिया..इसी लिए यह दिवस मनाया जाता है ताकि सभी लोग, सभी स्त्रियों का सम्मान करें |”
“अच्छा..! ई बात है !” बुधिया ने कह तो दिया पर उसे अब भी विश्वास नहीं हो रहा था कि स्त्रियों के सम्मान के लिए भी कोई दिन तय है | फिर मन ही मन सोचती है कि मास्टरनी जी कह रहीं हैं तो सही ही होगा |
“अब तू बता..अपने पति को क्यों नही भेजती इस काम के लिए ?..जब देखती हूँ तू ही घास काटते  हुए दिखाई देती है |” मास्टरनी जी उसे स्नेह से डपटते हुए बोलीं |
“हुंह ! ..दुई बैल बचे हैं दुआर पर..उसके भरोसे छोड़ देई त भूखे मरि जइहें मास्टरनी जी..ऊ कहीं पी के पड़ल होई !” पति का नाम सुनते ही गुस्से से उबल पड़ती है बुधिया |
“कल महिला दिवस है..अपने पति को भेजना घास लेने..तुम मत आना..!” मास्टरनी जी हँस कर बोलीं |

“अच्छा !” आश्चर्यचकित हो कर मास्टरनी जी की ओर देखा बुधिया ने |
“अरे ! कल का दिन तुम्हारा है..तुम्हें जो अच्छा लगे वह करना अपनी पसन्द से..समझी..!” कहते हुए मास्टरनी जी आगे बढ़ गयीं |

उनके जाने के बाद बुधिया सोचने लगी ‘तो का हम बिहान अपने मर्जी से सब करब ?..जऊन मन करे तऊन !”
बुधिया को लगा महिला दिवस कोई त्योहार है, जैसे दशहरा, दीपावली, होली आदि पर इससे पहले तो उसने इस त्योहार के बारे में कभी नहीं सुना था |
“अरे ! अब तो पता चल गया ना |” बुधिया मन ही मन खुश हो गई..चलो कम से कम एक दिन तो अपनी मर्जी से..अपने मन मुताबिक़ कुछ कर सकती है ..यही बहुत है..भागे भूत की लंगोटी ही सही..जिन्दगी का एक दिन तो खुशी से बीते...उसकी खुरपी तेज हो गयी |
बुधिया का मन बल्लियों उछलने लगा..उसे लग रहा था कितनी जल्दी आज का दिन बीते और कल का दिन आये..महिला दिवस मनाने की खुशी में वह बाकी सब भूल गयी |
जल्दी-जल्दी लायी हुई घास झाड़ कर उससे मिट्टी निकालने के बाद बुधिया ने गड़ासे से उसके छोटे-छोटे टुकड़े काट लिए फिर कुछ बैलों के आगे नाँद में डाल दिया और कुछ सुबह के लिए रख लिया |
*
आज तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं है, खुशी के कारण वह खेलावन की दी हुयी सारी तकलीफें इस समय भूल गई है इसी लिए उसे कोसना छोड़ अपना मन पसन्द गीत -
‘पान खाए सइयां हमारो..
साँवली सूरतियाँ होठ लालो लाल..
हाय-हाय मलमल का कूरता’...
तन्मयता से गुनगुनाते हुए बगीचे से जो सूखे पत्ते बीन कर लायी थी उसके साथ कुछ उपले जला कर रात की रोटी पकने के बाद खुशी-खुशी खेलावन को बुला कर खाना परोसने लगी |
“आज कुछु पा गयी का..जो इतना खुश है..हरदम जहर-माहुर उगलत तोर मुंह नाहीं खियाता है..अऊर आज त सइयां के पान खिया रही..!” खेलावन उसे गुनगुनाता देख कर तंज कसता है |
बुधिया बिना कुछ जवाब दिए थाली उसके आगे रख कर लोटा में गगरी से पानी उझीलने लगी, होठों से अब भी गीत के बोल फूट रहे थे | तभी खेलावन के चिल्लाने से चौंक गयी वह |
“ई रोज-रोज घास-पात !..तू ही खा..नाही खाना मुझे !” खेलावन थाली सरका कर उठ गया पीढ़े से |
बुधिया की सारी ख़ुशी पिघल कर बह गयी | चेहरे पर मुस्कुराहट की जगह गुस्से की लकीरें खिंच आयीं, होठ गीत गुनगुनाना भूल गए | कुछ देर जलती निगाहों से खेलावन को देखने के बाद वहीं लोटा पटक कर बरस पड़ी -
“अरे !..त काहे नाहीं बजार से तरकारी भाजी खरीद लाता है..घर में नाहीं दाने आम्मा चली भुनाने...औकात दो कौड़ी की नाहीं औ खाये का भाजी तरकारी चाहीं..अरे !..खाए पिए का सऊक है त जा..काम कर...खेत में पसीना बहा..कहीं मजूरी कर...दुई पैसा घर ला...तब ई रुआब दिखा...सब तो बेच कर पी गया..मेरा खून भी तो नाही छोड़ा तूने देह में...नहीं तो वही पिला देती तुझे... आत्मा जुड़ा जाती तेरी..जिनगी में कउनो सुख नाही जाने..खाये पीये और सोवे के लिए हम ई के मेहरारू..ओकरे बाद जनावर से भी गये गुजरे...!”

