कहानी: पात्र -रमा भारती
"जिस तरह पहाड़ियों और घाटियों से झरती नदी धरातल को स्पर्श करते ही धीरे-धीरे विस्तार लेने लगती है.. उसका चंचल, कल-कल करता स्वर धैर्य से मौन धारण कर अविरल प्रवाहित होता रहता है उसी तरह लेखन भी कभी-कभी कविताओं से शुरू होकर कहानी का रूप लेने लगता है ! लेखिका, कवयित्री रमा भारती की 'चिनाब' श्रंखला और अन्य कविताएं हम फेसबुक पर पढ़तें आयें हैं .. आज उन्होंने अपनी पहली कहानी लिखी है ! हाल ही में प्रसिद्द गीतकार शैलेन्द्र जी की अप्रकाशित कविताओं का इन्होने संपादन व संकलन किया है जो राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है ! रमा को उनकी पहली कहानी के लिए हार्दिक बधाई !"
- शोभा मिश्रा
कवि के मन में कहानी जैसा कुछ लिखनें की तीव्र इच्छा जाग उठे तो यह तो तय है कि कविता से उसका गुज़ारा नहीं और कहीं न कहीं उसकी कविता मरणासन्न स्थिति में जा पहुँची है। वजह चाहे जो भी हो एक तर्क दूसरे को जन्म देता ही है और एक ख़ामोशी गहरे सन्नाटे को। यही सब सोच में थी तनु और रात का तीसरा पहर धुंधला होता जा रहा था। वर्क जैसे लम्हे उड़े जा रहे थे, एक गहरी उबासी ले गोद में रखी आधी पढ़ी हुई किताब को पलटते हुए शून्य में झांकते-झांकते बालकॉनी की ओर बढ़ती जा रही थी वो कि तभी ठिठुरती सर्द हवाओं नें तन्द्रा को भेद हड्डियों में बैठे दर्द को सहलाना शुरू कर दिया।
उल्टे पाँव रसोई की ओर लौटी और एक कप गर्म कॉफ़ी ले फ़िर से उसी ओर बढ़ी। इस बार पूरे जतन से दुशाला लपेटा हुआ था और प्याली पोरों से ऐसे पकड़ी हुयी थी कि जैसे ये जीवन का आख़िरी अलाव हो। अभी तक वो उस अधूरी पढ़ी किताब के किरदारों में पूरी तरह से डूबी हुयी थी। उसनें कॉफ़ी का कप ले जाकर भक्क सफ़ेद गुलदाऊदी के गमले से सटा कर रख दिया और रात की चुप्पी सुननें लगी। शहर ठहरा, तो झींगुर की आवाज़ तो दुर्लभ थी, हाँ ! कुछ आवारा कुत्ते सर्दी में ठिठुरते हुए रुदन कर रहे थे।
रात की चांदनी झरती जा रही थी और तनु किताब के किरदारों में गुम होती जा रही थी।शीत में डूबी वो गर्म कॉफ़ी और गर्म शाल कँपकँपाती देह और अविराम खाँसी को रोक पाने में समर्थ नहीं थे। किरदारों में खो जाना, कभी ख़ुद को पा लेना तनु के बचपन का रोग था इसलिए अक्सर डूबी-डूबी रहती थी वो। तभी एक ख्वाब सा ख्याल जो उस किताब का पात्र बन मन के आँगन में उतर आया था, दिमाग़ से कूदा और गुलदाऊदी के झुरमुट की ओट में जा खड़ा हुआ और धीरे से बोला 'रात बहुत हुयी अब सो जाओ तनु'....तनु मुस्कुराते हुए उससे उलझते हुए बोली 'अच्छा क्या रात गहरी बस इसी ओर होती है?'
'अरे नहीं नहीं रात तो इस ओर भी बढ़ गयी है' कहते ही ख्याल घुप्प और एक दौर फ़िर खाँसते हुए शोर को दबाने की कोशिश में गया। दरअसल ये वो अहम पात्र था किताब का जिसका नाम 'ईश' था और जो कच्ची मिट्टी में पौध रोप मौसमों के हाल पे छोड़ आगे बढ़ जाने को प्रेम समझता था। तनु एक बार फिर से कहानी में डूबती जा रही थी और एक-एक पात्र दोबारा से खँगाल रही थी। तभी दिखा उसे वो पात्र जो छोटी-छोटी नज़मों का बाज़ार बिछा देता था शाम से एक मयखाने की तरह और ख़रीदारों की तो मत पूछो, औने-पौने भाव, आम-घास सब ख़रीद के चलते बनते। ये दोनों पात्र ईश और शम्भू अजीब क़िस्म के थे , एक दूसरे को सराहते और कोसते भी रहते हमेशा।
अक्सर जा बैठते थे उस एकांत झील के किनारे दोनों ही जहाँ गुप-चुप , सोयी-अलसायी झील में ढेला फ़ेंक-फ़ेंक कर तरंगों को गिना करते। और हाँ ! जो तेज़, दूर और ज्यादा तरंगों को पैदा करता वो उस शाम को अपनी जेब में कर चलता बनता। झील में न कोई परी थी, न कँवल , बस कहीं-कहीं काई और सिर्फ़ काई। इसी को इकठ्ठा करने जब सीमा नाम की छात्रा सुबह-सुबह पहुँचती तो रात के सभी जागे पलों को कोसा करती, कहती कि 'चैन से पानी को भी स्थिर नहीं रहने देते निशाचर लोग-बाग, रात तो कम-से-कम आराम को रख छोड़ें'।
कहानी अभी कुछ पन्नें ही खिसकी थी कि दोनों कन्धों पे शीत का जोर बढ़ गया और तनु का ध्यान भंग हुआ तो पौ फट चुकी थी। उसे ख़ुद से नाराज़गी हो रही थी कि फिर उसे आँख लगानें का वक़्त नहीं मिला। ये पात्र उसके जीवन में इतना हावी क्यों हो जाते हैं ? अभी तो किताब का एक हिस्सा भी ज़ेहन में उतरा नहीं , जब ख़त्म होगी कहानी और किरदार जी लेंगे अपना हिस्सा तब तक कितनी रातों को दिन कर के वो आगे बढ़ेगी भला.....
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रमा भारती
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