Tuesday, February 14, 2017

दाम्पत्यः प्रेम या पहेली - मन्नू जी से बातचीत



दाम्पत्यः प्रेम या पहेली -मन्नू जी से बातचीत 



हिंदी साहित्य जिनकी लेखिनी से समृद्ध है; हम सबकी प्रिय लेखिका आदरणीय मन्नू भंडारी जी की सशक्त लेखिनी से भला कौन प्रभावित नहीं होगा ! मेरा सौभाग्य है की मैं उनसे कई बार मिली और   जितनी बार मिली;उनके लेखकीय अनुभवों से जुडी ढेर  सारी सुखद स्मृतियां लेकर लौटी | बहुत दिनों से मन था कि एक बार फिर उनसे मिलूं | इस बार वैलेंटाइन डे के लिए राजेंद्र जी और उनके प्रेम से भरी  कुछ सुखद स्मृतियाँ  सहेजकर ब्लॉग पर सभी से साझा करने का मन हुआ| जबकि  उनसे इस विषय पर बात करना मेरे लिए बहुत कठिन था| मैंने उन्हें फोन किया और मिलने के लिए समय माँगा |   उन्होंने कहा, “आ जाओ! कल ही मैं टिंकू(रचना जी) के यहां से लौटी हूं!”

मैं तुरंत  घर से निकल पड़ी! ग्रीन पार्क मेट्रो स्टेशन से बाहर आकर ऑटो करने लगी तो एक फ्लावर शॉप देखकर रुक गयी | रजनीगंधा फूल तो मिला नहीं,  मैंने गुलाबों का एक छोटा सा बुके ही बनवा लिया अपनी प्रिय लेखिका के लिए | गुलाबों का बुके बनता देख रजनीगंधा फिल्म की नायिका विद्या सिन्हा की याद आई | फूलों को गालों से सटाये  सौम्य हंसी बंद आँखों वाला चेहरा किसे याद नहीं होगा |  फूल भेंट करने की अब मेरी भी आदत नहीं रही लेकिन अचानक न जाने किन भावों ने प्रेरित किया की अपनी प्रिय मन्नू जी को फूल भेंट करूँ| यह तो बाद में पता चला कि उस दिन रोज़ डे था! सुखद आश्चर्य हुआ!  उनके घर से वापस आकर मैंने फ़ेसबुक पर छोटी सी पोस्ट भी लिखी| खैर .. मन्नू जी से हुई बेहद आत्मीय बातचीत आप सभी से साझा कर रही हूँ ..

घर पहुँची तो मन्नू जी नेबोलाइज़र पर थीं| कुछ देर बाद उन्होंने आवाज लगाई - यहीं आ जाओ! पास पहुँचकर मैंने उन्हें बुके और मिठाई थमाते हुए प्रणाम किया!

“अरे वाह! ये मेरे लिए हैं ..!” कहकर कुछ देर तक  फूलों को निहारती रहीं!  उन्हें देखकर मुझे पुनः उनकी  कहानी “यही सच है” पर बनी फिल्म रजनीगंधा की नायिका याद आ गयी| आँखें बंद करके रजनीगंधा के फूलों को गालों से लगाकर कैसे प्रेम से लबालब भरी दिखती थीं| 

उन्होंने गीता  (घरेलू सहायिका) को बुलाकर कहा  -“इन्हें डाइनिंग टेबल पर सजा दो!” उसके बाद मिठाई वाले पैकेट की ओर इशारा करके बोलीं -“ये क्या है..?”

“मिठाई है आपके लिये!”

“अरे ये सब मत किया करो!”

“कुछ नहीं .. बस मन किया!  मुझे अच्छा लगता है!” न जाने क्या-क्या चल रहा था मन में लेकिन मैं इतना ही कह पाई! उन्होंने मिठाई का डिब्बा भी गीता के हाथ में थमा दिया |

“अच्छा .. तुम अपनी सुनाओ.. क्या हाल हैं ..? तुम्हारा काम कैसा चल रहा है ? .... देखो मैं भूल रहीं हूँ .. तुम कुछ अच्छा सा काम कर रही थीं .. जरा बताओ क्या काम था वो ..?” उनसे  मेरी चैथी या पांचवी मुलाकात थी | इस बार लगभग एक साल के बाद हम मिले | वे बातों-बातों में बार बार दोहरातीं हैं कि उन्हें कुछ याद नहीं रहता | अपनी कम होती याददाश्त से सबसे ज़्यादा परेशानी उन्हें खुद होती है | पर मैं हैरान थी कि पूरी तरह नहीं पर कुछ याद था जो मुझसे जुड़ा था! मैंने उन्हें फरगुदिया ब्लॉग और झुग्गी-बस्ती की बच्चियों की डायरी के बारे में याद दिलाया |

- “अरे हाँ.. हाँ! याद आया .. देखो दिमाग को क्या हो जाता है .. भूल ही गई थी.... बहुत अच्छा काम है .. करती रहना इसे !” वे कुछ याद करती  बोलीं ! मैं उनसे कहना चाहती थी कि ब्लॉग और डायरी लेखन के लिए अभी पूरा समय नहीं निकाल पा रहीं हूं लेकिन कहा नहीं! क्योंकि उसके बाद अपनी व्यस्तता और उसके कारण बताने पड़ते और वे बहुत मुश्किल से मेरी बात सुन पा रही थीं!

न जाने कितना कुछ भरा हुआ था उनके मन में! एक बात शुरू करतीं.. उसे अधूरा छोड़कर दूसरी बात याद आने पर बताने लगतीं!

“तुम्हारा काम बहुत अच्छा है... इसे करती रहना..!” अचानक मौसम की बात करने लगीं -“अच्छा यहाँ तीन चार दिन पहले सर्दी काफी कम हो गई थी ... टिंकू के यहाँ तो सर्दी कम थी .. वहाँ खूब अच्छे से नहा लेते थे लेकिन यहाँ तो ठंडक है.. आज सबेरे भी ठंड लग रही थी!”

“कल काफी कोहरा हो गया था अचानक और आज भी तेज हवा चलने  लगी..! मैंने उनकी बात आगे बढ़ाते हुए कहा!”

आज अच्छी लग रहीं थीं मन्नू जी | उनके चेहरे की लगातार मुस्कराहट देखकर मुझे खुशी हो रही थी लेकिन मन्नू जी  मुझे कुछ कमजोर लगीं! मैंने पूछ भी लिया, “ आप कुछ दुबली दिख रहीं हैं !”

 हँसती हुई बोलीं - “अरे .. काहे का दुबलापन! खाती हूँ ... सोती हूँ .. मोटी होती जा रहीं हूँ!”

