Sunday, September 03, 2017

अग्निगर्भा



 

"इस बार रमाकांत स्मृति कहानी पुरस्कार के लिए निकट पत्रिका में प्रकाशित Divya Shuklaदिव्या दीदी की कहानी 'अग्निगर्भा ' का चयन किया गया है। स्त्री मन को सहजता से परखती, पुरुष के खोखले अहंकार पर चोट करती सशक्त कहानी लिखने और रमाकांत स्मृति कहानी पुरस्कार के लिए ढेरों बधाइयाँ और शुभकामनाएं दीदी को!
अग्निगर्भा कहानी फरगुदिया पाठकों के लिए..!"

अग्निगर्भा
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ठाकुर केदारनारायण सिंह की तिमंजिला कोठी में जश्न मनाया जा रहा है |
देर रात तक ढोल टनकती रहती ,जुग जुग जिए रे ललनवा ,के अंगनवा के भाग जागे ,
जच्चा बच्चा ,सोहर नटका सब चलता ,बेसुरी हो या सुरीली सभी बहुएँ गाने को उतावली थी |
आखिर बड़ी बहू की गोद जो भरी थी , गाँव की पुरनिया औरतें कहती ऐ भला सुने रहीं अब देखयु लिहिन पथरे पै दूब जामि आई है |
केदारनरायण जी के दो बेटे है बड़ा बेटा रूद्र प्रताप सिंह ,उनसे आठ बरस छोटा महेंद्र प्रताप | बीस बरस पूरा होते ही रुद्रा के ब्याह के लिए ठकुराइन काकी लड़की छांटने बेराने लगी ,हर शादी ब्याह में आई बिरादरी की सुंदर लड़की देखते ही उसका सिजरा निकलवा लेती | और गुपचुप तरीके से कुल खानदान ,कन्या का चालचलन सब कुछ पता करवाती ,उसके बाद कुंडली भी मिलवाती | पंडित जी को मोटी दक्षिणा दे कर सबसे पहले यही पूछती कन्या की कुंडली में पुत्रयोग है या नहीं बल्कि कई सुंदर सुशील लडकियां तो बस इसी कारण ठुकरा दी गई क्यों की उनकी कुंडली में कन्या का योग प्रबल था और ठकुराइन काकी कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहती थी |
उनको पोता खिलाने की बड़ी लालसा थी ,ठाकुर कक्का भी अपनी मूंछ के नीचे मुस्कराते रहते | अपने वंश के कुलदीपक की कल्पना में खिल जाते " कहते तुम सही कह रही हो अब बस रुद्रा का ब्याह हो ही जाना चाहिए , घर में कोई कमी तो है नहीं ऊँची दुमंजिला हवेली शान से सर उठाये खड़ी है ,सैकड़ों बीघा खेती है बड़ी उपजाऊ जमीन है ,आखिर अब हमारी वंश बेल को बढाने वाला तो आना ही चाहिए वरना किसके लिए यह सब बनाया है क्यों ठकुराइन ? “--”सच कह रहें हैं आप फिर वंश बेल भी तो कुंवर कन्हाई से ही बढ़ेगी " |
........सच में कोई कमी नहीं थी कोठी की सबसे ऊँची छत पर खड़े हो कर देखने पर जहाँ तक निगाह जाए सारी जमीने इन्ही की है ,महुआ जामुन के ढेरों पेड़ , केवल दशहरी आम के बाग़ ही हर फसल पर लाखों में बिक जाते | उस पर देसी आम के भी ढेरो पेड़ भी थे | काका ,काकी ने कभी देसी आम नहीं बेचा , यह हमेशा परजा और गाँव के बच्चो के खाने के ही लिए छोड़ दिया जाता |
पकी सींकर के लिए अक्सर ही बच्चो में सर फुटौवल होती ही रहती |
हालंकि रुद्रा भईया हमेशा कहते " इन्हें भी बेंच दीजिये बाबू जी चार पैसे क्या काटते है आप लोगों को ,एतना दया धर्म की कवनव जरूरत नाही " ...पर कक्का डपट देते बेटे को .... " अपने राज में करना ई चिरकुटई जब तक हम दुइनव परानी जिन्दा है ऐसन चली " बड़ा करेजा था काका काकी का , सारा गाँव अपना कुनबा ,चाहे बड़े घर के हो या छोट जाति के काकी कबहू कमी नहीं की व्योहार में |
आखिर बडके भईया की शादी तय हो गई | रूद्र प्रताप को सब गाँव घर में बडके भईया पुकारते है काकी ने तो कभी उनका नाम नहीं लिया , वो कहती " जेठ बेटवा कय नाम नाही लीन जात " |
उनकी बड़ी साध थी पतोहू उतारने की ,आखिर वो दिन आ ही गया जब चंदा बहू उतरी बड़े आंगन में | दुलहिन नाम से ही नहीं रूप से भी चन्द्रमा थी | अंजोर हो गई केदारनारायण सिंह की कोठी | काकी के तो पाँव ही नहीं पड़ते जमीन , में बिहंस बिहंस पड़ती ,इतवार मंगल नजर उतरवाती चंदा बहु की | पल पल मुंह निहारती ... " कुछ खा लेव दुलहिन ...मुंह झुराय गय... देखा त कैसयन गुलाब के फूल अस लाल लाल ओठ मुरझाय गय |
" अब बिचारी कितना खाती ,चंदा बहू बहुत गुणवंती रही ,मुंह अंधियारे भोरे ही उठ के स्नान कर लेती ,सास ,ससुर के पाँव आंचल से सात बार धर के माथे लगाती ,अंगना के कोने में बने मन्दिर की झाड पोंछ कर दिया जला देती | उनकी पायल की रुनझुन से घर आंगन गुनगुना उठता | धीरे धीरे काकी के सारे काम समझ लिया उन्होंने |
ठाकुर खानदान की एक पुरानी बखरी गाँव के दुसरे छोर पर थी | इस बखरी को केदार कक्का के परबाबा यादवेन्द्र सिंह ने बनवाया था इसे सब बब्बा की बखरी कहते थे | एक जमाने में बड़ी रौनक होती थी यहाँ | अब तो गाँव में छोटे या बड़े किसी भी घर में बेटी का ब्याह होता तो बारात का जनवासा यही दिया जाता |
बाकी समय गाँव भर के खलिहर लड़के यही पर जमावड़ा लगाते ,आजकल तो उन्ही के साथ रुद्रा भईया भी बैठकी करने लगे थे |बियाह के बाद से तो उनका ज्यादा समय घर से बाहर ही गुजरता |
शुरू शरू में तो सब को लगा माँ बाप का लिहाज़ है जभी लड़का दिन दोपहर अपने कमरे में नहीं जाता |
,गाँव के बूढ पुरनिया तो नए ब्याहे लड़कों को सुना कर तीखे शब्द बाण छोड़ते ... " आजकल के लौड़े लपाड़ों को लिहाज़ ही नहीं सरम लिहाज घोर घार के पी गए सब ,घरघुस्सू होई जात है मेहरारू के मुंह देखत मान .......अरे रुद्रा बेटवा से तनी सीख ले , कितना लिहाज़ है महतारी बाप ,नात बात सबय के ........ मजाल है कबहू दुलहिन के साथ बाहर दिखाय पड़े ...........अरे ऊ घर के अंगना में भी नहीं सबके सामने बोलत बतियात नहीं दीखते बडकी दुलहिन से " |..
नाते रिश्ते गाँव घर की नई नवेली दुल्हिनो को चंदा बहू का उदाहरन दिया जाता , जरा देर से आँख खुली नहीं कि दिन भर तीर चलाने का मौका मिल गया सास को |
पड़ोस वाली तिवराइन चाची तो अक्सर ही अपनी सिर्फ पांच महीने पुरानी बहू को जिस दिन भी उठने तनिक भी देर हो जाती यह श्लोक दिन कई कई बार सुनाती ..... " अरे सीख लो कछु चंदा बहू से ... तुमसे बडवार घरे की बिटिया ..... जैसन नाम वैसन रूप ....भोर होते ही सास के पाँव पर मस्तक नवाती है ...एक तुम दरिद्र की बिटिया ...... चार चिंदी और नान नान झाबा मा बतासा लाई .......और गुमान इतना ....सूरज देउता खोपड़ी पर चढ़ आये अभी महारानी की आँख नाही खुली .....अरे ऊ तो मर्द जात है ओकर कैसन बराबरी ....रात भर ठिल्ल्बाज़ी करिहै मेहरारू , मन्सेधू --अउर दिन चढ़े तक किवाड़ बंद ,लाज सरम सब बेंच खाएँ है --- ऊ का कहत है की --- तू पिया सुंदर ,मै सुकुवार /दूनो जने सोई ,होय भिनसार -- एनका बस चले तो दोपहरिया तक भतार का लई के सोवत परी रहें " |
दिन ,महीना साल बीतते देर नहीं लगती ,साल भर तो ठकुराइन काकी चंदा बहू पान फूल की तरह फेरती सहेजती रही , चिड़िया चुनमुन की तरह चुगाती ,अपने साथ ही खिलाती ,फल काट कर कमरे में रख आती कहती -- " लरिका है सरमात है हमरे सामने --जब देह संभरी तब्य तो हमरी गोद में कुंवर कन्हाई देई --अबय कमजोर है " रूद्र बाबू को कभी घोसती रहती तो कभी बहुत दुलार से कहती " दुलहिन को ले जाओ भईया घुमा लाओ बैजू से बोल कर गाडी निकलवा लो दुलहिन को सहर घुमाय ले आओ ,बाजार से ओकरी पसंद से जवन चाहे देवाय दो ,तनी गहना गुरिया गढ़वाय देव पहिरे ओढ़य की इहे त उमिर है "
नवा सनीमा लगा है देख न आओ तुम दोनों " ....गाँव से लगे कसबे में सिनेमा हाल है .....सभी नई उमर के जोड़े कभी इजाजत ले कर तो अक्सर छुप पर पिक्चर देखने जाते , बहाना होता मन खराब है तबियत ठीक नहीं है डाक्टर से दवाई ले आये ..... आते समय दुकान से विटामिन और दर्द की गोलियां ले आते .....चोरी का गुड कितना मीठा होता है यह उन के चेहरे पर दिख जाता |
पर रूद्रप्रताप नहीं गए तो नहीं गये -- इतनी सुंदर सुघर पत्नी ......और कोई होता तो दिन दोपहर इर्दगिर्द भंवरे की तरह मंडराता रहता .....नई नई शादी का यह प्रेम हर पल पाने की यह लालसा स्वाभाविक होती है |
चंदा बहू की आँखे दरवाज़े की ओर ही लगी रहती हर पल बाट जोहती लेकिन वो क्या कहती किसी से --उनके दिन द्वार पर टकटकी लगाये और रातें करवट बदलते गुजरती है |
पहली बिदाई में जब मायके गई तो ,सभी सखी सहेलियों ने घेर लिया | भौजाइयों ने भी चुहल करनी शुरू कर दी | सभी उसे खोद खोद कर मिलन यामिनी की एक एक बात पूंछ रही थी -- वो मुस्करा भर दी , माँ ,चाची की अनुभवी आँखों ने कुछ ताड़ जरुर लिया ,शक तो बड़ी भाभी को भी हुआ पर सब को उसने बहला दिया | आश्वस्त हो गए सब ,महीने भर रह कर वापस आ गई |
सास बहु में प्रेम ही कुछ ऐसा था ,काकी का मन ही नहीं लग रहा था घर की दुल्हनियां बिना ,पर रुद्रा ने एक बार भी न पूछा | माह बीत गया कोई चिट्ठी न संदेस | अब तो गाँव के डाक घर में टेलीफोन भी था , और डाकघर घर के एक कमरे में ही खुला था |
चंदा के बाबू जी ब्लाकप्रमुख और दबंग ठाकुर थे इलाके के ,सो फोन सेवा उधर भी थी ,पर इससे क्या जब चाह ही न हो | ....हाँ सास बहू जरुर बतिया लेती और ठाकुर कक्का भी अपनी रानी बहु का हाल लेते रहे ....अपने मायके में ससुराल का भरम बना , अपनी सखी सहेलियों से झूठे सच्चे किस्से सुना कर उन्हें संतुष्ट कर वापस अपनी ससुराल लौट आई रुद्रा बहू |
जैसे जैसे समय बीता ठकुराइन की अकुलाहट बढ़ने लगी --अब ठाकुर केदारनारायण भी पत्नी से हंसी मजाक में कह जाते " अरे कब दावत करवा रही हो ---अबकी बड़का ब्रह्मभोज अलग से करेंगे चाहे जितने लोग आवें ---देवी मैया को बलि दे कर बिरादरी के खाने -पीने का भी इंतजाम रहेगा ..........आपको याद है ठकुराइन रुद्रा के जन्म पर कितना जोर दार नाच गाना हुआ था .....
अब उसके बेटे के जन्म पर उससे बढ़ कर ही होना चाहिए ... "अपना बस कहाँ -- देवी मैया कृपा करे जल्दी ई दिन देखय को मिले " .....काकी बीमार रहने लगी थी .....मन्दिर मन्दिर माथा टेकती --पीर फकीर कुछ नहीं बाकी रहा ......कोई पंडित महात्मा सुनती दौड़ जाती बहुरिया को ले कर ........दान दक्षिणा ,व्रत नेम धरम सब कुछ कर डाला |
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इधर रुद्रा ठाकुर का जमावड़ा बाबा की बखरी में दिन दिन भर लगा रहता | वही देर रात तक टेपरिकार्डर बजता गाना सुना जाता भांग घोटी जाती .....दूध घी की कोई कमी तो थी नहीं , मुगदर भांजते और कटोरा भर बादाम और घी पी जाते , उस पर खालिस दूध सीधे थन से निकाला हुआ लोटा भर के डकार लेते | कसरती शरीर ,उघार देह पर मछलियाँ मचलती दिखती ,ऐसी देह बनाई थी रुद्र ठाकुर ने |
रात पहर भर बीत जाती तब जाते सोने और भोरे ही फिर यही मजलिस में हाज़िरी लग जाती | कभी अगर चंदा बहू मनुहार भी करती "आज तनिक जल्दी आ जाव --दोपहरिया में घर पर खाना खाय लेव " तो आँखे तरेर देते और बेचारी चुप हो जाती , चंदा बहू तो जैसे धरती मईया से सहन शक्ति आशीष में मांग लाई थी |
