Tuesday, May 19, 2015

प्रेक्षागृह में अकेले तुम - सुधा अरोड़ा





प्रेक्षागृह में अकेले तुम !
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एक युवा महिला अपने बुज़ुर्ग पति के खिलाफ आवाज़ उठा पायी ! लेकिन समाज की रूढ़ियों , रीति रिवाज़ों , अपने अनंत दायित्वों और ज़िम्मेदारियों से घिरी एक आम गृहिणी क्या करे -- जो समाज को बदलने का सपना दिखाने वाले अपने नामचीन पति जो सर्जक , रचनाकार, कलाकार हैं , से ताउम्र त्रस्त रहती है ! ऐसे पतियों के छिपे हुए मुखौटे को उतारने का साहस दिखाती है ये पंक्तियाँ ! 
---- सुधा अरोड़ा








 

प्रेक्षागृह में अकेले तुम !

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तुम -
एक महान कलाकार ,
रचनाकार, सर्जक !
आम जन के मसीहा
भटके हुओं के मार्गदर्शक
दीन दुखियारों के त्राणदाता !

एक प्रभामण्डल है तुम्हारे चारों ओर !
तुम्हारे ही कंधों पर है
समाज का पूरा दारोमदार
मंच पर शाल और श्रीफल से
नवाजते हैं तुम्हें
तुम्हारे मातहत और चाटुकार !


अपनी उस कलम पर नाज़ है तुम्हें
जो पूजी जाती है अखबारों में
जिनसे गढ़ते हो एक से एक सुंदर रचना
आखिर कैसे भूल जाते हो
घर की उस औरत को
जिसने तुम्हें गढ़ा ?


हां वही, तुम्हारी मां !
पड़ी है तुम्हारे आलिशान बंगले के
एक कोने में
नौ महीने तुम्हें कोख में रखने वाली
मां तुम्हारी
रोज राह तकती है
कि आकर बैठोगे उसके सिरहाने,
पर दरवाजे पर टकटकी लगाए
देखा करती है तुम्हारे आने-बाने


राह तकते
आंखें उसकी
मुंद जाती हैं एक दिन ,
झक सफेद कुरता पहने
चिता में आग देने चले आते हो !
फ्रेम मढ़ी तस्वीर पर
ताज़ा गमकते फूलों की माला चढ़ा
झोली भर भर संवेदनाएं बटोरते हो
अपने मातहतों और मुरीदों की


तुमने रचे अनोखे बिम्ब ,
रचीं उपमाएं ,
गढ़े प्रतिमान !
तुम्हारी बारीक नज़र ने देखे धूल के कण
अपने लान के लहलहाते पौधों पर
उन पर पानी का छिड़काव करते
फूल- पत्तियों को चमकाते
क्या तुमने कभी देखा
कितनी धूल जम चुकी है
तुम्हारे ही आंगन में
पचास साल पहले रोपे गए
उस जीते जागते पौधे के मन पर
जब अपने झक सफेद लखनवी कुरते को
इत्र से महकाते, बाल संवारते जाते हो
अपने नये उपन्यास की
नयी प्रेरणा से मिलने !



तुम ,
जो दोस्तों के सामने उसे प्राणप्रिये ,
बेगम बुलाने का स्वांग रचते हो,
कैसी हूक उठती है उसके मन में
कि कभी अकेले में भी
मुस्कुराकर बात करते उससे !
कभी धीमे से पुकारते
उसका वह नाम
जो उसके अम्मा बापू ने दिया था
चंद अक्षरों का वह प्यारा सा नाम
जिसे पचास सालों में
वह भूल चली है अब तो



इंद्रधनुष के सातों रंग
दिख जाते हैं तुम्हें कोहरे में भी
पर नहीं दिखता घर की दीवारों पर
एक कोने से दूसरे कोने तक
खिंचता वह फीका इंद्रधनुष
जिसके सारे रंग सोख लिए तुमने !
जो रंगों के सपने संजोए आयी थी
तुम्हारी देहरी पर
और धीरे धीरे तुमने उसे रंगो की
पहचान ही भुला दी !


बादलों और कोहरों में ढूंढते रहे
मनभावन आकृतियां
और घर आकर गरजते बरसते रहे
बादलों की तरह !


आसमान के बादल फटते हैं
तो खबर आती हैं अखबारों में
कि कितना विध्वंस हुआ धरती पर !
तुम्हारे भीतर का बादल बिला नागा
फटता रहा रोज़ उस मासूम पर ,
और अखबार तुम्हारी तारीफ में
कसीदे पढ़ते रहे !



