ऐ गंगा तुम बहती हो क्यूँ ?
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चर्चित कहानीकार विवेक मिश्र की कहानी 'ऐ गंगा तुम बहती हो क्यूँ? ' अप्रैल 12 हंस में प्रकाशित हुई थी ..ये कहानी "स्वामी रामानन्द तीर्थ- मराठ वाड़ा विश्वविद्यालय" के बी.ए., बी.काम. और बी.एस.सी. के प्रथम वर्ष के हिन्दी पाठयक्रम की पुस्तक- ''साहित्य भारती'' में शामिल की गयी है .. आप सभी ये कहानी फरगुदिया पर पढ़ सकते हैं .. विवेक मिश्र जी को बहुत बधाई !!
गंगा पूरे वेग से बह रही थी। गाड़ी उससे उलटी दिशा
में दौड़ रही थी, जिससे गंगा का वेग वास्तविक्ता से अधिक प्रतीत हो रहा था। बिना इंजन
और डिब्बों के भी गंगा किसी तेज़ दौड़ती रेल के जैसी ही लग रही थी, जो सदियों से एक अनवरत यात्रा में थी। उसका वेग भले ही कम या ज्यादा हुआ
हो, पर वह कभी किसी स्टेशन पर ठहरी नहीं थी। सदियों के इस सफ़र में उसके साथ बहे जा रहे पत्थरों
और रजकणों को नहीं पता था कि उसके किनारों पर बने घाटों ने कितने मिथक गढ़ कर उसमें
बहा दिए हैं। उसकी उछलती-कूदती लहरें भी नहीं जानती थी कि वह कितनी सच्ची-झूठी कहनियाँ
अपने सिर पर ढोए लिए जा रही हैं। धीरे-धीरे रेल की पटरियाँ गंगाकी ओर मुड़ गईं।
अब ट्रेन
गंगा के ऊपर से गुज़र रही थी। पुराना लोहे का पुल, उसकी आड़ी-टेड़ी शहतीरें, ट्रेन की
गति के साथ नगाड़े-सी बज रही थीं। लोग सिक्के, फूल-मालाएं खिड़की से बाहर उछाल कर नदी
में फेंक रहे थे। मौसम की नमी प्रतिभा की आँखों में सिमट आई थी। बनारस पीछे छूट गया
था, पर घाट पर जलती चिताओं का धुआँ अभी भी प्रतिभा के भीतर घुमड़ रहा था। गाड़ी गंगा
को सीधी रेखा में काटती, पुल पर धड़धड़ाती हुई, दूसरे किनारे की ओर बढ़ रही थी। नदी के
प्रवाह और गाड़ी की गति का शोर आपस में मिलकर अपने चरम पर पहुँच गया था, पर इस शोर में
भी कुछ शब्द प्रतिभा के कानों में गूँज रहे थे,''ये शूद्र हैं''……''ये शूद्र हैं''।
प्रतिभा ने खिड़की के सींकचों को कस कर पकड़ लिया।
वह जिस गाड़ी पर सवार थी उसे रोका जा सकता था, पर पुल के नीचे बहती गंगा को रोककर नहीं
पूछा जा सकता था कि क्यूँ ढोती हो तुम अपने सिर पर ऐसी नापाक कहानियाँ। वह चीख-चीख
कर कहना चाहती थी कि हाँ मैं शूद्र हूँ। शूद्र माने पैर। सभ्यताओं के पैर, जिनपर चलकर
पहुँची हैं वे यहाँ तक। वह अपने हाथों से पानी उलीचकर धो डालना चाहती थी एक-एक घाट।
वह पछीट-पछीट कर धोना चाहती थी संस्कृतियों और संस्कारों पर चढ़ी सदियों की धूल। वह
चलती ट्रेन से नदी में छलाँग लगा देना चाहती थी। पर वह स्वयं को संयत करती हुई, गंगा
के प्रवाह को देखने लगी । उसे लगा जैसे गंगा की लहरों पर रणवीर की कही बातें तैर रही
थीं। सच ही कहा था रणवीर ने ‘वे नहीं बदलेंगे, वे नहीं समझेंगे’’। यह तो बस उसी की