खेलावन खिसिया कर पैर पटकते हुए बाहर चला गया | बुधिया अपने भाग्य को कोसते हुए अपना गुस्सा बर्तनों पर निकालने लगी | आज का दिन अच्छा ही था उसका जो इतनी तीखी बातें सुन कर भी खेलावन ने हाथ नहीं उठाया था उस पर | वह तो पहले ही बेचन तमोली के साथ पी-खा कर आया था, वो तो बुधिया को दिखाने के लिए खाने चला गया था | कहाँ वो मुर्गा और दारु ! कहाँ ये सूखी साग-रोटी !
वह खटिया पर फ़ैल कर खर्राटे भरने लगा | बुधिया भी झंखती-पटकती अपनी खटिया पर ढिमिला गयी |
*
अगले दिन भोर में ही झाड़ू-बुहारू के बाद दुआर पर पानी छिछ्कार कर फिर पिछले दिन की बची हुई कटी घास बैलों को डाल दिया बुधिया ने | इन्हीं बैलों के कारण कुछ पैदावार हो जाती थी | जो थोड़े से खेत बचे थे, इन बैलों के सहारे ही जोते-बोये जाते थे | खेती के थोड़े बहुत काम के अलावा खेलावन कुछ नहीं करता था | बुधिया ही सब करती, जब उसका जी जलता तो खेलावन को जी भर के उल्टा-सीधा बोलती तब खेलावन उस पर हाथ छोड़ देता | बुधिया रो-धो कर फिर काम में लग जाती, यही उसका जीवन था |
*
खेलावन अभी तक सो रहा था, वह रात की बात भूल गई थी | कल की बात भूल कर आगे बढ़ जाना ही रोज का काम था उसका | खेलावन को जगा कर वह भीतर चली गयी | खेलावन खटिया उठा कर खड़ी करने के बाद कुएँ की ओर बढ़ गया | भीतर बुधिया हड़ियाँ-पतुकी में कुछ ढूंढ़ने लगी, एक पुरानी पतुकी में थोड़ा गुड़ और हड़ियाँ की पेंदी में थोड़ा सा चावल मिल गया उसे | वह चूल्हा जला कर रसिआव बनाने बैठ गयी कि तभी खेलावन आ गया | बुधिया अपने आँचल के खूँटे से एक मुड़ा-तुड़ा दस रु० का नोट निकाल कर खेलावन को देते हुए बोली – “बजारे से कउनो नीक तियना-तरकारी ले आओ..अऊर सुनो !..आज हम दुभिया लेबे नहीं जायेब..आज तोहके जाये का है |”
खेलावन नोट पकड़ते हुए अकड़ गया - “काहे..? आज केहू आ रहा है का..जो नहीं जायेगी दुभिया के खातिर या आज कौनो तीज त्यौहार है ?”
“अरे ! आजु मेहरारू लोग का दिन है ना !” वह उसे कुछ बताना नही चाहती थी फिर भी ना चाहते हुए भी उसके मुँह से निकल गया | खेलावन से किसी उपहार की उम्मीद तो थी नहीं उसे कम से कम इसी बहाने एक दिन का आराम पा जायेगी काम से, थोड़ा साँस ले लेगी राहत की| उसके लिए इतना ही बहुत था |
खेलावन की कामचोरी..शराब पीने की आदत और मार-पिटाई से वह आज़िज रहती थी..उसके जाते ही वह चूल्हे पर चढ़ा हुआ रसिआव चलाने लगी..चूल्हे में सूखे पत्तों के जलने की चट्ट-चट्ट की आवाज सुन कर बुधिया को लगता है कि वह भी तो जीवन भर इन्हीं पत्तों की तरह जलती रही है...खेलावन के पीने की आदत ने उसे कहीं का नहीं रखा |
