Tuesday, August 27, 2013

‘अन्हियारे तलछट में चमका ’-अल्पना मिश्र


अल्पना मिश्र के उपन्यास  ‘अयारेन्हि तलछट का ’ में चमका अंश -    
आधार प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य
फूल लाया हूँ   कमल के.....
_____________________

- अल्पना मिश्र






हिंदी कहानियों में अल्पना मिश्र एक स्थापित नाम हैं ..अपने तीन कहानी संग्रहों के बाद पहली बार वो एक उपन्यास के माध्यम से हमसे मुखातिब हैं ..."भीतर का वक्त", "छावनी में बेघर", "कब्र भी, कैद औ जंजीरें भी" कहानी संग्रह के बाद आधार प्रकाशन से उनका पहला उपन्यास ‘अन्हियारे तलछट में चमका ’ शीघ्र प्रकाशित होने वाला है !

उपन्यास का कुछ अंश आप फरगुदिया पर पढ़ सकतें हैं .. अल्पना जी का आभार
!



    यह भी एक उमस भरी दोपहर थी। दिन भर के काम धाम से थकी सुमन खटिया के पायताने सिर टिका कर बैठी थीं। कहीं अदृश्य में उनकी दृष्टि अटकी थी। कभी कभी माथे पर अंगुलियों और अंगूठे से थोड़ा दबाव डालती थीं । कोई दर्द वहा बैठा था, ऐसा लगता था। दो एक बार खटिया के पायतान पर सिर टिकाए सोने का प्रयत्न भी कर चुकी थीं। पर उमस इतनी थी कि सोना मुश्किल लगता था। दूसरे, खटिया पर लेटी उनकी सास उनके सोने के प्रयत्न को विफल कर देती थीं। तत्क्षण उन्हें हल्का सा धक्का दे कर उठा देतीं ओर पंखा झलने का संकेत करतीं। उसी पंखे के सहारे तो वे जरा सा झपकी ले पा रही थीं। बेंत या बाॅस से बुना और रंग बिरंगे कपड़ों की झालर से सजा पंखा नहीं था, अखबार था, जिसे मोड़ कर पंखा बना लिया गया था। इसी से वे खाट के उपर के प्राणी को हवा कर रही थीं। बीच बीच में यह हवा अपनी ओर भी कर लेती थीं। उसी बीच में खाट का प्राणी झल्ला उठता-‘‘तनि हवा करतू!’’

वे फिर अपना सिर सहलाने और हवा को अपनी तरफ करने के प्रति लापरवाह हो उठतीं।
‘‘हे प्रभु!’’ धीरे से उनके मुॅह से निकला। इसका अर्थ ‘ईश्वर’ नहीं था। इसका अर्थ ‘थकान’ था। ‘प्रभु’ का अर्थ ‘थकान’ हो सकता था, यह सोच कर उन्हें बहुत राहत मिली।

उसी पतले से बारामदे में कपड़े पर बना एक पुश्तैनी दीवार चित्र टॅगा था। यह चित्र मटमैला हो चुका था। यह भी इतिहास का हिस्सा था, चित्र भी और उसका मटमैलापन भी। इस इतिहास को मुन्ना जी के पिता जी, उनके छोटे भाई गिरधारी तिवारी और उनके अन्य भाई और उसके बाद की पीढ़ी गाहे बगाहे सुनाती रहती थी। यह इतिहास जितना सच था उतना ही यह भी सच था कि इस सच्चाई का कोई गवाह था, इसका इतिहास नहीं था। हर कोई किसी गवाह की बात करता था। पर कौन, यह तय नहीं हो पाता। फिलहाल लोगों ने इसे कथाओं और उपकथाओं के घालमेल में से अपने अपने अनुसार निकाल लिया था।