हम दोनों एक साथ हँसने लगीं |

“अच्छा .. तुमको सर्दी-वर्दी नहीं लग रही है ?” मेरे स्वेटर न पहनने की तरफ उनका ध्यान गया था|
मैं हँस पड़ी, “नहीं .. ज्यादा नहीं लग रही है .. मेट्रो की भीड़ में तो गर्मी लग रही थी!’

कुछ देर यूँ ही बातों का सिलसिला चलता रहा| मैं बस हाँ...हूँ...जी...करती हुई उनकी बातें सुनती जा रही थी | मैं उनसे वेलेंटाइन डे के बारे में बात शुरू करना चाह रही थी लेकिन शुरुआत कैसे करूँ, नहीं समझ पा रही थी | डर भी रही थी क्योकि मन्नू जी के पास राजेंद्र जी से जुडी बहुत कड़वी यादें ही हैं | जब भी कभी राजेंद्र जी का जिक्र आया है, वे उनके जीवन में लगातार बनी रही दूसरी महिलाओं से उनके संबंधों का ज़िक्र करके क्षोभ और बेचैनी से भर जातीं हैं! लेकिन न जाने क्यों मैं उत्सुक हो रही थी ये जानने के लिए कि कुछ तो ऐसे मधुर क्षण होंगें जिन्हें याद करके मन्नू जी राजेंद्र जी के प्रति प्रेम से भर जातीं होंगीं ! डरते-डरते मैंने वेलेंटाइन-डे की बात की और कहा- “अच्छा बताइए! वैलेंटाइन-डे पर आपके बारे में कुछ लिख सकती हूं ?”

मेरी बात सुनते ही तपाक से बोलीं - “तुम मनाती हो वैलेंटाइन-डे ..?”


मैं सहम गयी! एक क्षण को यूँ लगा कहीं नाराज़ तो नहीं हो गयीं ! मैंने डरते-डरते कहा ,“मैं मनाती नहीं .. लेकिन अपने ब्लॉग - फरगुदिया पर आजकल के प्रेम से हटकर कुछ अलग नया पोस्ट करना चाहती हूँ!”

मन्नूजी कुछ बुझी हुई सी कहने लगीं- ‘‘ मैं क्या बताऊं बेटा, मेरे शरीर में अब कुछ बचा नहीं है.. सुनाई नहीं देता है.. दिखाई नहीं देता है.. ये जो मेरा भेजा है वो बिलकुल निचुड़कर खत्म हो गया है ... लिख तो मैं कुछ सकती नहीं...! (कुछ देर की चुप्पी के बाद) .. एक दिन मैं रात में अच्छी भली सोई.. खाया-पिया, बातें की, पढ़ा- लिखा.. साढ़े ग्यारह बजे सोई.. सुबह उठी तो देखा मुझे कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा.. अब मैं बहुत परेशान! मैं आँखें फाड़कर इधर-उधर देख रहीं हूँ और कह रहीं हूँ .. अरे!! मुझे कुछ दिख नहीं रहा, दिख नही रहा.. मैंने घबराकर टिंकू को फोन किया, “टिंकू मैं उठी तो मुझे कुछ नहीं दिख रहा..! वो भी परेशान ! उसने कहा तुरंत ड्राइवर के साथ आप अपने आँख के डॉ के पास जाओ ! उस  दिन ड्राइवर को आना ही नहीं था  लेकिन उसे बुलवाकर गयी.. उन्होंने अच्छी तरह से चेक किया और कहा-आपको कोई प्रॉब्लम नहीं है ..आँख बहुत अच्छी हालत में है लेकिन सर्कुलेशन ऑफ ब्लड रुक जाए तो दिखाई देना बंद हो जाता है! अब मैंने कहा..मैं क्या करूँ ..?? उन्होंने कहा - इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है! अपने आप ही धीरे धीरे रोशनी लौट आएगी! (याद करते हुए कहती हैं ) लगभग सात आठ महीने हो गए शायद...अब थोड़ा थोड़ा दिखना शुरू हो गया है.. (मुझे छूकर) अब ये मुझे दिख रहा है कि तुमने पिंक कलर का कुछ पहन रखा है .. पर मैं तुम्हारा फेस नहीं पहचान सकती.. चेहरा मुझे नहीं दिखाई दे रहा.. एक शरीर है मेरे आगे.. ये दिख रहा है.. रंग भी दिख रहा है.. थोड़े दिनों बाद शायद और दिखाई देने लगे..! मेरे सारे शरीर के अंग बेकार हो गए .. अब मैं क्या करूँ ...कुछ समझ नहीं आता है.. मेरे पास कोई आएगा तो मैं उसे क्या दे सकती हूँ..!”

एक लेखक के जीवन से लिखना पढना ही छूट जाए उससे अधिक पीड़ा क्या होगी ! मन्नूजी को अचानक इस तरह दिखाई न देने से उनपर क्या प्रभाव पड़ा होगा.. उनकी मनःस्थिति  समझ सकती हूँ! लेकिन उनके साथ कुछ समय बिता लेने भर से कितनी प्रेरणा मिलती है .. उसे व्यक्त नहीं कर सकती! उनसे बस इतना ही कह पाती हूँ ,“आपके साथ समय बिताने भर से बहुत प्रेरणा मिलती है!”

’’हाँ! आओ, बैठो.. बल्कि टिंकू तो यही कहती है-आपकी बीमारी का इलाज ही यही है-आपके साथ कोई रहे... आपसे बातें करें... आपका मन बहलाये..! तो आओ.. रोज आओ.. जो भी मेरे घर आता है अपना घर समझकर आता है और मैं भी उनका स्वागत घर के सदस्य की तरह ही करती हूँ!”

डरते-डरते उनसे  कहती  हूँ, “.मैं बताऊँ ... मैं आपके और राजेंद्र जी के लगभग पैंतीस साल बिताये  साथ और अलग होने के बाद के जीवन के कुछ अच्छे प्रेम भरे अनुभवों  को अपने ब्लॉग पर लिखना चाहती हूँ , अगर आप चाहें तो कुछ साझा करें ..!” 

उन्होंने मेरी बात ध्यान से सुनी | फिर कुछ सोचते हुए बोलीं, “देखो .. मैं राजेंद्र जी के साथ पैतीस या तैतीस साल रही लेकिन मैं ये कह सकूँ... कि उसमें उनके साथ कुछ अच्छे दिन रहे;ऐसा कुछ था नहीं (कुछ देर की चुप्पी) ..दिन तो लगभग सभी तकलीफदेह थे .. बस एक अच्छाई ये थी उनमें कि वे मुझे लिखने के लिए बहुत प्रोत्साहित करते थे .. कहते थे, तुम लिखो .. बस तुम लिखो ..देखो तुम्हारा लिखा हुआ कितना सराहा जाता है ... बस मेरा लिखा पढ़कर आगे और लिखने के लिए बहुत प्रोत्साहित करते थे ..यह उनकी खास आदत थी !”
 राजेंद्र जी की बात बीच में ही छोड़कर कहतीं  हैं ,.”..और सच कहूँ शोभा .. मैं अगर जिन्दा रही .. अभी की बीमारी छोड़ दो, वह तो एज रिलेटेड है ..पर उसके पहले जो मैंने अपने आपको संभाले रखा .. वो सिर्फ लेखन की वजह से ... अपने लेखन की वजह से ही मैं जिन्दा रही ... किस्मत अच्छी थी कि मेरा लिखा सभी को क्लिक करता था .. मेरे लिखे दोनों नाटक बहुत सराहे गए !”