न तो उनकी चादर कभी मैली हुई न ही भोरे भिनसारे कभी बाल धो कर उन्होंने सास का पाँव छुआ ....वह तो उठते ही सीधे पहले अपनी अम्मा के पाँव पर मस्तक नवाती फिर गुसलखाने में जाती ,काकी ने यह बात बड़ी बारीकी से गौर किया .... " दुलहिन वैसी ही कोरी लागे जैसे बिदा करा के लाई थी ".......कई दिन सोचती बिचारती रही ,बड़े ठाकुर केदार बाबू से सलाह मशविरा किया बहुत देर तक बैठक बंद कर के बात हुई |
फिर निर्णय हुआ शहर ले जा कर बहू को डाक्टरनी को दिखाया जाय ,ई बैद हकीम के बस का नहीं | धीरे धीरे पांच बरस बीत गए ,हम दूनो प्राणी तो अब भगवान भरोसे ही है ..........शहर की डाक्टर ने चंदा को देखा ......खून की जांच करवाई .... " कमजोर तो हो ही गई है दुलहिन काकी बोली " .. डाक्टर से कुछ पूछना चाह रही थी पर वो उन्हें दुसरे केबिन में ले गई और जब काकी वहां से निकली तो उनका मुख सफ़ेद था | बहू ने कहा ......... "अम्मा क्या हुआ तबियत खराब है क्या?...
डाक्टर हमारी अम्मा को देखिये इनके हाथ पाँव क्यों ठंडे हो रहे है ? " ---" कुछ नहीं हुआ सब ठीक है आप इन्हें ग्लूकोस दीजिये ..और अपने पति से कहिये वह अपनी जांच करवा लें .... यह विटामिन की गोलियां लेती रहें सब ठीक है आप में " |
गाँव लौटते समय काकी रास्ते भर सोचती रही ,महेंद्र के बाबू जी को का बतायेंगे , बड़ी आस पाले है गोद में पोता खिलाने की ,अब ललक तो उनको भी तो है पर क्या करें , बियाह के पांच बरस हो गए कोई महीना ऐसा नहीं गया जब दुलहिन चार दिन रसोई से फुरसत न की हो अचार खटाई से दूर रहती उन दिनों बाल धोने के दिन कभी आगे पीछे न होते काकी लाख मनौती मानती तब भी हर महीने निराश हो जाती |
अब तो काकी ने चमत्कार की आस पाल रखी थी ,पर आज डाक्टरनी की बात से मानो बज्रपात होई गया , वो अकेले ही बडबडा रही थी " ई का देवी देउता है ,चार किताब पढ़ के केहू के भाग लिख देइहैं " सोचते बिचारते अपने आप को समझाते रास्ता कब पार हो गया पता ही नहीं चला |
घर पहुँचते ही देखा केदार बाबू बाहर ही बरामदे में बेचैन हो कर चहलकदमी कर रहे है |
गाड़ी रुकते ही खुशखबरी सुनने की आस लिए काकी की ओर देखा और बोले ---" रुद्रा की अम्मा बड़ी डाक्टरनी ने जांच किया क्या बताया ? " ---
काकी उनका मुंह निहारती रह गई | बालकों जैसी चमक थी उनकी आँखों में जैसे कह रहे हो कब आएगा नन्हा खिलौना हमारे आंगन में | .... " अरे सांस तो लेने दें बताउंगी सब बताउंगी --पर फुरसत से " ----
" अरे मलकिन हमहूँ को बताव तो कब बाबा कहे वाला आई ,वैसे तो अबहूँ हमार ठकुराइन गवने की दुलहिन लागत है और हम बांका जवान ,सुनो अगर तुम चाहो तो तीन चार बेटवा अबहूँ पैदा कर लें ".----
---" ह्त्त बहुत बेसरम होई गए आप तो बहू आय गई पर साध नहीं गई , भजन कीर्तन की बेला है अब तो ".....
.. " तो तुमहीं करो भजन कीर्तन फिर न हमको दोस न देना ......अरे घर में भूखा रखोगी तो बाहर खायेंगे ही ..........फिर तुनतुनाना मत ,अरे मनुष्य है कवनो देवता नहीं इससे तो देवता भी नहीं बच पाये ........तुम ही थी जो हम जैसे छुट्टा सांड को नाथ ली ........गवने की पहली ही रात न जाने कौन सा मन्तर फूंका कि ऊ बेला और ये आज का दिन तुम्हरे आंचल में पड़े है ये केदार बाबू " ----
कह कर धीरे से काकी को टीहुनिया दिया और ठठा कर हंस पड़े | लाज से लाल हो गया ठकुराइन का मुख मन ही मन तो निहाल हुईं पर आँख तरेर कर चंदा बहू की ओर इशारा किया ...... "अब चुप भी रहो तुम " ......." अच्छा तो बताओ क्या बोली डाक्टरनी ? "......" अरे कुछ नहीं सब ठीक है बस जब देवी मैया की इक्छा होगी तो दुलहिन की गोद भर जायेगी ........सुनो एक बात कहें महेंद्र के बाबू " ..... " हां बोलो न "
........... " अपना छोटका की भी तो बियाह की उमिर हो गई है ---- अब उसके लिए अच्छे खानदान की लड़की देखे आप ........ इधर रामा नाऊ से जिकिर भर करे उधर अपने आप बात फैल जायेगी ...और देखवार आने लगेंगे " ........महेंद्र ने इसी साल बारहवी का इम्तहान दिया था |
...पढने में तेज़ था ........... " अब सत्रह बरस का हो गया है लड़की देखते देखते साल बीत ही जाएगा ...तब तक अट्टारह साल का भी हो जाएगा ,,, इसी गर्मी में शादी ठान लेते है " काकी ने पति से कहा .... यह बात छेड़ कर पहली बार कुछ छुपाया उन्होंने डाक्टरनी की आधी बात ही बोली वह ---
युधिष्ठिर की भाँती ......अश्वथामा हतो ,,,नरो वा कुंजरो .....जैसा कुछ बोल कर टाल गई |
पति से जीवन भर झूठ नहीं बोली अब सच कह कर कैसे ठेस लगायें ... खुद पी गई हलाहल और रोक लिया कंठ में नीलकंठ की भांति |
" बहू से भी कुछ नहीं कहा बस इतना की बड़का भईया आपन जांच करवा ले तो .....तो मन शांत हो जाय " .... " अरे सब ठीक होई .....डाक्टर के चोंचले है पैसे के लिए " काकी बोलती जा रही थी --
"हूँ " कह कर रह गई चंदा ---काकी ने अब अपनी आस महेंद्र पर टीका दी |
तेज़ी से लड़की देखने का सिलसिला चल पड़ा ---- "बडकी दुलहिन के मायके से ही अगर छोटके के लिए लड़की मिल जाती तो बहुत अच्छा रहता " ---पर चंदा बहू के कोई बहन थी नहीं नाते रिश्ते में भी सब बियाही बरी थी |
आखिर दो साल बीतते बीतते महेंद्र बाबू घोड़ी चढ़ ही गये ....पर ब्याह से एक पहले शर्त रख दी " लड़की तो भौजी ही पसंद करेंगी " |
अब भौजी के लाडले देवर जो थे माँ जैसा सम्मान भी देते और दोस्त जैसा मान भी |
.जिद ठान बैठे " जिसको भाभी हाँ करेंगी हम उसी से ब्याह करेंगे "..... सास के साथ चंदा भी देवरानी देखने जाती और आखिर में चुन कर हीरा लाई अपने लाडले देवर के लिए |
---लड़की की फोटो भी मांग लाई उसकी माँ से ....महेंद्र बबुआ को दिखा कर छुपा लेती ........."अब दिखा भी दो भौजी देखे तो कौन हुस्न परी छांटी हो तुम .....
कोई भी हो तुम्हारा देवर बीस ही रहेगा " ..........
. " अब बबुआ अब तक तुम थे अब से हम देवरानी की तरफ ही रहेंगे " .......
."अच्छा पहला बदल ली बड़ी खराब हो भौजी और हमको अकेला छोड़ दिया " .....
.मुंह बिसूर कर झुट्टे ही बैठ गए महेंद्र बाबू | भौजाई का मन पानी हो गया तस्वीर थमा दी तुरत ही देवर को ----
बहुत सुंदर कन्या थी मोहनी | देवरानी जेठानी का जोड़ बराबर था | बड़े चाव से शादी की तैयारी में लग गई चंदा ,आखिर बड़ी बहू थी सारी ज़िम्मेदारी अब उन्ही की थी | काकी उन्हें बताती जाती वो निपटाती जाती | रोज़ रात को गाँव की औरते बडके आंगन में जुटती बन्ना गाया जाता ,नाच होता चंदा बहू का कंठ बहुत सुरीला था कोयल सी कूकती | नाचती तो ऐसे जैसे पाँव में बिजली लगी हो | घूँघट को तर्जनी और मध्यमा ऊँगली में दबा कर गोल घूमती तो पतली कमर लचक जाती ...और एक ओर झुक झुक जाती मानो फल से लदा पेड़ झुक जाए | ऐसी देहयष्टि की स्वामिनी पूरे दस गाँवों तक नहीं थी | बारात सजी केदार काका लांगदार धोती और प्योर सिल्क के कुरते में सजे अपनी रोआबदार मूंछो पर ताव दे रहे थे आखिर समधी थे ,रूद्र प्रताप भी बहुत प्रसन्न मन से बारात का इंतजाम देख रहे थे ,कन्या पक्ष की शानदार आवभगत से मुदित थे सभी परिजन .|.
.विवाह की रस्म पूरी हुई और महेंद्र बबुआ दुलहिन बिदा करा लाये |
काकी ने अपने छोटके की दुलहिन उतारी | परछन ,कोहबर आदि की रस्म पूरी कर दुलहिन को उसके कमरे में बैठा दिया गया | काकी ने कहा ...... " अब मुंह दिखाई बाद में होगी तनी बहुरिया पीठ टिका ले थक गई होगी ....रात भर ब्याह हुआ उसका भी जागरण ---फिर बिदाई की पीड़ा और रास्ते की थकान भी तो है " ---तभी पीछे से गाँव की भौजाई बोल पड़ी ..... " आज रात का भी तो जागरण है न काकी "........ " चुप बेसरम " ..कह कर काकी हंस दी |
महेंद्र बाबू सजे धजे बहाने बहाने से कमरे का चक्कर लगा रहे थे | ...... तनिक एक झलक दिख जाए ......पर कैसे देख पाते इतना आसान थोड़ी था दुलहिन की झलक पाना .... हाथ भर घूँघट में छुपी थी मोहनी की मोहनी सूरत | " इंतज़ार करो बबुआ रात का ...उससे पहले मुलाकात न होगी " ....चंदा भौजी ने मुस्करा कर कहा |
मुंह दिखाई हुई | चाँद का टुकड़ा थी मोहनी दोनों बहुएँ एक से बढ़ कर एक थी | काकी के भाग्य को सभी ने सराहा | शादी ब्याह का धूम धडाका खतम हुआ |
जीवन पुरानी पटरी पर लौट आया | बडकी दुलहिन अभी देवरानी को काम में हाथ नहीं लगाने देती ,बाकी का काम काज तो करने को तमाम लोग थे , पर रसोई अपने हाथ से बनाती चंदा बहू |
कई बार मोहनी ने कहा भी ..... " जिज्जी अब हमको भी बताइए कुछ करने को बैठे बैठे ऊब होती है " ... " नहीं अभी नहीं अभी कुछ दिन हँस खेल लो फिर तो ई खटराग करना ही है " |
छह महीने तक काकी के लाख कहने पर भी चंदा ने मोहनी से कोई काम नहीं करवाया |
बहुत दुलारती अपने देवरानी को |
फिर धीरे धीरे मोहनी भी सब सीखती गई बड़ा मेलजोल था दोनों में मिलजुल कर काम निपटाती , जब दोनों बहुएँ सास के पांव दाबती तो काकी मन ही मन भगवान को प्रणाम करती , घर भर गया था उनका |
साल बीतते बीतते मोहनी बहू ने खुशखबरी भी सुना दी |
मारे ख़ुशी के काकी का कंठ भर आया ..केदार बाबू ने जब सुना वो बाबा बनने वाले है ..कुछ देर चुप रहे फिर दोनों हाथ आकाश की ओर उठा इशारा किया सब उपरवाले की महिमा है आँखे नम थी ख़ुशी से ..चंदा बहू तो देवरानी को हाथ में पानी का गिलास भी थमाती | डाक्टर को दिखाने ले गई .....माँ बच्चा दोनों ठीक है कह कर डाक्टर चंदा से बोली .. "क्या हुआ आपके पति ने अपना टेस्ट करवाया ,आजकल मेडिकल साइंस बहुत आगे है बहुत से तरीके है दवाएं है --आपकी गोद भर सकती है --हां एक बात आपसे पूछना है --आपके और आपके पति में कोई मनमुटाव तो नहीं है ? " ............. " अरे नहीं डाक्टर दीदी " ........कह कर वह चुप हो गई |
छोटकी दुलहिन का सतवासा पूजा गया | खूब गाना बजाना हुआ | बड़ी धूमधाम से मोहनी की गोद भरी गई |
चंदा सबके सत्कार में लगी रही सब अच्छे से सम्पन्न हो गया | समय पूरा होने पर सुंदर स्वस्थ बेटा हुआ | हफ़्तों बधाई बजी ,मिठाई बाटी गई ,गरीब गुरबा में दान पुन्य हुआ |