उसे याद आता है कि कैसे उसका पाँच साल का बेटा मंगरू काली खाँसी से खाँसते-खाँसते परलोक सिधार गया था..पर पीने के आगे खेलावन ने बच्चे की जरा भी सुध नहीं ली..जितनी बार भी रुपया ले कर घर से गया..दारू पी आया और कह दिया कि बैद्य जी कहे हैं..आदी, तुलसी, पीपर अउर काली मरिच का काढ़ा पिलाओ बच्चे को... वह काढ़ा पिलाती रही..पर एक दिन मंगरू की खाँसी और मंगरू..दोनों शान्त हो गये..| सोचते-सोचते उसकी आँखों से आँसुओं की धारा छलक पड़ती है, मंगरू को याद कर के उसका कलेजा फटने लगा | वह खेलावन के लिए क्रोध और नफ़रत से भर उठी | मन में सोचने लगी कि वह कैसे रह रही है इस जानवर के साथ ?..फिर सोचती है कि आखिर जाय तो जाये कहाँ ?..बस किसी तरह जिन्दगी कट रही उसके साथ |
*
अचानक कुछ जलने की महक से उसकी सोच को झटका लगा..वह चौंक पड़ी..चूल्हे पर चढ़ा हुआ रसिआव फफा-फफा कर जल गया था..तसली से धुँआ उठ रहा था..जल्दी से तसली उतारने में उसकी उंगलियाँ जल गयीं..उसने बिना सपटा के ही तसली उतार लिया था..उँगली के साथ उसका अंतर्मन भी जलने लगा..वह वहीँ बैठ कर सिसक पड़ी..कुछ उँगलियों की जलन और उससे भी ज्यादा अन्तर के तपन की पीड़ा !..भरभरा कर उसकी आँखों से बह निकला |
वह चूल्हे की तरफ देखती है..कुछ उपलों की राख में अब भी आग बचा था.. पत्ते जल कर ख़ाक हो गये थे..पर कुछ पत्तों ने जलने के बाद भी अपना आकार नही खोया था |
दिन चढ़ने लगा..बुधिया ने आलू कुचल कर उसे अपनी उंगलियों पर थोप लिया..जिससे उँगलियों की जलन में कुछ आराम मिला.. पर अपनी आत्मा पर वह क्या छापे..कौन सा मरहम लगाए कि वहाँ भी थोड़ी रहत मिले !
*
बुधिया खेलावन की राह देखते-देखते थक गई..कल की बची हुई घास उसने बैलों को डाल दिया..अब उसे शाम के चारे की चिंता होने लगी..खेलावन अभी तक नही आया था..खरामे-खरामे दुपहरिया भी खिसकने लगी थी | बुधिया सब भूल गई, बैलों के चारे की फिकर में उसकी भूख प्यास सब मर गई |
उसने खाँची-खुरपी और बोरी उठायी, घर के दरवाजे पर साँकल चढ़ा कर चल दी बगीचे की ओर | पहले गिरे हुए सूखे पत्ते बटोर कर बोरी में भरा फिर उसे वहीं एक पेड़ के सहारे रख कर वह एक ओर बैठ कर हरी मुलायम दूब इकठ्ठा करने लगी | उसे अब ना उंगलियों में जलन महसूस हो रही थी ना ही सुबह की तरह मन में कोई उत्साह ही रह गया था, वह यंत्रवत अपने काम में लग गयी | आज स्कूल बंद था | मास्टरनी जी शायद आज भी महिला दिवस मना रही थी | शाम होने को थी | उसकी खाँची भर गई, उसने इधर-उधर देखा तभी उसे बाजार जाता हुआ भगेलू का लड़का दिखाई दिया |
“रे रमेसरा !..तनी ई खांची हमरी मुड़िया पर धरा दे रे !”
रमेसरा दौड़ता हुआ आया और उसकी खाँची उसके सिर पर रखवा कर चला गया | बुधिया एक हाथ से सिर पर खांची को संभाले और दूसरे हाथ से पत्ते वाली बोरी उठये कर घर की ओर चल दी | मन ही मन फिर से अपने भाग्य को कोसने लगी- “हमरे भाग में एको दिन चैन-सकून का नाहीं लिखा बरम्हा ने !” उसने सुबह से कुछ नहीं खाया था पेट में आँतें मरोड़ रही थीं, भूख कुलबुला रही थी | वह तेजी से घर की ओर बढ़ गयी |