ज़िद थी जो वह
रणवीर के साथ अपने तीन साल के बेटे आशीष को लेकर रणवीर के पिता के अन्तिम संस्कार के
लिए बनारस आई थी, पर यहाँ आकर उसने जो कुछ भी देखा-सुना था, उसने उस ज़मीन को हिला कर
रख दिया था, जिस पर उसका और रणवीर का रिश्ता खड़ा था, जिस पर उसके छोटे से परिवार की
नींव रखी थी।
प्रतिभा को
आज भी वह दिन याद था जब रणवीर के घरवालों तक यह खबर पहुँची थी कि वह अपने साथ पढ़नेवाली
एक ऐसी लड़की से प्यार करता है और उसी से शादी भी करना चाहता है, जो जाति से शूद्र है।
सुनकर उसके घर वालों को जैसे साँप सूंघ गया था। अनायास ही उनकी आने वाली कई पीढ़ियों
की मोक्ष प्राप्ती संकट में पड़ गई थी। ठाकुर परिवार के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ
था जब उनके कुल के किसी लड़के ने अपनी जाति से बाहर की किसी लड़की से शादी करने की बात
सोची थी। रणवीर को तुरन्त बनारस बुला लिया गया था। वहाँ रणवीर के साथ क्या हुआ प्रतिभा
नहीं जानती थी। उसने कानपुर आकर प्रतिभा को बस इतना ही बताया था कि उसके चाचा और बड़े
भाइयों का कहना है कि लड़की अगर बामन या बनिया होती तो सोच भी सकते थे, पर शूद्र? यह
तो हो ही नहीं सकता। पर रणवीर अपने निर्णय पर अड़े रहे और उन्होंने प्रतिभा के साथ अपने
विवाह की तारीख निश्चित कर, अपने घर सूचना भेज दी थी।
उन दोनो का
विवाह कानपुर के एक आर्य समाज मंदिर में कुछ मित्रों और प्रतिभा के रिश्तेदारों की
उपस्थिति में संपन्न हुआ था। रणवीर के घर से कोई भी नहीं आया था, पर उस दिन जब वे मंदिर
से निकल ही रहे थे कि रणवीर के पिता हृदयनाथ सिंह मंदिर पहुँच गए थे। प्रतिभा ने उन्हें
पहली बार देखा था। उन्हें वहाँ देखकर उसका मन कई आशंकाओं से भर गया था, पर क्षण भर
में ही उनके सरल व्यक्तित्व और वात्सल्य भरी मुस्कान ने उसकी सारी आशंकाओं को दूर कर
दिया। रणवीर और प्रतिभा ने जब आगे बढ़कर उनका आशीर्वाद लिया, तो उन्होंने दोनो को गले
लगा लिया। वह बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में समाज शास्त्र के पढ़ाते थे। रणवीर ने प्रतिभा
को पहले
ही बताया था कि उसके परिवार में एक वही हैं जिन्होंने बदलते
समय में पुरानी मान्यताओं को तोड़कर नए मूल्यों को अंगीकार किया था वर्ना उसके परिवार
में बाकी सभी लोग आज भी सदियों पुराने खूंटे से बंधे, सड़ी-गली मान्यताओं की जुगाली
कर रहे थे। उन्होंने उस दिन चलते हुए प्रतिभा और रणवीर से बस इतना ही कहा था, ‘‘बहुत
कठिन राह चुनी है तुम दोनो ने, पर एक दूसरे का साथ देने के अपने संकल्प को कभी डिगने
मत देना। अभी मैं चलता हूँ, तुम्हारी माँ को समझाऊँगा। उनके मानते ही, मैं तुम्हें