अब कभी कभी बडकी बहू जिंदगी के खालीपन को सोचने लगी ,सोचती कैसे कहूँ इनसे -एक बार डाक्टर को दिखा कर जांच करा लो --हफ्ता भर बाद आज रूद्र बाबू बब्बा की बखरी से घर आये थे खाना खा कर कुछ देर बाप भाई से बतियाये फिर सोने के लिए कमरा में आ गए , बड़ी हिम्मत जुटा कर चंदा ने कहा ... ...."आपसे एक बात कहनी थी " ........." कहो क्या कहना है " ..बड़े मनुहार से पति की बांह थाम कर धीमे से बोली ....."आप अपनी जांच करवा लीजिये ...हम डाक्टरनी को दिखाए थे उन्होंने ही कहा है " इतना सुनते ही भडक गए रूद्र बाबू , जैसे बिच्छू ने डंक मार दिया हो ..." बड़ी निर्लज्ज हो तुम तनिक शरम नहीं आई ऐसी बात बोलते हुए ....हम क्यों जांच कराये अच्छा भला स्वस्थ शरीर है .....कमी तुम्हारे अंदर है ......बंजर जमीन हो तुम ....तुम्हारा तो मुंह देखने को भी मन नहीं करता " .......अवाक् रह गई चंदा क्या कमी है मुझमे ......" क्यों नहीं देखते हमारी ओर -क्या आप किसी और से प्रेम करते है .........बोलिए तो ? ".........." सोने दोगी या अभी उठ कर चला जाऊं ? " .......मुंह में आंचल ठूस कर रात भर कलप कलप कर रोई ......सुबह मोहनी जेठानी की लाल गुडहल सी आँखे देख कर समझ गई ..........काकी तो डबडबाई आँखे पोछ कर रह गई | उस दिन के गए रूद्र घर पन्द्रह दिन तक नहीं आये |
जब अपना कोई बस न हो सब उपरवाले पर छोड़ देना चाहिए |
चंदा को अपने पिता की बात बार बार याद आई आज .......उसने निर्णय लिया अब इस बारे में पति से कुछ नहीं कहेगी समय के हवाले कर दिया सब .....बार बार अपने स्त्रीत्व का अपमान सहन नहीं होता ,कोई जन्म का पाप ही होगा जो सब कुछ देके भी अधूरा रखा देवी माँ ने | कभी कभी देवर ,देवरानी की प्यार भरी छेड़ छाड़ , इस उमर में बाबू जी का अम्मा की बीमारी में बेचैन होना ,कभी कभी उसके मन में भी मीठी चाह जागती पर -----
जांव जेंवार नाते रिश्ते में सभी रूद्र और चंदा की जोड़ी को राम ,सीता की जोड़ी कहते ,बात भी सही है --- लम्बे चौड़े रूद्र प्रताप कसरती बदन झूमते चलते ,जिधर से निकलते क्वारी लडकियाँ तो छोडो ,बहुएँ भी घुंघट की आड़ से एक नजर झाँक ही लेती | और चंदा बहू वो जैसा नाम वैसा रूप गुणवंती सुशील बहू ,काकी काका के पुन्य कर्मो का फल ही तो है |
चंदा के मुख से कभी पति के लिये आह नहीं निकली | वो कमरे में ही आँख के आंसू तकिये में छुपा कर बाहर आती | अब कुछ कुछ काकी की तबियत भी ढीली रहने लगी | अब कोई चाह बाकी नहीं रही ,भगवान् ने कुवर कन्हाई भी खेलाने को दे दिए | पोते को बाबा दादी कुंवर कन्हाई ही बुलाते |
एक दिन काकी ने केदार बाबू से कहा ...... " सुनिए अब सब सुख देख लिए चार धाम की यात्रा पर ले चलिए अब सारी मान मनौती पूरी कर ले" | -
--" अभी कहाँ रुद्रा की अम्मा अभी तो रूद्र प्रताप की संतान का मुख भी देखना है ....चाहे उपरवाला एक बिटिया ही दै दे "..... "कह तो आप सही रहे है अब उपरवाला जो चाहेगा वो करेगा" |
काकी जानती थी यह असंभव है |
...सब कुछ चंदा बहू के हाथ सौंप समझा बुझा के सारा इंतजाम कर के दोनों यात्रा पर निकलने की तैयारी में लग गए |
घर के बाहर के काम के लिए भोला पंडित के बेटे को सहेज़ दिया , भोला पंडित तो अब रहे नहीं पर परिवार का मेलजोल बहुत है | पंडिताइन को केदार बाबू भाभी पुकारते | एक ही बेटा है उनका शिवेंद्र पाण्डेय --पन्द्रह बरस का था जब भोला पंडित सिधार गए |
उनकी बड़ी इक्छा थी ,,बेटे को पढ़ा लिखा कर सरकारी नौकरी में लगा दे , पुरोहिती करवाना नहीं चाहते थे सो बेटे की पढ़ाई लिखाई पर विशेष ध्यान देते |
और वह पढ़ाई में तेज़ भी बहुत था पहले नम्बर से पास होता ,दसवी में था तभी पिता का साया उठ गया पर |
पंडिताइन ने पति की इक्च्छा पूरी करने में कोर कसर नहीं छोड़ी |
आखिरकार शिवेंद्र पाण्डेय सरकारी नौकरी में आ ही गए | पास के शहर में नियुक्ति हुई वहीँ परिवार ले कर रहते ,महीने दो महीने में एक चक्कर घर का भी लगा जाते माँ के पास |
जब भी गाँव आते तो काका से मिलने हवेली जरुर जाते |
दूसरा घर था यह उनका | पिता के बाद काकी काका ने ही तो बहुत सहारा दिया माँ बेटे को ,जिसे दोनों निभाते भी थे , उस समय हालांकि रूपया पैसा अन्न पानी अगर खुला हाथ नहीं था तो भी माँ बेटे के लिए बहुत था ,फिर पंडिताइन सुघर थी हाथ दबा कर खर्च चलाती रही और समय पार हो गया |
काका ने शिवेंद्र के शहर में रहने का इन्तिज़ाम कर दिया और बीच बीच में हाल खबर ले ही आते या मंगवा लेते तो पंडिताइन भी निशचिंत रहती | .
..ऐसा था दोनों घर का हार व्योहार --अब जाते समय केदार बाबू ....ने सहेज़ दिया पंडिताइन भाभी को ......" रुद्रा को तो भौजी तुम देख ही रही हो बस पैसे से मतलब है घर से नहीं वह पुरनकी बखरिया में लफंगों की बरात बटोर के मठाधीशी करने में लगा है सुना है प्रमुखी लड़ने की तैय्यारी में है |
गाँव भर के बहेतू लौंडे लफाड़े और दिमाग चढ़ाए है उसका |
ख़ैर उसकी कोई बात नहीं --बस भौजी दुलहिन का ख्याल रखियेगा " -- पास खड़े शिवेंद्र को सहेजा--- " बेटा तुम दो चार दस दिन में चक्कर लगा लेना हिसाब किताब देख लिया करना ,अपनी बडकी भौजी से पूछते रहना दवा दारु के लिए " |---पंडिताइन बोल पड़ी " अरे भईया हम है परेशान न हो जाओ तुम दोनों पहली बार निकरे हो खूब घूम फिर के आना ....शिवेंद्र देख लेगा बीच बीच में छुट्टी ले कर .....पहली बार तो कवनव काम कहे हो तुम चिंता बिलकुल न करो हम सब संभार लेंगे " |
कम से कम महीना भर के लिए जा रहे थे उससे ऊपर भी हो सकता था | केदार बाबू का विचार था इस बार ठकुराइन को खूब घुमाएंगे जिंदगी भर ओरहन देती रही हमको अबकी सब शिकायत दूर कर देंगे सोच के बैठे थे रिश्तेदारी में भी हो आयेंगे बार बार कहाँ जाना हो पाता है |
चारधाम की यात्रा का तो छोटके बेटा महेंद्र प्रताप ने पक्का इंतजाम करवा दिया था |
टिकट की सारी बुकिंग से लेकर ठहरने तक ताकि माँ बाप को कोई परेशानी न हो |
दोनों बहुओं ने नाश्ता पानी साथ के लिए बाँध दिया था |--
-काकी ने महेंद्र और दोनों बहुओं को समझाया ...... "घर दुआर पर ध्यान देना वैसे पंडिताइन चाची है ही उनका बहुत सहारा है ऊ तो रहबे करिहै वरना बड़का भईया का कौन ठिकाना आवे न आवे -- ऊ तौ बब्बा की बखरी पर अड्डाबाजी मा लाग रहत है , अब एक अउर नवा नवा चस्का लाग है इलेक्शन का
बौराय गय है --देवी मईया सद्बुद्धि दें अउर का कही हम " | फिर दोनों बहुओं से बोली
,तुम सब तनिकौ चिंता न करना पंडिताइन का बेटवा है न ऊ सब बाहर के काम काज देखिहयं "
काका जानते थे छोटा बेटा महेंद्र प्रताप हिसाब में अभी कच्चा है इसीलिए यह जिम्मेदारी शिवेंद्र को सौंप दी थी |
--सब तरफ से निशचिंत हो कर केदार बाबू पत्नी को लेकर तीरथ पर निकल पड़े |
पंडिताइन चाची नियम से शाम सवेरे चक्कर लगाती हाल खबर लेती ..कभी कभी दोपहरिया को यही महेंद्र बाबू के कुंवर कन्हाई को खिलाते दुलारते सो भी जाती |
चंदा बहू और मोहनी चाची को सास बराबर सम्मान करती ,खाने पीने से लेकर लिहाज़ करने तक | शिवेंद्र भो दो चार दिन में आ कर हिसाब किताब भी देख जाते , आते ही आवाज़ लगाते -- "बडकी भौजी चाय नहीं पिलाएँगी "....मुंह लगे देवर थे चंदा बहू के , शहर वापस लौटेते समय कोठी जाकर कागज़ पत्र देखा और बोले ....... " भौजी आज जा रहा हूँ अगले हफ्ते फिर चक्कर लगाऊंगा ---कुछ मंगवाना हो तो बता दो छोटकी दुलहिन से भी पूंछ लो उन्हें कुछ मंगवाना तो नहीं ?" .
...नहीं शिवेद्र बाबू कुछ नही मंगवाना फिर महेंद्र बाबू है न "
शिवेंद्र पाण्डेय नौकरी पर वापस चले गए |
रूद्र प्रताप यही पुराने घर पर बड़का बरगद के तरे जमावड़ा लगाये राजनीत बूकते रहते |
रूपया पैसा की तो कोई कमी है नहीं , बस खान पान का दौर तो चलता ही आजकल तीन पत्ती भी का भी नया शौक पाल लिया था |
दोस्त अहबाब चुहल भी करते .. " रुद्रा भौजी बाट जोह रही होंगी जाओ नहीं तो खबर लेंगी " ..
. "अरे हमारे यहाँ औरते जबान नहीं खोलती तो खबर क्या लेंगी ..मर्द है भाई कोई मेहरा नहीं की हरदम जोरू का पेटीकोट पछारें " ....
.एक जोर का ठहाका गूंजता और फिर सब मस्त हो जाते लंतरानी हांकने और सुनने में |
महतारी बाप थे नहीं इसलिए रूद्र और भी आजाद थे हवेली से कोई मतलब नहीं जब कुछ चाहिए होता तो किसी को दौड़ा कर मंगवा लेते --कभी झूठे मुंह भी चंदा का हाल नहीं लिया |
ठाकुर काका और काकी को गए दस बारह दिन तो हो ही गये थे ,बीच में शिवेंद्र भी चक्कर लगा गए और सारी व्यवस्था एकदम फिट चल रही थी |
अचानक सुबह सुबह मोहनी के मायके से फोन आया बाबू जी की हालत ठीक नहीं जो मुंह देखना हो तो फौरन आ जाओ --
-" जल्दी ले कर जाओ महेंद्र बबुआ -नाही तो छोटकी दुलहिन रो रो कर प्राण दे देगी "....
आनन फानन में समान बंधा और गाडी निकाल कर महेंद्र प्रताप बेटे और मोहनी को लेकर ससुराल चले गए |....
यहाँ चंदा अकेली रह गई इतने बड़े घर में ,दिन तो आराम से कट जाता ,काम तो कुछ नहीं पर देखना तो पड़ता ही है ,मजूर धतूर का खाना पीना ,गाय गोरु की भी सुध लेती ही | , पर रात पहाड़ हो जाती |
पंडिताइन चाची सुबह ही आ जाती बीच बीच में अपना घर भी झाँक आती और अंधियारे खा पी कर बस सोने जाती |
वह चोरी चकोरी के डर से रात को घर अकेला नहीं छोडती ,चंदा बहू उनसे कही भी
" चाची यही सो जाएँ"......तब वह बड़े संकोच से बोली .... " दुलहिन दुई चार गहना गुरिया गाड़े है घर माँ कवनो खोद लई जाई तो का करब ---पतोहू सेवा न करी हारी बिमारी " ....चंदा बहू जोर हंसी ..... "गहना के लालच मा सेवा करिहे शिवेंद्र बबुआ की दुलहिन ? अरे नाही चाची ऐसा न सोचे " |
.लेकिन पंडिताइन घर पर ही सोने जाती और भोरे भोरे नहा धो कर माला जपते हुए आ जाती और
यहाँ चंदा बहू उनकी चाय तैयार रखती |
आजकल तो रात भर चंदा जागती इस अकेलेपन में जीवन का खालीपन उसे बार बार कचोटता |
रूद्र के बारे में अनगिनत ख्याल आते पति है उसका पर क्या ऐसा होता है पति ?
खुद से ही पूछती इतनी बड़ी कोठी में अकेली छोड़ कर वहां पड़ा है ,कई बार कहलवाया भी फिर भी कोई ध्यान नहीं दिया .|
...शीशे के सामने श्रृंगार कर खुद को निहारती ...ऐसी कोई कमी तो नहीं फिर क्यों ऐसा |
--अपने पेट पर हाथ फेरती मानो उसके अंदर उसकी अजन्मी संतान हो --दोनों आँखों से आंसू बहते रहते |
इस अकेलेपन में बहुत कुछ गुना चंदा ने ...उसे कभी सास ने तो कभी कुछ नहीं कहा ,पर गाँव और नाते रिश्ते की बड़ी बूढी औरते तरस खाती .... "परमात्मा इतना रूप गुन दिए लेकिन का फायदा बडकी दुलहिन को तो बाँझ बंजर कर दिये .... एक बिटिया दे देते तो कोख पवित्तर हो जाती "
....बाँझ बंजर शब्द तीर की तरह लगते और नासूर की तरह पीड़ा देते ...अनसुना कर मुस्कराती रहती चंदा और अकेले में आंसू पोंछ लेती ---सांय सांय करती कोठी के बंद कमरे में आज चीख चीख के रोई ..
.." क्या कसूर था हमारा भगवान ".... रोते रोते न जाने कब आँख लग गई उसकी , सुबह उठी तो सूरज चढ़ आया था चाची दरवाज़ा पीट रही थी .... " दुलहिन उठो आज बहुत देर तक सोई जियरा तो ठीक है न ? ".|
...."ठीक है चाची अरे बड़ी देर हो गई आँख लग गई आज " ....
चाची ने माथे पर हाथ रखा धधक रहा था आँखे लाल भभूका थी ...
. " ऐ दुलहिन चला डाक्टर का देखाय लेया " ...
