Saturday, May 11, 2013

बेग़म एक हुकुम की उर्फ़ ब्लैक क्वीन - अनघ शर्मा


 बेग़म एक हुकुम की  उर्फ़ ब्लैक क्वीन - अनघ शर्मा  


कहने के लिए हमारा समाज शिक्षित और सभ्य है लेकिन इसी शिक्षित समाज में झूठे सम्मान  के लिए उन  युवा वर्ग को मौत के घाट उतार दिया जाता है  जो अपनी खुशियों के लिए समाज व परिवार के विरूद्घ कदम उठाते हैं.. ऑनर किलिंग पर आधारित युवा कहानीकार अनघ शर्मा की कहानी  "बेग़म एक हुकुम की  उर्फ़ ब्लैक क्वीन " जाती-व्यवस्था के जहरीले मकडजाल में उलझे एक युवा की बेहद संवेदनशील कहानी है ..



1

  ताश के पत्ते की गड्डी की तरह जिंदगी ने उसे फेंट कर जोकर सा बाहर फेंक दिया था।
ये लड़का जो किसी भी खेल में किंग मेकर की भूमिका निभा सकता था, जिंदगी के इस अजब खेल में जोकर बना मैदान के बाहर पड़ा था।
इस खेल का नाम प्यार था,और वो इस खेल में बुरी तरह हार चुका था।
उसने तो अब तक यही सुना था कि प्रेम में प्रतिद्वंदिता नहीं होती, पर सामने वाला पक्ष उसे प्रतिद्वंदी मान सबक सिखाने को उतारु था। कब मौका लगे और उसे पटखनी दी जा सके।

कैक्टस के झुर्रियां नहीं पड़ती कभी, किसी भी प्रजाति के नहीं। बस उम्र के निशान छोटी-छोटी कीलों की शक्ल में निकल आते हैं कैक्टस के चेहरे पर ....... और ग्वारपाठे की चिकनाई सारा खुरदरापन सोख लेती है। काश कोई ऐसा इलाज होता जो समाज में उपजे खुरदरेपन को मिटा पता।कभी पेड़ों को तो देखा नहीं यूँ लड़ते की तू फलां पेड़ है की तू फलां ..... ये बुरी लत इंसानों में ही क्यों पायी जाती है? गोल सड़क से उतरते हुए अजीत ने सोचा।पुरानी कमीज़ से जितना पानी टपक चुका था,उससे कहीं ज्यदा पानी उसकी आँख में था।तेज बारिश के बाद जमीन और भी भभक रही थी। मानो जैसे सूखे पत्तों को अभी और पतझड़ झेलना हो। उसे लगा अगर वो वहां और रुका तो पागल हो जायेगा। भाड़ में गयी उर्मिला उसने बुदबुदाते हुए कहा। वो पलटा और सड़क पर बेतहाशा भागने लगा।
उर्मिला दूसरी जात की थी और यही चीज़ अब उन दोनों के भविष्य में फांस सी थी।