पत्र लिखूँगा। तुम दोनो घर आना।’’ रणवीर के पिता हृदयनाथ सिंह से हुई इस छोटी–सी मुलाकात
से प्रतिभा को अपनी शादी पूर्ण लगने लगी थी।
उसके बाद चार
साल बीत गए, ना तो रणवीर के परिवार वाले माने और ना ही रणवीर के पिता का अपने बेटे
और बहू को घर बुलाने के लिए कोई पत्र ही आया। हालाँकि इस बीच जब उनके बेटे आशीष का
जन्म हुआ तो प्रतिभा का रणवीर के परिवार वालों से मिलने का बहुत मन था। यह अपने बेटे
को उसकी जड़ों से जोड़ने की एक नैसर्गिक ईच्छा थी या कुछ और वह नहीं जानती थी, पर उसने
एक बार बनारस चलकर रणवीर से अपने भाइयों, चाचाओं और माँ से मिलकर, उन्हें मनाने की
बात की थी, जिसपर रणवीर ने यही कहा था, ‘’वे नहीं समझेंगे, वे नहीं बदलेंगे। तुम उन
लोगों का मनोविज्ञान नहीं समझतीं। वे हमारी तरह नहीं सोचते। हम कुछ भी कर लें वे नहीं मानेंगे।’’ उस समय प्रतिभा
रणवीर की बात सुनकर चुप हो गई थी, पर वह उसके जवाब से संतुष्ट नहीं थी। इन वर्षों में
प्रतिभा के मन में कई प्रश्न डूबते-उतराते रहे। परन्तु जब एक दिन अचानक ही रणवीर को
उसके एक मित्र ने आकर सूचना दी कि उसके पिता का हृदय गति रुकने से देहान्त हो गया है
तथा यह सूचना उसे फोन पर उसके ही घर वालों ने दी है और यह भी कहा है कि यदि रणवीर चाहे
तो अपने पिता के अन्तिम संस्कार में शामिल हो सकता है, तब रणवीर के मना करने पर भी
प्रतिभा ने उसके साथ जाने का निश्चय कर लिया था। उसके सामने रणवीर के पिता की मुस्कान
तैर रही थी। उसे लग रहा था मानो वह कह रहे हों कि तुम चिन्ता मत करना मैं तुम्हें घर
बुलाने के लिए पत्र ज़रूर लिखूँगा। रणवीर के लाख समझाने पर भी प्रतिभा नहीं मानी। रणवीर
और प्रतिभा अपने बेटे आशीष के साथ रात में ही बनारस के लिए चल दिए थे।
बनारस पहुँचने
पर उन्हें पता चला कि पिता जी को अंतिम संस्कार के लिए गंगा किनारे घाट पर ले जाया
जा चुका है इसलिए उनके अंतिम दर्शन के लिए उन्हें सीधे घाट पर ही पहुँचना होगा। उन्होंने
वैसा ही किया। वे सीधे घाट पर पहुँचे। उस घाट पर, जहाँ विशेष लोगों के दाह संस्कार
की विशेष व्यवस्था थी। वहाँ पहले से ही कुछ चिताएं जल रही थीं। हवा में नमी होने के
कारण लपटें कम और धुआँ ज्यादा था। लोग लाख और देशी घी चिताओं पर डाल कर आग भड़का रहे
थे। मंत्रों की गूँज और चिताओं की तपिश में वहाँ उपस्थित लोगों के चेहरे लाल हो गए
थे। चिताओं से उठते धुएं के बादलों के बीच, पंडितों के मुँह से निकले मंत्र बिजली से
तड़क रहे थे।
रणवीर के
पिता की चिता लगाई जा रही थी। उनका शव अर्थी समेत पृथ्वी पर रखा था। उनका चेहरा शान्त
और निर्लिप्त था, पर होंठ खुले हुए थे। आखिरी बार अपने इन होंठो से उन्होंने क्या कहा
होगा। क्या उन्होंने रणवीर और प्रतिभा को याद किया होगा। यही सोचते हुए प्रतिभा ने