घर पहुँच कर फिर से वही सब काम, घास झाड़ना, छाँटी काटना, बैलों को चारा-पानी देना फिर चूल्हे के आगे बैठ कर रसोई के लिए सोचना कि क्या बनाऊँ क्या ना बनाऊँ | वह उठी और एक लोटा पानी हरहरा कर पी गई फिर घर के बाहर आ कर बैठ कर खेलावन की राह देखने लगी | उसने सोच लिया था कि आज उसे भी भूखा रखेगी, कुछ नहीं बनाएगी खाने को |
अन्धेरा होने लगा था थोड़ी देर बाद खेलावन झोला लटकाए आता दिखाई दिया | उसने सोचा कि आज जी भर के सुनाएगी, चाहे जो हो | खेलावन के नजदीक आते ही एक जोर की भभक लगी उसे, वह समझ गई कि आज भी पी कर आया है वह |
गुस्से में बिफर पड़ी बुधिया ..”आजो पी आया !..एक दिन बिना पिए नहीं रह सकता...तरकारी के खातिर रुपया दिए रही तोहका..वोहू पी के आ गया..पेट है कि नाँद..कब्बो भरता ही नाही..हमार तो करम फूटा रहा कि तोहरा जईसन मरद मिला...ए से नीक त बाबू हमका कौनो नदी-नाले मे बहा दिए होत..त ई बीपत त ना भोगे के पड़त..तोहरे जइसन पियक्कड़ आ कामचोर मरद हमरे भाग में लिखल रहे |” गुस्से में बुधिया ने खाली झोला खेलावन के हाथ से झटक कर खींच लिया | नशे की हालत में भी खेलावन का पुरुषत्व जाग गया, उसने लपक कर भीतर जाती हुई बुधिया का झोंटा पकड़ लिया और उसे गाली देते घसीटता हुआ आँगन में ले आया..
“रुक ससुरी, आज तोर दिन है ना..एही से ढेर मुँह चला रही है..कल्हिये से ढ़ेर फड़फड़ा रही है..जऊन मुंह में आ रहा तऊन बक रही है..चल आजु तोर पखिया कतर के मेहरारून के दिन मना देत हयीं हम..ढेर दिन हो गयील..खाए भर का नाहीं मिलल ..आजु देत हईं तोके खाए भर के !”
बुधिया चीख रही थी “छोड़ दे रे...कौनो दिन मेहरारून के नाही होत..छोड़ दे...छोड़ दे ...जनावर..छोड़ दहिजार के पूत..मुतपियना..रे अभगवा..! छोड़ मुझे !”
*
दो-तीन दिन बीत गये थे मास्टरनी जी को बुधिया नहीं मिली थी |  उनके मन में शंका हो रही थी कि उन्होंने तो उस दिन यूँ ही मजाक में कह दिया था बुधिया से, कहीं उसने उस बात को गम्भीरता से तो नहीं ले लिया ? वह जानती थीं खेलावन को, वह एक नम्बर का गँवार और शराबी था इस लिए उनके मन में शंका घर कर गई | उन्होंने सोचा कि कल स्कूल की छुट्टी के बाद वह बुधिया की खोज-खबर लेने उसके घर जायेंगीं |
*
अगले दिन कुण्डी बुधिया के घर की कुंडी खटकाने पर रुखिया ने दरवाजा खोला | खबर लगते ही वह ससुराल से भागी-भागी माँ को देखने चली आई थी |
“अरे ! तू कब आई ?” उसे देखते ही बोलीं मास्टरनी जी |
“माई को देखने आई थी |”
“का हुआ उसे ?” मन ही मन डरते हुए पूछा उन्होंने |