." नाहीं चाची ठीक होई जाई बस सर में दर्द है गोली रखी है अभी ले लेंगे " .......
....दुसरे दिन शिवेंद्र पाण्डेय भी शहर से आ गये |
जब दो दिन तक बुखार नहीं उतरा तो चंदा बहू को डाक्टर के पास दिखाने भी ले गए |
हालाँकि जाने से पहले वह रूद्र प्रताप के पास भी गये और उनसे कहा ....... "रूद्र -भाभी की तबियत ठीक नहीं उन्हें डाक्टर के पास ले जाओ और रात को घर पर ही सोने आ जाया करो " ...
." अरे तुम दिखा लाओ शिवेंद्र ! तुम्हारी भी तो भौजी है फिर हम आजकल यहाँ बहुत जरुरी काम में फंसे है | घंटा भर को भी नहीं निकल सकते इलेक्शन आ रहे है प्रमुखी के फिर खेत बाग़ भी हमही देखते है |-तुम तो घर के ही हो फिर चाची भी तो है ही चंदा की देखभाल को " |
-रुद्रा और शिवेंद्र समौरी थे बचपन के साथी भाई की तरह प्रेम था |
चंदा को देख कर डाक्टर ने दवा लिख दिया और कहा "कमजोरी है --खानपान का ध्यान रखे बुखार नापते रहे और नोट कर लें --तेज़ होने पर माथा पर ठंडी पंट्टी जरुर रखे ....बुखार तीन दिन में उतर जाएगा " ....
.." चलो आराम करो दुलहिन हम है गरम हल्दी वाला दूध बना लाई तनी चाची बोली " |
शिवेंद्र दवा दे कर बाकी काम निपटाने चला गया |
दोनों माँ बेटे बहुत ख्याल रखते पर मौसमी बुखार था, आजकल फैला भी था फिर कई रात से चंदा का मन उलझ रहा था |
सास ससुर थे घर में देवर का छोटा बच्चा था तो मन बंटा रहता ,ह्रदय के घाव पर पपड़ी पड़ी रहती ,पर इस बार बीमारी और अकेलेपन में पति की उपेक्षा ने नासूर को कुरेद दिया |
जब मन पर बोझ हो तो कोई दवा भी असर नहीं करती | गोली के असर से बुखार उतर जाता फिर तेज़ हो जाता |
आज चाची यही बडकी दुलहिन के पास ही रुक गई बेटे को घर सोने भेज दिया | भोर चार बजे शिवेंद्र आ गये तो वह घर नहाने धोने चली गई ,चंदा को तेज़ बुखार चढ़ा था शिवेंद्र ठंडी पट्टी रखने लगे काफी देर बाद गोली और पट्टी के असर से बुखार उतरा | .....
. "अब कैसा लग रहा है भौजी ? ".....कह कर माथे पर हाथ रखा ,और कलाई थाम कर नाडी देखने लगे | -
-पुरुष का प्रथम स्नेहिल स्पर्श चंदा के लिए यह अनजानी सुखद अनुभूति थी ,न जाने क्यों आँख बरस पड़ी | ....
." अरे क्यों रो रही है अभी तबियत ठीक नहीं है कह कर आंसू पोंछ दिए " .....
पर कहाँ थमी आंसुओं की धार | ये बरसों से जमी पीड़ा थी जो बह रही थी |
न जाने कब शिवेंद्र ने उन्हें खुद में समेट लिया और वह उनके वक्ष से लग गई लता की भांति ,पता ही नहीं चला कब तूफ़ान आ कर गुजर गया |
अचानक होश आया तो शिवेंद्र झटके से उठ गये ..........
....." नाराज हो ? अपराध हुआ मुझसे " ........कह कर निगाह झुका ली .....
....... "कैसा अपराध शिवेंद्र बाबू हमे कोई अपराध बोध नहीं सम्पूर्ण हुए आज ...आज ही तो स्त्री होने का भान हुआ तुमसे कैसी नाराज़गी तुमने ही तो हमे स्त्रीत्व का मान दिया है .....अब मै अधूरी नहीं हूँ |
---सुनो !शिवेंद्र --लोग -सच ही कहते है आग और फूस साथ नहीं रखना चाहिए ,एक भी चिंगारी फूस पर पड़ी तो धधक उठती है अग्नि ............. अब यहाँ पता नहीं कौन आग था कौन फूस , जो भी हो पर इस अग्नि में आज मेरा अधूरापन बीते बरसों की पीड़ा सब भस्म हो गई .....हमने कोई पाप नहीं किया " |
--शिवेंद्र ने बड़े स्नेह से चंदा के माथे पर अधर रख दिए ........" चलता हूँ अब अम्मा आ रही होगी " ....कह कर मुस्करा दिया |
लाज से झुक गई चंदा की पलकें आज जाना नई दुल्हन के मुख पर लाली क्यों बिखरती है | आँखे मूंद कर लेट गई चंदा | .
.. "सो रही हो दुलहिन अब कैसी तबियत है ".....चाची की आवाज़ सुनकर उठ बैठी .....
.." अरे लेटी रहो दुलहिन हम चाय बनवा लाते है तुम मुंह हाथ धो लो फिर दवाई खानी है "...
. एक दो दिन में चंदा बहू एकदम ठीक हो गई |
सब राजकाज पहले की तरह चलने लगा |
अब बीच में मौका देख दिन दोपहर शिवेंद्र चंदा के कमरे में पहुँच जाते -
- हफ्ता दस दिन ऐसे ही बीत गया अब शिवेंद्र की छुट्टियाँ भी ख़तम हो गई--उन्हें वापस जाना था |
जाने से पहले एक बार चंदा से मिलना चाहते थे |
शाम को अम्मा जब घर गई तो किसी काम की ओट में कोठी पर आ गए ......
... "चंदा भौजी ! कुछ कहोगी नहीं ? कल हम जा रहे है " .
..." हां जानती हूँ शिवेंद्र ! और यह भी जानती हूँ की अब शायेद कभी मिलना न हो पर जितना समय हमारे हिस्से का था वह हमें मिल गया बस इतना बहुत है बाकी का जीवन बिताने को--.हो सके तो भूल जाना " |
...."क्या तुम भूल सकोगी ? --सुनो आखिरी बार कुछ मांगू दोगी ? "......
...." अपना सर्वस्व तो दे दिया तुम्हे --अब और क्या चाहिए " .....
.. " विदा का अंतिम चुम्बन " ---पल भर को दो जोड़ी अधर पल्लव छू भर गए |
--और शिवेंद्र चले गये पलट कर नहीं देखा ! डर था अगर पलट कर देखा तो दो आँखे उन्हें जाने नहीं देंगी |
कुछ ही दिन बाद मोहनी और महेंद्र बबुआ वापस आ गए उसके पिता की हालत अब सुधर गई थी | कुंवर कन्हाई के आने से घर भर गया पांच छह दिन बाद बड़े ठाकुर और ठकुराइन भी यात्रा से वापस आ गए |
अब पूरा घर भर गया था ,रूद्र प्रताप माता पिता का पाँव छूने भर को आये और बस घंटे दो घंटे रह कर वापस चले गये | काकी लाख रोकती रही पर उन्हें तो राजनीत का भूत सवार था |
सारे गाँव में प्रसाद बांटा गया |
बड़े ठाकुर ठकुराइन बहुत प्रसन्न थे |ठकुराइन काकी तो यात्रा के किस्से सुनाते नहीं थकती थी | कुछ दिन तक घर में गाँव भर की औरतें बहुएँ जुटती और काकी से यात्रा वृतांत सुनती |
दो महीने बीत गए |
अचानक एक दिन काकी ने गौर किया बडकी दुलहिन का चेहरा पीला पड़ गया है ....." तनी इन्हा आओ दुलहिन " ... चंदा को आवाज़ दी | पास आने पर बोली "काहे कमजोर हो गई तबियत ठीक नहीं है क्या ,खाये पिये में सदा से लापरवाह है ई दुलहिन ,देखो तो कैसन मुख पीला पड़ गया है " ...
.." अम्मा हम ठीक है "... कह कर चंदा बहू वहां से हट आई | पर कितने दिन छुपता |
जैसे जैसे दिन चढ़ते गये चेहरा चमकता गया एक नूर सा उतर आया चंदा के मुख पर |
अभी पता नहीं चलता था कुछ पर ,अक्सर कुछ न कुछ ऐसा हो ही जाता की काकी को कुछ खटक सा जाता |
एक दिन दोनों देवरानी ,जेठानी खाना खाने बैठी थी , चंदा बहू ने जैसे मुख में कौर रखा की पूरा उलट दिया --मोहनी जल्दी से पानी ले कर मुंह धुलाने लगी ." चलो तुम कमरे में लेट जाओ जिज्जी तुम्हारी तबियत ठीक नहीं " .............कमरे ले कर आ गई चंदा आँख मूंद कर लेट गई |
मोहनी बालों में तेल डालने बैठ गई सर दबाते हुये बोली ........" जिज्जी एक बात पूछूं ? " ....
"हां बोलो न "......."ये किसका है ".....आँख से इशारा किया पेट की तरफ | .
..." हमारा है सिर्फ हमारा मोहनी ".....कह कर मुस्करा दी | बड़े प्रेम से पेट पर हाथ फेरने लगी |
पूरा चेहरा मातृत्व की आभा से दिपदिपा उठा | मोहनी ने उठ कर जेठानी को लिपटा लिया |
"अब तुम आराम करो जिज्जी सब काम हम संभाल लेंगे और --तुम्हे भी हमे ही संभालना है न .......कुछ भी हो हम तुम्हारे साथ है " ....अब तो काकी को भी शंका नहीं रही पर उन्होंने कभी पूछा नहीं |
लेकिन ये बात छुपती कहाँ है ....नाउन कहारिन धोबिन सभी तो ताड़ गई और बात पूरे गाँव में फैल गई |
फुसफुसाहट शुरू हो गई ! लोग इसे केदार बाबू और उनकी पत्नी के तीर्थ का फल कहते ,पांच महीना बीत गया छठा चल रहा था ,अब तो पेट भी पता चलने लगा |
काकी ने बहू से कभी कुछ नहीं पूछा ,अलबत्ता खाने पीने का ध्यान रखती |
खबर गाँव की बूढ़ पुरनिया तक भी पहुँच गई वो कहती "कुच्छो होई सकत है दस बारह बरस बाद देखा तौ पथरे पर दूब जामी है बडकी दुलहिन कै कोरा भरि देहन परमात्मा ".|
--रूद्र प्रताप को भी बधाई मिलनी लगी --आस पास जुटे लड़के आ कर कहने लगे -रुद्रा भईया ! अब तो दावत देई का परी आप बाप बनने वाले है |
क्रोध में करिया नाग सा फनफनाते रूद्र प्रताप दन्न से अपने घर पहुँच गए और अंदर घुसते ही लगे चिघाड़ने ......" कहाँ है साली-- रंडी ---....अब पूछो न अम्मा अपनी चहेती दुलहिन से .....कहाँ मुंह काला करा के आई है...ई हरामजादी ....--छिनाल पेट फुलाए घूम रही है ..कुतिया साली बाहर निकल आज गला टीप देंगे ...काट डालेंगे इसकी बोटी बोटी ...इस पतुरिया को कभी हाथ तक नहीं लगाया और हम बाप भी बन गए .वाह ..बोल -किसका है यह पाप बोल सबके सामने "--
मारे क्रोध के धुआंधार गालियाँ निकल रही थी साथ ही मुंह से फेचकुर भी छूट रहा था |
उधर सामने वाले अपने कमरे में चंदा बड़ी सयंत बैठी थी | ---.रूद्र प्रताप चीख रहे थे ठकुराइन को मानो काठ मार गया था ---केदार बाबू बैठक में सन्न मारे बैठे थे |
--अचानक तिमंजिली कोठी की बड़की दुलहिन चंदा कुमारी निकल आई अपने कमरे से और दरवाजे के पास आकर खडी हो गई ..
.." काहे चीख चिल्ला रहे है आप का पूछना है ?तनिक धीरे भी पूंछ सकते है " ..
....इतना सुन कर तो आग लग गई रूद्र बाबू को एडी से लेकर चुनाई तक सुलग गए ..
...." देख अम्मा बेशर्मी इस रंडी की "......" हाँ अब बता किसके साथ किया ये कुकर्म "
.." मेरा है रूद्र प्रताप ,यह बच्चा सिर्फ मेरा है --यह पाप नहीं है .....तुम्हारे मुंह से बाँझ बंजर सुनते रहे कभी कहा नहीं ---आज सुन लो --- धरती कभी बंजर नहीं होती / बीज नपुंसक होता है /वरना रेगिस्तान और उसर में भी खर पतवार तो उग ही आते है " .|
.रूद्र -दात किटकिटा कर हसुआ ले कर दौड़े चंदा की ओर --
"दबा दें गला आज बध ही डालें इसको किस्सा ही ख़तम हो जाए हमेशा के लिए |
खोद के गाड़ देंगें इसे इसके पाप के साथ ही फुरसत मिलेगी कलंक से "....तभी छोटकी दुलहिन उनके सामने खड़ी हो गई ......" नहीं दादा उधर न जाओ " ........"अरे मोहनी मत रोको आने दो इन्हें --तनिक हमारी आँख में आँख मिला कर ई वेद मन्त्र तो उच्चार दें " चंदा बोली -- ...." ई बबूल का ठूंठ है छोटी न पाती न पल्लव बस काँटा ही काँटा "----
"सुनो ई तो कबहू हमार कलाई भी जोर से नहीं थामे ----ई कछु नहीं कर सकते इतनी हिम्मत नाही तोहरे जेठ में छोटी दुलहिन "--- "आज इनकी ताकत का तनिक सुख हमहूँ लई लें "
" सुनो रुको मत रूद्र प्रताप आगे बढ़ो हम खड़े है यही " .....मानो चंदा नहीं चंडी खड़ी हो ...
.काकी आगे बढ़ कर चंदा के पास पहुँच गई और अपनी बडकी दुलहिन को अंकवार में समेट लिया | एक तेज़ आवाज़ गूंजी --
.." हाथ मत लगाना बडके " ... .| माँ की आवाज़ सुन --
बस अवाक् से रह गए रुद्रप्रताप ......" अम्मा "....बस इतना ही बोल फूटे --
--चंदा की आँखों की ताब नहीं झेल सके और जहाँ से आये थे वही वापस लौट गए --
काकी ने एक महीने बाद बडकी दुलहिन का सतवासा पूजने का न्योता गाँव भर में भेजा --आज उसी की तैयारी में गाँव भर की औरते लगी है ,आखिर बाँझ बंजर में कोपल जो फूटी है -----