रणवीर के साथ उनके आगे हाथ जोड़े और अपनी आँखें बन्द कर लीं। प्रतिभा को
रणवीर के पिता से हुई अपनी पहली और आखिरी मुलाकात याद हो आई। उन्होंने स्वयं आगे बढ़कर
उसे गले लगा लिया था।
रणवीर के बड़े भाई पिंडदान कर रहे थे।
प्रतिभा को
लग रहा था जैसे उनके वहाँ पहुँचने पर मंत्रोच्चार और तेज़ हो गया था, पर इस सब की ओर
ध्यान ना देते हुए वह एकटक रणवीर के पिता को ही देख रही थी। वह रणवीर की ही तरह लम्बी-चौड़ी
कद-काठी के आदमी थे। अनायास ही प्रतिभा का ध्यान उनके लिए बनाई जा रही चिता पर गया।
उसकी लम्बाई उनके कद से बहुत कम थी। उसे वह चिता बहुत छोटी लग रही थी। प्रतिभा के लिए
यह सब बिलकुल नया और अपरिचित था। वह दुख और कौतुहल से भरी थी। फिर भी उसका मन एक व्यर्थ जान पड़ते प्रश्न से उलझ रहा था। बार-बार उसे यही
लग रहा था कि इतनी छोटी चिता पर इतने बड़े व्यक्ति के शव को कैसे लिटाया जा सकेगा।
तभी पंडितों
ने मंत्रोच्चार रोक दिया, रणवीर के बड़े भाई ने कुछ लोगों की सहायता से शव को चिता पर
लिटा दिया। पिताजी के पैर घुटनों से मुड़े हुए, चिता से बाहर लटक रहे थे। उनके शरीर
को धीरे-धीरे लकड़ियों से ढका जाने लगा। चिता को अग्नि दे दी गई। पर पैर? वे अब भी बाहर लटक रहे थे।
चिता के आग
पकड़ते ही, चिता से बाहर लटकते पैरों की त्वचा का रंग बदलने लगा। वे पहले पीले,…फिर
भूरे और धीरे-धीरे काले होने लगे। वही पैर जो जीवन भर पूरे शरीर का बोझ उठाते रहे,
जो पूरे व्यक्तित्व को ज़मीन से ऊँचा किए रहे। वही पैर अपनी ही देह से तिरस्कृत, चिता
से बाहर झूल रहे थे। झुलस रहे थे। चमड़ी के जलने की गंध चारों ओर फैलने लगी। घी के पड़ते
ही चिता से लपटें उठने लगीं। तभी एक पैर घुटने से टूटकर ज़मीन पर खिसक गया। दूसरा भी
टूटकर ज़मीन पर गिर पाता कि अंतिम क्रिया कर रहे रणवीर के भाई ने दो लम्बे बांसों की
कैंची बनाकर पैरों को पकड़ा और एक –एक कर चिता में झोंक दिया। प्रतिभा के मुँह से चीख
निकल गई। वह थर-थर काँप रही थी। चिता के ऊपर पड़े दोनो पैर धूँ-धूँ करके जल रहे थे।
प्रतिभा की
चीख सुनकर अंतिम संस्कार करा रहे पंडित ने बड़े ही कड़े स्वर में कहा, ‘पैर जीवन भर धरती
पर चलते हैं। यह शुद्ध-अशुद्ध हर तरह की वस्तु और स्थान के संपर्क में आते हैं। ये
शरीर का बोझ उठाने के लिये बने हैं। आगे की यात्रा में पैरों की आवश्यकता नहीं होती।’ बोलते हुए उनकी आँखों में चिता की लपटें चमकने लगी
थीं।
प्रतिभा की
आँखों से गंगा छलछला रही थी। पंडित ने बादलों की तरह फिर गर्जना की, ‘एक व्यक्ति को
अपने जीवन में कई प्रकार के कर्म करने होते हैं। वह अपने सिर से ब्राह्मण का कर्म करता
है, भुजाओं से क्षत्रियों का, उदर के लिए उसे वैश्य का कर्म करना पड़ता है। पर पैर?