प्रशंसाओं के झूठे अंबार में आंखें गड़ाए
कभी उसे भी देखा ?
जिसके सपनों में खौफ भर दिया तुमने
तुम्हारे सख्त हाथों की मार झेलकर भी
जो रसोई में जाकर देखती है
कि तुम्हारी ही पसंद का खाना बने हर रोज़ ,
ज्यादा तीखा, फीका !



अपनी सर्जना में
स्त्री की बराबरी और समानता का
झंडा गाड़ने वाले तुम !
जरा सोचकर बताना
कैसा लगता है तुम्हें
जब घर लौटकर उसी झंडे के डंडे से
उस स्त्री को धराशायी करते हो
जो अब भी
लाल पीले होते तुम्हारे चेहरे से
खौफ खाते हुई भी
नम आंखों और नाज़ुक उंगलियों से
तुम्हारा भूला हुआ रूमाल तहा कर
बाहर निकलते वक्त
तुम्हारे हाथों में थमा देती है !


अपनी संवेदना का डंका पीटने वाले
हे महान आत्मा
तुम्हारे ही घर के जीते जागते वाशिंदे
तुम्हारी संवेदना से अछूते क्यों रह जाते हैं !



सजाते हो अकादमियों के पुरस्कार और सम्मान
अपनी किताबों वाले रैक पर ,
पर उसे सम्मान दे पाए कभी
जिसने बनाया इन सम्मानों का हकदार तुम्हें ?
तुम्हारी विचारमग्न मुद्रा
और हाथ में कलम देखते ही
जो दरवाज़ा बंद कर देती ,
हुड़क देती चहकते बच्चों को
कि अपनी चहक बंद कर लें
और बच्चे दरवाज़े की ओट में दुबक जाते !


समाज में बढ़ते भ्रष्टाचार को
रोकने का प्रपंच रचते तुम
कभी अपने को आईने में देखना
सर्जक !
समाज के स्वयंभू नियन्ता !
कि जिस चेहरे को
साबुन क्रीम से महकाकर जाते हो
भवनों और संस्थानों में
अपने वक्तृत्व का जादू बिखेरने
उस चेहरे के पीछे का चेहरा
क्या कहता है !


देखो कविराज, कथाकार, सर्जक ,
कोमल भावनाओं के चितेरे ,
देखो !
झांको कभी अपने भीतर भी
मत भरमाओ अपने झूठे शब्दों
और उपमाओं से
प्रतीकों और बिम्बों से
इतनी बड़ी जमात को
कि ‘‘ प्रेम तो प्रेम है
उसे उम्र की सीमाओं में ,
नैतिक-अनैतिक में मत बांधो ,
बहने दो उसे निर्बाध .....’’

भवनों और विद्यालयों के प्रांगण में
इन्हीं प्रवचनों से तो
खड़ी कर ली जमात
जीती जागती प्रेरणाओं की !
कभी नहीं जागी तुम्हारी मुंदी चेतना
कि सब है एक बाहरी आवरण
सब है खोखला !
एक नाटक ! एक अभिनय !
और प्रेक्षागृह में अकेले तुम
प्रेरणाओं की ताल पर थिरकते हुए
समझ ही नहीं पाए
इतना बड़ा प्रवंचन !


आसमान पर कहां टंगे हो कविराज
समाज के अभियन्ता !
बहुत हुआ,
नीचे उतरो शिरोमणि !
तुम्हारे पैर तले की जमीन
तुम्हारी बाट जोह रही है
उस आसमान पर
समाज नहीं , चांद और तारे हैं
क्या कहा ? वही सब तुम्हारे हैं ?
तो फिर वहीं विराजो कविराज !
चैन से रहो उनमें लिप्त
धरती पर बसे समाज की चिन्ता से
हम करते हैं तुम्हें मुक्त !

हमारा समाज है यह ,
खुद निखारेंगे-संभालेंगे इसे
गढ़ेंगे-रचेंगे ,
दलदल में नहीं धंसने देंगे

आखिर तो
यह हम आम जन का समाज है
और तुम हो विशिष्ठ !
तुम वहीं विराजो कविराज !
गढ़ लेना वहां भी,
झूठी प्रेरणाओं का एक समाज,
हम अब ऊपर नहीं ताकेंगे,
जहां चांद और तारे हैं,
वहां तुम महफूज रहो !
यहां के सुख-दुख , राग-विराग
सब सिर्फ और सिर्फ हमारे हैं

---
सुधा अरोड़ा 

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