--- दिव्या शुक्ला


परिचय:

दिव्या शुक्ला 
जन्म- 31 -5 - 1962 को प्रतापगढ़ के राजनीतिक परिवार में 
निवास लखनऊ में 
रूचि -कवितायेँ एव कहानियां लिखना 
कथादेश , जनसत्ता , चौथी दुनिया ,निकट , अभिनव इमरोज ,अभिनव मीमांसा ,जनसंदेश आदि पत्र पत्रिकाओं में कहानियाँ एवं कवितायेँ प्रकाशित हुई 
सम्पर्क - दिव्या शुक्ला
B1/24 विनय खंड विधायकपुरम
--गोमतीनगर लखनऊ
pincode - 226010
लैंड मार्क -लाल बहादुर शास्त्री पार्क के सामने
Email - divyashukla.online@gmail.com
-----फोन नम्बर--09554048856

Thursday, March 09, 2017

राजनीति में महिलाओं की भागीदारी कम क्यों है ?





"राजनीति में महिलाओं की भागीदारी कम क्यों है ?"
 इस प्रश्न पर कुछ सम्मानित वरिष्ठ, युवा लेखिकाओं, महिला सामाजिक कार्यकर्ताओं के विचार आज फरगुदिया पर पढ़िए !
आदरणीय  सरला महेश्वरी जी, सुधा दीदी, वंदना शर्मा दीदी, कविता वाचक्नवी दीदी, मीना दीदी, किरन दीदी, विजय पुष्पम दीदी, उषा राय जी ...
प्रिय आभा बोधि जी, नाइस हसन जी, प्रत्यक्षा जी, आराधना सिंह, डॉ विभावरी, चंद्रकांता  सहयोग के लिए आप सभी का बहुत आभार!!


  

राजनीति में महिलाओं की भागीदारी
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"राजनीति में महिलाओं की भागीदारी का प्रश्न सीधे तौर पर नीति-निर्णायक निकायों में महिलाओं की भूमिका से जुड़ा हुआ है। इसमें महिलाओं की चिंताजनक स्थिति नीतियों को तय करने में उनकी भागीदारी की अनुपस्थिति का संकेत देती है । यह सत्ता में महिलाओं की भागीदारी से जुड़ा पहलू है ।
अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर महिला प्रश्न पर चली आ रही बहस और आंदोलनों का अपना एक लम्बा इतिहास रहा है।
महिलाओं में राजनीतिक शक्ति न्यस्त हो, यह कोई सिर्फ भारतीय मामला

नहीं है।इसका विरोध करने वाले इसे सवर्णों के द्वारा सब कुछ हथिया लेने की एक साजिश कहते हैं । लेकिन वास्तविकता में यह लंबे काल से दुनिया के जनतांत्रिक प्रशासनिक निकायों की एक साझा चिंता का विषय रहा है।इस पूरे इतिहास से हम सभी परिचित हैं।
हमारे देश में भी महिलाओं के राजनीतिक सशक्तीकरण का प्रश्न अचानक ही नहीं उत्पन्न हुआ है।1974 में महिलाओं की स्थिति के संबंध में तैयार की गयी रिपोर्ट में एक पूरा अध्याय ही महिलाओं की राजनीतिक स्थिति के बारे में था। और इसमें विशेष तौर पर इस बात का उल्लेख किया गया था कि महिलाओं की ख़राब स्थिति के लिये उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति के साथ ही उनकी राजनीतिक स्थिति भी ज़िम्मेदार है और इससे उबरने के लिये विधायक निकायों में आरक्षण के बारे में कहा गया था कि असमानता के वर्तमान ढ़ाचे को तोड़ने के लिये इस प्रकार का संक्रमणकालीन क़दम लिंग की समानता तथा जनतांत्रिक प्रतिनिधित्व के सवाल की दृष्टि से कोई पश्चगामी क़दम नहीं होगा, बल्कि यह वर्तमान व्यवस्था की तुलना में कहीं ज़्यादा बेहतर ढ़ंग से समानता और जनतंत्र के दूरगामी लक्ष्यों की सेवा कर सकेगा।
1974 की स्टेटेस रिपोर्ट, 1988 की राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना की संस्तुतियाँ और फिर 1995 में राष्ट्रीय महिला कन्वेंशन के प्रस्ताव में विधानसभा और संसद में महिलाओं के लिये 33 प्रतिशत आरक्षण की माँग को इसी रूप में देखा जाना चाहिये।
लेकिन चिंता की बात है कि आज तक महिला आरक्षण बिल अधर में लटका हुआ है।कभी ओबीसी के नाम पर तो कभी महिलाओं की योग्यता का सवाल उठाकर, कभी इसे प्रोक्सी पोलिटिक्स, यानी वाइव्ज ब्रिगेड के ख़तरे के रूप में, तो कभी घर-परिवार के टूटने के नाम पर लटकाया जा रहा है।
हमारे पितृसतात्मक समाज में राजनीतिक पार्टियाँ भी पुरुष-प्रधान समाज के स्थापित मूल्यों को प्रतिबिम्बित करती हैं जिसे सामाजिक-आर्थिक ढ़ाचे में बिना कोई ढांचागत परिवर्तन किये बदलना मुश्किल है।
पूरे विश्व में विधायिकाओं में सिर्फ 10.5 प्रतिशत महिलाएँ हैं और मंत्री पद पर सिर्फ 6.1 प्रतिशत महिलाएँ हैं। हमारे देश की स्थिति तो हमारे पड़ौसी देशों से भी बदतर है।
इस बात को समझते हुए भी कि सिर्फ आरक्षण ही सारी समस्याओं का हल नहीं है, मैं इस बात को कहना चाहूँगी कि सामान्य तौर पर वंचित और उत्पीड़ित महिला समाज में जितनी भी राजनीतिक जागृति पैदा होगी, उससे पूरे समाज के जनतांत्रिक रूपान्तरण की प्रक्रिया को ही बल मिलेगा।"

--सरला माहेश्वरी
पूर्व सांसद,राज्य सभा
लेखिका, अनुवादक




"​भारत बहुलतावादी देश है। भारतीय समाज बहुरंगी है। यहाँ बहुत तरह की विचारधाराएं हैं , मत वैभिन्य हैं - वामपंथ है, दक्षिण पंथ है, मार्क्सवाद है, समाजवाद है लेकिन एक सत्ता ऐसी है जिसे लेकर बहुत छोटे से तबके को छोड़ कर सब एकजुट हो जाते हैं ! वह है - पितृसत्ता। पुरुष वर्चस्व और सामंती अवधारणा। समाज के हर क्षेत्र में पितृसत्ता की रुग्ण जड़ें इतनी गहरी धंसी हुई हैं कि उसपर कोई नए फूल, कोमल पत्ते अंकुर निकलने की गुंजाइश नहीं रह गई है ! फिर भी उन जड़ों को सींचने में देश का एक बड़ा तबका जुटा है ! ऐसी स्थिति में स्त्रियों की भागीदारी कहाँ तक हो पाएगी।
समाज के किसी भी क्षेत्र में किसी भी तबके की सहभागिता सुनिश्चित करने के लिए सामाजिक व्यवस्था में वह प्रावधान होना चाहिए जो उस तबके को सहभागी बनाने में मदद करे।
हमारे देश में स्त्रियों को लेकर एक दुविधा बनी रहती है कि इनको कितनी आजादी दी जाए, जो पितृसत्ता के खिलाफ न जाती हो। थोड़े बहुत बदलाव को छोड़कर निर्णय लेने का अधिकार आज भी पितृसत्ता के हाथों में महफूज है, जो बड़े करीने से अपना खेल कर रहा है और जिबह होने वाली महिलाएं जान भी नहीं पाती कि उनके पर कतरे जा चुके हैं। जो जान-समझ पाती हैं, उन पर करारा प्रहार होता है। जो असहमति में मुंह खोलती हैं, उन पर चरित्रहीनता का फतवा जारी कर दिया जाता है !
धार्मिक संहिताएं सदियों से स्त्री को नियंत्रण और पाबंदियों में रहने का आदेश देती हैं और आज भी उसी लीक पर देश का नियन्ता वर्ग चल रहा है ।


राजनीति में सहभागिता का पाठ समभाव के बिना पूरा नही हो सकता । हमारे देश में घर से लेकर, स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, खेत-खलिहान और दफ्तरों तक में महिलाओं को कमतरी का अहसास कराया जाता है। स्त्रियों की सीमा रेखा आज भी घर परिवार की देहरी बना दी जाती है।
राजनीति में महिलाओं का प्रतिशत कम होना सिर्फ भारत की समस्या नहीं है ! पूरे विश्व में इसे देखा जा रहा है। पिछले दिनों अमेरिका में लेडी क्लिंटन अगर चुनाव जीत जातीं तो अमेरिका की पहली महिला प्रेसिडेंट होने का  इतिहास रचतीं।
राजनीति के लंबे इतिहास में महिला नेत्री उँगलियों पर गिनी जा सकती हैं। इंदिरा गांधी से लेकर सुचेता कृपलानी, भंडारनायक से लेकर मार्गरेट अल्वा तक अधिकांश ने सत्ता में जाकर भी महिलाओं की बेहतरी के लिए कोई बड़ा कदम नहीं उठाया। महिलाओं के हक़ में किसी भी बड़े फैसले को पारित होने में दशकों लग गए। कारण यह भी है कि उनकी आवाज़ सुनी ही नहीं गई, चाहे वह सुभाषिनी अली हों या वृंदा करात। परिवार के तहत आईं नेत्रियों ने सत्ता में ओहदा तो लिया पर पर्याप्त हस्तक्षेप नहीं किया। महिलाएं जब तक वर्ग, जाति और धर्म की फांस से बाहर नहीं निकलती तब तक राजनीति तो क्या घर में भी उनकी सहभागिता सार्थक और सम्मानजनक नही हो सकती है। धर्म का ध्वज वाहक बने रहने से पितृसत्ता ही मजबूत होती है। पितृसत्ता और स्त्री चेतना या स्त्री अस्मिता एक दूसरे के विलोम होते हैं।
पर यह भी बहुत बड़ा सच है कि राजनीतिक महत्वाकांक्षा की मारी महिलाऐं, देश के सामने कोई बड़ा आदर्श प्रस्तुत कर पाने में अक्षम रही हैं। सच तो यह है कि आजादी के इतने सालों बाद भी शुद्ध रूप से महिला अधिकारों के लिए पूरे देश की महिलाएं कभी एक मंच पर नही आ पाईं । ​​आरक्षण बिल लंबे अरसे से इस या उस कारण से पारित नहीं किया जा रहा है। ​
पर हाँ, ​इरोम शर्मीला का राजनीति में उतरना और ​युवा वर्ग का बेख़ौफ़ होकर अपनी बात कहना हममें एक उम्मीद जगाता है ! वह सुबह कभी तो आएगी ......"

--सुधा अरोड़ा
लेखिका, सामाजिक कार्यकर्ता





"इस मामले में एशियन देशों का हाल काफी बुरा है ! भारत में 'महिलाओं की राजनीति' में भागीदारी का प्रतिशत विश्व में 98 नम्बर पर है ! क्या ये आश्चर्य की बात नही कि युगांडा जैसा देश नम्बर एक पर है ? यह बात अलग है कि इंदिरा,सोनिया, जयललिता मायावती, ममता बनर्जी और महबूबा मुफ्ती आज के दौर की वे महिलाएं थीं या हैं जो अपनी अपनी पार्टी की प्रधान तक बनी ! बहुत सी महिलाएं है ऎसी जो राजनीति में अपनी छाप छोड़ गई पर आधी आबादी की हिसेदारी पर बात की जाए तो लगता है अब समय आ गया है कि जिस तरह से संविधान संशोधन द्वारा पंचायतों में हमारी हिस्सेदारी सुनिश्चित की गई उसी प्रकार हरेक दल को अब इस दिशा में विचार करना चाहिए कि देवगौड़ा सरकार द्वारा लाया गया महिला आरक्षण बिल लोक सभा में भी पारित किया जाए ! क्यों कि पुरुषों ने पॉलटिक्स को अपना ऐसा अखाड़ा बना डाला है जहां या तो स्त्रियाँ ऊँचे पदों तक आ नही पातीं या उनके खानदान की स्त्रियों के सिवाय ऊँचे पद पर किसी सामान्य स्त्री को टिकने ही नही दिया जाता अथवा उनके द्वारा 'नियुक्त' स्त्री मात्र स्टार प्रचारक मार्का शोपीस या कठपुतली बना कर रख दी जाती है ! अजब विरासत छाप राजनीति का दौर है यह !


जिस दिन भारतीय समाज की आखिरी स्त्री भी राष्ट्रीय राजनीति में अपना प्रतिनिधित्व,नितांत अपने दम पर कर पाएगी, उसी दिन इस मसले पर यह देश 98 के दयनीय पायदान से ऊपर कहीं आ पायेगा !
अब हाथ कंगन को आरसी क्या , हमारे उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनावों में महिलाओं की भागीदारी का आँकड़ा ही जरा देख लीजिए 17 वीं विधान् सभा की 403 में से 98 सीटें आधी आबादी को दी गई हैं मतलब 25 प्रतिशत से भी कम 😊 और इनमे भी इन दलों का हाल ये है कि अपनी अपनी बहुओं बेटियोंं में कितनी ही सीटें बाँट दी गई ! Bjp ने 370 में से सर्वाधिक 46 सीटें महिलाओं को दीं हैं , तो कॉंग्रेस की 105 सीटों में से मात्र 5 महिलाओं को मिलीं और सपा ने 299 में से सिर्फ 29 महिलाओं को टिकिट दिए हैं और बसपा जिसकी मुखिया एक महिला ही है वहाँ टिकिट बंटवारे में महिलाओं की सबसे बड़ी उपेक्षा की गई यहाँ हाल ये कि 400 सीटों पर सिर्फ 21 महिला प्रत्याशी हैं तो भाई ये तो सच्चाई है इस् सदी में भारतीय राजनैतिक परिपेक्ष्य में महिला हिस्सेदारी का !
इसलिए स्वाभाविक है हमारा ये लगना कि 20 साल की अपनी यात्रा में जो महिला आरक्षण बिल राज्यसभा से आगे नही जा पाया है उसे अब आगे बढ़ाया जाए क्यों कि अधिकार माँगने से मिल नही रहा है दोस्तों 😊 ये सोच पाना असम्भव न् हो तो कठिनतर अवश्य हो चला है कि कोई स्त्री नितांत अपने दम पर उठे टिके और बढ़ती चले और राष्ट्रीय राजनीति में भी ऊंचाइयों तक पहुँचे , बिना किसी बड़ी आर्थिक बैकग्राउंड के, बड़े घरानों या पारिवारिक पृष्ठभूमि के या अन्य प्रकार की बैसाखियों के और तमाम राजनैतिक दुश्चक्रों,कलंक कथाओं,उठा पटक, बाधाओं को पार करती हुई अपनी सामर्थ्य ,चाह और देश के प्रति अपनी अभिलाषाओं स्वप्नों को साकार कर सके ! क्यों कि राजनीति का सबसे बड़ा उद्देश्य देश समाज की सेवा ही तो है ! पर अफ़सोस प्रायः उनके ये उद्देश्य क्षरित होते हैं प्रधानी से लेकर मंत्री पद तक जाते जाते उनकी ये यात्रा कठपुतली से सत्ता तक की रह जाती हैं और "सत्ता कभी स्त्रीलिंग नहीं होती " 😊 प्रायः स्त्री होने का जरूरी दायित्व कहीं पीछे छूट ही जाता है इसलिए मैं उन महिलाओं के प्रति बेहद आदर सम्मान बल्कि श्रद्धा से भरी हूँ जिन्होंने दूर दराज के उपेक्षित इलाकों , स्त्रियों , दलितों और आदिवासियों के प्रति अपने सेवा संकल्प को किसी राजनैतिक दलदल में न् धंसने दिया , न् झुकने दिया , वे न् कठपुतली बनी और न् अपनी ही महत्वाकांक्षाओं की बलि चढ़ीं ! इसके विपरीत उन्हें अपने वे पवित्र ध्येय हमेशा स्मरण रहे जिनके कारण वे इस क्षेत्र में उतरीं थीं !