    वो जब घर में घुसा तो पेट्रोमेक्स के हल्के पीले उजाले में घर की बारिश में भीगी दीवारें अजीब सा भय पैदा कर रहीं थीं। ये उसके शहर की खासियत थी की जरा बूंदाबांदी हुई नहीं की बत्ती गुल। उसने टिमटिमाते हुए उजाले में गौर से देखा बरामदे के एक कोने में खटोले पर पड़ी अम्मा सो रहीं थीं। अपनी दादी उसे हमेशा डाकखाने की इमारत सी लगती थीं। दोनों ही अपनी जर्जर अवस्था में कभी भी भरभरा कर गिरने के अंदेशे से ग्रसित थीं।
लम्बे बरामदे को पार कर जब वो अपने कमरे में पहुंचा तो माँ पहले से ही वहां उसका इंतज़ार कर रही थी।
चल खाना खा ले, बत्ती का तो कोई भरोसा नहीं।
पापा कहाँ है?
कारखाने, अभी कहाँ से आ जायेंगे।
तो छोटे वाले कमरे में कौन है?
मैनपुरी वाली जीजी, कल चले जाना उन्हें छोड़ने और कुछ दिन वहीँ रुक जाना। माँ ने थाली पकडाते हुए कहा। क्यों?
यहाँ माहौल ठीक नहीं है तुम्हारे लिए। कुछ दिन रह आओ, मामला ठंडा पड़े तो लौट आना। और फिर जीजी अकेली हैं तुम रहोगे तो कुछ दिन घर में जवान आदमी का सहारा रहेगा उन्हें।घर-बाहर के काम तो निबटा सकते हो उनके कम से कम, हमारे तो किसी काम आये नहीं तुम।
बिजली चमकी आँगन में खड़ा हरसिंगार घडी भर को दीखा और फिर अँधेरे में गुम हो गया।
माँ जूठे बर्तन समेट कर चली गयी थी, और अब वो अकेला था अपने कमरे में। इन दिनों ये अकेलापन उसे बहुत भाता था। उसने अँधेरे में टटोल कर अपना रेडियो उठाया। विविध भारती के स्टेशन पर लता की मीठी अवाज में गया गाना आ रहा था।
" मिले तो फिर झुके नहीं नज़र वही प्यार की"
पर इसी प्यार की नज़र के चक्कर में उर्मिला के घर वालों ने उसे पिछले हफ्ते कितना पीटा था। सेंट्रल टॉकीज़ के चौराहे पर लोग मजमा सा लगाये उसकी पिटाई देख रहे थे। कितनी शर्म आ रही थी उसे। अपने पिटने पर नहीं, पिटना तो प्यार में लाजिमी है। बल्कि अपनी छोटी जात का दुःख था उसे। वो जात ही क्या जो प्यार में बाधा बने, उसने सोचा। उसने करवट ली तो मुँह से एक टीस निकल गयी।
यदि मैं भारत का प्रधानमंत्री होता तो ..................
आज कल ऐसे दार्शनिक ख्याल बहुत आने लगे थे उसे, जो उसे खुद में एक हीरो पैदा करने के लिए झंझोड़ते थे।


वो पहले ऐसा नहीं था, आम लड़कों की तरह मस्तमौला था, पर पिछले दो सालों से जब से उर्मिला से मिला था तब से ऐसा दार्शनिक सा हो गया था।यूँ भी प्रेम में पड़ा हर लड़का दार्शनिक ही होता है, अपना खुद का एक दर्शन शास्त्र लिए, एक अनोखी आइडियोलॉजी लिए।


उर्मिला शहर के उस स्कूल में पढ़ती थी जिसके विद्यार्थी पीले-नीले रंग की यूनिफार्म पहन कर जाया करते थे। जो शहर की धारणा में सबसे महंगा था, और इंग्लिश मध्यम स्कूल या कान्वेंट कहलाता था। जो सिर्फ अमीर बच्चों के पढने के लिए बना था। और वो छोटे लाल इंटर कॉलेज में पढता था।
साथ वाले कमरे में किरायेदार का कोई बच्चा कुनमुनाया तो उसकी माँ ने थपकियाँ दे कर उसे फिर से सुला दिया। माओं की आधी जिंदगी अपने बच्चों को थपकाने में ही गुज़र जाती है उसने सोचा।


रात की चुप्पी को तोड़ती बूंदाबांदी फिर शुरू हो गयी थी। जब आधी रात गए बत्ती आई तो अम्मा ने अपने कांपते स्वर में आवाज़ लगाई ..... नैक मेरा पंखा चला जा रामसरन की बहू। माँ नहीं आई तो उसने बाहर आ कर पंखा चलाया। पूरा घर उसने देखा गहरी नींद में डूबा पड़ा था। वो अपने कमरे में लौटा और दिन भर की थकान से चूर तख्त पर लेटते ही सो गया।  