बिना कुछ जवाब दिए वह उन्हें भीतर बुधिया की खटिया के पास ले गयी | मास्टरनी जी की आवाज सुन कर बुधिया ने कराहते हुए अपनी आँखें खोली | सामने मास्टरनी जी को देख कर सिसक पड़ी |
मास्टरनी जी उसकी दशा देख कर घबरा गयीं | बिखरे बाल..आँखों के नीचे काला...सूजे हुए होठ...गालों पर छपे उँगलियों के निशान देख कर वह सब समझ गयीं कि क्या हुआ है | उनकी शंका सही निकली | पूछने पर बुधिया ने सब बताया और अपने शरीर पर लगा कपड़ों में छुपा हुआ घाव भी दिखाया, उसके पूरे शरीर पर जगह-जगह काले निशान पड़े थे, खेलावन ने उसे जानवर की तरह पीटा था | दवा के लिए पूछने पर रुखिया ने बताया की ‘माई कुछो खा-पी नहीं रही है |’ मास्टरनी जी ने आज व्यस्तता के कारण अपना नाश्ता नहीं खाया था उन्होंने बुधिया को प्यार से समझा बुझा कर अपना नाश्ता खिलाया और कहा-
“इसी हालत में चल मेरे साथ..अभी |”
“कहाँ ?” चौंक कर बोली बुधिया |
“ग्राम-प्रधान या पुलिस के पास..खेलावन की शिकायत करने..मैं भी चलती हूँ तेरे साथ..दो दिन में ना सुधर जाए तो कहना |” गुस्से से तमतमाते हुए बोलीं मास्टरनी जी |
पर हर बार की तरह इस बार भी बुधिया तैयार नहीं हुयी | फिर आने को कह कर बाहर निकल आयीं | वो कई बार समझा चुकी थीं बुधिया को कि वह खेलावन के खिलाफ़ कोई कदम उठाये; पर वह नहीं सुनती थी, कहती थी कि “का होगा इससे मास्टरनी जी?..पुलिस के डंडे की चोट पर हरदी हमही का छापे के पड़ी |” उसका जवाब सुन कर वह चुप रह जातीं | हर बार मार खा कर रो-धो कर बैठ जाती थी पर इस बार बुधिया की इस हालत की जिम्मेदार वह स्वयं को मान रही थीं | उनका ये छोटा सा मजाक हमेशा उनके हृदय को टीसता रहेगा | वह मन ही मन व्यथित थीं कि अपनी गलती का पाश्चाताप कैसे करें ?
अचानक उन्होंने मन ही मन कुछ निर्णय किया और उसके घर से निकल कर आगे बढ़ गयीं |
*
अगले दिन सुबह-सुबह ही पुलिस के साथ ग्राम प्रधान खेलावन के घर पहुँच गये | पुलीस दरोगा को देख कर गाँव के लोग खेलावन के दरवाजे एकत्र होने लगे | सभी फुसफुसा रहे थे कि ‘पुलीस क्यों आई है ?’ कहीं खेलावन पीने के साथ चोरी भी तो नहीं करने लगा !’
प्रधान की कड़कती आवाज सुन कर खेलावन बाहर आया | प्रधान के साथ पुलिस और गाँव वालों की भीड़ देख कर उसके होश उड़ गये | वह हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया तभी दारोगा साहब बोले - “तेरा नाम ही खेलावन है ?”
उनके सामने हाथ जोड़ता हुआ बोला, “हाँ साहेब पर हमने तो कुच्छो नहीं किया है |”
दारोगा ने उसका कालर पकड़ते हुए घसीटा और जोर का एक थप्पड़ उसके चेहरे पर रसीद कर दिया | खेलावन के आँखों के सामने तारे छिटकने लगे वह घिघियाता हुआ बोला, “साहेब !..हमरा कुसूर तो बताव |”
“ससुर का नाती !..मेहरारू से बकयिती दिखा रहा..चल अब दिखा बकयिती..हमहूँ त देखें..तू केतना बड़ा बकैत है...घर की औरत पर हाथ उठाता है!” बड़बड़ते हुए दारोगा ने आठ दस लात और घूसों से उसकी पिटाई कर दी |
शोर सुन कर रुखिया के सहारे बुधिया भी बाहर आ गई और खेलावन को पिटते देख अपना सारा दर्द भूल कर वह दरोगा से हाथ जोड़ कर खेलावन को छोड़ने के लिए गिड़गिड़ाने लगी |
दरोगा के कहने पर खेलावन को पूरे गाँव के सामने बुधिया से क्षमा माँगनी पड़ी | बुधिया की विनती पर दारोगा ने उसे इस शर्त पर छोड़ा कि वह आगे से बुधिया पर कभी हाथ नहीं उठाएगा और एक कागज़ पर लिखवा कर उस पर खेलावन के अंगूठे का निशान भी ले लिया |
धीरे-धीरे दोनों की जिंदगी पटरी पर आ गई, खेलावन ने फिर कभी बुधिया पर हाथ नहीं उठाया और मेहनत से खेती करने लगा |
*
खेलावन को उसके किये की सजा मिल गई और वह सुधर भी गया, बुधिया के दिन बहुर गये | अब वह घर के काम के साथ-साथ मास्टरनी जी से पढ़ना-लिखना भी सीख रही थी, पर अब भी ना जाने कितने खेलावन हमारे समाज के कोने-कोने में छुपे बैठे हैं, जरुरत है मास्टरनी जी की तरह उन सभी के चेहरे से नकाब उतारने की और खेलावन जैसे व्यक्तिओं को उसके किये की सजा दिलाने की | पड़ोस के घर से आती सिसकियों की आवाज सुनकर भी नजरअंदाज करने से खेलावन जैसे अहंकारी पुरुष अपनी पत्नियों से हिंसा करते रहेंगे|