कहते हुए उनकी आँखों में कुछ चमक दिखी! सच ही तो है! घोर पीड़ा भरे उन दिनों में वे लिखकर ही तो अपना दर्द बाँट पाती होंगी! मैं उनकी आँखों में राजेंद्र जी के प्रति प्रेम ढूंढ रही थी लेकिन उनका जिक्र करते हुए वे दुःख और क्षोभ से भर गयीं!

मैं फिर कोशिश करती हूँ कहीं किसी बात का जिक्र करते हुए शायद मन्नू जी के प्रति राजेंद्र जी के प्रेम की झलक दिख जाए! मैं पूछती हूँ - “तो आपका लिखा पढ़कर खूब प्रोत्साहित करते थे राजेंद्र जी ?”

“बहुत ..बहुत करते थे! कुछ कुछ रचनाओं के लिए तो बहुत करते थे .. कोई लड़की अपनी कहानी लेकर हंस के ऑफिस गयी थी तो उसने मुझे बताया कि उन्होंने कहा - देखो कहानी कैसे लिखी जाती है मन्नू से जाकर सीखो ... उस लड़की ने मुझे बताया .. ये नहीं बताते थे .. तो मुझे अच्छा लगता था कि चलो कम से कम मेरे लेखन की तो ये इतनी तारीफ करतें हैं .. ये मेरी रचनाओं के प्रशंसक थे! ..लेकिन एक स्टेज के बाद तो संबंधों के मायने भी बदल जातें हैं ... प्रेम व्रेम कोई मायने नहीं रखता .!” राजेंद्र जी द्वारा अपने लेखन की प्रशंसा का जिक्र करते हुए आत्मविश्वास से भरी मन्नू  जी  प्रेम की बात तक आते आते खिन्न हो जाती हैं!


मैं  उनकी बात पूरी होने से पहले कहती हूँ, “प्रेम ..मैं आजकल के आधुनिक प्रेम की बात नहीं कर रहीं हूँ ; जिसमें ज्यादातर स्वार्थ भरा होता है! मैं एक सम्मानजनक प्रेम के भाव की बात कर रही हूँ! आपसे अलग होने के बाद तो उन्हें आपकी ज़रूरत या अहमियत महसूस हुई होगी कभी ... फोन पर या...”

मुझे बीच में टोकते हुए कहतीं हैं,‘‘वो अलग होना ही नहीं चाहतें थे .. अलग होना बिलकुल नहीं चाहते थे ... मैंने ही उन्हें आग्रह कर अलग किया! क्योंकि उन्होंने आपसी संबंधों का जो दायरा बना लिया था कि घर की और आर्थिक जिम्मेदारियां मैं संभालूं ... वे किसी भी तरह की कोई जिम्मेदारियां नहीं लेगें .. बस घर में बने रहेंगें ... घर नहीं छोड़ेगें ... घर की सुविधाएं और कहाँ मिलतीं! लेकिन कौन व्यक्ति होगा जो इतना सहेगा ..?”

(कुछ और भी कहना चाहतीं हैं लेकिन मैं बीच में ही टोककर कहती हूँ ) ”हम सभी जानते हैं ये सब बातें .. जो कमियाँ थीं वो तो थीं ही ..अपनी आत्मकथा में आपने लिखा भी है लेकिन मैं  चाहतीं हूँ कि आज आप उनकी कुछ अच्छी-अच्छी बातें साझा करें.!”

वह  फिर अपनी पहले कही बात दोहराती हैं - “बस, उनका सारा लगाव मुझे लेखन के लिए प्रोत्साहित करने तक था .. बल्कि मुझसे कहते थे कि तुम्हें आसानी से नाम मिल गया है लेखन में इसलिए तुम बहुत लापरवाह हो गई हो .. तुम और मेहनत करके और अच्छा लिखने की कोशिश करो .. पर एक पत्नी की अपनी इच्छाएं, ज़रूरतें होती हैं... आप बीमार पड़े हैं और कोई हाल भी न पूछे.. अपने दोस्तों के साथ फ़ोन पर ठहाके लगाता रहे तो आपको कैसा लगेगा.!”

"जी, मैं समझ सकती हूँ! बीमार पत्नियां अपने पति की उपेक्षा से कैसे घुटकर रह जाती हैं! बहुत सारे बंधन उन्हे जकड़े रहते हैं! वे अपना मुंह भी नहीं खोल पातीं!" कुछ समझ नहीं आता क्या कहूँ उनसे ! जो मन में आया कहती गयी !

 मेरी तरफ से एक और कोशिश..मुस्कुराकर मैं पूछती हूं, “किसी खास दिन से जुड़ी ऐसी घटना जिसमें आपके प्रति उनका प्रेम झलका हो..जैसे- शादी की सालगिरह के अवसर पर... आपके जन्मदिन के अवसर पर ..?”

मेरी बात पूरी होने से पहले कहतीं हैं,‘‘जन्मदिन तो मेरा वो याद ही नहीं रखते थे.. मुझे एक बार बहुत तकलीफ भी हुई .. मेरी एक फ्रेंड थी ..मेरे जन्मदिन के बहाने उनसे मिलने आई और वो तो घर पर ही नहीं थे... मुझे बहुत तकलीफ़ हुई! अरे.. कुछ न करते पर कम से कम अपनी उपस्थिति तो दर्ज़ करते..!’’

“अलग होने के बाद भी जन्मदिन याद नहीं रखते थे..?” मैं फिर पूछती हूँ!

“बस, यही बहुत बड़ा फ़र्क आया ! साथ रहते जिस पति ने कभी जन्मदिन याद नहीं रखा, अलग होने के बाद बराबर फोन करते ... फूलों का बुके भेजते.. साल दर साल.. बल्कि उसके बाद उन्होंने मुझसे अपने सम्बन्ध बहुत अच्छे बना लिए थे..कोशिश करते थे कि मैं उन्हें वापस बुला लूँ.... लेकिन वह संभव नहीं था.. बहुत झेल लिया था मैंने लगातार पैंतीस साल..!”

उनकी बात पूरी होने से पहले फिर प्रश्न करती हूँ ,‘‘ उन्होंने कभी आपसे कहा नहीं कि मुझे बुला लो.. मैं आना चाहता हूँ..?’’