---वंदना शर्मा
कवयित्री




"राजनीति में महिलाओं की भागीदारी सामाजिक संरचना पर काफ़ी कुछ निर्भर करती है । मार्था नसबौम जैसा कहती हैं कि-स्त्रियों के राजनीतिक भागीदारी की क्षमता में एक महत्वपूर्ण अवरोध हिंसा का ख़तरा है ।
पित्रसत्तात्मक समाज अनेक तरीक़ों से स्त्रियों को दबाता कुचलता है । घरेलू हिंसा , यौन शोषण , साक्षरता दर का कम होना , इन सब कारणों ने भी स्त्रियों के आर्थिक और राजनीतिक अवसरों पर अपना प्रभाव डाला है ।

स्त्रियों की सामाजिक और राजनीतिक स्तरों में सक्रिय भागीदारी की क्षमताओं को कम किया है ।

स्त्री सशक्तिकरण  के पहल के बावजूद अब भी संसद में स्त्रियों की भागीदारी सिर्फ़ बारह प्रतिशत है । पंचायतों में भी स्त्रियाँ proxy नेता , मुखिया ही हैं । फिर भी नियमों का विसरण और व्यापन ही सामाजिक जड़ता को तोड़ने का काम करेगा । स्त्रियाँ जितनी आत्म निर्भर होंगी , जितना स्वाभिमान और साहस से भरीपूरी होंगी उतना ही सार्वजनिक स्पेस को क्लेम् करेंगी , राजनीतिक और सामाजिक दायरों पर अपना दावा पुख़्ता करेंगी |"

--प्रत्यक्षा सिन्हा
लेखिका 





"शिक्षा ,खेलकूद ,चिकित्सा ,इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी,फ़िल्में ,बैंकिंग ,व्यापार ,अंतरिक्ष , सेना और यहाँ तक की अंडर वर्ल्ड में भी महिलाएं पुरुष के कन्धे से कन्धा मिलाकर चल रही हैं ,यहाँ तक कि युद्ध रिपोर्टिंग जैसे साहस भरे कामो को अंजाम दे रही हैं और अपना आप मनवा रही हैं ।राजनीति जैसे क्षेत्र में उनकी आम दरफ्त कम क्यों है यह एक शोध का विषय हो सकता है ।सफाई कर्मी से लेकर देश के सर्वोच्च पद तक स्त्री ने पूरी निष्ठा और ज़िम्मेदारी से भागीदारी की है लेकिन फिर भी राजनीति में पूर्ण कालिक सक्रिय महिलाएं उंगलियों पर गिनी जा सकती हैं । देश की आधी आबादी के सक्षम होने के बावजूद राजनीति में उनकी भागीदारी दाल में नमक के बराबर ही है ।
राजनीति में महिलाओं की भागीदारी मात्र कागज़ों और बहसों तक सीमित रह जाती है ।महिला आरक्षण विधेयक आज तक लागू नही हो पाया ,नही तो जैसे अन्य क्षेत्रों में स्त्रियां अपनी सक्षम भागीदारी सुनिश्चित कर रही हैं वैसे ही राजनीति में भी कर पातीं।यदि कोई सीट महिला के लिए आरक्षित नही घोषित की गयी हो तो सामान्य सीट अमूमन किसी पुरुष उम्मीदवार को ही दी जाती है ।गांव पंचायत जैसे छोटे चुनावों में भी यदि महिला सीट है तो प्रधान महिला भी जनरल मीटिंग्स में नही जाती है या नही जाने दिया जाता है ।उसका पति ही या ससुर ही प्रधान कहा जाता है ।जबकि महिला प्रधान जहाँ कहीं थोडा दबंग होती हैं उस क्षेत्र का विकास अनुपात में कहीं

अधिक हुआ होता है ।
हकीकत यही है कि आधी आबादी अभी तक अपनी मूलभूत आवश्यकताएं ही नही पूरी कर पा रही है तो पूर्णकालिक राजनीति कैसे कर पायेगी ! ये अलग बात है कि इंदिरा गांधी जैसी महिला देश की प्रधानमंत्री रही लेकिन उसके पीछे उनकी सलाहियत कम और नेहरू परिवार से होने का आभामण्डल अधिक प्रभावी था ।ऐसे ही नज़्म हेपतुल्ला ,तारकेश्वरी सिन्हा ,मोहसिना किदवई ,या शीला दीक्षित भी अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि की वजह से आगे आ पायीं ।अन्य महिलाएं जो किसी प्रदेश में मंत्री या मुख्यमंत्री या किसी अच्छे पोर्टफोलियो में रहीं ,उनके पीछे भी परिवार या किसी न किसी समर्थ व्यक्तित्व का हाथ रहा ।

हालाँकि राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर अच्छी खासी तादाद महिला प्रतिनिधिओ की है फिर भी ज़िम्मेदार पदों पर कुछ ही महिलाएं हैं ।साथ ही राजनीति में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी न होने में ,इस क्षेत्र में बढ़ता प्रदूषण भी है ।यदि कोई दबंग लड़की या महिला यहाँ आना भी चाहती है तो परिवार वाले असुरक्षा और पीठ पीछे होती आलोचना और भद्दी बातों को देखते हुए जाने की अनुमति नही देते ।यदि विरोध करके किसी तरह आ भी जाये तो राजनीति के खुर्राट भेड़िये साबुत निगल लेने को तैयार बैठे मिलते हैं ।स्त्रियोचित संकोच ,आर्थिक पराधीनता ,चुनाव में होने वाले अंधाधुंध खर्चे भी यहाँ आने से पहले बार -बार सोचने को विवश करते हैं ।
समय की मांग यही है कि अधिकाधिक महिलाएं राजनीति में आएं और महिला विषयक कानूनों को पारित करने में अपना योगदान दें ,तभी आधी आबादी का दर्द कुछ कम होगा ।"

विजय पुष्पम्
सी 35 ,एच .ए.एल.टाउनशिप
फैज़ाबाद रोड 226016
(09415516679)




ऐसी मुश्किल में लगन और अलख की काम आएगा
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"प्रकृति प्रदत संरचना को विस्तार देने वाली स्त्री को ही पीछे ढकेलने की राजनीति दुखद है। सोचनीय और निंदनीय यह भी है कि संसार कितनी तेज गति से आगे बढ़ रहा है। लेकिन इस संसार में, इस समाज में स्त्री अभी भी पुरूष के साथ या बराबरी की जगह पाने के लिए भागती हुई , खीसटती हुई तड़प रही है। तरस रही है। इस तरह राजनीति में महिलाओं की भागीदारी कम होने का सबसे महत्वपूर्ण कारण “बंदिश” हैं। बंदिशों की साजिशें हैं। पित्रसत्ततात्मक समाज महिलाओं को अपनी मिल्कियत समझता आया है। और लाख हजार कोशिशों के बावजूद वह महिला को अपनी जरुरत की सामग्री समझता रहेगा। अफसोस की उसमें भी साथ देंगी रहेगी औंरतें!

पुरुष ने ऐसा जाल बुना, जहाँ औरत ही औरत का विरोध करने के षड्यंत्र में भागीदारी लेती रहेगी। समाज के बुरी नजरों की दुहाई देते हुए, उसे डरा –धमका कर पीछे ढकेलता रहेगा समाज। इसे समझने के लिए कहीं दूरी जाने और सोचने की जरुरत नहीं। अपने घर-परिवार, अड़ोस-पड़ोस से वाकिफ होना ही काफी है। जिस समाज में बेटियों को देर रात बाहर रहने के अंजाम से डराया जाता है, उस समाज में राजीनीति में भागीदारी बहुत दूर की कौड़ी है । और तो और पिता, भाई, पति अक्सर उन महिलाओं को लांक्षित करते पाए जाते हैं, जिन महिलाओं ने अपनी मेहनत और लगन से समाज में अपनी जगह बनाई हों। तो कुल मिला कर स्त्री कुछ करे तो लांक्षन,और न करे तो कुढ़ मगज।

स्त्री को हमेशा मर्यादा की दुहाई देकर बरगलाया गया। ताकि समय बीतता रहे और दुनिया से अंजान स्त्री चूल्हें-चौके तक समीति रह, पुरूष की सेवा में तल्लीन रहे। पुरुष, दरअसल स्त्री प्रतिद्वंदी से भय खा कर ऐसा करता है। उसे इस बात को इतना घोट कर पिला दिया जाता है कि वह यदि स्त्री से हार गया तो वह पुरूष कैसा ? मर्दानगी की दुहाई में पुरूष जितना आगे बढ़ने और बढ़ाने की कोशिश में मन नहीं लगाता, उतना वह फेल ने हो, या प्रतिद्वंदी स्त्री से पीछे न रह जाए..इस बात को ज्यादा तवज्जो देता है? ऐसे समीकरण वाले समाज में स्त्री को मर्यादा की दहाई देना पुरुष के लिए सबसे सरल रास्ता है। और मर्यादा के नाम पर बौराई स्त्री –एक अच्छी बेटी, एक अच्छी बहन, एक अच्छी पत्नी और अंत में एक अच्छी माँ बन कर अपने जीवन की संपूर्णता पर इतरा उठती है। वह स्त्री एक वास्विक संपूर्णता का अनुभव करती है। इसमें भी कोई दो राय नहीं। अपने जीवन और अपने कर्तव्य से फारीग ।

यानि की वस्तु(स्त्री) को तंत्र के संचालन योग्य कैसे समझा जा सकता है! यह पुरूष प्रधान समाज, अपनी षड्यंत्री तरकीबों को तब तक अमल में लाता रहेगा, जब तक स्वय स्त्रियाँ जागेंगी नहीं! मान मरजाद को धता बता कर, खुद के लिए बेकल हो कर घर से बाहर भागेंगी नहीं। भागने का अर्थ स्पष्ट करना जरुरी नहीं। वह सवाल में निहित व संकलित है खुद। ऐसी स्थिति में स्त्री के लगन और अलख ही काम आएँगे...."

--आभा बोधिसत्व
9820198233
apnaaghar@gmail.com

  




"आज आजादी के इतने वर्षों बाद भी भारतीय राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बहुत कम है, इसका क्या कारण है ? ये सोचने का विषय है | आज देश में चारों ओर विकास  की बयार बह रही है | विकास  की इस बहती बयार ने भी महिलाओं को विशेष प्रभावित नहीं किया है | आज भी  आधी आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा अपनी मूलभूत सुविधाओं से दूर है | आवश्यकता है उन्हें विकास की मुख्य धारा से जोड़ने की, उनके लिए स्वस्थ माहौल मुहैया करवाने की ताकि वे  घरों से बाहर निकल कर समाज में अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकें| पर दुर्भाग्य इस बात का है कि इसके लिए जमीनी स्तर पर कोई प्रयास नहीं हो रहें हैं | घर हो या बाहर, दफ्तर हो या राजनीतिक क्षेत्र हर स्थान पर उनका शोषण होता है और वह अपनी बात खुल कर किसी से कह नहीं पातीं |  उनके लिए हमारे पितृ सत्तात्मक समाज ने अनेकों लक्ष्मण रेखाएँ खींच रखी हैं, ढ़ेरों बंदिशे और बाधाएं खड़ी कर रखी हैं ताकि वो उन्हीं में उलझी रहें और उनके बाहरी क्षेत्र में दखल ना दे सकें जिससे पुरुषों का वर्चस्व बना रहे, और अगर कोई महिला इन तमाम बंदिशों और दायरों को पार कर बाहर निकल अपना आस्तित्व साबित करने का प्रयास करती भी है तो हमारे पुरुष वर्चास्व समाज में उन्हें  चरित्रहीन साबित करने की होड़ लग जाती है, ताकि उन लांछनों से