--मीना पाठक



.
'अंतर्मन ' ब्लॉग का सफल संचालन ,
प्रकाशित कृति – (साझा संग्रह)-‘अपना-अपना आसमा’, ‘सारांश समय का’, ‘जीवन्त हस्ताक्षर-2’, ‘काव्य सुगंध भाग-2’, ‘सहोदरी सोपान-2’, ‘जीवन्त हस्ताक्षर-3’ ‘लघुकथा अनवरत’ और ‘जीवंत हस्ताक्षर -4’
‘लमही’, हिन्दुस्तान, जागरण, ‘कथाक्रम’ विश्वगाथा, भाषा-भारती, ‘निकट’, उत्तर प्रदेश सरकार की पत्रिका ‘उत्तर-प्रदेश’ व भारत सरकार की पत्रिका ‘इन्द्रप्रस्थ भारती’, ‘समहुत’ आदि अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ व कविताएँ प्रकाशित, विभिन्न ई -पत्रिकाओं और ब्लॉग पर नियमित रचनाएँ प्रकाशित होतीं रहती हैं .
सम्मान - शोभना वेलफेयर सोसायटी द्वारा-शोभना ब्लॉग रत्न सम्मान 2012, माण्डवी प्रकाशन द्वारा 2014 में ‘साहित्यगरिमा’, अनुराधा प्रकाशन से ‘विशिष्ट हिन्दी सेवी’ सम्मान तथा ‘विश्व हिन्दी संस्थान कल्चरल आर्गेनाइजेशन कनाडा द्वारा उपन्यास ‘खट्टे-मीठे रिश्ते’ में रचना धर्मिता के लिए सम्मान 2015 प्राप्त हुआ और कहानी ‘शापित’ 92.7 big fm द्वारा सम्मानित हुई ..

ई - मेल आईडी-- meenadhardwivedi1967@gmail.com
फोन-0 9838944718





















0 comments:

Post a Comment

फेसबुक पर LIKE करें-