“नहीं..ये कहा तो नहीं लेकिन कोशिश बहुत की ! जन्मदिन जो कभी याद नहीं रखते थे ! अब हर साल जन्मदिन और शादी की सालगिरह पर फूल भेजने लगे.. मैं सब महसूस करती थी..अच्छा भी लगता था और टीस भी उठती थी..! (कुछ देर की चुप्पी.. फिर कहतीं हैं )सौभाग्य से ये घर मेरा.. एक एक तिनका.. एक एक पाई मेरी.. खरीदने से लेकर बनाने तक सब कुछ मेरा था ...सबकुछ लगाकर मैंने ये घर बनाया था.. तो मैं कह सकती थी न कि आप मुझे अब मुक्त करिये... मैं ऐसा कह सकती थी तो कहा .. अगर ये घर उनका होता तो मैं कैसे कहती? बहुत सी पत्नियां इसीलिए कुछ भी नहीं कह पातीं...मरते दम तक सहती चली जाती हैं!”

पिछली किसी मुलाकात में उन्हीं  की कही बात याद करती हूँ ,‘हिन्दुस्तान के परिवार औरत के कन्धों पर टिकें हैं!’ सच ही तो है.. भारतीय समाज की  स्त्रियों का सच भी तो यही है! चारदीवारी में अपनों द्वारा ही मानसिक-शारीरिक प्रताड़ना सहती हुई वे भीतर ही भीतर टूटती रहतीं हैं! फिर भी परिवार को बचाने के लिए अपने आपको मजबूत रखने का भरसक प्रयत्न करतीं हैं!
आगे वही सब बातें दोहराती हैं जो उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है- वासु चटर्जी जी, गिरीश अस्थाना का अचानक उनके घर आना और राजेंद्र जी को घर आने देने का अनुरोध करना.. और दृढ़ता से मन्नू जी का उन्हें मना करना.. और भी बहुत सारी बातें .!

बातों बातों में फिर मीता का जिक्र करके खिन्न होने लगतीं हैं! मैं उन्हें आग्रहपूर्वक समझाने की कोशिश करती हूँ! कुछ नकारात्मक याद न करके राजेंद्र जी और स्वयं से जुडी कुछ सकारात्मक, प्रेम भरी यादें साझा करने को कहतीं हूँ!

मैं फिर पूछतीं हूँ , “अलग होने के बाद तो आपकी कमीं महसूस हुई होगी..?”

“अलग होने के बाद तो ये आ गई थी न.. मैत्रेयी! वो इनके बहुत निकट हो गई थी... इनके पास कोई सपोर्ट था नहीं..मैत्रेयी इनके लिए घर का सामान खरीदकर देने लगी.. इनकी भौतिक जरूरतों को पूरा करने लगी .!”

घुमा फिराकर प्रश्न पूछकर मैं  दोनों के बीच प्रेम ढूंढना चाहती थी लेकिन राजेंद्र जी के संबंधों को लेकर वे हर बार कड़वाहट से भर उठतीं ... मैं उन्हें समझाते हुए कहती हूँ, “घर परिवार से अलग हुए पुरुष के जीवन में बहुत सारी स्त्रियां आ सकतीं हैं  लेकिन पत्नी का तो अलग स्थान रहता ही है न ? दूसरी स्त्रियों के साथ रहे उनके संबंधों को हम भटकाव कह सकतें हैं ..जीवन की ऐसी कुछ चीज़ें उथली होती हैं.. लेकिन कुछ ऐसा भी तो होगा आप दोनों के बीच जो अदृश्य और स्थिर रहा होगा... कहीं न कहीं उनके मन में आपके प्रति कुछ तो अपनत्व और  प्रेम  रहा होगा ही !" 

प्रतिउत्तर में कहती हैं, “मन में जरूर था उनके... इसमें कोई संदेह नहीं! कभी-कभी कहते भी थे कि मैं जानता हूँ तुमने बहुत बर्दाश्त किया है मेरे साथ .. लेकिन मेरी अपनी कुछ मजबूरियां हैं..!”

मैं खुश हो गयी उनकी  बात सुनकर | कुछ तो ऐसा महसूस किया मैंने जिसमें प्रेम की झलक थी! मैंने उत्सुकता से कहा, “चलिए स्वीकार तो करते थे न..!”

“स्वीकार तो करते थे.. बहुत करते थे .. ऐसी बात नहीं कि स्वीकार नहीं किया.. कभी कभी नहीं भी करते थे .. कभी कभी कहते थे – ए! तुम तो जिद लेकर बैठ जाती हो .. अरे क्या है इसमें अगर कुछ अलग है मेरे जीवन में ? ...लेकिन भीतर ही भीतर महसूस भी करते थे कि कोई भी औरत अपने पति के जीवन में दूसरी औरत बर्दाश्त नहीं करेगी..!”

“कभी गिफ्ट दिया उन्होंने आपको ?” मैं प्रश्न करती हूँ!

“हाँ, दिया था ... इनकी आर्थिक स्थिति ज्यादा ठीक तो थी नहीं जो मुझे महंगा गिफ्ट देते... लेकिन एक बार दोस्तों के सामने इन्होंने मंगलसूत्र दिया था... मैं बहुत खुश हुई थी... गिफ्ट के लिए नहीं ..उनके दिल में आये मेरे प्रति प्रेम भरे भाव के लिए..ऐसा नहीं है कि चाहते नहीं थे ... मन में बहुत कुछ रखते थे लेकिन व्यक्त नहीं करते थे..!”

“अच्छा, कैसे महसूस किया आपने कि वो आपको चाहते थे .. कोई घटना बताइये ?” मैंने ये सोचकर प्रश्न किया  कि शायद वे किसी प्यारी-सी याद का जिक्र करें!

“पता चल जाता था.. बातों से..व्यवहार से ..!” मैंने ऐसा महसूस किया मानो कुछ और भी कहना चाहती हैं लेकिन नहीं कहतीं!

कुछ रुककर सोचकर इस बार वे स्वयं ही मेरे पहले प्रश्न के उत्तर में कहने लगतीं हैं, “शोभा, जो सम्बन्ध खत्म हो गया...जब था तब काफी दुखद था..अब नहीं हैं ...तो कैसे कहूँ कि प्रेम था ...कोई प्रेम नहीं था उनके दिल में मेरे लिए ... मत बात करो इस प्रसंग पर ..!” खिन्न होकर वे कहतीं हैं !

मैं भी प्रेम की बातें न करने की हामी भरती हूँ! रचना जी के बारे में बताने लगतीं हैं! वे हंस को किस तरह संभालती हैं! मैं भी “आपका बंटी” उपन्यास का जिक्र करके भावुक हो जातीं हूँ! कैसे पहली बार पढ़ते समय खूब रोई थी-उसका जिक्र करती हूँ! इसी तरह लंच करते हुए कुछ साहित्यिक और कुछ दूसरी बातें होती रहीं!