2

जुगनू या पटबीजने बरसात के गहरे अंधेरों में बहुत चमकते हैं। बीजना (हाथपंखा) हिलाती हवा इन्हें चौखाने या चारखाने में बँटी रात में इधर-उधर फ़ेंक देती है। ये गिरते हैं, भीगते हैं, फिर उठ कर जगमगाने लगते हैं। तांबे के रंग सा दिल जब उदासी के गहरे खून में डूबता है तो फिर न संभल पाता है, न धड़क पाता है, न जगमगाता है। दिल की नसें हमेशा की तरह खून की आवाजाही बनाये रखती हैं। कोई एक बड़ी नस चोरी से एक जुगनू छुपा कर रख लेता है, मौका-बेमौका जब कभी ये जगमगा जाता है तो लोगों को लगता है की दिल के मरीज़ की धडकनें लौट आयीं हैं। जुगनूओं को बारहों महीने जगमगाना चाहिए, उसने ढलते हुए सूरज को देखते हुए सोचा।
उसे मैनपुरी आये तीन महीने हो गए थे। और वो बुरी तरह ऊब गया था। अब यहाँ उसका मन नहीं लगता था घर की याद आती थी। घर जो उसके लिए जवानी के मंडलाते खतरे लिए बैठा था। उर्मिला की याद आ रही थी उसे और बड़ी ज़ोरों की आ रही थी। उसने सोच लिया था कि अब वो वापस चला जायेगा चाहे जो हो। अब यहाँ और रुकना पागलपन होगा।
मैं कल वापस चला जाऊं बुआ?
क्यों?
बस मन नहीं लग रहा, बहुत दिन हो गए हैं।
उस लौंडिया की याद आ रही होगी तुम्हें। भैया जी ने भेजा है तुम्हें हमारे साथ।जो वो वापस बुलायेंगे तो हम भेज देंगे। यादवों की लौंडिया है वो और हम कुम्हार मार-मूर के कहीं फ़ेंक देंगे तो माँ-बाप का बुढ़ापा मिट्टी में मिल जायेगा। पढो-लिखो कुछ बनो तो माँ-बाप को आस बंधे। दो साल से इंटर में फेल हो रहे हो, महतारी ने मोटर साइकिल और दिला दी ऊपर से ये चक्कर। कोई और कसर रह गयी हो तो वो भी कर लो। सब महतारी की शह है तुम्हें। सही कहतीं हैं अम्मा कि रामसरन की बहू के ऐसे लच्छन है "की तन पै नहीं लत्ते,बीबी खाएं पान के पत्ते"
वो कुछ नहीं बोल, चुपचाप उठा और कमरे में चला गया। अकेले कमरे में एक बार को उसकी रुलाई छूट गयी फिर अगले ही पल उसने खुद को संभाल लिया। उर्मिला को भूलने की एक झूठी कसम खाई और जा कर सो गया। रात के अँधेरे और सन्नाटे को सिर्फ़ सड़कों पर दौड़ने वाले ट्रकों की हेड लाइट्स की रौशनी और होर्नस की आवाजें चीर रही थी। कभी-कभी रात की चुप्पी में कोई नागिन धुन लहराती और फिर खो जाती थी।
सुबह जब वो तैयार हो सामान ले कर बुआ के सामने खड़ा हुआ तो उन्होंने कुछ न कहा। मन ही मन सोचा इतना समझाने पर भी नहीं समझा तो अच्छा है चला ही जाये। वैसे भी सास-ससुर वाला भरा पूरा परिवार था। पति कई बार नाराजगी दबे लहजे में जता भी चुके थे। जब वो पैर छू कर उठा तो बुआ ने उसे सौ-सौ के दो नोट पकड़ा दिये।
****
पता है वड़ेजा मिस कहतीं हैं की मेरी आँखों का रंग उन्हें हजेल नट जैसा लगता है। कितना फैसीनेटिंग है ना हजेल कलर की आँखें होना, उर्मिला ने कहा। उसने ऐसे सर हिलाया जैसे सब समझ गया हो। घर आ कर सबसे पहले उसने शब्दकोष में हजेल का मतलब ढूँढा। उसका मानना था कि अपने से ऊंचे स्तर की लड़की से प्यार कर रहे हो तो उसकी हर छोटी-बड़ी बात का विशेष ध्यान रखना चाहिये। भले ही सरकारी आंकड़ों में यादव ओ.बी.सी. की श्रेणी में आते हों पर उसके इलाके में ये कौम दबंग मानी जाती है, और वो नये जमाने के चलन में दबंगों की लड़की से प्यार कर बड़ी हिम्मत का काम कर रहा था।