शर्मशार होकर वे  अपने बढ़ते हुए कदम वापस खींच लें | हालाकि कई महिलाओं ने पुरुषों द्वारा खींची गयी लक्ष्मण रेखा को पार कर समाज में अपनी उपस्थिति मजबूती से दर्ज कराई है पर इनकी गिनती बहुत कम है |  आज भी देश में महिलाओं के लिए समुचित शिक्षा व्यवस्था नहीं है | महिलाओं की साक्षरता दर बढ़ी है फिर भी वह पुरुषों की साक्षरता दर से कम है |
भारतीय परिवारों की तरह भारतीय राजनीति में भी पुरुषों का दबदबा रहा है और वही राज करते आये हैं बावजूद इसके इंदिरा गाँधी ने पन्द्रह वर्षों तक प्रधानमंत्री के पद पर आसीन रहीं |
आज जरूरत है देश की आधी आबादी को मुख्य धारा से जोड़ने की | जरूरत है उनके प्रति अपना नजरिया बदलने की | अगर इन्हें अवसर मिले तो वह बहुत कुछ कर सकती हैं | महिलाएं एक समय  में एक से अधिक विषयों पर सोच सकती हैं, एक साथ एक से अधिक कार्य कर सकती हैं जब कि पुरुष एक समय  में एक ही कार्य करता है वो भी तब, जब उसकी पत्नी उसको उसके कार्य क्षेत्र के लिए पूरी तरह तैयार कर के भेजती है |
कुल मिला कर महिलाओं के साथ बहुत भेदभाव किया जाता है | उसकी स्थिति में आज भी कोई बहुत विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है । हर स्थान पर पुरुषों का दबदबा है घर, दफ्तर हो या राजीनीति ! कहीं भी महिलाओं के लिए स्थितियां सामान्य नहीं हैं ।
 महिला आरक्षण बिल के अनुसार संसद और राज्य की विधान सभाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण की व्यवस्था है परन्तु वास्तविकता इससे अलग है ।
और अंत में राजनितिक पार्टियाँ महिलाओं को एक बड़ा वोटबैंक तो मानती हैं पर प्रत्याशी के रूप में उन्हें टिकट देने से हिचकिचाती हैं । यही सब कारण हैं कि राजनीति में महिलाओं की भागीदारी कम है ।"

--मीना पाठक





"प्रथम तो राजनीति एक सार्वजनिक क्षेत्र है, और मध्ययुगीन परम्परा से सार्वजनिक क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी सीमित रही है। यद्यपि 20 के दशक के उत्तरार्द्ध में यह बढ़नी प्रारम्भ हुई किन्तु वह केवल कला और सौन्दर्य के क्षेत्र में, या स्पष्ट कह लें तो फिल्मों में और तत्पश्चात् सेवा और शिक्षा के क्षेत्र में अर्थात् नर्सिंग एवम् अध्यापन में।
दूसरा कारण यह कि राजनीति मुख्यतः अनीति की शरणस्थली रहती आई है, जहाँ अपराध और कपट को या तो संरक्षण और प्रश्रय मिलता आया है अथवा उस से संघर्ष और जय-पराजय। स्त्रियों की प्रकृति से यह सार्वजनिक समेकित द्वन्द्व मेल नहीं खाता।


तीसरे, समाज में कार्यों का विभाजन इस प्रकार का रहता आया है कि स्त्री परिवार और गृहस्थी की धुरी होती है, वह परिवार और सन्तान से सम्बन्धित दायित्वों से इतना अवकाश और छूट नहीं पाती कि वह निरपेक्ष भाव से ऐसे किसी अवसर /अध्यवसाय को समय दे सके।
चौथा, कई अर्थों में यह 'महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं' भी माना/कहा जा सकता है। जिन परिवारों की पद-प्रतिष्ठा और सुरक्षाकवच-सा स्त्रियों को मिला उन परिवारों की स्त्रियाँ मुख्यतः राजनीति में आईं भी।

पुरुषों के वर्चस्व वाले क्षेत्र में स्त्री का स्थान बनाना भी स्वयम् में चुनौती है। तभी तो संसद में आरक्षण का प्रस्ताव तक पुरुष वर्चस्ववादी दलों ने लाने नहीं दिया। राजनीति में अपराधीकरण कम हो तो धीरे-धीरे यह अनुपात बढ़ेगा, या स्त्रियाँ अपराध की अभ्यस्त हो जाएँ तब भी बढ़ेगा। स्त्री-वर्चस्व बढ़ने ओर्र राजनीति के मानवीय पक्ष की अपेक्षा तब की जा सकेगी।"

- कविता वाचक्नवी

लेखिका  





"मेरे ख़याल से सामान्यतः हमारा समाज स्त्रियों में राजनीतिक समझदारी के विकास के अवसर ही उपलब्ध नहीं होने देता. इसके बावजूद यदि किसी महिला का रुझान सक्रिय राजनीति में हो गया तो घोषित रूप से अतिरिक्त समय और श्रम की माँग करने वाले इस क्षेत्र में आने पर महिला के समाज द्वारा उसके लिए निर्धारित भूमिकाओं से समझौता एक अनिवार्य शर्त बन कर उभरता है, लिहाज़ा महिलाओं के राजनीति के क्षेत्र में सक्रिय होने की

राह पुरुषों की तुलना में आसान नहीं रह जाती.

कह सकते हैं कि महिला के राजनीति में सक्रिय होने के लिए प्रबल इच्छा शक्ति के साथ-साथ धारा के विपरीत चल पाने का जज़्बा बेहद महत्त्वपूर्ण हो जाता है जिसके अभाव में अपनी सामाजिक, जैविक और पारंपरिक भूमिकाओं से बंधी महिलायें सामान्यतः इस क्षेत्र को प्रोफेशन के तौर पर नहीं अपना पातीं! एक ऐसे समाज में जहाँ टीचर, नर्स, डॉक्टर जैसे चंद प्रोफेशंस को महिलाओं के लिए मुफ़ीद माना जाता हो अगर कोई महिला राजनीति को अपना कार्यक्षेत्र बना भी ले तो ज़्यादातर मामलों में समाज उसे आत्मनिर्भर तरीके से काम कर पाने की सलाहियत नहीं दे पाता. देश की ग्राम पंचायतों में महिला आरक्षित सीटों पर निर्वाचित महिलाओं की जिम्मेदारियां और काम-काज का निर्वहन उस महिला के पिता, पति, भाई या बेटे द्वारा किया जाना बहुत आम है. इन हालात के बावजूद आज हमारे देश की विभिन्न राजनीतिक पार्टियों में कार्यरत जुझारू महिला नेताओं का होना इस बात का संकेत है कि यदि अवसर मिलें तो महिलायें बेहतर राजनीतिज्ञ साबित हो सकती हैं. महिलाओं की शख्सियत में इस आत्मविश्वास के विकास में निःसंदेह उनकी उच्च शिक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भरता की अहम भूमिका है. "

--डॉ विभावरी




"मुख्यधारा कि तरह राजनीति में भी महिलाओं कि उपस्थिति मिसिंग है .पॉलिसी मेकिंग और डिसीजन मेकिंग राजनीति के दो प्रमुख बिंदु हैं लेकिन महिलाओं का सामाजिकरण या वैचारिक कंडिशनिंग इस तरह से होने ही नहीं दी जाती वे राजनीति में भागीदारी का सोचें.राजनीति में स्वप्रेरित महिलायें कम हैं जहाँ हैं वहां भी या तो परिवारवाद का प्रभाव है या उन पर राजनीतिक उम्मीदवारी थोप दी गयी है. यह एक बड़ा कारण है कि स्थानीय निकायों में एक तिहाई आरक्षण के बावजूद महिलाओं कि राजनितिक उपस्थिति प्रभावी नहीं हो पायी है.

यह बात किसी से छिपी नहीं है की महिलाओं में नेतृत्व के गुण कूट कूट कर भरे हैं फिर भी उस नेतृत्व का दायरा उसकी होममेकर की भूमिका तक सीमित कर दिया जाता है.बाकी राजनीति का अपराधीकरण जैसे जुमले केवल महिलाओं को डराने के लिए हैं . जब महिलायें एक अपराधी समाज का सामना कर सकती हैं तो राजनीति का क्यूँ नहीं ?
जागरूक महिलायें खुद को राजनितिक भागीदारी के लिए तैयार करें तो कोई ठोस परिवर्तन हो .और उनकी यह भागीदारी निश्चित ही विकृत हो चुकी वर्तमान राजनीति से इतर एक स्वस्थ राजनितिक परिवेश का निर्माण करेगी."

--चंद्रकांता
लेखिका, सामाजिक कार्यकर्ता




"हमारे घरों में लड़कियों को सहेली के घर जाने तक के लिए झूठ बोलना पड़ता है,फोन पर बात करने,घर पर आने-जाने के हर पल का हिसाब देना होता है।  खुल के बोली गई बातों पर घर के ही तिलमिलाए लोगों के फ्रस्ट्रेशन से जूझना होता है।  हमारी शक्तियां हमारी संवेदनशीलता की वज़ह से इन छोटी-छोटी व्यर्थ की लड़ाइयों में इतनी ख़र्च हो जाती है कि हमारी उड़ानों की ऊँचाई,उनकी परिधि नि:संदेह घटती जाती है।लंबी,ऊँची

उड़ान भरने की हमारी महत्वकांक्षा को हमारे चरित्र से यूं गूँथ दिया जाता है कि अपनी महत्वकांक्षाओं को हम ख़ुद किसी संगीन गुनाह की तरह देखने लगते हैं। राजनीति ही क्यूं खेती,सेना,ड्राइवरी,व्यापार बहुत सी जगहों पर आधी आबादी आधी तो दूर एक चौथाई उपस्थिति भी दर्ज़ नहीं कर पाती।  
सुषमा स्वराज,मायावती,स्मृति इरानी जैसी और कुछ महिलाओं को अपवाद स्वरूप छोड़ दिया जाए तो बाकी महिलाएं चाहे वह गाँव की प्रधान हों,विधायक,सांसद हों उनके सरपरस्त उनके पति या परिवार का कोई सदस्य होता है और राजनीति में होकर भी उनका कोई निर्णय नहीं होता। उनका राजनीतिक अस्तित्व केवल नाम का होकर रह जाता है।"

--आराधना सिंह
कवयित्री 





"हमें राजनीति में वैसे ही उतरना चाहिए जैसे इरोम शर्मिला उतरी हैं। सोलह वर्षो तक अनशन पर बैठी रही इरोम ने जब राजनीति में उतरने का फैसला लिया तब उनके परिवार के सदस्य भी इस निर्णय से खुश नहीं हुए। देवी की छवि में रुढ़ होती जा रही लौह महिला का सामान्य जन में घुल-मिल कर काम करने के प्रति मणिपुर की जनता का एक हिस्सा सहज नहीं हो पा रहा था। जब लौह महिला के राजनीति में आने आने का स्वागत और विरोध हो रहा है तो हम तो सामान्य स्त्रियाँ हैं। हमारी राजनीति की राह और कठिन होगी। लोकतंत्र के इस सबसे बड़े उत्सव में क्या हम निर्णय को प्रभावित कर सकने की भूमिका में हैं? उम्मीदवार के रूप टिकट देना तो दूर की बात है, चुनावी घोषणा पत्रों में स्त्रियों को आकर्षित करने वाली घोषणाएँ गायब रहती हैं।


पिछले चुनावों में एक महिला उम्मीदवार (अपनी समझ से योग्य उम्मीदवार) के पक्ष में घर-घर वोट माँगने के दौरान आमतौर पर यह बात सुनने को मिली-‘‘ये (पति) जहाँ कहते हैं, हम वहीं वोट दे देते हैं।’’स्त्रियों में राजीतिक चेतना का अभाव दिखाई दे रहा है। राजनीति हमारे जीवन को प्रभावित करती है। यह एक मुख्य वजह है कि हम समाज में निर्णायक भूमिका में नहीं उतर पा रही हैं। बहन जी’ हों या ‘दीदी’ ये भी जब सत्ता में आती हैं तो हमें भूल जाती हैं क्योंकि आधी आबादी ‘चुनाव जिताऊ फैक्टर’ नहीं है। जनसत्ता समाचार पत्र की 6 मार्च की रिपोर्ट के मुताबिक मणिपुर में दो चरणों में होने वाले चुनावों में कुल दस महिला उम्मीदवार हैं। उत्तर प्रदेश में 344, पंजाब में 81, उत्तराखंड में 56, और गोवा में 18 महिलाएँ मैदान में हैं। इसमें भी कई महिला उम्मीदवार ऐसी भी हैं, जैसे मड़ियाहूँ सीट से माफिया डान मुन्ना बजरंगी की पत्नी सीमा सिंह मैदान में हैं। उस पर भाई लोगों की टिप्पणी है-‘‘सब जानत हैं कि भइया जी लड़ रहे हैं। भाभी का नामे भर है।’’ पंचायत चुनावों में स्थिति बेहतर है। वहाँ महिलाएँ विजयी होकर बहुत काम कर रही हैं। भले एक नया शब्द ‘प्रधान-पति’ भी चलन में आया हो। राजनीति में महिलाओं के लिए आरक्षण होना चाहिए। महिलाओं को अपने विरुद्ध हो रही राजनीति को समझना होगा, जिसकी शुरुआत परिवार से होती है और जो राष्ट्रीय स्तर तक पसरी है।


...किरण सिंह

लेखिका
3/226, विश्वास खण्ड, गोमती नगर

फोनः 09415800397





"भारत में महिला राष्ट्रपति प्रधान मंत्री यहाँ तक कि राजनीतिक दल की अध्यक्ष बनती है लेकिन यह परेशान करने वाली बात है कि राजनीति में महिलाओं की कुल भागीदारी महज़ 10.86 प्रतिशत ही क्यों है ? पंद्रहवीं लोक सभा इसलिये महत्व रखती है कि इसमें महिलाओं का प्रतिशत पहली लोकसभा से लेकर चौदहवीं लोक सभा तक सबसे ज्यादा है । एक अनुमान

के मुताबिक यदि महिला आरक्षण बिल पास हो जाता तो 543 सदस्यों वाली लोक सभा में महिला सांसदों की संख्या 61से बढ़कर 181के करीब हो जाती । मेरा मानना है कि न सिर्फ़ भारत में बल्कि वैश्विक पटल पर भी राजनीति में महिलाओं की भागीदारी अत्यंत आवश्यक है ।आजादी के बाद हमने कई समस्याओं पर मिशन की तरह काम किया और लक्ष्य को प्राप्त किया ।अत : हमें इस दिशा में भी सोचना और काम करना चहिये ।"

---उषा राय
लेखिका




" सियासत में औरतों की मौजूदगी कम होना काबिले फ़िक्र है। 2014 में हम 188 मुल्कों मे 117 वां नंबर रखते थे पर 1 फरवरी 2016 तक के आंकलन के हिसाब से अब 191 देशों में हमारा नंबर 144 वां हो गया है।

हिंदुस्तानी समाज में औरतों की कोई आज़ाद आवाज़ अभी भी नहीँ बन पाई है। राजनीति में महिलाओं का आना किसी निश्चित प्रक्रिया के तहत नहीँ हो पा रहा है । कुछ नेताओं की पत्नियाँ बेटियाँ मजबूरी में आ गई कुछ को किसी नेता की मौत के बाद जगह मिली। कुछ गलैमर के कारण आई।
कुल मिलाकर वंशवाद और वोट पॉलिटिक्स को ही बढ़ावा मिला है। उनका हिस्सा लोकसभा और राज्य सभा में सुनिशचित होना बहुत ज़रूरी है। ऐसा समाज को अधिक मानवीय और बराबरी पर आधारित होने के लिए निहायत ज़रूरी है।"




 ------नाइस हसन
लेखिका, महिला अधिकार कार्यकर्ता






प्रस्तुति: किरन सिंह
            शोभा मिश्रा







Wednesday, March 08, 2017

चले चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आई...!! - स्वाती



चले चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आई...!!







पढ़ा गया हमको
जैसे पढ़ा जाता है काग़ज
बच्चों की फटी कॉपियों का
चनाजोरगरमके लिफ़ाफ़े के बनने से पहले!
देखा गया हमको
जैसे कि कुफ्त हो उनींदे
देखी जाती है कलाई घड़ी
अलस्सुबह अलार्म बजने के बाद !

सुना गया हमको
यों ही उड़ते मन से
जैसे सुने जाते हैं फ़िल्मी गाने


सस्ते कैसेटों पर
ठसाठस्स ठुंसी हुई बस में !

भोगा गया हमको
बहुत दूर के रिश्तेदारों के दुख की तरह
एक दिन हमने कहा
हम भी इंसान हैं
हमें क़ायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर
जैसे पढ़ा होगा बी.ए. के बाद
नौकरी का पहला विज्ञापन।
-      अनामिका


  आज महिला दिवस है, इसके इतिहास में न जाते हुए भी हम जानते हैं कि एक औरत होने के नाते इस समाज में हमें रोज़ किन किन चीज़ों से जूझना पड़ता है। यदि हम हमारे लिए बनाए गए तौर-तरीकों से बाहर निकलना चाहते हैं, तो वह कितना संभव हो पाता है और कैसे... आज के दिन को आधी आबादी का दिवस कहूँ या कि आधी दुनिया के लिए प्रतीकात्मक उत्सव तय नहीं कर पाती। उत्सव कहने को इसलिए भी संगत पाती हूँ क्योंकि इसमें पुरुषों की भी सहभागिता रही है। मकसद पुरुषों से नहीं वरन गैरबराबरी की मानसिकता से लड़ना और जीतना है। आज के दिन कौन सी बात की जानी चाहिए, नहीं जानती, क्योंकि ये बातें तो रोज़ की जानी चाहिए और तब तक की जानी चाहिए जब तक व्यवहार के धरातल पर सभी इस बराबरी को जीने न लगें.. इन बातों को क्या कहा जाना चाहिए, यह भी नहीं जानती। अनुभवों को शब्दों के ज़रिए लिखित रूप से दर्ज करना क्यों ज़रूरी है शायद इसलिए कि ये ज्यादा लोगों तक पहुँच सके.. हो सकता है इन शब्दों से बहुतों को ऐतराज़ हो, हो सकता है कुछ लोग कहें कि ऐसा तो होता ही नहीं, पर हमें अपने अनुभवों को साझा करते रहना है क्योंकि ऐसा करके ही हम समस्याओं को उजागर कर पाएंगे और हमें समस्याओं को अनदेखा नहीं करना है और न ही किसी भी तरह के ग्लोरिफिकेशन में जीना है। हमें उन ग्लोरिफिकेशंस की निर्मिति को भी समझना है, बार-बार उसका हवाला देने वालों की मानसिकता को भी समझना है.. मुझे नहीं पता कि मैं जो कुछ भी कह रही हूँ या कि कहने जा रही हूँ, वह किसी पाठ की शक्ल ले भी पाएगा कि नहीं। यह भी नहीं जानती इसे पढ़ने वाले इसे किस तरह से लेंगे, क्योंकि ये कुछ अनुभव हैं, कुछ जिए हुए अनुभव, कुछ देखे हुए अनुभव बस्स...ये अनुभव अपने प्रस्तुत किए जाने की गढ़ावट में बेहद कच्चे हैं पर इन्हें कहना ज़रूरी है...
तुम लड़की हो न, तुम्हारा तो हो ही जाएगा.., तुम लड़की हो न, तुम्हारे लिखे को तो ले ही लिया जाएगा..., तुम लड़की हो न, तुम्हारी तो तारीफ़ की ही जाएगी...
ये जो 'तुम लड़की हो' से जोड़कर कुछ बातें ऊपर कही गई हैं, ये और इस क्रम में और भी कई बातें लड़कियों की छोटी बड़ी उपलब्धियों को डीमीन करने के लिए बार-बार कही जाती हैं। मुझे नहीं पता कि ऐसा कहने वाले ऐसा कहकर हमारे बढ़ते कदम रोकना चाहते हैं या कुछ और... इसे कहने वालों के लिए इसमे कुछ भी गलत नहीं है। वे कभी भी तनिक ठहर कर नहीं सोचते कि जो उन्होंने बड़ी सहजता से कह दिया है उसका असर उतना हल्का नहीं होता... यह उनकी मानसिकता को दर्शाता है, पर यह मानसिकता बनती कैसे है..
इन दिनों देश में एक अलग हवा चल रही है.. एक खास किस्म का डिस्कोर्स हर डिस्कोर्स को दबाने की कोशिश कर रहा है... मैं जब औरतों की बात करना चाहती हूँ तो मैं एक नागरिक की बात करना चाहती हूँ और जब नागरिक की बात करेंगे तो देश की बात भी करेंगे, समाज की भी बात करेंगे, उसके निर्माण की प्रक्रिया पर भी बात करेंगे... हम हर उस प्रक्रिया की बात करेंगे, उस पर  सवाल उठाएंगे जिसके ज़रिए एक पूरे इंसान को उसके लिंग/ जाति/ धर्म जैसी उसकी परिवेशगत पहचान में रिड्यूस कर दिया जाता है...हम उस सामाजिक कंडिशनिंग की बात भी हर बार करेंगे जिसके सहारे बड़ी कुशलता से सामान्य मानवीय व्यवहार/ संवेदनाओं को भी स्त्रियोचित/ पुरुषोचित के खेमे में बाँट दिया जाता है। समाज के भीतर सीमित कर दी गई सुंदरता की परिभाषा भी इस गैर-बराबरी को गाढ़ा करने में, स्त्रियों की भूमिका को एक फ्रेम में समेट देने में योग देती है।
बहुत सारी समस्याएँ हैं जो गडमड हो रही हैं पर मुझे कहना है। कुछ अजीब सा दोहरापन है इस समाज में। इस समाज ने कुछ 'मोरैलिटी' तय कर रखी है औरतों के लिए और उसकी चिंता पुरुष खूब करते हैं अपने घर की औरतों के लिए पर इस घेरे से बाहर की लड़कियों को वे एक 'देह' में एक 'ऑब्जेक्ट' में रिड्यूस कर देते हैं। यहाँ ऐसा कहते हुए मैं इस बात को स्पष्ट कर देना चाहती हूँ, जब ये पुरुष उस मोरैलिटी के दबाव में अपने घर की स्त्रियों के 'सम्मान' की चिंता करते दीखते हैं तो ऐसा नहीं है कि वे उन्हें पूरे इंसान का दर्ज़ा देने को तैयार होते हैं। मैं यों तो इस पूरी मानसिकता को, इस पूरी दिमागी व्यवस्था को खारिज करती हूँ पर सोचती हूँ कि उन्हें यह अधिकार दिया किसने, उनकी इस मानसिकता को बनाया किसने, क्या पेरेंटिंग और समाजीकरण की इसमे भूमिका नहीं है..? लड़कियों को जहां इस समाज और इसके भीतर के परिवार ने सहज और सच्चे व्यवहार व भावनाओं को भी गलत बता नियंत्रित करने की कोशिश की, वहीं लड़कों को क्यों नहीं सिखाया गया कि उनका हर वह व्यवहार गलत है, जिसके ज़रिए वो किसी को कंट्रोल करना चाहते हैं, वो 'किसी' कुछ भी हो सकता है, व्यक्ति, व्यक्ति की भावनाएं, स्थितियां कुछ भी... आज खबरों में लड़कियाँ सुर्ख़ियों में हैं क्योंकि वे विरोध कर रही हैं, पर ये बोलती लड़कियां इस समाज को हमेशा चुभती रही हैं, क्योंकि यह उनकी सीमित भूमिका, जिसे इस समाज ने तय किया था, से अलग व्यवहार है। यह उस 'स्त्रैणता (femininity)' अलग व्यवहार है, जिसका निर्धारण उसी मानसिकता ने किया है जो स्त्रियों को बड़ी चालाकी से सेकंड क्लास सिटिजन बना देती है।
आज़ादी इन दिनों देश का एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है, मैं इस नारे की पृष्ठभूमि में न जाते हुए अपने परिचय और परिचय से बाहर के उन लोगों से जो लिबरल होने का दावा करते हैं, जिनमे से कइयों ने मेरी आइडेंटिटी पर, मेरी नैशनलिटी पर कई दफे सवाल उठाए हैं, बस यह कहना चाहती हूँ कि लिबरल कह भर देने से कोइ लिबरल नहीं हो जाता। हमें हर रोज़ उन सब विषमताओं से लड़ना पड़ता है जिसे कंडिशनिंग के ज़रिए एक लम्बे समय से हमारे भीतर कुछ यों भरा गया है कि वे हमारे व्यक्तित्व का हिस्सा बन गए हैं।
इन दिनों देशप्रेम का भी उबाल चल रहा है। प्रेम यकीननन एक खूबसूरत भावना है। देश से प्रेम अच्छी चीज़ है पर राष्ट्र्वाद पर चल रही बहसों के इस दौर  ताज्जुब के साथ दुःख इस बात का है कि इस तरह की हवा देने वाले और इससे होने वाली नकारात्मकताओं का समर्थन करने वाली मानसिकता वाले एक स्त्री को उसी पैटर्न में देखते हैं, जिसे किताब के पन्नों में तो महिमामंडित किया जाता है पर जीवन में उसे एक अदद इंसान भी नहीं माना जाता... जब आप किसी की भावनाओं के साथ खेलते हैं, खेलना शायद अच्छा शब्द नहीं है यहाँ, बड़ी आसानी से उसे अपनी सहूलियत के हिसाब से ट्रीट करते हैं, जब आप समाज के एक तबके को अपने बराबर की जगह पाने से वंचित करते हैं, तो आप किस प्रेम की बात करते हैं, जब आपके लिए शब्द महज़ एक औज़ार होते हैं, जब आप किसी के भरोसे को उसकी बेवकूफी बताते हैं, जब आप जीने के लिए ज़रूरी सामान्य मानवीय संवेदनाओं की कद्र नहीं कर पाते तो आप किस प्रेम और बराबरी की बात करते हैं..
जिस समय को हम आज जी रहे हैं, वह कल इतिहास में कैद होगा। इस तरह हम एक इतिहास को बनते देख रहे हैं। जब एक लड़की को रेप की धमकी दी जाती है या कि जब एक स्त्री के साथ गलत व्यवहार किया जाता है और उसके विरोध के प्रतिउत्तर में एक दूसरी स्थिति ला दी जाती है, क्या अच्छा न हो कि गलत को गलत कहा जाए..इतना मुश्किल क्यों हो जाता है साथ मिलकर गलत को गलत कह पाना, वहाँ 'किंतु', 'परंतु' की जगह कैसे बना ली जाती है। आने वाली पीढ़ी यह सीखे कि हर इंसान अपनी परिवेशगत पहचान से ऊपर और पहले एक पूरा इंसान है.. क्योंकि हमारी पीढी ने तो यह नहीं सीखा है, वह सिर्फ स्त्री को देवी बनाने का श्लोकोच्चार करती है, व्यवहार के स्तर पर इसे सीखा जाना बाकी है .. आज हो रही हर तरह की हिंसा वाचिक/ शारीरिक/ मानसिक इस बात को पुष्ट करती है...
हमारे माननीय नेतागणों के बयान हमारे विज्ञापन/ सिनेमा इस बात को लगातार पुष्ट करते हैं कि उनकी नज़र में लड़कियों की ज़िन्दगी का अंतिम लक्ष्य क्या हो, उसका पालन नहीं करती लड़कियां रौंद दी जाएँगी, और घटनाएं भुला दी जाएँगी। सुरक्षा का हवाला दे कर यह मानसिकता बार बार स्त्रियों को अपने पंख फैलाने से रोकती है, इस मानसिकता द्वारा रची गई भूमिका से बाहर अपने लिए नई जगह गढ़ने से रोकती है। 'अच्छी लड़की' का झुनझुना थमा, 'देवी-पूजन' की परंपरा का हवाला देकर उसे एक अदद इंसान बनने से रोकने का काम यह मानसिकता लंबे समय से करती आ रही है। ज़रूरी है कि हम उन मानसिकता को समझें, उस मानसिकता को खाद-पानी देने वाली कंडिशनिंग को समझें जिसकी आड़ में लगातार गैर-बराबरी को पोसा जाता है।
इसलिए आवाज़ उठाते रहिए, सवाल करते रहिए बराबरी की माँग करते रहिए अपने अपने स्तरों पर क्योंकि बिना माँगे कुछ नहीं मिलता। बराबरी की हमारी यह लड़ाई काफी पुरानी है और हम इसमें बहुत आगे आए हैं। हालाँकि अभी हमें लम्बा सफर तय करना है, आर्थिक निर्भरता कम हो रही है, भावनात्मक निर्भरता जिसके सहारे हमें कमज़ोर किया जाता है, उससे भी हमें स्वतंत्र होना होगा। हमें गैर-बराबरी को सेलिब्रेट करने वाली मान्यताओं पर भी सवाल करना होगा। हमारे साथ-साथ बराबरी की इच्छा रखने वाले सभी लोगों को, अपने देश को सुन्दर बनाने की कामना रखने वाले सभी लोगों को एकजुट होना होगा ताकि सभी के लिए समानता व सम्मान के साथ जीने के स्वप्न को सच बनाया जा सके।
आखिर में, आलोकधन्वा की एक कविता पितृसत्तात्मक मानसिकता वाले लोगों के लिए:


तुम्हारे उस टैंक जैसे बन्द और मजबूत
घर से बाहर
लड़कियाँ काफी बदल चुकी हैं
मैं तुम्हें यह इज़ाज़त नहीं दूँगा
कि तुम उसकी संभावना की भी तस्करी करो...!!



--- स्वाती
शोधार्थी , कवयित्री
दिल्ली विश्विद्यालय - हिंदी विभाग 

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