विदा लेने से पहले एक बार फिर मैं सुधा दीदी की कही बात का जिक्र करते हुए पूछती हूँ , “आपने कभी सुधा दीदी से कहा होगा कि अलग होने के बाद राजेंद्र जी आपका इतना ध्यान रखने लगे थे कि उनके उस आपके प्रति बदले व्यवहार को देखकर आपने उनसे कहा था - "मुझे ये पता होता कि अलग होने के बाद ये मेरा इतना ध्यान रखने लगेंगें .. मेरे बारे में इतना सोचने लगेंगें तो मैं पहले ही इनको अलग कर देती !”

हंसकर मेरी इस बात से सहमत होतीं हैं | उत्साहित होकर कहतीं हैं , “ये सही बात है! मैंने कहा था कि ऐसा मालूम होता कि अलग होने के बाद ऐसे स्नेह जताएंगें तो मैं पहले ही अलग हो जाती ..!”

कुछ देर तक फिर राजेंद्र जी की ही बातें हम करतें हैं | कुछ नकारात्मक.. कुछ सकारात्मक | मैं उनसे पूछती हूँ कि आजकी बातचीत में आप दोनों के जीवन के कुछ सुखद पहलू छनकर आयें हैं उन्हें मैं ब्लॉग पर साझा करुँगी | हँसते हुए फिर वही सब दोहरातीं हैं | लापरवाही से कहतीं हैं , “अरे क्या प्रेम-व्रेम ....बहुत कुछ तो मुझे याद भी नहीं है...खैर तुम्हें इसमें कुछ प्यार नजर आता है तो लिख दो ..तुम्हें प्रेम-दिवस के लिए कुछ मैटर चाहिए लेकिन मैं बताऊँ तुम्हें शोभा ..जो कुछ मैंने झेला ..सहा.. उसके मुकाबले ये दो-एक छुट-पुट प्रेम भरी बातें कुछ मायने नहीं रखतीं.. !”

सचमुच दाम्पत्य में प्रेम और उपेक्षा बहुत उलझी हुई पहेली है! एक पत्नी ताउम्र इसके  मकड़जाल में उलझकर रह जाती है जो न सहते बनता है, न कहते!

मैत्रेयी जी का जिक्र मन्नू जी ने ही छेड़ दिया था! न जाने क्यों मैं भी मैत्रेयी जी की नयी किताब का जिक्र शुरू कर देती हूँ! वे ज्यादा तवज्जो न देते हुए कहतीं हैं, “सुना है मैंने लेकिन अब मैं इन सब बातों पर ध्यान नहीं देना चाहती .. जब से ये ब्लड सर्कुलेशन वाली समस्या हुई तब से मैं तो सारी दुनिया से कट गयी ... बस ! धीरे धीरे अब थोड़ा बहुत दिखने लगा है !”

मैं आश्वासन देती हूँ उन्हें भी उनके साथ अपने आपको भी कि वह जल्दी ही पूरी तरह से स्वस्थ हो जायेंगी |  ठीक से देखने लगेंगी | लेकिन निराश होकर कहती हैं,“नहीं! अब ये ठीक नहीं होगा... डॉ कहते हैं ... बी हैप्पी.. खूब खुश रहिए.. एक्टिव रहिये... लोगों से मिलिए जुलिये ...! .हालात तो कुछ ऐसे हैं कि मैं कुछ कर ही नही सकती.. फिर भी मैं कोशिश करके थोड़ा बहुत टहल लेतीं हूँ..!”

अंततः मैं मन ही मन इश्वर  से उनके पूरी तरह स्वस्थ होने की प्रार्थना करती हूँ | उनका हाथ थामकर कुछ क्षणों के लिए उनके पास ठहरकर उनसे विदा लेतीं हूँ |  बेडरूम से बाहर निकलने लगतीं हूँ तो पीछे से उनकी आवाज सुनाई देती है – “गीता ने वो फूल सजा दिए हैं न ..?”

“जी! ये रहे मेरे सामने ..!” मैं डाइनिंग टेबल पर सजे गुलदस्ते की तरफ इशारा करती हूँ और उनका सौम्य, शालीन मुस्कुराता चेहरा मेरे भीतर ठहर जाता है..

उनका  दांपत्य जीवन प्रेम था या पहेली ...उन्हीं अनसुलझी कड़ियों में उलझकर रह गयी मैं! पति का प्रेम स्त्री का संबल होता है..अभिमान होता है.. पति का दूसरी स्त्रियों से बंटा  प्रेम भला कैसे कोई स्त्री स्वीकार कर सकती है!
हाँ.. पत्नी के कर्तव्यों को निभाते हुए मन्नूजी का प्रेम निस्वार्थ,एकनिष्ट और समर्पित प्रेम की परिभाषा है मेरे लिए! आजकल के स्वार्थी और सिर्फ भौतिक सुखों की चाह रखने वाले प्रेम से बिलकुल अलग  ..

प्रस्तुति;शोभा मिश्रा

Monday, February 13, 2017

पावन संकल्पों से संकल्पित होकर- सोनरूपा विशाल


 

पावन संकल्पों से संकल्पित होकर- सोनरूपा विशाल 



लेखिका सोनरूपा विशाल से जब भी किसी ख़ास अवसर पर लिखने के लिए कहतीं हूँ वे हमेशा मेरी उम्मीदों पर खरी उतरतीं हैं! विवाह उपरांत भी कैसे उनके सहचर के प्रेम में कोई बदलाव नहीं आया .. उनकी रुचियों को कैसे अपने प्रेम से सींचा .. उसे बहुत खूबसूरती से इस संस्मरण के माध्यम से साझा किया है..



!!संस्मरण!!

मैं जब हँसती हूँ
तुम कहते हो
आह.. चाँदनी सी बिखर गई है!
मेरी अँगड़ाई
तुम्हारे लिए
नदिया की बलखाती लहर है!
मेरा श्रृंगार जैसे बसंत!
मेरी ख़ुशबू हरसिंगार का बगीचा!
लटें बादल!
आँखें डल झील के सजीले शिकारे!
उँगलियाँ मुरलियाँ!
बाँहें गगन!
साँसे पवन!
चाल हिरनी सी!
मेरी नींद जैसे साँझ!
मेरा आँचल जैसे सागर!
प्रेम में तुम मुझमें सृष्टि रच रहे होते हो!
और
ये तुम्हारे प्रेम की शिद्दत है
जिस कारन मुझे ख़ुद में वो सब नज़र आता है
जो तुम्हें मुझमें नज़र आता है !
मैं मुस्कुराती हूँ कभी
कभी बन्द कर लेती हूँ आँखें
कभी एक टक तुम्हें देखती हूँ!
फिर अचानक
तुम्हें अपनी बाहों में गह कर
कहती हूँ कि
जो रची है तुमने
वो सृष्टि अब तुम्हारी हुई!