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जिस वक़्त दीवार के रोशनदान से धूप अन्दर आने की कोशिश में थी। किवाड़ के सूराख में छुपी हवा हांफ रही थी। चुंगी के नल पर बूँद-बूँद टपकते पानी के लिए औरतें लड़ रही थीं। जिस वक़्त रामसरन की बहू धीमी आवाज़ में 'रानी तुमसी तो बेहा हमने देखी नहीं, ओ राजा जो मैं होती ना बेहा तो तुमसे मेरी निभती नहीं' गा रही थी। और जिस वक़्त चोरी-छुपे उर्मिला और अजीत नयी उम्र के सपनों में तार पिरो रहे थे। ठीक उसी वक़्त कुछ लोगों ने कारखाने से रामसरन को खींच कर एक पुरानी मारुती वैन में डाल दिया था।
शाम को जब अजीत धूल उड़ाता घर में घुसा तो रामसरन सामने बरामदे में लेटा हुआ था, शरीर पर जगह-जगह पट्टियां और पुल्टिस बंधीं थीं। अजीत ने देखा आस-पड़ोस की औरतें छोटे- छोटे घूंघट निकाले माँ को घेरे बैठीं थीं। वो अपने कमरे में जा रहा था कि पीछे से अम्मा की आवाज़ कानों में पड़ी,
" इन अहीरों ने तो उत्पात मच रखा है, आये दिन जान पर सवार रहते हैं", और ये अजीत किसी की सुनता नहीं।
ठीक कह रहीं है आप ताई जी कोई भीड़ में से बोला।वैसे भी जवान बेटा और बिन-नकेल का बैल पीठ पर हाथ रखते ही सींग मारने को दौड़ता है।
बंद कमरे में अजीत ने सोचा अब पानी उतरने तक उसे कदम फूंक-फूंक कर रखने होंगे। पिता के कन्धों का भार अब उसके ऊपर ही था। माँ की गृहस्थी चलाने के लिए अब उसे ही काम से लगना पड़ेगा।
उसकी ज़रा सी भूल का ये नतीजा था कि पिता के दोनों पाँव जाते रहे, उसकी पढ़ाई छूटी और चूड़ी के एक कारखाने में नौकरी का आसरा रहा।एक-एक कर के छ: महीने निकल गये। जब वो सुबह कारखाने जाता और शाम ढले धूल में लिपटा मोटरसाइकिल से उतरता तो माँ का दिल भर आता था। चूड़ियों पर चढ़ने वाली हिल की हल्की पर्त चेहरे-हाथों पर चढ़ी रहती थी। बल्ब की हल्की रौशनी में उसका चेहरा ऐसे जगमगाता था जैसे किसी दुल्हन का सुनहरी आँचल हो।उस पर जब वो हर महीने अपनी तनख्वाह देता तो रामसरन की बहू की गर्दन तन जाती थी,कि बेटा हो तो ऐसा।पर वो ये भूल जाती थी की इसी बेटे के कारण उसका घर परेशानियों की शरणस्थली बना। वो ये भी भूल जाती थी कि शांत समंदर में अनाड़ी मल्लाह की नाव हवा के एक हल्के झोंके से पलट सकती है। और वो यह भी न भांप सकी कि ये चुप्पी तूफानों से पहले की है।
आज खाना मत रखना मम्मी। अजीत ने बाथरूम से निकलते हुए आवाज़ लगाई।
क्यों ?
मैं आज आगरा जा रहा हूँ मैच खेलने, कल शाम तक लौटूंगा।
और कारखाने?
दो दिन की छुट्टी पर हूँ।
वो चुप रही सोचा लड़का पिछले सात-आठ महीने से खून जल रहा है अपना। अभी कोई उम्र है इसकी फैक्ट्री-कारखाने जाने की।
वो जब बन-संवर के घर से निकला तो रामसरन की बहू ने पीछे से चुपचाप उसकी बलैयां ले लीं।
****
अगले दिन तडके ही पुलिस रामसरन के घर जा पहुंची।
लौंडा कहाँ है तेरा?
साब वो तो आगरे गया है मैच खेलने, शाम तक लौटने की बोल कर गया है।
कुछ हुआ क्या साब?रामसरन की बहू ने ओट से पूछा।
लड़की भगा ले गया तेरा लौंडा। सोलह साल की है। नाबालिग है। तगड़ा केस बने ही बने समझी।
रामसरन की बहू को ऐसा लगा जैसे पैरों की जान निकल जायेगी। गिरने से बचने के लिए उसने किवाड़ का पल्ला थाम लिया।
रोज़ मिलता था लड़की से मौका लगते ही ले उड़ा।
वो तो रोज़ कारखाने जाता था साब रामसरन ने गिडगिडाते हुए कहा।
साल सब झूठ, एक दिन नहीं गया फैक्ट्री। कितने ही यार-दोस्तों से पैसा उधार ले रखा है उसने पता है।
आजकल सरकार तुम्हारी है तो सालों पर ही निकल आयेंगे क्या?एक पुलिसवाला बोला, जल्दी बता कहाँ है लौंडा?
साब हम से तो आगरे की बोल के गया था।
जवाब पर किसी ने रामसरन का गिरेबान पकड़ कर तीन-चार थप्पड़ लगा दिये। उसके गले से एक घुटी सी चीख निकल कर रह गयी। उधर दरवाज़े की आड़ में खड़ी रामसरन की बहू कब की बेहोश हो कर गिर पड़ी थी।

अगले तीन महीने तक पुलिस हर दूसरे दिन रामसरन के घर दबिश देती रही, फिर एकाएक आना बंद कर दिया। पता चला लड़की वापस लौट आई है तीन महीने बाद। कहाँ थी? किस के पास थी? कौन लौटा के लाया? या अपने आप आई? इन सवालों के जवाब किसी के पास नहीं थे। सब अपने-अपने हिसाब से अंदाजा लगा रहे थे।
उर्मिला तो लौट आई पर अजीत नहीं लौटा। माँ-बाप की आस टूटने लगी। महीनों दौड़ते-फिरते रहे पर नतीजा सिफ़र। फिर जब सरकार बदली तो रही-सही उम्मीद भी चुक गयी।
सूरज उगा और डूबा, फिर उगा और फिर डूबा, और यूँ ही चार साल का वक़्त बीत गया।
रामसरन और उसकी बहू अब इस अंदेशे को सच मान चुके थे कि उनका लड़का जान से जाता रहा।
3
झालरों की जगमगाहट दूर ही से बता देती थी कि ये शादी के उत्सव की चकाचोंध है। पूरी गली के सर पर पंडाल तना था। अप्रैल की चढ़ती गर्मी में शादी थी। उदास सी शाम हल्के-हल्के हाँफ रही थी और ऐसा लगता था जैसे आंधी आने के आसार हों।
किसी ने आवाज़ लगाई, अरे भई राजू जल्दी-जल्दी जाओ कल के लिए जनवासे का इंतजाम देखो। भई जितेन्दर कहाँ है अब? पता है किसी को।
अरे गोल कमरे में पत्ते खेल रहे हैं सब वही है।
अच्छा।
एक लड़की ने दरवाज़ा धकेला और कमरे में घुस गयी। उर्मिला सामने पलंग पर बैठी थी।
अरे सुधा! व्हाट ए सरप्राइज़, उर्मिला ने पलंग से कूदते हुए कहा। शादी कल है और तू आज आ रही है।
रिजर्वेशन ही बड़ी मुश्किल से मिला, वो भी अकेली का। सुधा ने कहा।
और जीजाजी?
कैसे आते, एक ही टिकट मिला कन्फर्म।
हाय!
जब-तक उसने हाथ-मुँह धोये तब-तक उर्मिला चाय ले आयी।
तुझे आज पूरे चार साल बाद देख रही हूँ, सुधा ने कहा।
हाँ, उन दिनों बड़े रेस्ट्रिक्शन हो गए थे मुझ पर।
दोनों सहेलियां बहुत देर तक बातें करती रहीं, नीचे से तैरते हुए आवाजें ऊपर चली आ रहीं थीं।
वो मारा, ये लो बेटा अब तो गयी हुकुम की बेग़म तुम पर, 12 पॉइंट्स का दंड लगेगा, फ़ाईन लगेगा तुम पर।
क्या खेला जा रहा है भई?
ब्लैक क्वीन, इसमें हुकुम की बेग़म जिस पर जाती है उसकी हार हो जाती है।
चाय का प्याला ट्रे में रखते हुए सुधा ने पूछा। और वो लड़का?
उसका तो कांड जितेन्दर भाई ने वहीं कर दिया था बंगलौर में। उर्मिला ने बड़ी सहजता से उत्तर दिया जैसे कुछ हुआ ही ना हो।
और पुलिस को क्या कहा तूने?
मैं मुकर गई, कह दिया मौसी के घर थी। मामला बिगड़ गया था बड़ा।
तू मुकर कैसे गयी उर्मिला?
जान से मार देते मुझे भी। देख आज भी शरीर पर निशान हैं मेरे, उर्मिला ने कोहनी की तरफ़ इशारा कर के कहा।
पर वो बेचारा तो जान से गया।
अब गया सो गया। अरे मुझे अपनी जान प्यारी थी। तू जानती नहीं क्या जितेन्दर भाई को।आंधी का सा मौसम हो रहा है, मैं एक-एक कप चाय और लाती हूँ तू ज़रा खिड़की बंद कर ले।इतना कह कर उर्मिला कमरे के बाहर चली गयी।
सुधा उठी और खिड़की पर जा खड़ी हुई। हवा में तेजी आ गयी थी, अगले तीन-चार मिनट में आंधी का आना निश्चित था। वो जब तक खिड़की बंद करती तब तक  हवा का एक तेज झोंका कमरे में घुस आया। उसने धूल-मिट्टी से बचने के लिए अपना मुँह फेर लिया।हवा के साथ कूड़ा-कर्कट भी फड़फड़ाता हुआ कमरे के अन्दर चला आया था। सुधा ने खिड़की बंद की तो देखा कि ताश का एक फटा पत्ता उड़ कर ड्रेसिंग टेबल के आईने से चिपक गया है। उसने जा कर पत्ता उठाया तो देखा की ये एक हुकुम की बेग़म थी।
हठात उसके दिल से निकला तुम जिसके भी पास रहीं उर्मिला उस पर दंड लगाती रहीं, फ़ाईन लगाती रहीं। उर्मिला तुम भी एक हुकुम की बेग़म हो उर्फ़ ब्लैक क्वीन, उसने कहा।
क्या कहा? पीछे खड़ी उर्मिला ने पूछा।
कुछ नहीं, बस यूँ ही ................................