ये शूद्र हैं।…इन्हें बाकी शरीर के साथ नहीं जलाया जा सकता। जब सिर, भुजाएं और उदर
जल जाता है, जब आत्मा शरीर के मोह से मुक्त होकर अनंत यात्रा पर निकल जाती है, तब इन्हें
भी बिना स्पर्श किए लकड़ी की सहायता से अग्नि में डाल दिया जाता है।’
रणवीर ने
अपने बेटे को गोद में लेकर उसका मुँह दूसरी ओर फेरा और आँखें मूंद लीं। फिर भी उसकी
आँखों में पिता के पैर बार-बार कौंध रहे थे। उसने उन पैरों को आखिरी बार अपनी शादी
के समय छुआ था। जीवन में कितने सफ़र तय किए थे, इन्हीं पैरों के निशानों का पीछा करते
हुए। रणवीर ने अपनी आस्तीन से आँसू पौंछते हुए प्रतिभा की ओर देखा। वह अभी भी रणवीर
का हाथ पकड़े काँप रही थी, फिर भी उसने हिम्मत बटोरकर रणवीर के कान में फुसफुसाते हुए
कहा, ‘पर मैंने तो ऐसा कहीं नहीं देखा’।
पंडित
ने ऊँचे स्वर में आगे कहना शुरू किया, ‘बहुत से लोगों ने संसार में बहुत कुछ नहीं देखा,
इसी कारण वे अज्ञान के अंधकार में अपना जीवन बिता रहे हैं। उन्हें नहीं पता वे अपना
लोक ही नहीं, परलोक भी नष्ट कर रहे हैं’। उन्होंने रणवीर की ओर देखते हुए कहा, ‘शूद्र
की छाया भर पड़ने से वैतरणी पार करने में बाधा पड़ जाती है। भवसागर को पार करना कोई नदी-नाला
पार करना नहीं है। उसे पार करने के लिए कोई पुल, कोई गाड़ी, कोई साधन नहीं है, सिवाय
अपने धर्म पालन के, सारे कर्मकांड पूरे करने के और अंतिम संस्कार? यह तो वह संस्कार
है जिसमें रत्तीभर चूक से, व्यक्ति की आत्मा युग-युगान्तर तक प्रेतयोनि में भटकती रहती
है। पूरे ब्रह्माण्ड में कोई उसे वैतरणी पार नहीं करा सकता। कोई उसे मोक्ष नहीं दिला
सकता। यह तो इसी स्थान की महिमा है, जहाँ इतने विधि-विधान पूर्वक यह संस्कार संभव है’।
प्रतिभा की आँखों में गंगा जैसे ठहर गई थी। उसकी लहरों का
कोलाहल शान्त हो गया था।
घाट पर सदियों
से जलती चिताओं की राख धीरे-धीरे आसमान से गिरकर सबके चेहरों पर बैठती जा रही थी। लोगों
के मुँह काले हो रहे थे। उनकी आँखें चारों ओर फैले काले धुएँ और चमड़ी के जलने की गंध
के बीच, स्वर्ग में खुलने वाले किसी दरवाज़े को तलाश रही थी, पर उस धुंध में वे कोई
रोशनी नहीं खोज पा रही थीं।
गंगा अब भी वही जा
रही थी-निर्लिप्त-सी। किसी समारोह में प्रतिभा को अपना ही गाया हुआ, भूपेन हजारिका का
वह गीत याद आ रहा था- ऐ गंगा तुम बहती हो क्यूं…? विस्तीर्ण दोनो पाट, …असंख्य मनुष्यों का हाहाकार सुनकर भी, बही जा रही हो। इतने अन्याय-अविचार पर
तुम सूख क्यों नहीं जातीं?