!!मेरे इन हाथों में तुम गर अपना हाथ नहीं देते,मुझमें कितना प्यार है मैं इससे अनजानी रह जाती!!
ये फरवरी के गुलाबी मौसम की दोपहर थी,तारीख़ 13, जो अब हमें हमारी एंगेजमेंट की तारीख़ के रूप में ज़्यादा याद रहती है ! इस रस्म में हम दोनों के सिर्फ परिवारीजन ही शामिल हुए थे !
उसी शाम जब पापा  रोज़ की तरह क्लब जाने के लिए घर से बाहर निकले, उन्हें सामने एक व्यक्ति और उसके हाथ में बड़ा सा पैकेट जिसे बरेली से कुरियर किया गया था..दिखाई दिया !  ' ये क्या है' पापा ने पैकेट उलट पलटकर  फिर  कुरियर रिसीव किया और उसे अंदर आकर खोलने लगे !  मैं समझ गयी थी कि ये ज़रूर विशाल ने भेजा है !  अगले दिन वैलेंटाइन डे भी था !  मुझे घबराहट हो रही थी कि न जाने पापा क्या कहेंगे!   मैं बहुत झिझक और डर रही थी!   इससे पहले भी विशाल मेरे जन्मदिन पर अचानक रात में आकर मम्मी के हाथ में केक दे कर चलते बने थे और मम्मी अवाक रह गयी थीं !
लेकिन कुरियर देख कर पापा ने कुछ नहीं कहा बस उसको थोड़ा सा ही खोल कर छोड़ दिया!  जिसे हम सब ने बाद में खोला उस पैकेट में बड़ा सा टेडी बेयर, चॉकलेट्स,ग्रीटिंग और रोमेंटिक मेसेज के साथ एक ख़ूबसूरत सी फोटो थी!
उस वक़्त मोबाइल के यूज़र्स कम ही लोग थे !  विशाल के पास मोबाइल था लेकिन मेरे पास नहीं और लेंड लाइन फोन भी घर के बीचों बीच लगा था नहीं तो  विशाल से बोलती कि 'क्या ज़रूरत थी ये सब भेजने की !  वो तो अच्छा हुआ कि आज एंगेजमेंट हो गयी तब आया ये कुरियर, नहीं तो न जाने मम्मी पापा कितना नाराज़ होते!'
ख़ैर एंगेजमेंट और शादी में कुछ ही दिनों का फ़र्क था!  दोनों परिवार शादी की तैयारियों में व्यस्त थे! एक दिन सुबह-सुबह नहा धो कर मैं अपने लंबे बाल सुखाने धूप में बैठी ही थी कि कॉल बेल बजी,देखा तो दो लोग दरवाज़े पर थे !
उस वक़्त जिन्होंने भी उन्हें रिसीव किया उन्होंने आकर बोला कि दो कैमरामेन हैं विशाल जी ने उन्हें भेजा है!  मम्मी ने उन्हें अंदर लेकर आने को कहा! मम्मी के पूछने पर उन्होंने बताया कि उन्हें मेरे कुछ फोटोज़ लेने हैं, मम्मी ने इजाज़त दे दी ! शादी की तैयारियों के दौरान शायद एक दो बार से ज़्यादा विशाल से मेरी बात नहीं हुई थी ,जो मुझे विशाल क्या कर रहे हैं इस तरह का कुछ  पता चलता!  उस दिन मैंने कई तरह की ड्रेसेज़ में फोटोज़ खिंचवाए!
दिन जल्दी-जल्दी बीत रहे थे ! अब शादी कर के मैं ससुराल आ गयी थी!
रस्मों रिवाज़ पूरे करके जैसे ही मैं अपने कमरे में आयी तो सबसे पहले मेरी निगाह दीवार पर लगी मेरी बड़ी सी तस्वीर पर पड़ी ! देखते ही मैंने मन ही मन सोचा 'वाओ मैं और इतनी सुंदर'!  यक़ीन नहीं हुआ उस वक़्त !  काले रंग के शरारे में, काली बिंदी लगाये हुए और खुले बालों में मेरा ये फोटो मुझसे पहले मेरे यहाँ होने का एहसास करवा रहा था!
पूरे कमरे में मेरी पसंद का असर दिखाई दे रहा था !  नये घर में ऐसा ख़ुशनुमा अनुभव मुझे नई जिंदगी के प्रति आशान्वित कर रहा था!
अब एक और नई मुस्कुराहट मेरा इंतज़ार कर रही थी !

कमरे में दो अलमारियों में से एक अब मेरे लिए दे दी गयी थी जिसे खोलते ही मुझे उसमें एक पेपर रखा हुआ मिला जिस पर नीरज जी का लिखा हुआ मेरा बहुत पसंदीदा गीत था !

'फूलों के रंग से दिल की कलम से तुझको लिखी रोज़ पाती,
कैसे बताऊँ किस किस तरह से हर पल मुझे तू सताती
तेरे ही सपने लेकर के सोया
तेरी ही यादों में जागा.....!
मैंने उसे वैसे का वैसा ही रख दिया! इस वक़्त कमरे में मैं अकेली थी तो जम के कमरे का मुआयना कर रही थी! अब मैंने बेड से लगी हुई दराज़ खोली ....अरे यहाँ भी वही गीत लिखा हुआ पर्चा!  म्यूज़िक प्लेयर ऑन किया तो उसमें भी यही गीत बज उठा ! मैं अचरज में थी कि ये क्या माजरा है !  इतने में मेरी ननद आ गईं मैंने उनसे इस बारे में पूछा तो वो ख़ूब हँसने लगीं बोलीं 'जब भैया का हमसफ़र इतना सुरीला है तो उसे इम्प्रेस करने के लिए कुछ तो गाना वाना गाएंगे न!  भाभी ये गाना भैया आपको सुनाने के लिए याद कर रहे थे,शादी की व्यस्तताओं में याद नहीं कर पा रहे थे तो जगह-जगह लिख कर रख लिया और याद करते रहे!
मुझे हँसी आ गयी! वो दिन है और आज का दिन है विशाल से जब भी कोई गाना सुनाने को कहती हूँ तो यही गाना सुनाते हैं और मैं दोबारा उन्हीं पलों को जी लेती हूँ !
ऐसे अनगिन पल हमारे पास हैं जिसने हमारे प्रेम को आकाश सा विस्तार और चाँद तारों सी रौशनी दी है !
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न जाने कितनी ग़ज़लों,गीतों में पिरोया है मैंने अपने प्रेम को !अपनी कैफ़ियत तो बयां करने की फ़न ईश्वर ने मुझे दिया है लेकिन अक्सर जब विशाल को अपने अहसासात कहने के लिए शब्द नहीं मिलते तो मेरे इसी फ़न से वो थोड़ी-थोड़ी जलन महसूस करते हैं ! मैं मुस्कुरा देती हूँ और कहती हूँ
'भले ही न हों तुम्हारे पास शायराना लफ़्ज़, न हों तुम पर प्रेम में पगे हुए शब्दों का ख़ज़ाना लेकिन तुमने एक संवेदनशील,भावुक पत्नी को कभी बिखरने नहीं दिया है तुम मुझे इतना समझते हो कि जब मैं कुछ लिखने की प्रक्रिया में होती हूँ ,तुम बहुत ज़रूरी होने पर भी मेरे ख़्यालात की दुनिया में दस्तक नहीं देते!मेरी हर उपलब्धि जैसे तुम्हारी उपलब्धि है ,ऐसी बहुत सी बारीक बातों से मैंने जाना है ये तुम्हारा समर्पण है मेरे प्रति!
जीवन में आयी हर परिस्तिथि, हर ज़िम्मेदारी निबाहने में तुम मुझे सक्षम पाते हो, ये तुम्हारा विश्वास है मेरे प्रति!
मेरी कई रुचियों की पौध तुम्हारे साथ और समर्थन से लहलहा उठी हैं ! मेरे आकाश,निजता,विस्तार को तुमने सदा सम्मान दिया है! ऐसी कई भागीदारियाँ जतलाती हैं कि ये तुम्हारा आदर है मेरे व्यक्तित्व के प्रति!
मैंने तुम्हें 'तुम' रहने दिया है और तुमने मुझे 'मैं'!हमारी ये समझदारी हमारे 'हम' होने में बहुत अहम है !
समर्पण,विश्वास,आदर,सम्मान जैसे रंगों से मिलकर प्रेम की तस्वीर बनती है!'




