विपिन चौधरी की कवितायें
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१. पिछला आँगन
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घर के अगले आँगन में
खुशियों की गुलदावदी खिला करती हैं
तो पिछले आँगन में
स्त्रियों के सुख-दुःख की सांझी परछाईंयां उतरती हैं
तीन पीढ़ियों की स्त्रियां
इसी पिछले आँगन में
छोटी- बड़ी पीढ़ों पर बैठ सुस्ताया करती हैं
ननद, देवरानी के सिर के जुएं निकालती है
बहु, सास के गठियाग्रस्त पांवों पर गर्म तेल मलती है
दो-तीन आड़ी-तिरछी रस्सियों पर अलसाते हैं
ढेरों गीले कपडे
इसी पिछले आँगन में सूखती हैं
हल्दी की गांठे और गीली-सीली लाल मिर्चें
स्त्रियों के साथ ही सुस्ताया करते हैं
झाड़ू-पौंचे और टूटे कनस्तर
फोल्डिंग चारपाईयों पर धूप लगवाते
गर्म कपड़ों के साथ ही स्त्रियां
अपने मन को भी हवा लगवा लेती हैं
थोड़ी तरो-ताज़ा होकर
घर के आहते में प्रवेश करते हुए
शाम की चाय के लिए
ननद, देवरानी के सिर के जुएं निकालती है
बहु, सास के गठियाग्रस्त पांवों पर गर्म तेल मलती है
दो-तीन आड़ी-तिरछी रस्सियों पर अलसाते हैं
ढेरों गीले कपडे
इसी पिछले आँगन में सूखती हैं
हल्दी की गांठे और गीली-सीली लाल मिर्चें
स्त्रियों के साथ ही सुस्ताया करते हैं
झाड़ू-पौंचे और टूटे कनस्तर
फोल्डिंग चारपाईयों पर धूप लगवाते
गर्म कपड़ों के साथ ही स्त्रियां
अपने मन को भी हवा लगवा लेती हैं
थोड़ी तरो-ताज़ा होकर
घर के आहते में प्रवेश करते हुए
शाम की चाय के लिए
ज़ोर से आवाज़ देते हुए पूछती हैं
" चाय कौन-कौन पियेगा"
२. स्त्री- आचार सहिंता
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सिलाई-बुनाई-बुहारी-कटका से मन का ध्यान बंटा रहता है
तो स्त्रियों तुम इन्हीं में ध्यान लगाओ
रसोई की मिली-जुली गंध में भूल जाओ
पिछली रात मिली लातों की दोहरी मार को
पेट की ऐंठन को
पेट में ही निपटा लो
तुम्हारे भीतर जितने भी कब्रगाह हैं
इस पर कायदे से मोटा पर्दा रखो
याद हैं ना तुम्हें वे दिन
जब तुम्हारे सामने बोलने पर पिता ने गुस्से में उबलते हुए कहा था
"गलती की तुझे पढ़ा-लिखा कर ढोर-डंगर चलवाने थे तुझसे'
और वह ताना जो पति रोज़ दिया करता है
" पहले ही दिन से तुझे अपनी जूती के नीचे रखना था"
और बेटा भी जो अक्सर कहता आया है
"माँ, पिता का कहा माना करो"
जिस्म में केंचुलियाँ के ढेर
दिन-रात ना बुझने वाली शमशानी आग
है तुम्हारे आजू -बाजू
फिर भी तुम इतनी शांत
ज़मीन को अंगूठे से कुरेदती हुयी
संकुचित
स्त्री आखिर तुम बला क्या हो?