गाड़ी गंगा के
दूसरे छोर पर पहुँच गई, लोहे का पुल पीछे छूट गया। गाड़ी ने कुछ ही समय में ही गंगा
पार कर ली थी। पर वैतरणी?
प्रतिभा ने ज़ोर से सिर को झटका।
सामने की बर्थ
पर रणवीर और उसका बेटा आशीष दोनो ही गहरी नींद में थे। उसे रणवीर के पिता हृदयनाथ सिंह
की मुस्कान बार-बार याद आ रही थी। उन्होंने उसे कितने स्नेह से गले लगा लिया था। उनकी
मुस्कान में जैसे पूरा बनारस सिमट आया था, जिसे देखकर उसकी पकड़ लोहे के सींकचों पर
ढीली पड़ गई। उसके चेहरे की माँसपेशियों का तनाव कम होने लगा। आँखों की नमी धीरे से
गालों पर उतर आई। प्रतिभा ने बैग से चादर निकाली और एक दूसरे से चिपटकर सो रहे अपने
पति और बेटे को ओढ़ा दी। अब प्रतिभा अपनी सीट पर बैठी मुस्करा रही थी।
नदी के पीछे
छूट जाने पर, हवा में नमी कुछ कम हो गई थी। दूर तक खुले आसमान के नीचे हरी ज़मीन फैली
थी, जिसके पार प्रतिभा की अपनी एक दुनिया थी, जिसमें अपने परिवार के साथ रहते हुए उसे
कभी मोक्ष पाने और वैतरणी पार करने की चिन्ता नहीं करनी पड़ती थी।
……तभी उसने देखा था। सामने की सीट पर गहरी
नींद में सो रहे रणवीर और आशीष के ऊपर फैली सफेद चादर पर रणवीर के पिता हृदयनाथ सिंह
की मुस्कान निषप्रभ भाव से धूप के छोटे से फूल की तरह खिली हुई, विश्राम कर रही थी।परिचय
विवेक मिश्र
विज्ञान में स्नातक, दन्त स्वास्थ विज्ञान में विशेष शिक्षा, पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नात्कोत्तर। एक कहानी संग्रह-‘हनियाँ तथा अन्य कहानियाँ’ प्रकाशित। 'हनियां', 'तितली', 'घड़ा', 'ऐ गंगा तुम बहती हो क्यूँ?' तथा 'गुब्बारा' आदि चर्चित कहानियाँ। लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं व कहानियाँ प्रकाशित। साठ से अधिक वृत्तचित्रों की संकल्पना एवं पटकथा लेखन। 'light though a labrynth' शीर्षक से कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद राईटर्स वर्कशाप, कलकत्ता से तथा कहानिओं का बंगला अनुवाद डाना पब्लिकेशन, कलकत्ता से प्रकाशित।
विवेक मिश्र
विज्ञान में स्नातक, दन्त स्वास्थ विज्ञान में विशेष शिक्षा, पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नात्कोत्तर। एक कहानी संग्रह-‘हनियाँ तथा अन्य कहानियाँ’ प्रकाशित। 'हनियां', 'तितली', 'घड़ा', 'ऐ गंगा तुम बहती हो क्यूँ?' तथा 'गुब्बारा' आदि चर्चित कहानियाँ। लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं व कहानियाँ प्रकाशित। साठ से अधिक वृत्तचित्रों की संकल्पना एवं पटकथा लेखन। 'light though a labrynth' शीर्षक से कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद राईटर्स वर्कशाप, कलकत्ता से तथा कहानिओं का बंगला अनुवाद डाना पब्लिकेशन, कलकत्ता से प्रकाशित।
विवेक मिश्र,123-सी,पाकेट-सी,मयूरविहार
फेस-2,
दिल्ली-91,मो:-9810853128
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