मैं एक गीत अपने प्रेम को समर्पित करते हुए संस्मरणों की असीम श्रृंखला के इस अंश को पूर्ण कर रही हूँ!


!! गीत !!

रेशम रेशम ख़्वाब सजाना आया है
प्यार तुम्हारा जब अन्तर में छाया है

दुनियादारी में अब कोई सार नहीं
मन ये बातें सुनने को तैयार नहीं

प्रेम का हर पल सचमुच कितना अद्भुत है
मेरा ही मुझ पर कोई अधिकार नहीं

प्यार है ये कोई या कोई माया है
प्यार तुम्हारा...............................!

पावन संकल्पों से संकल्पित होकर
ख़ुश रहती हूँ तुमसे अनुबंधित होकर

तुमको अपने मन में अंकित करके मैं
और तुम्हारे मन में मैं अंकित होकर

गुमनामों में अपना नाम लिखाया है
प्यार तुम्हारा................................!

मरुथल से इक झील हुए हम तुम मिलकर
उजियारी कंदील हुए हम तुम मिलकर

एक लहर पानी में ज्यों घुल जाती है
ऐसे ही तब्दील हुए हम तुम मिलकर

हर शय ने हम पर अमृत बरसाया है!
प्यार तुम्हारा...............................!

-- सोनरूपा विशाल 

मुझमें रही न हूं - रोहिणी अग्रवाल






हिंदी की प्रेम कहानियाँ - जिनमें प्रेम के रूप में सिर्फ समर्पण, त्याग और गूढ़ आस्था का चित्रण है, उस स्थापित प्रेम के स्वरुप की आलोचनात्मक शिनाख्त करता रोहिणी अग्रवाल जी का सारगर्भित लेख ..


तूं तूं करता तूं भया, मुझमें रही न हूं

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प्रेम से भी ज्यादा मनोहारी है प्रेम की कल्पना। किसी अतींद्रीय लोक में ले चलती जहां न सामाजिक दबाव और वर्जनाएं हैं, न लोभ-मद-मत्सर। है तो प्रेम करने और पाने की अकुंठ स्वतंत्रता! इतनी कि प्रियजन एकाकार होकर अपने अलग.अलग अस्मिता ही भूल जाएं। मानो प्रेम और कुछ नहीं, आत्मविस्मृति के जरिए आत्म विस्तार की सर्जनात्मकता का आह्लाद है।

अमूमन हर साहित्यानुरागी अपने पाठक-जीवन के प्रारंभिक चरण में प्रेम कहानियों के रस से सराबोर जरूर हुआ है। खुली आंखों और पन्नों पर कसे हाथ में किसी अदृश्य तूलिका के साथ वह हृदय की भीतरी गहराइयों में उतर कर कब अपने सपनों और कल्पनाओं को प्रेम की तरल रंगत में डुबोने लगता है, पता ही नहीं चलता। प्रेम उसे मुक्त करता है और उसकी अदना सी हैसियत को सृष्टि का विस्तार और गहराई का आधार देने लगता है। लैला-मजनू, शीरी-फरहाद, राधा-कृष्ण, रोमियो-जूलियट, युसूफ-जुलेखा की कितनी ही कहानियां मुझे अपने सम्मोहन में बांधने लगी हैं। समर्पण, त्याग, विरह की मीठी यादें और मिलन की उदग्र आशा - लगता है इन मनोवृत्तियों और मनोकांक्षाओं के बीच चहलकदमी करती कोई भाव हिलोर है प्रेम। 'लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल' वाली स्थिति जिसे आध्यात्मिक संदर्भों का बाना पहनाकर कोई रहस्यवाद का नाम देना चाहिए तो भले ही दे ले, लेकिन है तो वह नारसिस जैसी आत्ममुग्धता की पराकाष्ठा।