खैर
तुम जो हो सो हो लेकिन समय रहते
ऊपर दर्ज इस स्त्री- आचार- संहिता को अच्छे से रट लो
3. आइडेंटिटी क्राइसिस
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यह सिर्फ स्त्रियों के साथ ही है
वर्ना यहाँ तो लिपस्टिकों और नेलपालिश के भी शेड्स और नंबर है
रागों के नाम है रंगों की अलग पहचान है
सड़कों के
चौराहों के
देश और देशों को अलग करने वाली
...विभाजन रेखाओं के भी नाम हैं
हम ही हैं
जिन्हें अपनी पहचान जताने के लिए
अपने नाम के आगे- पीछे एक पूँछ
लगानी पड़ती है
बीज अंकुरित होते ही
अपने साथ नयी पहचान ले आता है
काले बादल
साफ़-सुथरे आकाश पर दस्तक दे कर
उसकी पहचान स्थिर कर देता है
सिर्फ हमीं है
जो वाकई पहचान के संकट से गुजर रही हैं
और संकट भी ऐसा कि
इस संकट के हल की चाबियाँ
हमारे ही बगलगीरों ने कहीं गुमा दी है
4. नयी बहू , मेहंदी भरे हाथ, सांप सीढ़ी और समय
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महेंदी लगे हाथों ने
नयी-नवेली-नकोर बहू
को इतनी आज़ादी तो दी हाथों की मेहंदी फीकी होने तक
वह घर से कामों में ना लगे
इस खाली समय में नयी बहू
अपने छोटे देवर और ननद के साथ
खेल रही है सांप-सीढ़ी का खेल
अपनी पतली-पतली ऊँगलियों से वह गिट्टी फेंकती है
बच्चे अपनी भाभी के दोनों हाथों में धुर ऊपर तक लगी हुई है मेहंदी
भरी कलाईयों पर मोहित हो उठे हैं
समय भी वहीं रुक कर इस खेल में खो गया है
कुछ समय तक डूब कर वह
चल देगा आगे तब इसी बहू के फटी बिवाईओं वाले पांवों, सूखे बालों और सख्त हो चुके हाथों की तरफ देखने की उसे मोहलत नहीं होगी
फिलवक़्त समय की निष्ठुरता को नज़रअंदाज़ कर नयी बहु
मगन है खेल में
और संकट भी ऐसा कि
इस संकट के हल की चाबियाँ
हमारे ही बगलगीरों ने कहीं गुमा दी है
4. नयी बहू , मेहंदी भरे हाथ, सांप सीढ़ी और समय
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महेंदी लगे हाथों ने
नयी-नवेली-नकोर बहू
को इतनी आज़ादी तो दी हाथों की मेहंदी फीकी होने तक
वह घर से कामों में ना लगे
इस खाली समय में नयी बहू
अपने छोटे देवर और ननद के साथ
खेल रही है सांप-सीढ़ी का खेल
अपनी पतली-पतली ऊँगलियों से वह गिट्टी फेंकती है
बच्चे अपनी भाभी के दोनों हाथों में धुर ऊपर तक लगी हुई है मेहंदी
भरी कलाईयों पर मोहित हो उठे हैं
समय भी वहीं रुक कर इस खेल में खो गया है
कुछ समय तक डूब कर वह
चल देगा आगे तब इसी बहू के फटी बिवाईओं वाले पांवों, सूखे बालों और सख्त हो चुके हाथों की तरफ देखने की उसे मोहलत नहीं होगी
फिलवक़्त समय की निष्ठुरता को नज़रअंदाज़ कर नयी बहु
मगन है खेल में
और इस कविता ने भी बहू को जीतते देख हलकी सीटी बजाई है
***************************************************************हरियाणा साहित्य अकादेमी द्वारा प्रेरणा पुरूस्कार से 2007 में सम्मानित युवा कवियत्री विपिन चौधरी हरियाणा के हिसार से है, आलोचक के साथ वो एक अच्छी रचनाकार भी है और कई रचनाओ का प्रकाशन हो चुका है “अँधेरे के मध्य से” (2008) और “एक बार फिर” (2008) उल्लेखनीय हैं।
***************************************************************हरियाणा साहित्य अकादेमी द्वारा प्रेरणा पुरूस्कार से 2007 में सम्मानित युवा कवियत्री विपिन चौधरी हरियाणा के हिसार से है, आलोचक के साथ वो एक अच्छी रचनाकार भी है और कई रचनाओ का प्रकाशन हो चुका है “अँधेरे के मध्य से” (2008) और “एक बार फिर” (2008) उल्लेखनीय हैं।
बेहतरीन कविताएँ हैं....विपिन जी की कविताएँ किसी संवेदनशील इंसान के कंधे पर बैताल की तरह सवार हो जाती हैं.... पुरूषवाचक मान्यताओं एवं सोच की मोटी चमड़ी को खुरच-खुरचकर उसमें भभ्भाहट पैदा करने में सक्षम हैं...😊 आभार फरगुदिया...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.....
ReplyDeleteमैं तो यूँ भी विपिन की लेखनी की कायल हूँ...god bless her mighty pen!!!
शुक्रिया फर्गुदिया,शोभा जी !!
अनु
बहुत सुंदर कवितायेँ हैं विपिन जी ,शुभकामनायें
ReplyDeleteकल 19/12/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद!