"अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर सुप्रसिद्ध कवयित्री अनामिका जी का पठनीय लेख !"
स्त्री मुक्ति के नए आयाम
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स्त्री-मुक्ति के नए आयामों पर बात करते हुए मुझे सबसे पहले याद आती है मीरा की प्रेम बेल-'अंसुअन जल सींच-सींच प्रेम बेल बोई, अब तो बेल फैल गई, आनंद फल होई"।
यह बेल जो फैली है कंटीली चाहरदीवारियों के पार, उसे मैं स्त्री-विमर्श की
प्रेम-बेल की तरह पढ़ना चाहूंगी। स्त्री विमर्श की यह प्रेम-बेल न सिर्फ मध्य
एशियाई, दक्षिण एशियाई, लातिन अमेरिकी, अफ्रीकी खेतों तक फैली है, बल्कि पारिवारिकता, यौनिकता, श्रम, संसाधन -वितरण, विस्थापन, युद्ध, आतंक,नव-उपनिवेशन, धर्मेत्तर पर गंभीर, विश्लेषणात्मक और समाधान मूलक समवेत चिंतन के कई नए शक्तिपीठ इसमें कायम किए हैं। प्रेम-बेल यह इस तरह से है कि इसने हमेशा सबको छांह देने की सोची। कभी अपने 'स्व" का घेरा सीमित नहीं रखा, खासकर पिछली सदी ने सातवें दशक के बाद से जब रैडिकल स्त्रीवादी अश्वेत आंदोलन से जुड़ीं। उसके पहले के वर्षों में भी अब यह उपनिवेशवादी पश्चिम की समृद्ध महिलाओं का अधिकार -सजग आंदोलन था-इसके दोनों संकाय-लिबरल संकाय और मार्क्सवादी संकाय अपने समय में वृहत्तर प्रश्नों से लगातार जुड़े रहे। युद्ध और वर्ग-उन्मूलन के प्रश्न से! भारत तक आते-आते वर्ग-उन्मूलन का प्रश्न जादि, उन्मूलन के वृहत्तर पक्ष से जुड़ा। खासकर उन स्त्रियों ने यहां जो स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ी थीं! ध्यान से उस समय का स्त्री लेखन पढ़ने बैठें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वतंत्र देश की कल्पना एक खुशदिल संयुक्त परिवार के रूप में उन्होंने की थी जहां दिल से दिल तक राह जाती
है और ज्यादातर विवाद आपसी बातचीत से सुलझा लिए जाते हैं- कम से कम अपने यूटोपियाई स्वरूप में।
नवें दशक के बाद जब अचानक सभी भाषाओं में स्त्री-लेखन और स्त्री चिंतन का सैलाब-सा उमड़ा या कहिए स्त्री आंदोलन परवान चढ़ा, ज्यादातर देशों में लोग घबरा से गए। स्वाभाविक थी यह घबराहट। आज जिस कुर्सी पर हम धम्म से बैठ जाते हैं या जिसको जब चाहे लात से, हाथ से इधर - उधर धकिया देते हैं, कल वह कुर्सी उठकर हमसे कहे कि भाई मेरा पंखुड़ा उखड़ गया है, प्लीज ऐसे न पेश आओ तो हम भी घबरा जाएंगे। पूरे स्त्री-विमर्श का सार आखिर तो एक पंक्ति में यही बनेगा कि स्त्री-पुरुष में भेड़-भेड़िया, शिकार-शिकारी वाला रिश्ता न रहे-दोस्ताना रिश्ता हो! दोनों की मानवीय गरिमा की रक्षा हो-संसाधन और अवसर दोनों को बराबर मिलें, स्त्री को ही, मानव मात्र को!
नया स्त्रीवाद यह मानता है कि हर वर्ग, हर वर्ण, हर नस्ल, हर सम्प्रदाय की
स्त्रियों की अपनी विशिष्ट समस्याएं भी हैं, पर कुछ दुख हैं जो अमीर-गरीब,
गोरी-काली, हिन्दू-मुस्लिम, दलित-गैरदलित, शहराती-देाहाती-सब स्त्रियों का साझा हैं! सब तरह की स्त्रियों की देह उनके बहुविध शोषण की साइज लंबी है स्त्री देह से जुड़े अपराधों की फेहरिस्त-भावहीन, यांत्रिक संभोग और बलात्कार, भ्रूणहत्या और साफ-सुथरे प्रसव की व्यवस्था का अभाव, पोर्नोग्राफी, एड्समीत देशों में बच्चियों का निर्यात, मार-पीट, या कमोडिफिकेशन, गाली-गलौज, दहेज-दहन, डायन-दहन, सती, वैश्यावृत्ति देह से जुड़े ये दुख और फिर एक और साझा दुख ये कि किए-दिए, लिखे-पढ़े को, उनकी घोर मेहनत के उत्पादों को लगातार खारिज किए जाना या
उसको कमतर करके आंकना सिर्फ इसलिए कि इसका शिल्प अलग है और भाषा भी! जो 'मेरा" या 'मेरे जैसा" नहीं, वह घृणा और हिकारत के लायक है-यह धारणा फासीवाद का चरम है!
पहले स्त्रियां तन-मन से सेवा करती थीं अपने पूरे घर की, अब की स्त्रियां
तन-मन-धन से घर-बाहर दोनों संवारती हैं। पितृसत्ता से भी स्त्री मुक्ति प्रजातांत्रिक संवाद ही चाहती है, कोई सिरफुडौवल नहीं चाहती! सहज मानवीय विवेक से वह यह समझती है कि प्रतिशोध् किसी भी समस्या का समाधान एक दमन चक्र का जवाब दूसरा दमनचक्र होता रहा तब तो सभ्यता बैक गियर में चलती-चलती सीधी पाषाण-युग तक पहुंच जाएगी।
स्त्री-आंदोलन दुनिया का एकमात्र आंदोलन है 'इंग्लैंड के ग्लोरियस आंदोलन" के सिवाय जिसने कभी एक बूंद खून नहीं बहाया, पूर्णत: अहिंसात्मक रही, साम-दाम के बाद दण्ड भी आजमाया और दण्ड स्वरूप भी डंडे नहीं भांजे!
पुरुष का मानसिक-आत्मिक-भाषिक परिष्कार ही इसका मुख्य प्रयोजन है और इस दिशा में इसने जो संघर्ष किए हैं-मनोवैज्ञानिक युद्ध के रूप में ही। और अभी भी आस नहीं तोड़ी कि कुल मिलाकर विमर्श जो कहता है, उसका सारांश यह कि नई स्त्री वह है जो प्यार करती है, प्रतिबद्ध रहती है, जिम्मेदारियां उठाती है और सबको मिलाकर चलती है। स्त्री-पुरुष, नाचना-गाना, खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना-सबसे प्रेम करती है।
संघर्ष से प्रेम करती है, पशुओं से, पेड़ से, पहाड़ से, दुश्मन से और प्रेम करती है खुद से भी। तब ही तो वह चाहती है कि लज्जा, धीरज, सहिष्णुता, ममता, त्याग आदि सब सद्गुण सिर्फ स्त्री-धन न रहें, दूसरे संसाधनों की तरह वे भी बराबर बंटें। बेचारे पुरुषों की भी झोली भर जाए सब सद्गुणों से और घृणा की राजनीति से वे बाज आएं।
-अनामिका
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