परिचय    

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नाम : अनघ शर्मा 
जन्मतिथि : 27/11/1982 
जन्मस्थान : फ़िरोज़ाबाद, उत्तर प्रदेश
शिक्षा -दीक्षा :बारहवीं तक की शिक्षा फ़िरोज़ाबाद में ही हुई है| बैचलर ऑफ़ होटल मैनेजमेंट {मैसूर यूनिवर्सिटी ,कर्नाटक }, मास्टर ऑफ़ होटल मैनेजमेंट {अन्ना मलाई यूनिवर्सिटी, तमिलनाडू  } एम बी ए {यू पी टी यू ,उत्तर प्रदेश }
व्यवसाय : असिस्टेंट प्रोफेसर   
वर्तमान निवास स्थान: गाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश
मोबाइल : 08447159927

9 comments:

  1. निशब्द कर दिया

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  2. achhi kahani hai ...prem kisi ke liye khel hota hai or koi is khel ka mohara ban kr pit jaata hai ...Angh ji ko badhai

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  3. अच्छी कहानी है ,...कोई प्रेम को खेल समझाता है और कोई इस खेल में मोहरा बन कर पिट जाता है ...अनघ जी को बधाई

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  4. SUPER LIKE , ANAGH JI KEEP IT UP :)

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  5. super like, sharma ji keep it up ...

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  6. Achi kahani.... Anagh bhaiya....isi khurdurepan ki ummeed rahegi aage.... ashaye upaji hain apse.,..

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  7. चलचित्र सी कहानी.....बधाई l

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  8. चलचित्र सी कहानी.....बधाई l

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