तो बात कुछ इस तरह कही जाती थी कि एक बार बड़के बाबा मतलब गिरधारी तिवारी के पिता जी के पिता के सबसे बड़े भाई बाॅके बिहारी जी के मंदिर से लौट रहे थे, तब रास्ते में परेशान हाल कलकत्ते का सेठ उनसे टकरा गया। हर साल वह बाॅके बिहारी जी से मनौती मान कर जाता था। लेकिन बात बनती नहीं थी। उसका मुकदमा बीसों साल से चल रहा था। कुल धन सम्पत्ति तीव्र गति से इस पर न्यौछावर होती जा रही थी। मामला कंगाली तक न पॅहुच जाए, इस चिंता में सेठ गल रहा था। मुकदमा था उसकी पत्नी के घर वालों की तरफ से, जो यह मानते थे कि उसी ने अपनी पत्नी की हत्या की थी। वह ऐसा नहीं मानता था। बड़के बाबा से भावुक हो कर उसने बताया था कि भला वह क्यों अपनी पत्नी की हत्या करना चाहेगा? इतना काम संभालने वाली औरत थी। कितना पैसा खर्च कर लो, वैसा काम नौकर नहीं कर सकता! फिर अपनी जोरू थी तो कभी कभार किसी बात पर हाथ उठ जाता था। यह भी कोई नई और बड़ी बात नहीं थी। उस दिन जरा ज्यादा चोट लग गयी होगी। हाथ गले पर था, आवेश में जरा ज्यादा दब गया होगा। इतनी सी बात का बतंगड़ बना कर रख दिया है उसके घरवालों ने! उन्हें भी कौन सा प्यार मोहब्बत गलाए जा रहा है? चाहते हैं कि मैं कुछ ले दे के बात रफा दफा कर दूं। पर मैं भी अड़ गया हॅू, कानून के हाथों बरी हो कर निकलूंगा, तब देखेंगे, एक कौड़ी उनके हाथ नही आयेगी, उल्टा उनका भी पैसा ऐसे ही लगेगा, जैसे कि मेरा बहा जा रहा है।’’

बहुत भावुक हो कर सेठ ने कहा-‘‘ कुछ भी कहो, मगर थी तो अपनी बीबी। मैं जैसे चाहता, वैसे रखता। इसमें उसके मायके वाले क्यों कूद पड़े? यही बात गले का कांटा है पंडित जी। मैं तो इन मायके वालों को ही उसकी मौत का जिम्मेदार मानता हॅू। जब तब उसे भड़काते रहते थे और उसे भी देखो तो अपने पति परमेश्वर से ज्यादा मायके वालों की बातों पर यकीन कर लेती थी। यही सारे झगड़ा फसाद की जड़ था।’’
भावातुर सेठ जी रोने को हो आए थे। कहने लगे-‘‘ पंडित जी, भोली थी मेरी बीबी। उसके मायके वालों ने उसे चढ़ाया। शुरू में कुछ न बोलती थी लेकिन इन सबों के बहकावे में आ कर अनाप शनाप बकने लगी। आप ही बतावें, जो खाना दे, पहनने को दे, रहने को हवेली दे, गहने गढ़वावे, उसी को अनाप शनाप.... बतावें, कितना सहन करेगा आदमी? गुस्सा न आयेगा? बस, यही बात थी। मूल दोष उन्हीं लोगों का था और अब मुझे फॅसाना चाहते हैं। मैं भी छोड़ने वालों में से नहीं हॅू। आप से सब सच कह दिया है। बाकी बाॅके बिहारी की कृपा ।’’
बड़के बाबा उसके दुख से दुखी हुए। दुखी हो कर पूछा था कि ‘‘अपनी बीबी थी तो मायके वालों के चक्कर में पड़ने क्यों दिया? मायके वाले तो होते ही ऐसे हैं, दामाद के दुश्मन। उपर से खातिरदारी करते हैं मगर भीतर भीतर घात करते हैं।’’

यह बात सेठ के दिल को छू गयी। वह उनके पैरों पर झुक आया।
‘‘बाबा, आप तो पंडित हैं। आशीर्वाद दें कि मैं इस झंझट से निकल जाउं।’’
बाबा ने अश्रुपूरित नेत्रों से आशिर्वचन उचारे। और संयोग ऐसा बना कि आशीष फलीभूत हो गया। साल बीतते न बीतते सेठ की बीबी का वह भाई, जो जी जान से मुकदमा संभाले था, मर गया और सेठ का मुकदमा मुअत्तल हो गया। सेठ बड़के बाबा को ढ़ूढते हुए आया और गद्गद् भाव से उनके पैरों पर गिर पड़ा। उसकी धन दौलत स्वाहा हो चुकी थी। यही एक पेंटिग थी, जिसे वह गुजरात से लाया हुआ बताता था, उसने आॅखों में आॅसू भर कर बाबा को भेंट किया था। बाॅके बिहारी के प्रति अगाध श्रद्धा इसमें से झलकती थी। मानने वाले ऐसा मानते थे। दूसरा पाठान्तर भी था।