मैं रुक जाती हूं। एक ही सांस में दो परस्पर विरोधी बातें! बरजती हूं खुद को कि प्रेम का अर्थ रोमानी हो जाना नहीं है, सामाजिक संदर्भों में प्रेम के स्वरूप और तत्वों की आलोचनात्मक शिनाख्त करना भी है। विश्व की तमाम प्रेम कहानियों के साथ हिंदी की प्रेम कहानियां दबे पांव मेरी स्मृति में चली आई हैं। 'अरे, यह क्या''ए मैं चौंक जाती हूंए ''प्रेम कहानियों में प्रेम ही नहीं!'' देखती हूं, 'उसने कहा था' में प्रेम की स्मृतियों को जगा कर इमोशनल ब्लैकमेलिंग करती सूबेदारनी के भीतर की प्रेमिका को धकियाकर पतिव्रता पत्नी और ममतामयी मां आ बैठभ् है जो अपनी गृहस्थी को बचाने के लिए अतीत के प्रेमी से जान की कुर्बानी लेने में भी नहीं चूकती। 'जान्ह्वी' कहानी में 'दो नैना मत खाइयो जिन पिया मिलन की आस' कहकर अपने प्रेम को महिमामंडित करती जान्ह्वी की पीड़ा जरूर है, लेकिन ऊपरी सतह खुरचते ही वहां पितृसत्तात्मक व्यवस्था की अहम्मन्यता के साथ.साथ स्त्री-पुरुष स्टीरियोटाइप्स यथावत बनाए रखने की सजग लेखकीय चेष्टाएं भी हैं। 'यही सच है' में दीपा का द्वंद्व नहीं, दो प्रेमियों में से किसी एक का चयन कर अपने भविष्य को सुरक्षित कर लेने की सजग भौतिक चिंताएं हैं तो 'तीसरी कसम' में प्रेम की नक्काशीदार कल्पना के सुख में स्त्री के सौंदर्य और यौवन का भोग करने की लोलुप प्रवंचनाएं हैं। मनोजकुमार पांडेय की कहानी 'और हंसो लड़की' में ऑनर किलिंग को वैध ठहराती सामाजिक दरिंदगियां हैं जो प्रेम कर सकने वाली स्त्री की स्वतंत्र निर्णय क्षमता से खौफ खा कर हत्या और आतंक को अपने वर्चस्व का पर्याय बनाती हैं। फिर वंदना राग की कहानी 'यूटोपिया'! यहां प्रेम वासना का रुप ही नहीं लेता, अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति अपने मन में पलती घृणा को घिनौने प्रतिशोध में बदल देता है। तो क्या प्रेम विडंबना का दूसरा नाम है?

लेकिन 'कोसी का घटवार' के गुसाईं-लछमा और 'आषाढ़ का एक दिन' के विलोम की प्रिय के प्रति निष्कंप आस्था और अकुंठ समर्पण की भावना देख मैं अपने ही कथन को सुधारने लगती हूं कि प्रेम हर विडंबना का सहज स्वीकार है। प्रेम है, तभी तो विडंबनाओं के दुर्दांत हस्तक्षेप से अपने को बचाना आसान हो जाता है।

प्रेम का दुर्भाग्य यह है कि इसके अखंड-समग्र रूप को जाना-पहचाना नहीं जा सका है। वह औदात्य की पराकाष्ठा या वर्जनाओं का घटाटोप अंधेरा बनाकर रूढ़ियों में बांध दिया जाता है। साहित्य की दुनिया से परे यथार्थ जगत के कस्बाई और ग्रामीण जीवन में यह 'उच्छृंखलता' या 'शर्म' के रूप में आता है तो महानगरीय संस्कृति में 'आधुनिकता' और 'स्टेटस सिंबल' बन कर। दावा किया जाता है कि प्रेम समय और मनुष्य का संस्कार करता है, लेकिन देखा यह गया है कि अपनी ही भौतिक लिप्साओं और संकीर्णताओं में खोया हुआ समाज प्रेम को लोभ, भोग और वासना में तब्दील करते.करते निजी जायदाद की जद में ले आता है। तब प्रेम में एक ही धरातल पर खड़ी दो संवेदनशील-विवेकशील मनुष्य अस्मिताएं अपना वजूद खोकर जेंडश्र में तब्दील होने लगती हैं, यही नहीं, नेपथ्य से निकलकर आती पितृसत्तात्मक व्यवस्था 'कांता सम्मत उपदेश' देते हुए स्त्रीसे एकनिष्ठ भाव से प्रेम, त्याग, समर्पण, नैतिकता, और मनुष्यता के उंचे-गहरे मूल्यों को संभाले रखने की अपेक्षा करने लगती है, और प्रेम (भोग) का चश्मा पहन कर पुरुष को इधर-उधर हर हरे भरे खेत में मुंह मारने का लाइसेंस दे देती है। प्रेम चूंकि हर तरह के द्वैत, विभाजन और विषमता को अस्वीकार करता है, इसलिए यह 'वसुधैव कुटुंबकम्' का कानफोड़ू नारा बन कर नहीं आता, किसी के अंधेरे कमरे में दीया जला कर अदृश्य हो जाने की साधना में ढल जाता है। अंदर की मनुष्यता का उत्खनन है प्रेम, और एक ऐसी शै जिसका उत्स, अस्तित्व और लक्ष्य सब एक है - प्रेम।

प्रेम बुलबुले की तरह उग कर फूट पड़ने वाली क्षणिक स्थिति नहीं है। इसलिए असफल प्रेम की अभिव्यक्ति के नाम पर वह एसिड अटैक, बलात्कार या हत्याकी कायर साजिशों में उभर कर अपने को गिराता नहीं, आकर्षण को हार्दिकता और उत्तेजना को सृजन के आनंद में तब्दील कर 'चितकोबरा' उपन्यास के मनु-रिचर्ड और 'मढ़ी का दीवा' के जगसीर-भानी की तरह प्रेम की परिधि मे हर दबी-कुचली अस्मिता को ले आता है। आज यदि साहित्य में प्रेम 'वन नाइट स्टैंड' या दैहिक तृप्ति का एक माध्यम मात्र बन कर रह गया है तो समाज के विघटनशील चरित्र के साथ-साथ साहित्यकार की सृजनशीलता के क्रमश- क्षरित होते चले जाने का भी सूचक है।निजता की क्षुद्रताओं से खींच बाहर कर चिंतन की ऊर्ध्वगामी दिशाओं को मनुष्य, समाज और सृष्टि के साथ जोड़ देने पर उसमें दर्शन की जो गहराइयां आती हैं, दरअसल वहीं प्रेम का घर है। दो मनुष्यों के बीच आकर्षण की लुकाछिपी से शुरु हुआ प्रेम अपने भीतर के कल्मष को धोने की प्रक्रिया में इतना नि:संग और समर्पित, दृढ़ और लचीला, एकांतप्रेमी और सार्वजनीन बन जाता है कि वह अंततः अपना मूल रूप खोकर आत्मानुशासन में बंधी स्वाधीन प्रेरणा का प्रचारक बन जाता है।

आज की उपभोक्ता संस्कृति के लिए प्रेम भीषण गर्मी में कुल्फी का लुत्फ उठाने की ऐयाशी भले हो, दरअसल यह कोमलता और संवेदना के सहारे सिरजी वैचारिक उदारता के साथ मनुष्यता के संरक्षण का पहला और आखरी कदम है। चूंकि साहित्य यथार्थ जगत की अपूर्णताओं की जीरॉक्स प्रति नहीं है और न उन से पलायन की युक्ति, इसलिए उसे ही हिंसा और उन्माद से संत्रस्त समाज को बताना होगा कि प्रेम विश्वास और सद्भाव की खोई हुई निधियों को पाकर भीतर तक समृद्ध हो जाने के ऐश्वर्य का दूसरा नाम है।

-डॉ रोहिणी अग्रवाल
डीन, मानविकी संकाय महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, रोहतक
9416053847

(साभार जनसत्ता )

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