चित्र में बाॅके बिहारी भाव विह्वल से, कमल का फूल थामे खड़े हैं। राधा रानी उनकी तरफ केश खोले, मुॅह दूसरी तरफ किए खड़ी हैं मानो कह रही हों कि ‘लो सजा दो मेरे केश....’
इस पर दूसरे पाठान्तर वालों ने कहा कि ‘जनौ सेठवा बड़ा रसिक रहा। और कौनो चित्र ओकरा के न सूझल!’
कोई कहता-‘‘ का हो, सेठवा भक्त रहल कि प्रेमी? जनात नाहीं! अइसन चित्र भेंट कइलस?’’
‘‘प्रेम भी भक्ति का रूप है।’’ कोई बुजुर्ग टोकता।
‘‘काहे झूठ बोलत हउवा? ननकी के बेरा कइसन गड़ासा ले के काटे दौड़ले रहला!’’ कोई युवा चिढ़ाता।
‘‘चुप सार! जबान लड़ावत हउवा!’’
‘‘सही बात बोले पे डटबा?’’ कोई दूसरा बच्चा मजे ले कर कहता।
विवाद बढ़ने लगता तो बीच में गाने का स्वर गूंजने लगता। पता चलता कि दामोदर जी गा रहे हैं-‘‘ झूठे रे जग पतियाओ.... साॅच कहे तो मारन धायो.... साॅच कहे तो...... झूठे रे जग पतियाओ.....
यह आग लगउवा गीत था। इस पर जो भी पुरानी पीढ़ी का सामने पड़ता, चाहे वह ज्यादातर दूसरे लोक की यात्रा में लीन गिरधारी तिवारी ही क्यों न हों, दो चार गाली दिए बिना न टलता।
‘‘बुढ़वन से गाली गुफ्ता का औरो मजा हौ।’’ मनोहर पूरी मस्ती में कहते।

चित्र चूॅकि वहीं रूक गया था और पाठान्तर को जन्म देता था, इसलिए कल्पना में लोगों ने कृष्ण के एक कदम आगे बढ़ जाने और कमल के बालों में लग जाने को भी सराह लिया था या न लग पाने की कचोट में भी कुछ रह गए थे। इस सब के बावजूद चित्र की साफ सफाई पर किसी का ध्यान नहीं था। चित्र मटमैला हो चुका था। कई जगह से उसके असली रंग का अनुमान नहीं हो पाता था। बल्कि कालान्तर में ऐसा भी होता गया था कि लोगों के ध्यान से उतर गया था कि यहाॅ ऐसा मनोरम भाव चित्र टंगा है! वे भूल चुके थे। भूले हुए उसके सामने से गुजर जाते थे। अभी इस वक्त भी चित्र के सामने दो व्यक्ति चित्र से बिल्कुल ही अनजान गर्मी से परेशान से, कुछ आराम का उपक्रम करने में लगे थे।

ठीक इसी समय दामोदर जी उधर से गुजरे। उनके हाथ में शनि महाराज को चढ़ाने के लिए लाए गए गेंदे के फूल थे। कत्थई पीली पंखुडि़यों वाले। उन्होंने अपनी हथेली का दोना बना कर उसे संभाला था। ये फूल मामूली नहीं थे। किसी के घर की चारदीवारी फाॅद कर उनके गमले में से चुराए गए थे। इसे चारी नहीं कहते थे। इसे चैर्य कला कहते थे। इस कला पर दामोदर जी को अभी फिलहाल नाज़ था। दुनिया इधर से उधर हो जाए पर शनि देवता के लिए फूल चाहिए ही थे। इसके लिए कई बार किसी छोटे बच्चे को बहलाना फुसलाना भी पड़ा था। आज दोपहर के इस वक्त कैसा मौका हाथ लग गया था। वे मन ही मन मुस्कराते हुए गुजर रहे थे कि उनके पाॅव से कोई चीज टकराई। झुक कर देखने लगे कि ससुर है क्या? पाया कि बिलार कल जो कटोरा ले कर भाग गयी थी और जिसके लिए बड़ा कोहराम मचा था, वही कटोरा पड़ा है। वे एक पल को खुश हुए। इसी के लिए त्राहि त्राहि मची थी लेकिन तत्क्षण उनकी खुशी स्थगित हो गई। उसमें रखा बड़की अम्मां का दाॅत वाला डेंचर तो था ही नहीं! चारों तरफ देखा। क्या पता यहीं कहीं पड़ा हो! बिलार का क्या ठिकाना? कहीं छोड़ गयी हो!
इसी चारों तरफ डेंचर की ढ़ूढाई में उनका ध्यान दीवार चित्र की तरफ चला गया। वे पल भर को रूक गए। पहली बार उन्होंने चित्र को इतने गौर से देखा। पहली ही बार उन्हें सचमुच अफसोस हुआ कि कृष्ण कमल का फूल ले कर वर्षों से रूके रह गए हैं। पहली ही बार उन्हें राधा रानी के चेहरे के भाव नजर आए। मनोरम तृप्ति से जगमगाता उनका चेहरा.... वे मंत्रमुग्ध खड़े रह गए। पहली ही बार उनका मन इस तरह भर आया कि वे कृष्ण के देर करने पर खीझे और फूल उनसे ले कर उन खुले सघन केशराशि में सजा देने को एक कदम आगे बढ़े। राधा का प्राचीन वैभव धीरे धीरे उनके आगे साकार होने लगा....

 सामने खटिया के पायताने सिर टिकाए सुमन की आॅख पल भर को लग गयी थी। पंखा बना अखबार हाथ में तब भी झूल रहा था। पसीने की झिलमिलाती बूंदें उनकी आॅखों के नीचे और ढोड़ी पर चमक रही थीं। सुन्दर नील कमल सी उनकी साॅवली त्वचा लावण्य से भर उठी थी। ‘सुन्दर नील कमल’ दामोदर जी के मन में कौंधा। साड़ी का पल्ला हल्का सा नीचे खिसक आया था। बेध्यानी में दो सुन्दर कलश हल्का हल्का हिल रहे थे। सांस की आती जाती गति से नाक भी हल्का हल्का कंपायमान थी। नाक पर नकली पत्थर से मढ़ी लौंग थी। नकली पत्थर किसी असली हीरे सा जगमगा रहा था। पाॅव ढका था पर अंगुलियाॅ थोड़ा थोड़ा झाॅक रही थीं। खुली झाॅकती अंगुलियाॅ किसी बच्चे सी नटखट लग रही थीं। ब्लाउल की काॅख पर पसीने का बड़ा सा गोला उभर आया था। थकी हुयी उंघती स्त्री, इससे पहले कभी उनके ध्यान में न आयी थी। थकान भी इतनी सुंदर हो सकती है, पहली बार दामोदर जी देख रहे थे। खिंचे, बॅधे, चित्रलिखित से.....। थकान के इस पल का नाम राधा रानी भी हो सकता था! या राधा रानी का पर्याय थी थकान! अब तक जैसे उन्होंने यह दीवार चित्र देखा ही न था! अब तक जैसे उन्होंने इतनी पस्त स्त्री देखा ही न था! उनकी हथेलियों का दोना कत्थई पीली पंखुडि़यों वाले फूलों से भरा था। वे एक कदम आगे बढ़े, फिर हिचक गए। नहीं, इस पल के विश्राम को किसी भी थके आदमी से नहीं छीना जा सकता!

उन्होंने आॅखे मूंद लिया। हृदय में राधा रानी जाग उठीं। उनकी हथेलियों से कब कत्थई पीली पंखुडि़यों वाले फूल धीरे धीरे राधा रानी की अभ्यर्थना में गिरने लगे, उन्हें ख्याल तक न रहा।
कत्थई पीली पंखुडि़यों वाले फूलों के खुली अंगुलियों पर गिरने से तत्क्षण राधा रानी की आॅखें खुल गयीं। तत्क्षण दामोदर जी की भी आॅख खुल गयीं।


- 55 कादम्बरी अपार्टमेंट
सेक्टर - 9 ,रोहिणी, दिल्ली- 85

मो. 9911378341




4 comments:

  1. upanyaas ke is ansh se to upanyas padhne ki ichcha jagrit ho gayi ab to padhna hi padega ..........aabhar shobha ji :) aap bahut badhiya karya kar rahi hain ..........sadhuvaad

    ReplyDelete
  2. Bahut sundar padh kr bhav vibhor ho gya hardik badhai ke sath aabhar.

    ReplyDelete
  3. कहने का ढंग बाँध लेता है। बहुत ही सुन्दर।

    ReplyDelete

फेसबुक पर LIKE करें-